Tuesday, November 3, 2015

श्री भगवान् द्वारा अघासुर उद्धार
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दशक ५१
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कदाचन व्रजशिशुभि: समं भवान्
वनाशने विहितमति: प्रगेतराम् ।
समावृतो बहुतरवत्समण्डलै:
सतेमनैर्निरगमदीश जेमनै: ॥१॥

हे ईश! व्रज के बालकों के साथ वन में भोजन करने का मन में विचार कर के, एक बार, भोर बेला में, बहुत से गोवत्सों के समूहों से घिरे हुए, स्वादु खाद्य व्यञ्जन और भात ले कर निकल पडे।

विनिर्यतस्तव चरणाम्बुजद्वया-
दुदञ्चितं त्रिभुवनपावनं रज: ।
महर्षय: पुलकधरै: कलेबरै-
रुदूहिरे धृतभवदीक्षणोत्सवा: ॥२॥

चलने से आपके चरण कमल युगल से उठी हुई त्रिभुवन को पावन करने वाली धूल को ऋषियों ने पुलकित हो कर अपने शरीरों पर धारण किया और आपके दर्शन का उत्सव मनाया।

प्रचारयत्यविरलशाद्वले तले
पशून् विभो भवति समं कुमारकै: ।
अघासुरो न्यरुणदघाय वर्तनी
भयानक: सपदि शयानकाकृति: ॥३॥

हे विभो! जब आप कुमारों के साथ घनी घास वाले भूतल पर पशुओं को चरा रहे थे उस समय अघासुर ने अजगर की भयंकर आकृति धारण कर पाप कर्म करने के लिये मार्ग रोक लिया।

महाचलप्रतिमतनोर्गुहानिभ-
प्रसारितप्रथितमुखस्य कानने ।
मुखोदरं विहरणकौतुकाद्गता:
कुमारका: किमपि विदूरगे त्वयि ॥४॥

आप कुछ दूर आगे चले गये थे। उसके विशाल तन को पर्वत, और फैलाये हुए विशाल मुख को कन्दरा समझ कर, वे वन में विचरण करने के कुतूहल से कुमार उसमें घुस गये।

प्रमादत: प्रविशति पन्नगोदरं
क्वथत्तनौ पशुपकुले सवात्सके ।
विदन्निदं त्वमपि विवेशिथ प्रभो
सुहृज्जनं विशरणमाशु रक्षितुम् ॥५॥

बछडों के सहित गोपकुमारों के प्रमादवश अजगर के पेट में घुस जाने पर उनके तन जलने लगे। मित्र जनों के शरण ,  हे प्रभो! यह सब जानते हुए आप भी तुरन्त उनकी रक्षा करने के लिये अन्दर घुस गये।

गलोदरे विपुलितवर्ष्मणा त्वया
महोरगे लुठति निरुद्धमारुते ।
द्रुतं भवान् विदलितकण्ठमण्डलो
विमोचयन् पशुपपशून् विनिर्ययौ ॥६॥

उस विशाल अजगर के गले के भीतर आपने अपने शरीर को बढा लिया जिससे उसकी प्राण वायु रुक गई और वह छटपटाने लगा। तब शीघ्रता से आपने उसके कण्ठ प्रदेश को फाड डाला और गोपों और बछडों को छुडा कर निकल आए।

क्षणं दिवि त्वदुपगमार्थमास्थितं
महासुरप्रभवमहो महो महत् ।
विनिर्गते त्वयि तु निलीनमञ्जसा
नभ:स्थले ननृतुरथो जगु: सुरा: ॥७॥

अहो! उस विशाल असुर से निकला हुआ महान तेज क्षण मात्र के लिये आपके निकलने की प्रतीक्षा में आकाश में रुका रहा। आपके निकलते ही वह आप ही में विलीन हो गया। आकाश मे स्थित देवता नाचने और गाने लगे।

सविस्मयै: कमलभवादिभि: सुरै-
रनुद्रुतस्तदनु गत: कुमारकै: ।
दिने पुनस्तरुणदशामुपेयुषि
स्वकैर्भवानतनुत भोजनोत्सवम् ॥८॥

ब्रह्मा आदि देवता सविस्मय आपको देखते हुए आपके पीछे चलने लगे। दिन के तरुण दशा प्राप्त करने पर, अर्थात, मध्याह्न होने पर, आप गोप कुमारों और स्वजनों के साथ चले गये और भोजनोत्सव प्रारम्भ किया।

विषाणिकामपि मुरलीं नितम्बके
निवेशयन् कबलधर: कराम्बुजे ।
प्रहासयन् कलवचनै: कुमारकान्
बुभोजिथ त्रिदशगणैर्मुदा नुत: ॥९॥

आपने सींग और मुरली को अपने कटि प्रदेश में खोंस लिया और करकमल में ग्रास ले कर हास्यपूर्ण बातों से कुमारों को हंसाते हुए खाना आरम्भ किया। प्रमुदित देवगण आपकी स्तुति करने लगे।

सुखाशनं त्विह तव गोपमण्डले
मखाशनात् प्रियमिव देवमण्डले ।
इति स्तुतस्त्रिदशवरैर्जगत्पते
मरुत्पुरीनिलय गदात् प्रपाहि माम् ॥१०॥

' यहां गोप मण्डली के बीच भोजन करना ही आपको देव मण्डल में यज्ञ भोजन करने से अधिक प्रिय है'। हे जगत्पति! इस प्रकार देवों ने आपकी स्तुति की। हे मरुत्पुरी निवासिन! रोगों से मेरी सुरक्षा करें।

            –रमेशप्रसाद शुक्ल

           –जय श्रीमन्नारायण।संकलित

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