Sunday, March 6, 2016

न प्रहॄष्यति सन्माने 
नापमाने च कुप्यति।
न क्रुद्ध: परूषं ब्रूयात् 
स वै साधूत्तम: स्मॄत:॥

जो सम्मान करने पर हर्षित न हों और अपमान करने पर क्रोध न करें, क्रोधित होने पर कठोर वचन न बोलें, उनको ही सज्जनों में श्रेष्ठ कहा गया है॥

सुप्रभात🙏🏻🙏🏻🙏🏻

महाशिवरात्रि हिन्दुओं का एक प्रमुख त्योहार है। फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को शिवरात्रि पर्व मनाया जाता है। महाशिवरात्रि पर रुद्राभिषेक का बहुत महत्त्व माना गया है और इस पर्व पर रुद्राभिषेक करने से सभी रोग और दोष समाप्त हो जाते हैं।

शिवरात्रि से आशय
शिवरात्रि वह रात्रि है जिसका शिवतत्त्व से घनिष्ठ संबंध है। भगवान शिव की अतिप्रिय रात्रि को शिव रात्रि कहा जाता है। शिव पुराण के ईशान संहिता में बताया गया है कि फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी की रात्रि में आदिदेव भगवान शिव करोडों सूर्यों के समान प्रभाव वाले लिंग रूप में प्रकट हुए-

फाल्गुनकृष्णचतुर्दश्यामादिदेवो महानिशि।
शिवलिंगतयोद्भूत: कोटिसूर्यसमप्रभ:॥
ज्योतिष शास्त्र के अनुसार फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी तिथि में चन्द्रमा सूर्य के समीप होता है। अत: इसी समय जीवन रूपी चन्द्रमा का शिवरूपी सूर्य के साथ योग मिलन होता है। अत: इस चतुर्दशी को शिवपूजा करने से जीव को अभीष्ट फल की प्राप्ति होती है। यही शिवरात्रि का महत्त्व है। महाशिवरात्रि का पर्व परमात्मा शिव के दिव्य अवतरण का मंगल सूचक पर्व है। उनके निराकार से साकार रूप में अवतरण की रात्रि ही महाशिवरात्रि कहलाती है। हमें काम, क्रोध, लोभ, मोह, मत्सर आदि विकारों से मुक्त करके परमसुख, शान्ति एवं ऐश्वर्य प्रदान करते हैं।

आत्मा अजन्मा है और समय से बद्ध नहीं (नित्य है) इसलिए आत्मा का कोई वर्ण नहीं होता | यह तो आत्मा द्वारा मनुष्य शरीर धारण किये जाने पर ही वर्ण चुनने का अवसर मिलता है | तो क्या वर्ण ईश्वर के शरीर के किसी हिस्से से आता है? आत्मा कभी ईश्वर के शरीर से जन्म तो लेता नहीं तो क्या ऐसा कहा जा सकता है कि आत्मा का शरीर ईश्वर के शरीर के हिस्सों से बनाया गया? किन्तु वेदों की साक्षी से प्रकृति भी शाश्वत है और कुछ अणु पुनः विभिन्न मानव शरीरों में प्रवाहित होते हैं | अतः यदि परमात्मा सशरीर मान ही लें तो भी यह असंभव है किसी भी व्यक्ति के लिए की वह परमात्मा के शरीर से जन्म ले |
जिस पुरुष सूक्त का हवाला दिया जाता है वह यजुर्वेद के ३१ वें अध्याय में है साथ ही कुछ भेद से ऋग्वेद और अथर्ववेद में भी उपस्थित है | यजुर्वेद में यह ३१ वें अध्याय का ११ वां मंत्र है | इसका वास्तविक अर्थ जानने के लिए  इससे पहले मंत्र ३१.१० पर गौर करना जरूरी है | वहां सवाल पूछा गया है – मुख कौन है?, हाथ कौन है?, जंघा कौन है? और पाँव कौन है? तुरंत बाद का मंत्र जवाब देता है – ब्राहमण मुख है, क्षत्रिय हाथ हैं, वैश्य जंघा हैं तथा शूद्र पैर हैं |
यह ध्यान रखें की मंत्र यह नहीं कहता की ब्राह्मण मुख से “जन्म लेता” है … मंत्र यह कह रहा है की ब्राह्मण ही मुख है | क्योंकि अगर मंत्र में “जन्म लेता” यह भाव अभिप्रेत होता तो “मुख कौन है?” इत्यादि प्रश्नों का उत्तर देने की आवश्यकता ही नहीं थी |
उदाहरणतः यह पूछा जाए, “दशरथ कौन हैं?” और जवाब मिले “राम ने दशरथ से जन्म लिया”, तो यह निरर्थक जवाब है |

वर्णों को जन्म आधारित बताने के लिए ब्राह्मण का जन्म ईश्वर के मुख से हुआ, क्षत्रिय ईश्वर की भुजाओं से जन्में, वैश्य जंघा से तथा शूद्र ईश्वर के पैरों से उत्पन्न हुए यह सिद्ध करने के लिए पुरुष सूक्त के मंत्र प्रस्तुत किये जाते हैं | इस से बड़ा छल नहीं हो सकता, क्योंकि –

(a) वेद ईश्वर को निराकार और अपरिवर्तनीय वर्णित करते हैं | जब परमात्मा निराकार है तो इतने महाकाय व्यक्ति का आकार कैसे ले सकता है ? (देखें यजुर्वेद ४०.८)

(b) यदि इसे सच मान भी लें तो इससे वेदों के कर्म सिद्धांत की अवमानना होती है | जिसके अनुसार शूद्र परिवार का व्यक्ति भी अपने कर्मों से अगला जन्म किसी राजपरिवार में पा सकता है | परन्तु यदि शूद्रों को पैरों से जन्मा माना जाए तो वही शूद्र पुनः ईश्वर के हाथों से कैसे उत्त्पन्न होगा?
(c) आत्मा अजन्मा है और समय से बद्ध नहीं (नित्य है) इसलिए आत्मा का कोई वर्ण नहीं होता | यह तो आत्मा द्वारा मनुष्य शरीर धारण किये जाने पर ही वर्ण चुनने का अवसर मिलता है | तो क्या वर्ण ईश्वर के शरीर के किसी हिस्से से आता है? आत्मा कभी ईश्वर के शरीर से जन्म तो लेता नहीं तो क्या ऐसा कहा जा सकता है कि आत्मा का शरीर ईश्वर के शरीर के हिस्सों से बनाया गया? किन्तु वेदों की साक्षी से प्रकृति भी शाश्वत है और कुछ अणु पुनः विभिन्न मानव शरीरों में प्रवाहित होते हैं | अतः यदि परमात्मा सशरीर मान ही लें तो भी यह असंभव है किसी भी व्यक्ति के लिए की वह परमात्मा के शरीर से जन्म ले |
(d) जिस पुरुष सूक्त का हवाला दिया जाता है वह यजुर्वेद के ३१ वें अध्याय में है साथ ही कुछ भेद से ऋग्वेद और अथर्ववेद में भी उपस्थित है | यजुर्वेद में यह ३१ वें अध्याय का ११ वां मंत्र है | इसका वास्तविक अर्थ जानने के लिए  इससे पहले मंत्र ३१.१० पर गौर करना जरूरी है | वहां सवाल पूछा गया है – मुख कौन है?, हाथ कौन है?, जंघा कौन है? और पाँव कौन है? तुरंत बाद का मं

पंचपर्वा अविद्या का रहस्य समझे बिना चातुर्वर्ण्य का सिद्धान्त नहीं जाना जा सकता।
मुखम् आसीत् और जायते शुद्रः में अर्थ सीधा है। बस समझने का फेर है। पहले भी कह चुका हूँ। वर्ण प्रोफेशन है जिसके लिए जाति हॉस्टल है। कर्महीन ब्राह्मण तो पतित हो गया बेन की तरह। उसकी चर्चा ही क्यों उठे? ब्राह्मण की जाति सिर्फ ब्राह्मण है जहाँ बनुआ और ठलुआ की गिनती नहीं है। बननेवाले अपने को साबित करने के लिए प्रयास तो करेंगे ही। कल का म्लेच्छ ब्राह्मण का स्वांग करने से ब्राह्मण नहीं होगा। हाँ वह हमें दृश्यतः धोका दे सकता है। और वही हो रहा है। हम धोका खाने पर मजबूर हैं, अपने कानून के कारण, जिस पर म्लेच्छों का बर्चस्व है।

Tuesday, March 1, 2016

यह हर युग का एक मात्र सत्य है कि जिनका नैतिक पतन हो जाता है वे विप्र कुल में जन्म लेकर पतित हो जाते है भले जबरजस्ती अपने नाम के आगे जाती का नाम जोड़कर पूरी जाती को जीवन भर बदनाम करते रहे और कुछ लोग किसी भी कुल में पैदा हो लेकिन सदाचार का पालन करके समाज में उच्च प्रतिष्ठा अर्जित करते है औरदेवताओ के समान पूज्य हो जाते है उन्हें ही विद्वत जन गुदडी का लाल कहते है।

कमल के पत्ते पर जल और आरे की नोक पर सरसों की तरह जो विषय-भोगों में लिप्त नहीं होता, मैं उसे ही ब्राह्मण कहता हूँ।
जो चर-अचर सभी प्राणियों में प्रहार-विरत हो, जो न मारता है और न मारने की प्रेरणा ही देता है, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूँ।
जो ऐसी अकर्कश, आदरयुक्त और सत्यवाणी बोलता हो कि जिससे किसी को जरा भी पीड़ा नहीं पहुँचती हो, मैं उसे ब्राह्मण कहता हूँ।
बड़ी हो चाहे छोटी, मोटी हो या पतली, शुभ हो या अशुभ, जो संसार में बिना दी हुई किसी भी चीज को नहीं लेता, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूँ।
जिसने यहाँ पुण्य और पाप दोनों की ही आसक्ति छोड़ दी है और जो शोकरहित, निर्मल और परिशुद्ध है, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूँ।
मानुष भोगों का लाभ छोड़ दिव्य भोगों के लाभ को भी जिसने लात मार दी है, किसी लाभ-लोभ में जो आसक्त नहीं, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूँ।
राग और घृणा का जिसने त्याग कर दिया है, जिसका स्वभाव शीतल है और जो क्लेशरहित है, ऐसे सर्वलोक-विजयी वीर पुरुष को मैं ब्राह्मण कहता हूँ।
जिसके पूर्व, पश्चात और मध्य में कुछ नहीं है और जो पूर्णतया परिग्रह-रहित है, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूँ।
जो ध्यानी, निर्मल, स्थिर, कृतकृत्य और आस्रव (चित्तमल) से रहित है, जिसने सत्य को पा लिया है, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूँ।
जो मन, वचन और काया से कोई पाप नहीं करता अर्थात इन तीनों पर जिसका संयम है, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूँ।
न जटा रखने से कोई ब्राह्मण होता है, न अमुक गोत्र से और न जन्म से ही। जिसने सत्य और धर्म का साक्षात्कार कर लिया, वही पवित्र है, वही ब्राह्मण है।
जो गंभीर प्रज्ञावाला है, मेधावी है, मार्ग और अमार्ग का ज्ञाता है और जिसने सत्य पा लिया है, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूँ।
जिसने घृणा का क्षय कर दिया है, जो भली-भाँति जानकर अकथ पद का कहने वाला है और जिसने अगाध अमृत प्राप्त कर लिया है, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूँ।
जो पूर्वजन्म को जानता है, सुगति और अगति को देखता है और जिसका पुनर्जन्म क्षीण हो गया है तथा जो अभिमान (दिव्य ज्ञान) परायण है, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूँ। जन्म से कोई ब्राह्मण नहीं होता।
(९) भविष्य पुराण के अनुसारः
निवृत्तः पापकर्मेभ्योः ब्राह्मणः से विधीयते ।
शूद्रोSपिशीलसम्पन्नो ब्राह्मणदधिकोभवेत् ॥ भविष्य पुराण . अ. 44।
जो पापकर्म से बचा हुआ है, वही सच्चे अर्थों में ब्राह्मण है । सदाचार सम्पन्न शूद्र भी ब्राह्मण से अधिक है । आचारहीन ब्राह्मण शूद्र से भी गया बीता है । विवेक, सदाचार, स्वाध्याय और परमार्थ ब्राह्मणत्व की कसौटी है । जो इस कसौटी पर खरा उतरता है, वही सम्पूर्ण अर्थों में सच्चा ब्राह्मण है ।
(१०)वृहद्धर्ग पुराणके अनुसारः
ब्रह्मणस्य तू देहो यं न सुखाय कदाचन ।
तपः क्लेशाय धर्माय प्रेत्य मोक्षाय सर्वदा ॥ वृहद्धर्ग पुराण 2/44॥
ब्राह्मण की देह विषयोपभोग के लिये कदापि नहीं है । यह तो सर्वथा तपस्या का क्लेश सहने और धर्म का पालन करने और अंत मे मुक्ति के लिये हि उत्पन्न होती है ।
ब्राह्मण का अर्थ है विचारणा और चरित्रनिष्ठा का उत्त्कृष्ट होना ।
(११)मनुस्मृति के अनुसारः
सम्मनादि ब्राह्मणो नित्यभुद्विजेत् विषादिव ।
अमृतस्य चाकांक्षे दव मानस्य सर्वदा ॥ मनुस्मृति 1/162॥
ब्राह्मण को चाहिये कि वह सम्मान से डरता रहे और अपमान की अमृत के समान इच्छा करता रहे ।
वर्ण व्यवस्था की सुरुचिपूर्ण व्यवस्था में ब्राह्मण को समाज में सर्वोपरि स्थान दिया गया है । साथ ही साथ समाज की महान जिम्मेदारियाँ भी ब्राह्मणों को दी गयीं हैं । राष्ट्र एवं समाज के नैतिक स्तर को कायम रखना , उन्हें प्रगतिशीलता एवं विकास की ओर अग्रसर करना , जनजागरण एवं अपने त्यागी तपस्वी जीवन में महान आदर्श उपस्थित कर लोगों को सत्पथ का प्रदर्शन करना, ब्राह्मण जीवन का आधार बनाया गया ।
इसमें कोई संदेह नहीं कि राष्ट्र की जागृति, प्रगतिशीलता एवं महनता उसके ब्राह्मणों पर आधारित होती हैं । ब्राह्मण राष्ट्र निर्माता होते हैं , मानव हृदयों में जनजागरण का गीत सुनाता है , समाज का कर्णधार होता है । देश, काल, पात्र के अनुसार सामाजिक व्यवस्था में परिवर्तन करता है और नवीन प्रकाश चेतना प्रदान करता है । त्याग और बलिदान ही ब्राह्मणत्व की कसौटी होती है ।
राष्ट्र संरक्षण का दायित्व सच्चे ब्राह्मणों पर ही हैं । राष्ट्र को जागृत और जीवंत बनाने का भार इनपर ही है ।
(१२)यजुर्वेद के अनुसारः
वयं राष्ट्रे जागृयाम पुरोहिताः । यजुर्वेद
ब्राह्मणत्व एक उपलब्धि है जिसे प्रखर प्रज्ञा, भाव-सम्वेदना, और प्रचण्ड साधना से और समाज की निःस्वार्थ अराधना से प्राप्त किया जा सकता है । ब्राह्मण एक अलग वर्ग तो है ही, जिसमे कोई भी प्रवेश कर सकता है, बुद्ध क्षत्रिय थे, स्वामि विवेकानंद कायस्थ थे, पर ये सभी अति उत्त्कृष्ट स्तर के ब्रह्मवेत्ता ब्राह्मण थे । ”ब्राह्मण” शब्द उन्हीं के लिये प्रयुक्त होना चाहिये, जिनमें ब्रह्मचेतना और धर्मधारणा जीवित और जाग्रत हो , भले ही वो किसी भी वंश में क्युं ना उत्पन्न हुये हों ।
(१३)ऋग्वेद के अनुसारः
ब्राह्मणासः सोमिनो वाचमक्रत , ब्रह्म कृण्वन्तः परिवत्सरीणम् ।
अध्वर्यवो घर्मिणः सिष्विदाना, आविर्भवन्ति गुह्या न केचित् ॥ ऋग्वेद 7/103/8 ॥
ब्राह्मण वह है जो शांत, तपस्वी और यजनशील हो । जैसे वर्षपर्यंत चलनेवाले सोमयुक्त यज्ञ में स्तोता मंत्र-ध्वनि करते हैं वैसे ही मेढक भी करते हैं । जो स्वयम् ज्ञानवान हो और संसार को भी ज्ञान देकर भूले भटको को सन्मार्ग पर ले जाता हो, ऐसों को ही ब्राह्मण कहते हैं । उन्हें संसार के समक्ष आकर लोगों का उपकार करना चाहिये ।
(१४) यस्क मुनि के अनुसार-
जन्मना जायते शूद्रः संस्कारात् भवेत द्विजः।
वेद पाठात् भवेत् विप्रःब्रह्म जानातीति ब्राह्मणः।।
अर्थात – व्यक्ति जन्मतः शूद्र है। संस्कार से वह द्विज बन सकता है। वेदों के पठन-पाठन से विप्र हो सकता है। किंतु जो ब्रह्म को जान ले, वही ब्राह्मण कहलाने का सच्चा अधिकारी है।
जो पुरोहिताई करके अपनी जीविका चलाता है, वह ब्राह्मण नहीं, याचक है।
ब्राह्मण पर प्रहार नहीं करना चाहिए और ब्राह्मण को भी उस प्रहारक पर कोप नहीं करना चाहिए।
ब्राह्मण वह है जो निष्पाप है, निर्मल है, निरभिमान है, संयत है, वेदांत-पारगत है, ब्रह्मचारी है, ब्रह्मवादी (निर्वाण-वादी) और धर्मप्राण है।
जिसने सारे पाप अपने अंतःकरण से दूर कर दिए हैं, अहंकार की मलीनता जिसकी अंतरात्मा का स्पर्श भी नहीं कर सकती, जिसका ब्रह्मचर्य परिपूर्ण है, जिसे लोक के किसी भी विषय की तृष्णा नहीं है, जिसने अपनी अंतर्दृष्टि से ज्ञान का अंत देख लिया, वही अपने को यथार्थ रीति से ब्राह्मण कह सकता है।
मित्रों, ब्राह्मण की यह कल्पना व्यावहारिक हे के नहीं यह अलग विषय हे किन्तु भारतीय सनातन संस्कृति के हमारे पूर्वजो व ऋषियो ने ब्राह्मण की जो व्याख्या दी हे उसमे काल के अनुसार परिवर्तन करना हमारी मूर्खता मात्र होगी.वेदों-उपनिषदों से दूर रहने वाला और ऊपर दर्शाये गुणों से अलिप्त व्यक्ति चाहे जन्म से ब्राह्मण हों या ना हों लेकिन ऋषियों को व्याख्या में वह ब्राह्मण नहीं हे. अतः आओ हम हमारे कर्म और संस्कार तरफ वापस बढे. “कृण्वन्तो विश्वम् आर्यम”को साकारित करे.
किन्तु जितना सत्य यह हे की केवल जन्म से ब्राह्मण होना संभव नहीं हे. कर्म से कोई भी ब्राह्मण बन सकता है यह भी उतना ही सत्य हे.इसके कई प्रमाण वेदों और ग्रंथो में मिलते हे जेसे…..
(१) ऐतरेय ऋषि दास अथवा अपराधी के पुत्र थे| परन्तु उच्च कोटि के ब्राह्मण बने और उन्होंने ऐतरेय ब्राह्मण और ऐतरेय उपनिषद की रचना की| ऋग्वेद को समझने के लिए ऐतरेय ब्राह्मण अतिशय आवश्यक माना जाता है|
(२) ऐलूष ऋषि दासी पुत्र थे | जुआरी और हीनचरित्र भी थे | परन्तु बाद में उन्होंने अध्ययन किया और ऋग्वेद पर अनुसन्धान करके अनेक अविष्कार किये|ऋषियों ने उन्हें आमंत्रित कर के आचार्य पद पर आसीन किया | (ऐतरेय ब्राह्मण२.१९)
(३) सत्यकाम जाबाल गणिका (वेश्या) के पुत्र थे परन्तु वे ब्राह्मणत्व को प्राप्त हुए |
(४) राजा दक्ष के पुत्र पृषध शूद्र होगए थे,प्रायश्चित स्वरुप तपस्या करके उन्होंने मोक्ष प्राप्त किया | (विष्णु पुराण ४.१.१४)
(५) राजा नेदिष्ट के पुत्र नाभाग वैश्य हुए|पुनः इनके कई पुत्रों ने क्षत्रिय वर्ण अपनाया |(विष्णु पुराण ४.१.१३)
(६) धृष्ट नाभाग के पुत्र थे परन्तु ब्राह्मण हुए और उनके पुत्र ने क्षत्रिय वर्ण अपनाया | (विष्णु पुराण ४.२.२)
(७) आगे उन्हींके वंश में पुनः कुछ ब्राह्मण हुए|(विष्णु पुराण ४.२.२)
(८) भागवत के अनुसार राजपुत्र अग्निवेश्य ब्राह्मण हुए |
(९) विष्णुपुराण और भागवत के अनुसार रथोतर क्षत्रिय से ब्राह्मण बने |
(१०) हारित क्षत्रियपुत्र से ब्राह्मणहुए | (विष्णु पुराण ४.३.५)
(११) क्षत्रियकुल में जन्में शौनक ने ब्राह्मणत्व प्राप्त किया | (विष्णु पुराण ४.८.१) वायु,
विष्णु और हरिवंश पुराण कहते हैं कि शौनक ऋषि के पुत्र कर्म भेद से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्ण के हुए| इसी प्रकार गृत्समद, गृत्समति और वीतहव्यके उदाहरण हैं |
(१२) मातंग चांडालपुत्र से ब्राह्मण बने |
(१३) ऋषि पुलस्त्य का पौत्र रावण अपनेकर्मों से राक्षस बना |
(१४) राजा रघु का पुत्र प्रवृद्ध राक्षस हुआ |
(१५) त्रिशंकु राजा होते हुए भी कर्मों से चांडाल बन गए थे |
(१६) विश्वामित्र के पुत्रों ने शूद्रवर्ण अपनाया |विश्वामित्र स्वयं क्षत्रिय थे परन्तु बाद उन्होंने ब्राह्मणत्व को प्राप्त किया |
(१७) विदुर दासी पुत्र थे | तथापि वे ब्राह्मण हुए और उन्होंने हस्तिनापुर साम्राज्य का मंत्री पद सुशोभित किया |
सच्चा ब्राह्मण कौन है ?”
न जटाहि न गोत्तेहि न जच्चा होति ब्राह्मणो। यम्हि सच्चं च धम्मो च सो सुची सो च ब्राह्मणो॥ भगवान बुद्ध धर्म कहते हैं कि ब्राह्मण न तो जटा से होता है, न गोत्र से और न जन्म से। जिसमें सत्य है, धर्म है और जो पवित्र है, वही ब्राह्मण है।

युगक्रम से केवल शब्द बदले हैं , भाव नहीं। जैसे मैथुनी सृष्टि में मैथुन ही सिद्धान्त है। चाहे वह पौधों में परागण हो या प्राणियों में अभिगमन। केवल शब्द का फेर है। क्रिया तो सर्वत्र वही है। ऐसा न हो तो सृष्टि का सिद्धान्त ही गलत हो जायेगा। आप लोग नहीं मानेंगे। लेकिन साइकिल का सिद्धान्त भी प्रकृति ने ही दिया है। भाषा भी प्रकृति की देन है।

व्यक्तिगत और सामाजिक स्तर के सरल-साध्य उपाय

        शिक्षा इसमें बहुत ही बड़ी भूमिका अदा करती है. और औपचारिक शिक्षा से ज्यादा मै उस शिक्षा की बात कर रहा हूँ, जिसे अनौपचारिक कहिये या जिसका कोई सिलेबस नही होता और जो वातावरण से सीखी जाती है. इस अनौपचारिक शिक्षा के सबसे बड़े वाहक हैं परिवार के जन और वरिष्ठ जन का जिम्मेदाराना एवं स्नेहिल-सभ्य व्यवहार. यहाँ वरिष्ठ-जन का मतलब ८ साल वाले के लिए १० साल वाले का व्यवहार, ४० साल वाले के लिए ७० साल वाले का व्यवहार. यह व्यवहार वाणी तक ही सीमित नही है. आचरण की भी बात है.आपको नहीं लगता लोग कितना कैजुअली बात करते हैं. शब्दों का कितना शिथिल प्रयोग करते हैं. केवल अपनी धारणा सत्य साबित करने के लिए किसी भी महापुरुष तक को किसी भी अपशब्द से नवाज़ सकते हैं. यहीं/यूँ ही अनुशासनहीनता पनपती है.

माता-पिता, वरिष्ठों का सुबह से लेकर शाम तक आचरण, और घर से बाहर भी उनका आचरण,( चूँकि समाज के बाकी अन्य लोग भी माता-पिता,सम्बन्धियों के बारे में कैसी राय रखते हैं, यह भी महत्वपूर्ण हो जाता है.

तो सबसे पहले व्यक्तिगत स्तर पर अध्ययन, अनुशीलन, सतत श्रम एवं अनुशासन की महत्ता का उदाहरण सतत देना होगा. मतलब आचरण की महत्ता.

फिर औपचारिक शिक्षा पर आते हैं...यहाँ तो गंभीर परिवर्तन की आवश्यकता है. यह एक अलग गंभीर मुद्दा है, मेरे पास इसपर कहने को काफी कुछ है. फिर कभी. संक्षेप में शिक्षा ऐसी होनी चाहिए जो काफी लचीली हो, अपने पर्यावरण-सामाजिक वातावरण से सुसंगत हो और छात्रों एवं शिक्षक का सम्बन्ध औपचारिक-अनौपचारिक का सुन्दर-गंभीर मिश्रण हो. मित्रवत तो हो ही, और दोनों ही स्वयं को विषय का शोधार्थी समझें . व्यापार की तरह Give n Take का गंदा रिश्ता ना हो.

फिर राजनीतिक शिक्षा-जागरूकता की आवश्यकता व प्रशिक्षण. लोगों को जानना होगा कि उनकें सहज अधिकार क्या हैं, उन्हें कैसे ईस्तेमाल करना है और इससे भी बड़ी बात उन अधिकारों को कैसे-किन पद्धतियों से प्राप्त करना है..मतलब साध्य से ज्यादा साधन की पवित्रता पर बल. (संकलित)

बाकि एक बात -
प्रथम ही उर्वसी के वशिष्ठ जन्म लीन ।
कोल बाल्मीक की खुली बात है
दासी के नारद जी केवट से ब्यास अंडा से विरण्डा शुक देव जी देखात है ।
गगरी से कुम्भज ऋषि हिरणी से सृंगी ऋषि।
एक आँख से पैलग  सुक्रा चार्य जी ।
सकल ही समाज तो दुसाध ही देखात है ।
किस जाति की उच्चता नीचता पर जायेगे अब बताये

रोहित प्रसार जी
धूत कहौ, अवधूत कहौ, रजपूत कहौ, जोलहा कहौ कोऊ ।
काहूकी बेटीसो बेटा न ब्याहब, काहूकी जाति बिगार न सोऊ॥
तुलसी सरनाम गुलामु है रामको, जाको रुचै सो कहै कछु ओऊ।
माँगि कै खैबौ, मसीतको सोइबो, लैबोको एकु न दैबेको दोऊ॥
चाहे कोई धूर्त कहे अथवा परमहंस कहे; राजपूत कहे या जुलाहा कहे, मुझे किसी की बेटी से तो बेटे का ब्याह करना नहीं है, न मैं किसी से सम्पर्क रख कर उसकी जाति ही बिगाड़ूँगा। तुलसीदास तो राम का प्रसिद्ध गुलाम है, जिसको जो रुचे सो कहो। मुझको तो माँग के खाना और मस्जिद में सोना है; न किसी से एक  लेना है, न दो देना है।

रोहित प्रसार जी
धूत कहौ, अवधूत कहौ, रजपूत कहौ, जोलहा कहौ कोऊ ।
काहूकी बेटीसो बेटा न ब्याहब, काहूकी जाति बिगार न सोऊ॥
तुलसी सरनाम गुलामु है रामको, जाको रुचै सो कहै कछु ओऊ।
माँगि कै खैबौ, मसीतको सोइबो, लैबोको एकु न दैबेको दोऊ॥
चाहे कोई धूर्त कहे अथवा परमहंस कहे; राजपूत कहे या जुलाहा कहे, मुझे किसी की बेटी से तो बेटे का ब्याह करना नहीं है, न मैं किसी से सम्पर्क रख कर उसकी जाति ही बिगाड़ूँगा। तुलसीदास तो राम का प्रसिद्ध गुलाम है, जिसको जो रुचे सो कहो। मुझको तो माँग के खाना और मस्जिद में सोना है; न किसी से एक  लेना है, न दो देना है।

एक कुम्हार माटी से चिलम बनाने जा रहा था..। उसने चिलम का आकार दिया..। थोड़ी देर में उसने चिलम को बिगाड़ दिया...l

माटी ने पूछा -: अरे कुम्हार, तुमने चिलम अच्छी बनाई फिर बिगाड़
क्यों दिया.?

कुम्हार ने कहा कि -:  अरी माटी, पहले मैं चिलम बनाने की सोच रहा था, किन्तु मेरी मति (दिमाग) बदली और अब मैं सुराही बनाऊंगा,,,।

ये सुनकर माटी बोली -: रे कुम्हार, मुझे खुशी है, तेरी तो सिर्फ मति ही बदली, मेरी तो जिंदगी ही बदल गयी.l

चिलम बनती तो स्वयं भी जलती और दूसरों को भी जलाती, अब सुराही बनूँगी तो स्वयं भी शीतल रहूंगी और दूसरों को भी शीतल रखूंगी...l

"यदि जीवन में हम सभी सही फैसला लें तो हम स्वयं भी खुश रहेंगे एवं दूसरों को भी खुशियाँ दे सकेंगे।
🙏🌹