Saturday, April 30, 2016

🌹कृष्ण भजन 🌹
भरी उनकी आँखो में,है कितनी करुणा।2
जाकर सुदामा भिखारी से पूछो
टेक÷ है करामात क्या उनकी,चरणों की रज में,जाकर के गौतम कि नारी से पूछो
(1)कृपा कितनी करते है,शरणा गतो पे-2
बता सकते है यदि,मिलेगे विभिसण-2पतितो को पावन वो कैसे बनाते,जटायू सरिस मसाहारी से पूछो
(2)प्रभु कैसे सुनते है,दुःखियों कि आहें-2
तुम्हे ज्ञात हो राजा, बली की कहानी
निराधार का कौन, आधार है जग में,ये प्रश्न द्रुपद दुलारी से पूछो।
(3)छमा शिलता उनमे कितनी भरी है-2
बतायेगे भृगु जी,ओ सब जानते है
हृदय उनका भावो का है कितना भूखा, बिदुर सबरी से बारी बारी से पूछो ।।
बाबा जी अगर लिखावट में कोई त्रुटि होगी तो अपना बालक जान कर छमा चाहता हु जय महाकाल

अक्षय तृतीया का महत्व

१• आज  ही के दिन माँ गंगा का अवतरण धरती पर हुआ था। २• महर्षी परशुराम का जन्म आज ही के दिन हुआ था। ३• माँ अन्नपूर्णा का जन्म भी आज ही के दिन हुआ था। ४• द्रोपदी को चीरहरण से कृष्ण ने आज ही के दिन बचाया था। ५• कृष्ण और सुदामा का मिलन आज ही के दिन हुआ था। ६• कुबेर को आज ही के दिन खजाना मिला था। ७• सतयुग और त्रेता युग का प्रारम्भ आज ही के दिन हुआ था। ८• ब्रह्मा जी के पुत्र अक्षय कुमार का अवतरण भी आज ही के दिन हुआ था। ९• प्रसिद्ध तीर्थ स्थल श्री बद्री नारायण जी का कपाट आज ही के दिन खोला जाता है। १०• बृंदावन के बाँके बिहारी मंदिर में साल में केवल आज ही के दिन श्री विग्रह चरण के दर्शन होते है अन्यथा साल भर वो बस्त्र से ढके रहते है। ११• इसी दिन महाभारत का युद्ध समाप्त हुआ था।

       • अक्षय तृतीया अपने आप में स्वयं सिद्ध मुहूर्त है कोई भी शुभ कार्य का प्रारम्भ किया जा सकता है।
Edited.पं.मंगलेश्वर त्रिपाठी

Friday, April 29, 2016

जीवन-मर्म

        केवल तन ही नहीं "प्रभु" ने, अतिशय कृपा कर, हमें मन, बुद्धि, अहंकार आदि अन्य सुविधाओं से भी अलंकृत किया. जिसका प्रदर्शन हम आजीवन करते रहते हैं. इसके अतिरिक्त उनकी सबसे महान कृपा जो हम सब को यथा समय प्राप्त होती है वह है सद्गुरु मिलन.
        तुलसी के शब्दों में "बिनु हरि कृपा मिलहिं नहिं संता". इस प्रकार हरि कृपा से संतों के दर्शन होते हैं. सत्संगों से साधना प्रेरित होती है और अन्ततोगत्वा सच्चे साधकों को, प्रभु की कृपा से, सद्गुरु मिल ही जाता है और "गुरु पद पंकज सेवा " करके उन्हें "नवधा भक्ति" का एक और लक्ष्य प्राप्त हो जाता है.

सच्चे साधकों पर कितनी कृपा करते हैं "भगवान्" ! अब तो केवल यही कामना है कि प्रभु हमें सच्चा साधक बनाएं। हम समवेत स्वरों में, यह प्रार्थना प्रभु के श्री चरणों पर अर्पित करें -
"हे प्रभु मुझको दीजिये, अपनी लगन अपार
अपना निश्चय अटल रहे, अतुल्य अपना प्यार
शरणागत जन जानि कै कीजै मंगल दान
नमो नमो भगवान तू मंगल-दयानिधान।
Edited पं.मंगलेश्वर त्रिपाठी 🌻🌻

!!धर्मार्थ वार्ता समाधान संघ की संशोधित नियमावली !!
ॐसच्चा नामधेयाय श्री गुरवे परमात्मने नमः

     धर्मार्थ वार्ता समाधान संघ| की नियमावली 
~~~~~~~~~~~~|
जिसका पालन करना "धर्मार्थ वार्ता समाधान संघ"के सभी विद्वत आचार्यसदस्यों को अनिवार्य होगा।
धर्मार्थ वा०स० संघ-नियमावली
_______________________
१.सर्व प्रथम संघ के सभी आदरणीय श्रेष्ठ विद्वत आचार्य गणों से वार्ता करते समय उनके नाम के आगे सम्मान सूचक शब्द अवश्य लगायें।
२.श्रेष्ठ आचार्य गणों द्वारा छोटों को भी उचित सम्मान से ही संबोधित किया जाये।
३.आपसी शिष्टाचार एवम्
सौम्यता बनाते हुये सब से प्रेम पूर्वक सदाचार का परिचय दें |
४.किसी भी सदस्य के प्रति हीन भावना न रखते हुये सब को अपने परिवार का अभिन्न अंग माने।
५.किसी भी विद्वत सदस्य के ऊपर कोई भी ऐसी टिप्पणी न करें जिससे किसी का मन आहत हो या किसी को दुःख पहुँचे।
६.संघ के नाम एवम् प्रोफाइल फोटो से किसी प्रकार की छेड़खानी न करें यह कार्य संस्थापक महोदय एवं संचालक समिति के अंतर्गत आता है।
७.किसी भी प्रकार के अनावश्यक मैसेज न भेजें,जैसे चुटकुले, शाइरी,कॉमेडी या 'ये मैसेज 20 लोगो को शेयर करो शाम तक अच्छी खबर मिलेगी नहीँ तो आपका अनिष्ट होगा'_ इस प्रकार के मैसेज भेजना दण्डनीय अपराध माना जायेगा।
८.संघ में मात्र केवल सनातन धर्म,आध्यात्म,पुराण,
वेदोपनिषद् ,समस्त सनातन धर्म से सम्बंधित संग्रह ही भेजें। वह भी लिखित इमेज लेख न हो |
९.किसी भी सदस्य के प्रति हास परिहास,आपत्तिजनक टिप्पणी न करें,जिससे किसी भी प्रकार का विवाद हो।
१०.किसी भी सदस्य को अपनी विद्वता से निचा दिखाने का प्रयास न करें,बल्कि अपने ज्ञान को प्रेम पूर्वक प्रस्तुत करें।
११.किसी भी प्रश्न के ऊपर चल रही वार्ता समाधान  के वक्त दूसरे पोस्ट न भेजें |
१२.कोई भी चित्र या वीडियो फोटो भेजना विशेष मुख्य रूप से वर्जित है इसका विशेष ध्यान रखें |किसी भी सदस्य द्वारा इमेज या वीडियो भेजे जाने पर,महाकाल की खण्डपीठ के जरिये धारा ७२ की तहत तत्काल ७२ घंटो के लिये निष्कासित किया जायेगा |कारण स्पष्ट होने के बाद ही पुन: जोड़ा जा सकता है |
१३.संघ में किसी भी नए अतिथि विद्वान के आने पर उनका समुचित स्वागत अभिवादन करना हम सब के अच्छे शिष्टाचार का परिचायक है |
१४.किसी भी सदस्य से किसी प्रकार की त्रुटि होने पर उनके प्रति अन्य कोई सदस्य न उलझें। उसका समाधान, प्रशासनिक श्रेष्ठ गुरुजनों द्वारा या संघ संस्थापक द्वारा किया जायेगा। यदि किसी को किसी से शिकायत है तो वे संस्थापक महोदय या प्रसाशनिक समिति के किसी भी गुरूजन सदस्यों से पर्सनल एकाउंट में वार्ता करें।
१५.अगर अपने निजी कारणों बस कोई भी सदस्य संघ से बाहर होना चाहते हैँ तो कृपया सूचना अवश्य देने की कृपा करें।
१६.संघ के नियमो को कुछ और सुदृढ़ बनाने के लिए आप सब अपनी राय दे सकते हैँ संस्थापक महोदय के पर्शनल में।
१७."आप सभी विद्वत जन अपने प्रोफाइल में अपनी फोटों व अपना नाम अवश्य लिखें |
१८.कभी कभी मनोविनोद एवं मनोरंजन की वार्ता को अन्यथा न लेकर आनन्द की अनुभूति करें क्यों कि इस भागदौड़भरे जीवन में हसना और हसाना भी बहुत आवश्यक है ! लेकिन हास्य सामाजिक मर्यादा को ध्यान में रखते हुये करें |
१९.संघ में किसी भी पोस्ट को दुबारा पोस्ट करना वर्जित है किसी सदस्य के आग्रह करने पर ही दुबारा पोस्ट भेज सकते हैँ |
२०.संघ को और मजबूत बनाने हेतु विशिष्ठ विद्वत जनोँ की आवश्यकता होती है,अतः जिन विद्वत जनोँ के सम्पर्क में अच्छे शुमधुर व्यवहार वाले ज्ञानमय ब्राम्हण हों,उन विद्वानों को जोड़ने के लिए संस्थापक महोदय या समिति के गुरू जनों से सम्पर्क कराएं तथा उन्हें संघ के नियमो से भी अवगत कराये |
२१.संघ में वार्ता करने का समय सुबह ५:३०से रात्रि ११:००तक विशेष आवश्यकता पड़ने पर १२:००तक
२२.धर्मार्थ वार्ता समाधान की प्रशासनिक अधिकारी-सूची :—
१--स्वतंत्र प्रभार--:श्रीमान् संतोष मिश्र जी
२--न्यायाधीश--:श्रीमान् जगदीश द्विवेदी (महाकाल बाबा ७७ जी)
३--उप न्यायाधीश--:व्याकर्णाचार्य श्रीमान् राजेश्वराचार्य मिश्र जी
४.मार्गदर्शक--:ब्रह्मर्षि श्रीमान् उपेन्द्र त्रिपाठी जी
५.प्रवक्ता--:श्रीमान् सत्यप्रकाश अनुरागी जी
६.अध्यक्ष--:श्रीमान् सत्यप्रकाश तिवारी जी (कोपरखैरणे)
७.उपाध्यक्ष--:आचार्य श्रीमान् ब्रजभूषण त्रिपाठी जी
८.सचिव--:श्रीमान् आलोक त्रिपाठी जी
९.उपसचिव--:श्रीमान् कुणाल पाण्डेय जी
१०.सदस्य संपर्कस्थापक--:श्रीमान् अनिल पाण्येय जी (मुम्बादेवी)
११--:प्रसंसक ÷श्रीमान् रविन्द्र मिश्र  (व्यास जी)
१२.प्रयाग शाखाप्रमुख--:पद्मधर मिश्र जी
१३.मुंबई शाखाप्रमुख--:श्रीमान् विजयभान गोस्वामी जी
१४.संपर्क सूत्र--:श्रीमान् सत्यप्रकाश शुक्ल जी
१५.(संस्थापक)पं मंगलेश्वर त्रिपाठी
~~~~~~~~~~~~
********************
जयतु गुरुदेव, जयतु भारतम्

!!धर्मार्थ वार्ता समाधान संघ की संशोधित नियमावली !!
ॐसच्चा नामधेयाय श्री गुरवे परमात्मने नमः
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     धर्मार्थ वार्ता समाधान संघ| की नियमावली 
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जिसका पालन करना "धर्मार्थ वार्ता समाधान संघ"के सभी विद्वत आचार्यसदस्यों को अनिवार्य होगा।
धर्मार्थ वा०स० संघ-नियमावली
_______________________
१.सर्व प्रथम संघ के सभी आदरणीय श्रेष्ठ विद्वत आचार्य गणों से वार्ता करते समय उनके नाम के आगे सम्मान सूचक शब्द अवश्य लगायें।
२.श्रेष्ठ आचार्य गणों द्वारा छोटों को भी उचित सम्मान से ही संबोधित किया जाये।
३.आपसी शिष्टाचार एवम्
सौम्यता बनाते हुये सब से प्रेम पूर्वक सदाचार का परिचय दें |
४.किसी भी सदस्य के प्रति हीन भावना न रखते हुये सब को अपने परिवार का अभिन्न अंग माने।
५.किसी भी विद्वत सदस्य के ऊपर कोई भी ऐसी टिप्पणी न करें जिससे किसी का मन आहत हो या किसी को दुःख पहुँचे।
६.संघ के नाम एवम् प्रोफाइल फोटो से किसी प्रकार की छेड़खानी न करें यह कार्य संस्थापक महोदय एवं संचालक समिति के अंतर्गत आता है।
७.किसी भी प्रकार के अनावश्यक मैसेज न भेजें,जैसे चुटकुले, शाइरी,कॉमेडी या 'ये मैसेज 20 लोगो को शेयर करो शाम तक अच्छी खबर मिलेगी नहीँ तो आपका अनिष्ट होगा'_ इस प्रकार के मैसेज भेजना दण्डनीय अपराध माना जायेगा।
८.संघ में मात्र केवल सनातन धर्म,आध्यात्म,पुराण,
वेदोपनिषद् ,समस्त सनातन धर्म से सम्बंधित संग्रह ही भेजें। वह भी लिखित इमेज लेख न हो |
९.किसी भी सदस्य के प्रति हास परिहास,आपत्तिजनक टिप्पणी न करें,जिससे किसी भी प्रकार का विवाद हो।
१०.किसी भी सदस्य को अपनी विद्वता से निचा दिखाने का प्रयास न करें,बल्कि अपने ज्ञान को प्रेम पूर्वक प्रस्तुत करें।
११.किसी भी प्रश्न के ऊपर चल रही वार्ता समाधान  के वक्त दूसरे पोस्ट न भेजें |
१२.कोई भी चित्र या वीडियो फोटो भेजना विशेष मुख्य रूप से वर्जित है इसका विशेष ध्यान रखें |किसी भी सदस्य द्वारा इमेज या वीडियो भेजे जाने पर,महाकाल की खण्डपीठ के जरिये धारा ७२ की तहत तत्काल ७२ घंटो के लिये निष्कासित किया जायेगा |कारण स्पष्ट होने के बाद ही पुन: जोड़ा जा सकता है |
१३.संघ में किसी भी नए अतिथि विद्वान के आने पर उनका समुचित स्वागत अभिवादन करना हम सब के अच्छे शिष्टाचार का परिचायक है |
१४.किसी भी सदस्य से किसी प्रकार की त्रुटि होने पर उनके प्रति अन्य कोई सदस्य न उलझें। उसका समाधान, प्रशासनिक श्रेष्ठ गुरुजनों द्वारा या संघ संस्थापक द्वारा किया जायेगा। यदि किसी को किसी से शिकायत है तो वे संस्थापक महोदय या प्रसाशनिक समिति के किसी भी गुरूजन सदस्यों से पर्सनल एकाउंट में वार्ता करें।
१५.अगर अपने निजी कारणों बस कोई भी सदस्य संघ से बाहर होना चाहते हैँ तो कृपया सूचना अवश्य देने की कृपा करें।
१६.संघ के नियमो को कुछ और सुदृढ़ बनाने के लिए आप सब अपनी राय दे सकते हैँ संस्थापक महोदय के पर्शनल में।
१७."आप सभी विद्वत जन अपने प्रोफाइल में अपनी फोटों व अपना नाम अवश्य लिखें |
१८.कभी कभी मनोविनोद एवं मनोरंजन की वार्ता को अन्यथा न लेकर आनन्द की अनुभूति करें क्यों कि इस भागदौड़भरे जीवन में हसना और हसाना भी बहुत आवश्यक है ! लेकिन हास्य सामाजिक मर्यादा को ध्यान में रखते हुये करें |
१९.संघ में किसी भी पोस्ट को दुबारा पोस्ट करना वर्जित है किसी सदस्य के आग्रह करने पर ही दुबारा पोस्ट भेज सकते हैँ |
२०.संघ को और मजबूत बनाने हेतु विशिष्ठ विद्वत जनोँ की आवश्यकता होती है,अतः जिन विद्वत जनोँ के सम्पर्क में अच्छे शुमधुर व्यवहार वाले ज्ञानमय ब्राम्हण हों,उन विद्वानों को जोड़ने के लिए संस्थापक महोदय या समिति के गुरू जनों से सम्पर्क कराएं तथा उन्हें संघ के नियमो से भी अवगत कराये |
२१.संघ में वार्ता करने का समय सुबह ५:३०से रात्रि ११:००तक विशेष आवश्यकता पड़ने पर १२:००तक
२२.धर्मार्थ वार्ता समाधान की प्रशासनिक अधिकारी-सूची :—
१--स्वतंत्र प्रभार--:श्रीमान् संतोष मिश्र जी
२--न्यायाधीश--:श्रीमान् जगदीश द्विवेदी (महाकाल बाबा ७७ जी)
३--उप न्यायाधीश--:व्याकर्णाचार्य श्रीमान् राजेश्वराचार्य मिश्र जी
४.मार्गदर्शक--:ब्रह्मर्षि श्रीमान् उपेन्द्र त्रिपाठी जी
५.प्रवक्ता--:श्रीमान् सत्यप्रकाश अनुरागी जी
६.अध्यक्ष--:श्रीमान् सत्यप्रकाश तिवारी जी (कोपरखैरणे)
७.उपाध्यक्ष--:आचार्य श्रीमान् ब्रजभूषण त्रिपाठी जी
८.सचिव--:श्रीमान् आलोक त्रिपाठी जी
९.उपसचिव--:श्रीमान् कुणाल पाण्डेय जा
१०.सदस्य संपर्कस्थापक--:श्रीमान् अनिल पाण्येय जी (मुम्बादेवी)
११--:प्रसंसक ÷श्रीमान् रविन्द्र मिश्र  (व्यास जी)
१२.प्रयाग शाखाप्रमुख--:पद्मधर मिश्र जी
१३.मुंबई शाखाप्रमुख--:श्रीमान् विजयभान गोस्वामी जी
१४.संपर्क सूत्र--:श्रीमान् सत्यप्रकाश शुक्ल जी
१५.(संस्थापक)पं मंगलेश्वर त्रिपाठी
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जयतु गुरुदेव, जयतु भारतम्

!! हनुमान जी की उदारता !!
एक दिन श्री राम जी ने हनुमान जी से कहा, 'हनुमान ! मैंने तुम्हें कोई पद नहीं दिया ।मैं चाहता हूँ कि तुम्हें कोई अच्छा-सा पद दे दूँ, क्योंकि सुग्रीव को तुम्हारे कारण  किष्किन्धा का पद मिला, विभीषण को भी तुम्हारे कारण लंका का पद मिला और मुझे भी तो तुम्हारी सहायता के कारण ही अयोध्या का पद मिला। परंतु तुम्हें कोई पद नहीं मिला।' हनुमानजी ने कहा, 'प्रभु  ! सबसे ज्यादा लाभ में तो मैं हूँ।' भगवान राम ने पूछा --कैसे ?
हनुमान जी ने कहा, "सुग्रीव को किष्किन्धा का एक पद मिला, विभीषण को लंका का एक पद मिला और आप को भी अयोध्या एक ही पद मिला।" हनुमानजी ने भगवान के चरणों में सिर रख कर कहा, "प्रभु ! जिसे आपके ये दो दो पद मिले हों, वह एक पद क्यों लेना चाहेगा।" भगवान राम हनुमानजी की बात सुनकर बहुत प्रसन्न हुए- सब कै ममता  ताग बटोरी। मम पद मनहि बाँधि बर डोरी।।

!! प्रारब्ध और पुनर्जन्म !!

        पूर्व जन्म के कर्मों से ही हमें इस जन्म में माता- पिता, भाई-बहिन, पति-पत्नि-प्रेमिका, मित्र-शत्रु, सगे-सम्बन्धी, इत्यादि संसार के जितने भी रिश्ते नाते है, सब मिलते है । क्योंकि इन सबको हमें या तो कुछ देना होता है या हमें इनसे कुछ लेना होता है। वैसे ही संतान के रूप में हमारा कोई पूर्व जन्म का सम्बन्धी ही जन्म लेकर आता है । शास्त्रों में चार प्रकार के जन्म को बताया गया है :
1. ऋणानुबन्ध :– पूर्व जन्म का कोई ऐसा जीव जिससे आपने ऋण लिया हो या उसका किसी भी प्रकार से धन नष्ट किया हो, तो वो आपके घर में संतान बनकर जन्म लेगा और आपका धन बीमारी में, या व्यर्थ के कार्यों में तब तक नष्ट करेगा
जब तक उसका हिसाब पूरा ना हो।
2. शत्रु पुत्र:– पूर्व जन्म का कोई दुश्मन आपसे बदला लेने के लिये आपके घर में संतान बनकर आयेगा, और बड़ा होने पर माता-पिता से मारपीट या झगड़ा करेगा, या उन्हें सारी जिन्दगी किसी भी प्रकार से सताता ही रहेगा।
3. उदासीन:– इस प्रकार की सन्तान माता-पिता को न तो कष्ट देती है और ना ही सुख । विवाह होने पर ऐसी
संतानें माता-पिता से अलग हो जाती है।
4. सेवक पुत्र:– पूर्व जन्म में यदि आपने किसी की खूब सेवा की है तो वह अपनी की हुई सेवा का ऋण उतारने के लिये आपकी सेवा करने के लिये पुत्र बनकर आता है।
        यह सब बाते केवल मनुष्य पर ही नहीं लागू होतीं। इन चार प्रकारों में कोई भी जीव आ सकता है। जैसे आपने किसी गाय की निःस्वार्थ भाव से सेवा की है, तो वह भी पुत्र या पुत्री बनकर आ सकती है। यदि आपने गाय को स्वार्थ वश पाला और उसके दूध देना बन्द करने के पश्चात उसे घर से निकाल दिया हो तो वह ऋणानुबन्ध पुत्र या पुत्री बनकर जन्म लेगी ।
        यदि आपने किसी निरपराध जीव को सताया है तो वह आपके जीवन में शत्रु बनकर आयेगा। इसलिये जीवन में कभी किसी का बुरा नहीं करे। क्योंकि प्रकृति का नियम है कि आप जो भी करोगे उसे वह आपको सौ गुना करके देगी। यदि आपने किसी को एक रूपया दिया है तो समझो आपके खाते में सौ रूपये जमा हो गये हैं। यदि आपने किसी का एक रूपया छीना है तो समझो आपकी जमा राशि से सौ रूपये निकल गये।
        इसलिए मनुष्य-जन्म मिला है तो उसका सदुपयोग करके अपना भविष्य संवार लो, कौन जाने कब आपके सुकर्म आपको जन्म-मरण के चक्रव्यूह से मोक्ष करा दें और कब आपके द्वारा किये गए छोटे से दुष्कर्म भी आपको पुनर्जन्म के चक्रव्यूह में फंसा दें।
        इसलिए हे मनुष्य, अभी भी समय है, जाग जा, संभल जा, संतों की शरण में जा और अपना जीवन सफल बना, न जाने किस घडी जीवन की शाम हो जाये।

!! सेवा और सेवन में भेद !!
        सेवा और सेवन, इन दोनों वाक्यों की निष्पत्ति सेव्-धातु से क्रमशः टाप् और ल्युट् प्रत्यय करके होती है। दोनों में कर्ता और कर्म पृथक्-पृथक् होते हैं। परत्त्व-भाव से स्थूल-मूर्त्ति के प्रति की गयी अर्चना 'सेवा' कहलाती है। परंतु आत्म-भाव से देह में स्थित इन्द्रियों की पोषण या तोषण रूपी 'सेवा' को 'सेवन' कहते हैं। हमारे अभ्यन्तर में इन्द्रियाँ और अंग-प्रत्यंग एक-दूसरे की सेवा करते है, परंतु वह मन-मनुष्य को सेवन ही प्रतीत होता है। इस प्रकृति के सभी जीव प्रकृति के इन्द्रिय और अंग-प्रत्यंग है और इनके द्वारा की गयी एक-दूसरे की सेवा, या आत्मा को मूर्त्ति में प्रतिष्ठित करके परत्व भाव से की गयी अर्चना, प्रकृति को सेवन प्रतीत होता है, किंतु वही सेवन मन-मनुष्य को सेवा प्रतीत होता है। इसप्रकार अन्तःकरण और बाह्यकरण के भेद से सेवा ही सेवन तथा सेवन ही सेवा के रूप में प्रतीत होते हैं। अन्तर तो केवल कर्त्तृत्व और कर्म-कारक का होता है।
        सत्यम् लीक पर आये तो सही, परंतु सम्बन्ध स्थापित नहीं कर पाये।

[26:04:2016/20:06Hr.]SKMishra.shoaqh

एक बेटा अपने वृद्ध पिता को रात्रि भोज के लिए एक अच्छे रेस्टॉरेंट में लेकर
गया।
खाने के दौरान वृद्ध पिता ने कई बार भोजन अपने कपड़ों पर गिराया।
रेस्टॉरेंट में बैठे दूसरे खाना खा रहे लोग वृद्ध को घृणा की नजरों से देख रहे थे
लेकिन वृद्ध का बेटा शांत था।
खाने के बाद बिना किसी शर्म के बेटा, वृद्ध को वॉश रूम ले गया। उनके
कपड़े साफ़ किये, उनका चेहरा साफ़ किया, उनके बालों में कंघी की,चश्मा
पहनाया और फिर बाहर लाया।
सभी लोग खामोशी से उन्हें ही देख रहे थे।बेटे ने बिल पे किया और वृद्ध के
साथ
बाहर जाने लगा।
तभी डिनर कर रहे एक अन्य वृद्ध ने बेटे को आवाज दी और उससे पूछा " क्या
तुम्हे नहीं लगता कि यहाँ
अपने पीछे तुम कुछ छोड़ कर जा रहे हो ?? "
बेटे ने जवाब दिया" नहीं सर, मैं कुछ भी छोड़ कर
नहीं जा रहा। "
वृद्ध ने कहा " बेटे, तुम यहाँ
छोड़ कर जा रहे हो,
प्रत्येक पुत्र के लिए एक शिक्षा (सबक) और प्रत्येक पिता के लिए उम्मीद
(आशा)। "
आमतौर पर हम लोग अपने बुजुर्ग माता पिता को अपने साथ बाहर ले जाना
पसंद नहीँ करते
और कहते हैं क्या करोगे आप से चला तो जाता
नहीं ठीक से खाया भी नहीं जाता आप तो घर पर ही रहो वही अच्छा
होगा.
क्या आप भूल गये जब आप छोटे थे और आप के माता पिता आप को अपनी
गोद मे उठा कर ले जाया
करते थे,
आप जब ठीक से खा नही
पाते थे तो माँ आपको अपने हाथ से खाना खिलाती थी और खाना गिर
जाने पर डाँट नही प्यार जताती थी
फिर वही माँ बाप बुढापे मे बोझ क्यो लगने लगते हैं???
माँ बाप भगवान का रूप होते है उनकी सेवा कीजिये और प्यार दीजिये...
क्योंकि एक दिन आप भी बूढ़े होगें।

!! उपनिषदों के रचयिता !!

SKMishra.shoaqh: उपनिषद् ऋषियों की पाठ्य पुस्तकें हैं। जितने ऋषि, उतने उपनिषद्। यह पीएचडी के पेपर हैं। वेदों के आधार पर इनका विषय विभाजित है। अभी १००८ हैं। पहले हजारों थीं। १०८ उपनिषद् तो मेरे पास है। साढ़े तीन सौ के नाम पा चुका हूँ। इसके लेखक नहीं होते। यह दर्शन है, इसके प्रणेता होते हैं।
        वेदों, ब्राह्मणों और आरण्यकों के प्रणेता मन्त्रद्रष्टा ऋषियों की अपनी-अपनी शिष्य-परम्परा में अधिकृत शिष्यर्षियों द्वारा भाष्य-रूप में जो भी शिक्षाएँ प्रदान की गईं, उन्हे ही गोप्य-प्रकाशत्त्व-गुण के कारण 'उपनिषद्' कहा गया है। उन्हे ही श्रुति-परम्परा से आगे चलने के कारण 'श्रुति' भी कहा जाता है। अतः श्रुति का तात्पर्य केवल 'उपनिषद्' से किया जाता है, वेदों से नहीं। मन्त्रर्षियों की अधि-संख्या के कारण, उपनिषद् की भी संख्या सहस्रों (असंख्य) में है। यही लाभ देख कर प्रक्षिप्त साहित्य जगत् में यह संख्या लाख में पहुँची हो तो कोई आश्चर्य भी नहीं है। इसीप्रकार की समस्या, संहिताओं की संख्या में भी है।

        प्राप्त उपनिषद् की सूची वर्गीकृत कर रहा हूँ। पूर्ण होते ही भेजता हूँ।

!! परमात्म स्वरूप !!
--------------------------
मो सम कौन कुटिल खल कामी
        यह बात अन्तःकरण के प्रथम सोपानीय अज्ञानस्थ 'मन' के भाव की है। अज्ञानी मन यह तीन भाव हैं— कुटिल, खल और कामी। इनकी तुलना स्वरूप से की जा रही है।भागवत्माहात्म्य का प्रथम श्लोक है- "सच्चिदानन्दरूपाय विश्वोत्पत्त्याय हेतवे।" यहाँ सच्चिदानन्द भगवान का निरूपण हुआ है, जिनसे सृष्टि का उन्मेष होते ही, सर्व-प्रथम स्वरूप-लक्षण का ही प्रकाशन होता है। स्वरूप के आविर्भाव के बाद ही स्वभाव का विकास होता है। दूसरे शब्दों में पिण्ड का वाचक सत् प्रकट होता है और उसके पश्चात् ही चित् विकास होता है। इसप्रकार स्वरूप आदिम मूल तत्त्व है, प्रकृत तत्त्व है, जिसकी परवर्त्ती विकृति है, स्वभाव-तत्त्व। परंतु उस अनादि आदिम महाविंदु काल में, महाकारणाऽन्तर्गत घटना होने के कारण यह दोनों ही सृष्टि के मौलिक उपादान कहे जाते हैं।
        इसप्रकार स्वरूप का प्राकट्य होने के पश्चात्, उसमें संस्कार की आवश्कता भी एक स्वाभाविक अनिवार्यता है। एक शिशु स्वरूप अवस्था में ही जन्म लेता है, जिसे समयानुसार संस्कारित करते हुए ही महान व्यक्ति के रूप में ढाला जा सकता है। अन्यथा उसके व्यवहार अज्ञानपूर्ण ही रहेंगे।