Sunday, February 28, 2016

भगवान को ''सुमन''और  ''नमन''दोनों ही बहुत प्रिय है, इसलिए प्रभु को सुमन समर्पित करके नमन किया जाता हैं...

सुमन का अर्थ केवल पुष्प ही नहीं होता,
सुमन का तात्पर्य-
सु +मन = सुंदर मन से भी है,
अर्थात- सुन्दर मन ही सुमन है,
भगवान धन नहीं माँगते वे हमसे हमारा सुन्दर मन ही माँगते हैं....

जब हम आराध्य के चरणों में सिर झुकाते हैं नमन करते हैं तब
न मन होते हैं हम
न= नहीं  मन 
अर्थात
उस समय हमारा मन हमारा नहीं होता, प्रभु का होता है,जब मन प्रभु में होगा तो न हर्ष होगा न शोक होगा, आंनद ही आनंद होगा..!!!!

पुरुषार्थ एवं भाग्य
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भाग्यवादी अर्थात वे लोग जो यह सोचते हैं कि इस जिन्दगी में जो भी प्राप्त होना होगा हो ही जायेगा । पुरुषार्थवादी अर्थात वे लोग जो यह सोचते हैं और मानते भी हैं कि जीवन में ऊंचा स्थान भाग्य से नहीं अपितु परिश्रम से प्राप्त होता है । 
   भाग्य आपको ऊंचा कुल में या किसी समृद्ध परिवार में जन्म अवश्य दिला सकता है लेकिन जीवन में  समृद्धि, उन्नति, सम्मान यह सब केवल परिश्रम से ही सम्भव है।
  भाग्य से आपको नाव मिल सकती है किन्तु बिना पुरुषार्थ किये आप नदी पार नहीं कर सकते । भाग्य एक अवसर है और पुरुषार्थ उसका सदुपयोग । बिना कर्म किये तो भाग्य में लिखा हुआ भी वापस चला जाता है । परिश्रम ही सफलता की मांग है ।
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मंजिल तो मिल ही जायेगी भटक कर ही सही ।
गुमराह तो वो हैं जो घर से निकले ही नहीं ।।
शुभ संध्या आप सब का जीवन मंगलमय हो
अस्तु शुभम्😊👍🏽

Thursday, February 25, 2016

सर्वेभ्यो भक्तेभ्यो देवभाषारसरसिकेभ्यश्च नमो नमः।

[24/02 07:17] Arvind Guru Ji: हरि ॐ तत्सत्! सुप्रभातम्।
सर्वेभ्यो भक्तेभ्यो देवभाषारसरसिकेभ्यश्च नमो नमः। 🌺🙏🌺

अष्टौ गुणा पुरुषं दीपयंति
प्रज्ञा सुशीलत्वदमौ श्रुतं च।
पराक्रमश्चबहुभाषिता च
दानं यथाशक्ति कृतज्ञता च॥
(विदुर-नीति)

धर्मनीतिज्ञान सुसम्पन्न श्रीविदुर महाभाग राजा धृतराष्ट्र को उपदेशित करते हैं- हे राजन! इस संसार में आठ गुण पुरुष को सुशोभित करते हैं - बुद्धि, सुन्दर चरित्र, आत्म-नियंत्रण, शास्त्र-अध्ययन, साहस, मितभाषिता, यथाशक्ति दान और कृतज्ञता॥
🌺अमरवाणी विजयताम्🌺
[24/02 09:23] P alok. ji: गुणैर्गुणानुपादन्ते यथाकालं विमुन्चति ।

न तेषु युज्यते योगी गोभिर्गा इव गोपतिः।।
जैसे सूर्य अपनी किरणों से जल खीचते और समय पर उसे बरसा देते हैं ऐसे योगी पुरुष इन्द्रियो के द्वारा समय पर विषयो को ग्रहण करता है और समय आने पर उसका त्याग कर देता है।पं आलोकजी शास्त्री इन्दौर 9425069983
[24/02 13:13] P alok. ji: सुलभा: पुरूषा: राजन् सततं प्रियवादिन: ।
अप्रियस्य च तथ्यस्य वक्ता श्रोताच दुर्लभ: ॥
     महात्मा विदुर धृत्रराष्ट्र से कहते हैं “ हे राजन, प्रिय बोलने वाले व्यक्ति आपको सुलभता से प्राप्त हो जाएँगे; परंतु ऐसा वक्ता जो ऐसा सत्य बोलता हो जो कटु हो और सामनेवाले के हित में हो वह बोलने वाला और उसकी बात को सुनने वाला दुर्लभ ही मिलता है |” पं आलोकजी शास्त्री इन्दौर 9425069983 ......
[24/02 13:15] Arvind Guru Ji: हरि ॐ तत्सत्! शुभमध्याह्नम्।
सर्वेभ्यो भक्तेभ्यो देवभाषारसरसिकेभ्यश्च नमो नमः। 🌺🙏🌺

'इतिहास' के सन्दर्भ में विचार-विमर्श और समाधान।

हमारी भारतीय सनातन परम्परा में इतिहास शब्द का प्रयोग विशेषत: दो अर्थों में किया जाता है।

पहला है प्राचीन अथवा विगत काल की घटनाएँ और दूसरा उन घटनाओं के विषय में धारणा।

इतिहास शब्द की व्युत्पत्ति--
(इति + ह + आस) (अस् धातु, लिट् लकार, अन्य पुरुष तथा एक वचन) का तात्पर्य है "यह निश्चय था"।

"पूर्वृत्तं कथायुक्तमितिहासं प्रचक्षते इति मे मतिः।"

पूर्वविज्ञात घटनाओं का व्यवस्थित रूप से सत्यघटना क्रम का विवरण- ही इतिहास है।

इस प्रकार इतिहास शब्द का अर्थ है - परंपरा से प्राप्त उपाख्यान समूह (जैसे कि लोक कथाएँ), वीरगाथा (जैसे कि महाभारत) या ऐतिहासिक साक्ष्य।

इतिहास के अंतर्गत हम जिस विषय का अध्ययन करते हैं उसमें अब तक घटित घटनाओं या उससे संबंध रखनेवाली घटनाओं का कालक्रमानुसार वर्णन होता है।

दूसरे शब्दों में मानव की विशिष्ट घटनाओं का नाम ही इतिहास है।

या फिर प्राचीनता से नवीनता की ओर आने वाली, मानवजाति से संबंधित घटनाओं का वर्णन इतिहास है।
इन घटनाओं व ऐतिहासिक साक्ष्यों को तथ्य के आधार पर प्रमाणित किया जाता है। इसके अतिरिक्त और भी विचार और मत हो सकते हैं।

🌺🙏🌺
[24/02 20:18] पं. मंगलेश्वर त्रिपाठी: जय श्री कृष्ण🌹🙏🌹
विश्वास व्यवहार में एक मूलभूत तत्व है - नौकर पर भी करना पड़ता है, नाई पर भी करना पड़ता है, रसोइये पर भी करना पड़ता है, ड्राईवर पर भी करना पड़ता है, डाक्टर पर भी करना पड़ता है - अर्थात विश्वास जीवन का एक व्यवहारिक और अनिवार्य तत्व है, परन्तु श्रद्धा जो अपने से बड़े हैं, जिनमे हमारी महत्वबुद्धि है और जिनकी अनुभूति पर, स्थिति पर, निर्विकारता पर, निष्पक्षता पर हम सत्य भाव धारण करते हैं - उनपर ही कर सकते हैं । आस्तिकता का एक नाम है श्रुत और उसको अपने जीवन में धारण करने का नाम है श्रद्धा ।👌
[24/02 22:17] P satyprkash: इस संसार में न कोई किसी का मित्र है और न ही कोई किसी का शत्रु है। हम अपने व्यवहार से शत्रु और मित्र बनाते हैं। इसी विचार को आचार्य चाणक्य ने कहा है-
         न क कस्यचित् शत्रु: न क कस्यचित् मित्रम्।
           व्यवहारेण जायन्ते मित्राणि रिपवस्तथा।।
        मित्र बनाना और मित्रता करना बहुत सरल है परंतु उन्हें निभाना बहुत कठिन है। जब हमारे स्वार्थ टकराते तब वह मित्रता नहीं रहती व्यापार बन जाती है। मित्रता यदि हमारे श्मशान जाने तक हमारा साथ निभाती है तो वास्तव में वही मित्रता कहलाती है। सही मायने में हम तभी सच्चे मित्र होते हैं।
         शत्रु बनाना सबसे आसान है। हम अपनी स्वयं की गलतियों से लोगों को शत्रु बना बैठते हैं। हमारा अहम्, हमारा अविवेक, हमारा जनून ही हमारे शत्रु बनाने का काम करते हैं। जाने-अनजाने हम अपने शत्रुओं की संख्या बढ़ाते हैं।
[25/02 00:50] व्यास u p: " ज्ञान- बुद्धि को, धीरज - मन को, प्रेम - हृदय को और न्याय- आत्मा को शुद्धि प्रदान करता है।"
धर्म के विपरीत किया गया हर एक कर्म अधर्म है । अर्थात असत्य बोलने, हिंसा करने, किसी के साथ अन्याय करने, अकारण किसी से घृणा व वैमनस्य का भाव रखने, किसी भी व्यक्ति से उसकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता छीनने को अधर्म माना जाता है। धर्म का ज्ञान होते हुवे भी अधर्म का साथ देना, अधर्म को रोकने का सामर्थ्य होते हुवे भी अधर्म होते देखते रहना भी अधर्म है। धर्म के अंतर्गत व धर्म की रक्षा के लिये किया गया प्रत्येक कर्म पुण्य कर्म तथा अधर्म के अंतर्गत किया गया प्रत्येक कर्म पाप कर्म कहा गया । 
यदि किसी की भावना किसी का अहित करने की ना रही हो किन्तु परिस्थिति वश अनजाने में किसी का अहित हो जाये। या धर्म के आधार स्तंभो (सत्य, अहिंसा, न्याय, प्रेम, व्यक्तिगत स्वतंत्रता) में टकराव प्रतीत हो, धर्म ग्रंथो के अनुसार ऐसी परिस्थिति विशेष में हृदय से उत्पन्न प्रेम व करुणा वश लिया गया निर्णय अधर्म प्रतीत  होने पर भी अधर्म नहीं माना गया।  धर्म ग्रंथो में ऐसी अनेक कथाएँ है। जिनमे अधर्म प्रतीत होता है। किन्तु इसे धर्म ना मान नियति ( ईश्वर का चाहा) माना गया। इसीलिये हिन्दू धर्म में धर्म को एक जीवन को धारण करने, समझने और परिष्कृत करने की विधि बताया गया है।
श्री रामचरित्रमानस में भगवान राम के अपनी प्रजा के कहने पर राजधर्म व पति धर्म में टकराव उत्पन्न होने पर सीता माता को दिया गया वनवास किसी भी लिहाज से धर्म नहीं कहा जा सकता। क्योकि जिस सीता ने राम के लिए १४ वर्ष का वनवास झेला, सुख-दुःख में हमेशा उनका साथ दिया, उन सीता माता के लिये राज -पाठ त्याग पति धर्म का पालन करना धर्म प्रतीत होता है किन्तु धर्म ग्रन्थ में इसे अधर्म न मान नियति माना गया।
धर्म का ज्ञान होने पर भी अनुचित रूप से प्रेम वश किसी का पक्ष लेना व साथ देना मोह कहलाता है । मोह वश लिए गए निर्णय अंत मे मोह जाल मे पड़े व्यक्ति को ही कष्ट देते है। महाभारत मे धृतराष्ट का दुर्योधन के प्रति मोह इसी का उदाहरण है।
किसी व्यक्ति के द्वारा किये गए अच्छे व बुरे कर्मो से ही उसका प्रारब्ध निर्मित होता है। जो कि मृत्यु के पश्चात् भी जन्मो जन्मो तक आपके साथ चलता है। किसी का बहुत कम प्रयत्न में ही सफलता प्राप्त कर लेना और किसी का सही सोच और सही राहा पर भी हर सम्भव कोशिश करने पर भी सफलता हासिल करने के लिए परेशानियो से दो चार होना व्यक्ति के प्रारब्ध का ही परिणाम है।
हिन्दू धर्म ग्रन्थ कथाओ पर आधारित है। हिन्दू धर्म में धर्म को एक जीवन को धारण करने, समझने और परिष्कृत करने की विधि बताया गया है। हम कुछ कथाओ को देखते जो इस ब्लॉग पर उपलब्ध है कि वो हमे क्या बताती है । शिव सती मिलन की कथा हमे प्रेम की जन्मो जन्मो से चली आ रही प्रेमगाथा को बताती है। इक्यावन शक्ति पीठ की स्थापना की कथा हमे प्रेम की अखंडता और अधर्म के बुरे परिणाम को दर्शाती है।
शिव पार्वती विवाह की कथा एक माता पिता की अपनी पुत्री के भविष्य को लेकर होने वाली चिंता को दर्शाती है व एक प्रेमिका का अपने प्रेमी के प्रति दृढ़ संकल्पित रहने की शिक्षा देती है।
सती सावित्री की कथा प्रेम की शक्ति को दर्शाती है।  जिसमे प्रेम की शक्ति के बल पर सावित्री यमराज से तक अपने पति के प्राण वापस लौटा लाती है ।
राधा कृष्णा प्रेम की कथा प्रेम की उस अमरता को दर्शाती है जिसके चलते कृष्ण से पहले राधा का नाम लिया जाता है।
रुक्मणि हरण की कथा धर्म के व्यक्तिगत स्वतंत्रता व अपनी स्वेच्छा से जीवन जीने व जीवनसाथी चुनने के अधिकार को दिखलाती है।
भगवान कृष्ण  द्वारा सुभद्रा का हरण करवाने की कथा अपनो और परयो में भेद - भाव न कर एक सामान न्याय की शिक्षा देती है।
भीम और हिडम्बा प्रेम की कथा जाति, संप्रदाय से ऊपर धर्म व प्रेम की सर्वोपरिता को दर्शाती है। तथा प्रेम में हृदय की निर्मलता व निश्छलता को अधिक महत्त्व देती है । दानव मानव में भी प्रेम में भेद नहीं किया जा सकता है ।  
मीराबाई की कथा ह्रदय की गहराई के साथ प्रेम में डूबकर भाव मग्न हो प्रेम की पवित्रता , निर्मलता को दिखलाती है ।
सत्यावती और शांतनु प्रेम कथा हमें पिता की अपनी पुत्री के भविष्य को  लेकर चिंता व प्रेम के सर्वोपरिता को लेकर दो प्रेमियो को मिलाने हेतु कभी ना विवाह करने की भीषण प्रतिज्ञा के रूप में किये गए गंगापुत्र भीष्म के  त्याग को देवताओ द्वारा सरहाने को दिखलाती है। धर्म ग्रंथो, पुराणों में व्याप्त हर एक कथा व्यक्ति को कोई न कोई शिक्षा प्रदान करने के अपने उद्देश्य को पूरा करती है।
[25/02 00:59] पं संतोष जी: जन्म से शूद्र ब्राह्मण की संतान को शूद्र के घर में छोड़ आना चाहिए। इससे ब्राह्मण सुरक्षित रहेंगे। लेकिन उनके बाद विप्र कहाँ से लायेंगे। जाति व्यवस्था वेदों में नहीं है तो वैदिक नहीं कही जायेगी। रामलीला का वर्णन भी तो वेदों में नहीं है तो उसे भी वैदिक न माना जाय। समझ में नहीं आता कि वेद में क्या रहे कि सब उसे वैदिक मान लें। एक दिन वेद इसलिए अस्वीकृत हो जायेगा, क्योंकि वह स्कूल में नियमित विषय नहीं है। तब तो हम गये काम से।
[25/02 09:16] पं. मंगलेश्वर त्रिपाठी: जय श्री कृष्ण🌹🙏🌹
सुप्रभात🌻
 सुख के रूप में पुण्य का प्रभाव-:

पुण्य की मात्रा के अनुपात में व्यक्ति को पृथ्वी पर उतना सुख मिलता है और अंत में पृथ्वी पर अपने जीवनकाल में अपेक्षासहित कर्म से अर्जित पुण्य से वे स्वर्ग में सुख पाते हैं :
सुसंस्कृत एवं धनाढ्य परिवार में जन्मबढती आयसांसारिक सुखइच्छापूर्तिस्वस्थ जीवनसमाज, संस्था एवं शासनद्वारा प्रशंसा एवं सम्मानआध्यात्मिक प्रगतिमृत्यु के उपरांत स्वर्ग सुख,
मनुष्य जन्म, अच्छे कुल-परिवार में जन्म, धन, दीर्घायु, स्वस्थ शरीर, अच्छे मित्र, अच्छा पुत्र, प्रेम करनेवाला जीवनसाथी, भगवद्-भक्ति, बुद्धिमत्ता, नम्रता, इच्छाओं पर नियंत्रण एवं पात्र व्यक्ति को दान देने की ओर झुकाव, ऐसे पहलू हैं, जो पूर्वजन्म के पुण्यकर्मों के बिना असंभव है । जब यह सब हो, तो जो पुण्यात्मा इसका लाभ उठाता है और साधना करता है, उसकी आध्यात्मिक प्रगति होती है ।
जब समष्टि पुण्य बढता है, तो राष्ट्र सिद्धांत (दर्शन) और आचरण में सर्वश्रेष्ठ होता है तथा समृद्ध होता है ।
[25/02 09:58] P satyprkash: यह एक चिंतन का विषय है कि वेद और ज्योतिष आधुनिक विद्यालय के पाठ्यक्रम में नही है है जब कि किसी किसी समय शिक्षा के लिए अनिवार्य मापदण्ड का आधार ही वैदिक ज्योतिष हुआ करता था ।आज ऐसा नही है जबकि जो ज्ञान वेदों उपनिषदों स्मृतियों में सग्रहित है उसे ही कमोवेश परिवर्तित करके दूसरे की उपलब्धि बताकर दूसरी भाषाओँ में पढ़ाया जा रहा है उदाहरण के लिए विज्ञानं के किसी विषय को देख लीजिए चाहे गुरुत्वाकर्षण का नियम हो या प्रजनन संबधी कोई भी नियम सबके उदाहरण शास्त्रो में पहले से ही भरे पड़े है और पाश्चात बैज्ञानिको ने उनका अध्ययन भी किया और उसे अपनी भाषा में जनकल्याण के लिए सर्व समाज को समर्पित किया लेकिन हम अपनी दकियानूसी विचार धाराओ के चलते ऐसा नही कर सके क्योकि हमने उसे एक बर्ग विशेष के लिए आरक्षित कर लिया और हमारे पूर्वजो किअथक मेहनत कुछ लोगो के लिए रोटी रोजी भर बनकर रह गयी जो आज भी उस भावना का त्याग नही कर पा रहे है जिन्होंने तुच्छ मान और पद के लिए गुलामी तक को स्वीकार कर लिया लेकिन उस अनमोल वेद के ज्ञान को अपने ही भाइयो में सार्वजनिक नही होने दिया इसे मूर्खता और अदूरदर्शिता के शिवाय क्या कहा जा सकता है।गोस्वामी तुलसीदास जी ने राम चरित मानस में एक जगह लिखा है --जे कामी लोलुप जग माही।काक कुटिल इव सबहि डेराहि।।
मैं तो कहता हूँ वेदों में निहित ज्ञान सार्वजनिक होना चाहिये सवको वेद पढ़ने का अधिकार होना चाहिये  ।उसे स्कूली शिक्षा के पाठ्य क्रम में शामिल किया जाना चाहिए जैसा की वैदिक काल में था ।अन्यथा वह सदा सर्वदा के लिये पुस्तकस्था तू या विद्या बनकर ही रह जायेगी  और कुछ स्वार्थी लोग उसका दुरूपयोग ही करेगे।🙏
[25/02 10:19] Arvind Guru Ji: हरिः ॐ तत्सत्!  सुप्रभातम्।
नमो नमः।🙏

धर्मे तत्परता मुखे मधुरता दाने समुत्साहिता
मित्रेSवञ्चकता गुरौ विनयिता चित्तेSतिगम्भीरता।
आचारे शुचिता गुणे रसिकता शास्त्रेSतिविज्ञानिता
रुपे सुन्दरता हरौ भजनिता सत्स्वेव संदृश्यते।।
(भर्तृहरि-नीतिशतकम्)

महाराजभर्तृहरि जी कहते हैं, धर्मविषयक कार्यों में समुत्साह, वाणी में माधुर्य, दान देने में औदार्य और हर्ष, मित्रों के साथ निर्मल व्यवहार, गुरुजनों के प्रति विनीत भाव, चित्त में गाम्भीर्य आचार-विचार में पवित्रता,  गुणग्रहण में रसिकता, शास्त्र में वैदुष्य, रूप में सौन्दर्य तथा भगवत्स्मरण में लगन- ये समस्त गुण सत्पुरुषों सहज ही देखे जाते हैं।

🌺अमरवाणी विजयताम्🌺
[25/02 11:26] P satyprkash: आत्मा अजन्मा है और समय से बद्ध नहीं (नित्य है) इसलिए आत्मा का कोई वर्ण नहीं होता | यह तो आत्मा द्वारा मनुष्य शरीर धारण किये जाने पर ही वर्ण चुनने का अवसर मिलता है | तो क्या वर्ण ईश्वर के शरीर के किसी हिस्से से आता है? आत्मा कभी ईश्वर के शरीर से जन्म तो लेता नहीं तो क्या ऐसा कहा जा सकता है कि आत्मा का शरीर ईश्वर के शरीर के हिस्सों से बनाया गया? किन्तु वेदों की साक्षी से प्रकृति भी शाश्वत है और कुछ अणु पुनः विभिन्न मानव शरीरों में प्रवाहित होते हैं | अतः यदि परमात्मा सशरीर मान ही लें तो भी यह असंभव है किसी भी व्यक्ति के लिए की वह परमात्मा के शरीर से जन्म ले |
जिस पुरुष सूक्त का हवाला दिया जाता है वह यजुर्वेद के ३१ वें अध्याय में है साथ ही कुछ भेद से ऋग्वेद और अथर्ववेद में भी उपस्थित है | यजुर्वेद में यह ३१ वें अध्याय का ११ वां मंत्र है | इसका वास्तविक अर्थ जानने के लिए  इससे पहले मंत्र ३१.१० पर गौर करना जरूरी है | वहां सवाल पूछा गया है – मुख कौन है?, हाथ कौन है?, जंघा कौन है? और पाँव कौन है? तुरंत बाद का मंत्र जवाब देता है – ब्राहमण मुख है, क्षत्रिय हाथ हैं, वैश्य जंघा हैं तथा शूद्र पैर हैं |
यह ध्यान रखें की मंत्र यह नहीं कहता की ब्राह्मण मुख से “जन्म लेता” है … मंत्र यह कह रहा है की ब्राह्मण ही मुख है | क्योंकि अगर मंत्र में “जन्म लेता” यह भाव अभिप्रेत होता तो “मुख कौन है?” इत्यादि प्रश्नों का उत्तर देने की आवश्यकता ही नहीं थी |
उदाहरणतः यह पूछा जाए, “दशरथ कौन हैं?” और जवाब मिले “राम ने दशरथ से जन्म लिया”, तो यह निरर्थक जवाब है |
[25/02 11:26] P satyprkash: वर्ण और जाति
जैसा कि उपर कहा गया है, वर्ण सिद्धांत आधारित प्रचीन शब्द है जबकि जाति अपेक्षाकृत नवीन और जन्म तथा कार्य आधारित शब्द है। भारतीय दर्शन के अनुसार सत यथा-संभव उचित जानने और करने वाला गुण है, रज उचित जानना लेकिन तात्कालिक लाभ के लिए समय समय पर कर्तव्य से डिगने वाला गुण है और दुनिया को समझने की बजाय अज्ञान के अंधकार में रहने के गुण को तम कहते हैं। वास्तव में चार वर्ण मनुष्य जाति का मूलभूत स्वभाव है, ज्योतिष में भी इसके लक्षण मिलते हैं और श्रीमदभगवत गीता में भी। वे इस प्रकार है-
ब्राम्हण - ब्रम्हज्ञानी - ज्ञान प्रसार करने वाले, उचित (धर्म शब्द का वास्तविक अर्थ) और अनुचित को समझने वाला और दूसरों का बताने वाला। क्षत्रिय - रज गुण प्रधान वाला - वीर एवं योद्धा - युद्ध में कभी पीछे न हटने वाला। लेकिन रज गुण के कारण राज्य, धन और अन्य कारणों से इनका धर्म (यानि स्थिति के अनुसार उचित कर्तव्य) में विश्वास अटल नहीं रहता और इनके मोह में गलतियाँ कर बैठते हैं। वैश्य - व्यवसाय में निपुण, रज और तम गुणों के मिश्रण वाले लोग - बनिया या वैश्य। विश धातु का अर्थ है सभी स्थानों पर जाने वाले यानि (कर्मानुसार) धन अर्जित करने वाले। विश धातु से ही प्रवेश और विष्णु जैसे शब्द बने हैं। शूद्र - तमोगुणी, दुःख-सुख के कारणों के न जानना और न जानने की इच्छा रखना। स्वभाव से बेपरवाह, मस्तमौला जीव- कल की फिक्र नहीं, मेहनत करो और खाओ-पियो मौज करो।
ध्यान दीजिये कि ये स्वभाव (गुण या प्रकृति) सभी मनुष्यों में है और उनके शारीरिक रंग से परे है। यानि एक अफ़्रीका का वासी भी इन्ही गुणों से मिलकर बना है और यूरोप वासी भी। यानि वर्ण शब्द एक सिद्धांत यानि दर्शन को बताता है, ना कि चमड़ी के रंग को।या किसी के dna को
[25/02 11:39] P satyprkash: आज एक मीटिंग चल रही थी जिसमे  सब अध्यापक गण ही मौजूद थे किसी ने प्रश्न किया आखिर इतना बड़ा देश हजारो साल तक गुलाम कैसे रहा । कैसे मुठ्ठी भर लोग तलवार लेकर आये और लाखो करोड़ो लोगो पर शासन किया।मेरे मुँह से अनायास ही निकल गया भगवान बुद्ध के कारण लोगो ने पुछावह कैसे मैंने कहा आचार्य चाणक्य ने तो अखण्ड भारत की संकल्पना प्रस्तुत किया था और चन्द्र गुप्त से लेकर अशोक तक को हिंसा के द्वारा ही अहिंसा को स्थापित किया जा सकता है इस विचार से ससक्त किया खैबर दर्रा पर ऐसे मजबूत दुर्ग का निर्माण किया की अलखजेन्डर तक को परास्त होकर जाना पड़ा। लेकिन चाणक्य के वाद खासकर कलिंग विजय के पश्यात सम्राट अशोक तथागत के सम्पर्क में आया और बुद्ध धर्म को स्वीकार कर लिया सारी सेना के सर मुड़वा दिया सबको भिक्षु बना दिया जब किसी देश की सेना ही भिक्षु हो गई तो शांति और एकता का प्रश्न ही नही उठता जिसका लाभ विदेश से आये हुए मुगल लुटेरो ने उठाया और गुलामी की शुरआत हुई।
[25/02 11:43] प राजेस्वराचा: श्रीमद् भागवत महापुराण में श्री सुखदेव जी ने राजा परीक्षित जी से कहा है कि

ब्रह्म निष्ठ योगी पहले एँड़ी से अपनी गुदा को दबाकर स्थिर हो जाए और तब बिना घबराहट के प्राण वायु को षट्चक्र भेदन की रीती से ऊपर ले जाएं|
मनस्वी योगी को चाहिए की नाभि चक्र मणिपुर में स्थित वायु को हृदय चक्र अनाहत में वहां से उदान वायु के द्वारा वक्षस्थल के ऊपर विश्वास चक्र में फिर उस वायु को धीरे-धीरे तालुमूल में (विशुद्ध चक्र के अग्र भाग में) चढ़ा दें|
ताजा नंतर दो आंख दो कान दो नासा चित्र और मुख इंसानो चित्रों को रोककर उस तालुमूल में स्थित वायु को बांहों के बीच आज्ञा चक्र में ले जाएं, यदि किसी लॉक में जाने की इच्छा ना हो तो आधी घड़ी तक उस वायु को यहीं रोक कर स्थिर लक्ष्य के साथ उसे सहस्रधारा में ले जाकर परमात्मा में स्थित हो जाए इसके बाद ब्रह्मरन्ध्र का भेदन करके शरीर इंद्रियादि को छोड़ दे|
हे परीक्षित ! यदि योगी की इच्छा हो कि मैं ब्रम्हलोक में जाऊं उठो सिद्धिया प्राप्त करके आकाशचारी सिद्धों के साथ बिहार करूं आत्मा त्रिगुण माना ब्रह्मांड के किसी प्रदेश में विचरण करूं तो उसे मन और इंद्रियों को साथ ही लेकर शरीर से निकलना चाहिए|

योगियों का शरीर वायु की भांति सूक्ष्म होता है उपासना तपस्या योग और ज्ञान का सेवन करने वाले योगियों को त्रिलोकी के बाहर और भीतर सर्वत्र स्वच्छंद रूप से विचरण करने वाला अधिकार होता है केवल कर्मों के द्वारा इस प्रकार वे रोक-टोक विचारना नहीं हो सकता|
हे परीक्षित ! योगी ज्योतिर्मय मार्ग सुषुम्णा के मार्ग द्वारा जब ब्रम्हलोक के लिए प्रस्थान करता है तब पहले आकाशमार्ग से अग्नि लोक में जाता है वहां उसके बच्चे को चैनल भी जल जाते हैं इसके बाद वह वहां से ऊपर भगवान श्रीहरि के शिशु मार नामक ज्योतिर्मय चक्र पर पहुंचता है|
[25/02 12:36] व्यास u p: ब्रह्म सत्य, जगत मिथ्या : जो ब्रह्म (ईश्वर) को छोड़कर किसी अन्य को नहीं पूजता वह ब्राह्मण। ब्रह्म को जानने वाला ब्राह्मण कहलाता है। जो पुरोहिताई करके अपनी जीविका चलाता है, वह ब्राह्मण नहीं, याचक है। जो ज्योतिषी या नक्षत्र विद्या से अपनी जीविका चलाता है वह ब्राह्मण नहीं, ज्योतिषी है

और जो कथा बांचता है वह ब्राह्मण नहीं कथा वाचक है। इस तरह वेद और ब्रह्म को छोड़कर जो कुछ भी कर्म करता है वह ब्राह्मण नहीं है। जिसके मुख से ब्रह्म शब्द का उच्चारण नहीं होता रहता वह ब्राह्मण नहीं।
न जटाहि न गोत्तेहि न जच्चा होति ब्राह्मणो।
यम्हि सच्चं च धम्मो च सो सुची सो च ब्राह्मणो॥
अर्थात : भगवान बुद्ध कहते हैं कि ब्राह्मण न तो जटा से होता है, न गोत्र से और न जन्म से। जिसमें सत्य है, धर्म है और जो पवित्र है, वही ब्राह्मण है। कमल के पत्ते पर जल और आरे की नोक पर सरसों की तरह जो विषय-भोगों में लिप्त नहीं होता, मैं उसे ही ब्राह्मण कहता हूं।
🍁🙏🙏🙏🙏🙏🍁
[25/02 14:58] प राजेस्वराचा: ब्राह्मण इतना तेजस्वी  होता है
की हर चर्चा का केंद्र बिंदु होता है तो ब्राह्मण
निंदा का केंद्र बिंदु होता है तो ब्राह्मण प्रशंसा का केंद्र बिंदु होता है तो ब्राह्मण
चरण छूने की बारी आती है तो ब्राह्मण
हर जगह ब्राह्मण हर जगह ब्राह्मण इसलिए ब्राह्मण किसी भी रूप में हो कहीं भी हो किसी भी अवस्था में हो ... है तो ब्राह्मण
उसे भी बहुत झेलने पड़ते हैं सुनने पड़ते हैं लोगों की बातों को....

अतः ब्राह्मण सदैव पूजनीय है
[25/02 18:15] प राजेस्वराचा: ध्वनि के केंद्र में स्नान करो

ध्वनि के केंद्र में स्नान करो, मानो किसी जलप्रपात की अखंड ध्वनि में स्नान कर रहे हो। या कानों में अंगुली डाल कर नादों के नाद, अनाहत को सुनो।

इस विधि का प्रयोग कई ढंग से किया जा सकता है। एक ढंग यह है कि कहीं भी बैठ कर इसे शुरू कर दो। ध्वनियां तो सदा मौजूद हैं। चाहे बाजार हो या हिमालय की गुफा, ध्वनियां सब जगह हैं। चुप होकर बैठ जाओ।
और ध्वनियों के साथ एक बड़ी विशेषता है, एक बड़ी खूबी है। जहां भी, जब भी कोई ध्वनि होगी, तुम उसके केंद्र होगे। सभी ध्वनियां तुम्हारे पास आती हैं, चाहे वे कहीं से आएं, किसी दिशा से आएं। आंख के साथ, देखने के साथ यह बात नहीं है। दृष्टि रेखाबद्ध है। मैं तुम्हें देखता हूं तो मुझसे तुम तक एक रेखा खिंच जाती है। लेकिन ध्वनि वर्तुलाकार है; वह रेखाबद्ध नहीं है। सभी ध्वनियां वर्तुल में आती हैं और तुम उनके केंद्र हो। तुम जहां भी हो, तुम सदा ध्वनि के केंद्र हो। ध्वनियों के लिए तुम सदा परमात्मा हो--समूचे ब्रह्मांड का केंद्र। हरेक ध्वनि वर्तुल में तुम्हारी तरफ यात्रा कर रही है।
यह विधि कहती है: "ध्वनि के केंद्र में स्नान करो।' अगर तुम इस विधि का प्रयोग कर रहे हो तो तुम जहां भी हो वहीं आंखें बंद कर लो और भाव करो कि सारा ब्रह्मांड ध्वनियों से भरा है। तुम भाव करो कि हरेक ध्वनि तुम्हारी ओर बही आ रही है। और तुम उसके केंद्र हो। यह भाव भी कि मैं केंद्र हूं तुम्हें गहरी शांति से भर देगा। सारा ब्रह्मांड परिधि बन जाता है और तुम उसके केंद्र होते हो। और हर चीज, हर ध्वनि तुम्हारी तरफ बह रही है। "मानो किसी जलप्रपात की अखंड ध्वनि में स्नान कर रहे हो।'

अगर तुम किसी जलप्रपात के किनारे खड़े हो तो वहीं आंख बंद करो और अपने चारों ओर से ध्वनि को अपने ऊपर बरसते हुए अनुभव करो। और भाव करो कि तुम उसके केंद्र हो।

अपने को केंद्र समझने पर यह जोर क्या है? क्योंकि केंद्र में कोई ध्वनि नहीं है; केंद्र ध्वनि-शून्य है। यही कारण है कि तुम्हें ध्वनि सुनाई पड़ती है; अन्यथा नहीं सुनाई पड़ती। ध्वनि ही ध्वनि को नहीं सुन सकती। अपने केंद्र पर ध्वनि-शून्य होने के कारण तुम्हें ध्वनियां सुनाई पड़ती हैं। केंद्र तो बिलकुल ही मौन है, शांत है। इसीलिए तुम ध्वनि को अपनी ओर आते, अपने भीतर प्रवेश करते, अपने को घेरते हुए सुनते हो।
अगर तुम खोज लो कि यह केंद्र कहां है, तुम्हारे भीतर वह जगह कहां है जहां सब ध्वनियां बह कर आ रही हैं तो अचानक सब ध्वनियां विलीन हो जाएंगी और तुम निर्ध्वनि में, ध्वनि-शून्यता में प्रवेश कर जाओगे। अगर तुम उस केंद्र को महसूस कर सको जहां सब ध्वनियां सुनी जाती हैं तो अचानक चेतना मुड़ जाती है। एक क्षण तुम निर्ध्वनि से भरे संसार को सुनोगे और दूसरे ही क्षण तुम्हारी चेतना भीतर की ओर मुड़ जाएगी और तुम बस ध्वनि को, मौन को सुनोगे जो जीवन का केंद्र है। और एक बार तुमने उस ध्वनि को सुन लिया तो कोई भी ध्वनि तुम्हें विचलित नहीं कर सकती। वह तुम्हारी ओर आती है; लेकिन वह तुम तक पहुंचती नहीं है। वह सदा तुम्हारी ओर बह रही है; लेकिन वह कभी तुम तक पहुंच नहीं पाती। एक बिंदु है जहां कोई ध्वनि नहीं प्रवेश करती है; वह बिंदु तुम हो।
[25/02 19:23] Mhakal: पद्म पुराण उठा के उनको पढ़ लेना चाहिए कान्य कुब्जीय ब्राह्मण शिखा विहीन होने से अपूज्य होगये थे सतयुग की कथा है राजा सतायु जो विष्णु के परम् भक्त थे जो नारायण का दर्शन चाहते थे उन्ही के राज्य में एक ब्राह्मण नितांत गरीब परिवार से था वो भी नारायण का ही भक्त था जब राजा को पता चला राजा खुस बहुत हुआ लेकिन राजा को चिंता भी होने लगी कही नारायण मुझसे पहले ब्राह्मण को दर्शन दे इस लिए कन्नौज के ब्राह्मणों के पास गए ब्राह्मणों ने अहंकार बस बोल दिया की अगर आप को पहले दर्शन न कराये तो कर्म कांड परित्याग के साथ शिखा त्याग देंगे दोनों की भक्ति 27 दिन की चली की भगवन का दर्शन इतने दिन में हो प्रभु ब्राह्मणों के पास भेष बदल कर गए तो तिरस्कृत हुए पर जब ब्राह्मण के पास गए तो ब्राह्मण विस्वास में नाचने लगा तो नारायण ब्राह्मण को दर्शन पहले दे दिए जब राजा को पता चला तो राजा हवन कुण्ड में कूद गए नारायण ने राजा को भी बचाया और बताया भी किराजन पहले आप के ही पास आया था पर अभिमान में फसे ये विप्र पहचान ही नही पाये उसी दिन से कान्य कुब्ज ब्राह्मण अनुष्ठान में बर्जनीय भी और शिखा व्8हिन् भी हुए तो राम  इनको कभी बुला ही नही सकते रही सरयू पारीण ब्राह्मणों की तो वो सरयू के दक्षिण भाग वाले है न की उत्तर वाले पदम् पुराण का अवलोकन करे
[25/02 19:36] Mhakal: ब्रह्म सत्य, जगत मिथ्या : जो ब्रह्म (ईश्वर) को छोड़कर किसी अन्य को नहीं पूजता वह ब्राह्मण। ब्रह्म को जानने वाला ब्राह्मण कहलाता है। जो पुरोहिताई करके अपनी जीविका चलाता है, वह ब्राह्मण नहीं, याचक है। जो ज्योतिषी या नक्षत्र विद्या से अपनी जीविका चलाता है वह ब्राह्मण नहीं, ज्योतिषी है
और जो कथा बांचता है वह ब्राह्मण नहीं कथा वाचक है। इस तरह वेद और ब्रह्म को छोड़कर जो कुछ भी कर्म करता है वह ब्राह्मण नहीं है। जिसके मुख से ब्रह्म शब्द का उच्चारण नहीं होता रहता वह ब्राह्मण नहीं।
न जटाहि न गोत्तेहि न जच्चा होति ब्राह्मणो।
यम्हि सच्चं च धम्मो च सो सुची सो च ब्राह्मणो॥
अर्थात : भगवान बुद्ध कहते हैं कि ब्राह्मण न तो जटा से होता है, न गोत्र से और न जन्म से। जिसमें सत्य है, धर्म है और जो पवित्र है, वही ब्राह्मण है। कमल के पत्ते पर जल और आरे की नोक पर सरसों की तरह जो विषय-भोगों में लिप्त नहीं होता, मैं उसे ही ब्राह्मण कहता हूं।
तसपाणे वियाणेत्ता संगहेण य थावरे।
जो न हिंसइ तिविहेण तं वयं बूम माहणं॥
अर्थात : महावीर स्वामी कहते हैं कि जो इस बात को जानता है कि कौन प्राणी त्रस है, कौन स्थावर है। और मन, वचन और काया से किसी भी जीव की हिंसा नहीं करता, उसी को हम ब्राह्मण कहते हैं।
न वि मुंडिएण समणो न ओंकारेण बंभणो।
न मुणी रण्णवासेणं कुसचीरेण न तावसो॥
अर्थात : महावीर स्वामी कहते हैं कि सिर मुंडा लेने से ही कोई श्रमण नहीं बन जाता। ओंकार का जप कर लेने से ही कोई ब्राह्मण नहीं बन जाता। केवल जंगल में जाकर बस जाने से ही कोई मुनि नहीं बन जाता। वल्कल वस्त्र पहन लेने से ही कोई तपस्वी नहीं बन जाता।
शनकैस्तु क्रियालोपदिनाः क्षत्रिय जातयः।
वृषलत्वं गता लोके ब्राह्मणा दर्शनेन च॥
पौण्ड्रकाशचौण्ड्रद्रविडाः काम्बोजाः भवनाः शकाः ।
पारदाः पहल्वाश्चीनाः किरताः दरदाः खशाः॥- मनुसंहिता (1- (/43-44)
अर्थात : ब्राह्मणत्व की उपलब्धि को प्राप्त न होने के कारण उस क्रिया का लोप होने से पोण्ड्र, चौण्ड्र, द्रविड़ काम्बोज, भवन, शक, पारद, पहल्व, चीनी किरात, दरद व खश ये सभी क्षत्रिय जातियां धीरे-धीरे शूद्रत्व को प्राप्त हो गईं।