Thursday, February 11, 2016

[12/1 23:15] SKMishra.shoaqh: [10/1/2016/20:24Hr.]
मर्यादा का तात्पर्य

पं. जगदीश प्रसाद द्विवेदी(धर्मार्थ. ):
        सम्मान पाने के लिए मर्यादा का पालन जरूरी है। संसार में भगवान राम मर्यादा पुरूषोत्तम के रूप में पूजे जाते हैं। इसका कारण यह है कि इन्होंने अपने जीवन में हर रिश्ते के साथ न्याय किया। इन्होंने कभी भी बड़ा होने का अभिमान नहीं दिखाया।
इन्होंने छोटे भाइयों को सम्मान दिया और सदैव माता-पिता के आज्ञाकारी रहे। पत्नी की सुरक्षा के लिए रावण से लड़े और राजा के रूप में जनता को महत्व दिया।
लेकिन जब कोई व्यक्ति अपनी मर्यादा की सीमा रेखा को तोड़कर आगे बढ़ने की कोशिश करता है तभी विवाद और क्लेश उत्पन्न होता है।
वर्तमान समय में कई ऐसी घटनाएं सामने आ रही हैं कि बेटे ने पिता को घर से बाहर निकाल दिया। बेटे ने बाप की संपत्ति हड़प ली। ससुर का अपनी बहू से अनैतिक संबंध है और भाई ने बहन का अपमान किया। जब ऐसी घटनाएं होती हैं तो मर्यादा का हनन होता है। संसार में रिश्तों की डोर का निर्माण मर्यादा की रक्षा के लिए किया गया था। यही सामाजिक जीवन का आधार भी है। जब कोई मार्यादा का उल्लंघन करता है तब सामाजिक व्यवस्था बिगडने लगती है और मर्यादा का उल्लंघन करने वाला और मर्यादा का हनन होने वाला दोनों ही अपमानित होता है। जब कोई किसी के साथ अमर्यादित व्यवहार करता है तो उसे भी अर्मायादित व्यवहार ही प्राप्त होता है।
उदाहरण के तौर पर गंगा नदी जब तक अपनी सीमा में प्रवाहित होती है उसे माता का दर्जा प्राप्त होता है, लोग इसकी आरती उतारते हैं। लेकिन जब अपनी मर्यादा का उल्लंघन करके तटों को तोड़कर आगे बढ़ती है तब गंगा आदरणीय नहीं रह जाती। नाले के जल से मिलकर गंगाजल 'गंदाजल' कहलाने लगता है।
पं मंगलेश्वर त्रिपाठी: मर्यादा का मतलब किसी एक की अपनी जिंदगी से नही बल्कि अपने उस पूरे समाज से है जिसमे हम रह रहे हैं और वो उस पर निर्भर करता है और समय समय पर समाज में परिवर्तन होते आये हैं, जैसे राजा दशरथ के समय में समाज में बहुविवाह प्रचलित था, जबकि राम ने सिर्फ एक विवाह करके उस समय के समाज में परिवर्तन लाया और लोग इससे बहुत प्रभावित हुए और एक विवाह की ओर प्रेरित हुए। शायद यहाँ से ही वे मर्यादित कहलाने लगे थे चूँकि उन्होंने उस समय के समाज को प्रभावित किया था। मर्यादा  के अनेक उदाहरण हैं लेकिन हमे यह समझ में आया कि समाज को एक अच्छा मार्गदर्शन कराना समाज की बुराइयों को दूर करना ही मर्यादा का मूल रूप है।
पं रवीन्द्र मिश्र :
        महर्षि वाल्मीकि द्वारा लिखित रामायण में भगवान श्रीराम को मर्यादा पुरुषोत्तम बताया गया है। श्रीराम भगवान विष्णु के रूप थे। स्वाभाविक है कि श्रीराम का चरित्र भी भगवान के समान सौम्य होगा। लेकिन श्रीराम के छोटे भाई लक्ष्मण जोकि शेषनाग के अवतार थे, के चरित्र के बारे में कम ही लोग जानते होंगे। लक्ष्मणजी के चरित्र का, रामायण में कई जगह उल्लेख मिलता है। एक बार महर्षि अगस्त्य श्रीराम की सभा में आए। राम ने लंका के युद्ध की चर्चा करते हुए उनसे कहा, 'मैंने रावण, कुंभकर्ण को रणभूमि में मार गिराया था तथा लक्ष्मण ने इंद्रजीत और अतिकाय का वध किया था।'
तब महर्षि बोले, 'हे राम! इंद्रजीत लंका का सबसे बड़ा वीर था। वह इंद्र को बांध कर लंका ले आया था। ब्रह्माजी आकर इंद्र को मांग ले गए। इंद्रजीत बादलों की ओट में रहकर युद्ध करता था। लक्ष्मण ने उसका वध किया तो लक्ष्मणजी के समान त्रिभुवन में कोई वीर नहीं है।' यह सुनकर श्रीराम बोले, 'मुनिवर यह आप क्या कह रहे हैं? महावीर कुंभकर्ण और रावण को पराजित करना मुश्किल काम था। तब आप इंद्रजीत पर इतने मेहरबान क्यों हैं?' तब महर्षि अगस्त्य बोले,' इंद्रजीत को वरदान था कि जो व्यक्ति चौदह वर्ष तक नहीं सोया हो, न ही इन वर्षों में किसी स्त्री का मुख देखा हो, इन वर्षों में भोजन नहीं किया हो ऐसा व्यक्ति ही इंद्रजीत को मार सकता था।' श्रीराम बोले, 'मुनिवर आपका कहना ठीक है। लेकिन हम चौदह वर्ष तक साथ रहे, पर लक्ष्मण सोए नहीं ? इस बात पर कैसे विश्वास किया जाए?' तब श्रीराम ने सभा बुलाई जिसमें लक्ष्मण भी आमंत्रित थे। लक्ष्मण जी से जब यह बात पूछी गई कि आप चौदह वर्ष तक सोए नहीं, क्या तुम अन्न नहीं खाया ?' लक्ष्मणजी ने कहा, 'जब रावण, माता सीता जी का हरण करके ले गया तब हम माता सीता जी को खोजते हुए ऋष्यमूक पर्वत पर पहुंचे। वहां सुग्रीव ने माता सीता के आभूषण दिखाए लेकिन में उनके नूपुर ही पहचान पाया क्योंकि मैंने उन्हें चौदह वर्षों तक देखा ही नहीं था उनसे बात करते समय मेरी निगाह सिर्फ माता के चरणों पर रहती थी। आप और माता सीता कुटिया में रहते थे तो मैं बाहर पहरा देता था। जब मुझे नींद आती तो मैं अपने बाणों से आंखों को कष्ट पहुंचाता ताकि नींद न आए। इस तरह में चौदह वर्ष तक जागता रहा। मैं अन्न इसलिए नहीं खाता था, क्योंकि मैं जंगल में जाकर फल लाता था, और आप उनके तीन भाग करते थे। आपने कभी मुझसे उन्हें खाने के लिए नहीं कहा, आपकी आज्ञा के बिना मैं अन्न कैसे खा सकता था। अतः चौदह वर्ष से सभी फल मेरे पास सुरक्षित रखे हुए हैं। तब उन्होंने फल लाने का आदेश हनुमान जी को दिया। फलों के बारे में सुनकर हनुमानजी को अहंकार आ गया कि इन फलों को मैं आसानी से ला सकता हूं। जब वह फल लेने गए तो उसकी टोकरी को हिला भी नहीं पाए। उन्होंने सभा में आकर श्रीराम जी से कहा कि प्रभु में उन फलों की टोकरी को हिला भी नहीं पा रहा हूं। तब श्रीराम ने लक्ष्मण जी को फल लाने का आदेश दिया और उनसे पूरे फल गिनकर लाने को कहा। फलों की गिनती में सात दिनों के फल कम निकले। श्रीराम बोले कि, 'तो सात दिनों के फल तुमने खा लिए थे। लक्ष्मण जी बोले, नहीं प्रभु, दरअसल जिस दिन पिता की मृत्यु का समाचार सुनकर हम वियोग में रहे उन सात दिनों में हम विश्वामित्र आश्रम में निराहार रहे। जिस दिन में इंद्रजीत के नागपाश में बंधा था, उस दिन फल नहीं लाया था। जिस दिन रावण ने मुझे शक्ति मारी थी। उस दिन भी मैं फल नहीं ला सका। जिस दिन रावण की मृत्यु का अपार हर्ष था उस दिन भी मैं फल नहीं लाया था। आपके मन में यही शंका है कि मैं फल खाता था या नहीं ? दरअसल आप भूल गए हैं कि ऋषि विश्वामित्र से हमें ऐसा मंत्र मिला था। जो मुझे याद है। उसी के चलते में बिना अन्न-जल के चौदह वर्ष उपवासी रहा। इन सभी कारणों से इंद्रजीत मेरे हाथ से मारा गया।' यह सब कुछ सुनकर भगवान श्रीराम ने अपने आज्ञाकारी और अतुल्य अनुज को गले लगा लिया।
पं आलोक त्रिपाठी:
हर रिश्ते की अपनी एक मर्यादा होती है लेकिन जब कोई मर्यादा को लांघ जाता है तो रिश्ते अपनी गरिमा ही नहीं विश्वास भी खो बैठते हैं। आखिर क्यों बन जाते हैं ऎसे अमर्यादित रिश्ते जिनकी समाज में कोई जगह नहीं है! कई बार कुछ ऎसी शर्मनाक घटनाएं अखबारों की सुर्खियां बनी होती हैं जिन्हें पढ़कर मन घृणा और शर्म से भर जाता है और ऎसी खबरों को पढकर बस एक ही ख्याल दिमाग में आता है कि रिश्तों की मर्यादा को कौन सा कीडा खाए जा रहा है। आखिर समाज किस गर्त में जा रहा है,जहां ल़डका अपनी मौसी की बेटी को भगाकर ले गया, कहीं दामाद ने सास के संग भागकर विवाह कर लिया तो कहीं बहू ने अपने ससुर को पति बना लिया तो कहीं भताजे ने अपनी हमउम्र बुआ से ही विवाह कर लिया।रिश्तों को कलंकित कर देने वाले इन कृत्यों के पीछे भी लोगों ने तर्क गढ़ा प्यार का। क्या वाकई ये सभी घटनाएं प्यार को दर्शाती हैं। ब़डे बुजुर्गो से यह तो सुना था कि इंसान प्यार में जात-पांत, धर्म नहीं देखता है लेकिन ये कभी नहीं सुना था कि इंसान प्यार में रिश्तों की पवित्रता की दहलीज को भी लांघ जाता है। शर्म से गड़ जाने वाली ये घटनाएं आखिर क्यों संस्कारों से भरे इस समाज में घटित हो रही हैं। 
SKMishra.shoaqh:
अखिल विश्व की रचना का मूल आधार है, 'सद्गुण' अर्थात् 'सत् का गुण' (सतः गुणमिति सद्गुणम्)। वह सद्ब्रह्म अपने स्वरूप-गुण के लक्षण के आधार पर गुणों के अनन्त संघटन प्रक्रिया के द्वारा विभिन्न सूत्रों से नाना धर्म तथा स्वभाव वाली प्रजा का निर्माण करता है। जब इन सूत्रों का विघटन होता है तो प्रकृति (कृति-पूर्व तत्त्व) में विक्षोभ होता है। अतः इन सूत्रों की रक्षा करना ही प्रजा का कर्त्तव्य बनता है।  यह विश्व चौरासी लाख जीव-योनियों सहित पदार्थ और पादप के अनन्त प्रजातियों से परिपूरित है। स्पष्ट है कि प्रत्येक प्रजाति की अपनी एक विशिष्ट सूत्रीय संरचना होती है, जिसमें रहकर ही उसकी सत्ता अक्षुण्ण रहने में समर्थ होती है। जिसका संरचना-सूत्र भंग हुआ, उसकी सत्ता लुप्त होने में कोई संदेह नहीं रहता। यही सूत्र भाषा-समर्थ प्राणियों मे मर्यादा या सीमा के नाम से प्रसिद्ध है। मनुष्य अगाध बुद्धि-सम्पन्न एवं कर्म-समर्थ होने के कारण, अपने सहित समस्त प्रजा की मर्यादा का आविष्कार कर पाने में सफल हुआ है और तदनुसार उसने विशाल वैदिक धर्म का प्रतिपादन किया है। इस धर्म के अन्तर्गत केवल हिन्दु या तथाकथित ब्राह्मण ही नहीं, अपितु विश्व की समस्त जैवाऽजैव प्रजा समाकलन एवं अध्ययनपूर्वक वर्ग-निर्द्धारण किया गया है। इसी प्रसंग में मनुष्य के लिए विशिष्ट सामाजिक धर्म का भी निरूपण किया गया है। इस मनुष्य पर अखिल विश्व की सुरक्षा का उत्तर-दायित्त्व है। इसीलिए उसे ज्ञान का अनुसरण करने का आदेश है, जिसकी अवहेलना को घोर पाप माना गया है। इसप्रकार मनुष्य के मर्यादा की सूची अत्यन्त विशाल है। पुराणों में मर्यादा का संज्ञान बनाये रखने के लिए ही महापुरुषों का जीवन-चरित दर्शाया गया है। उसका प्रवचन करके धनार्जन करना अलग बात है और मर्यादा के बन्धन में रहना कल्याणार्थ में एक अलग बात है। जीवन की ही सर्वत्र भूमिका है, जो विविध रुप व विविध योनियों में अवतरित होकर हमें नानाप्रकार की शिक्षा दे रहा है।एक हम हैं कि उसे प्रारब्ध कहकर हाथ पर हाथ धरे, सिर झुकाये अंगीकार किये हुए है और भोग का त्याग भी नहीं कर रहे हैं। पशु की कोई मर्यादा नहीं होती। क्या पता, किसी पशु को मनुष्य योनि मिली हो और हमारे बीच हो। हमें यही समझना होगा। पशु बढ़ रहे हैं, इसीलिए हिंसा और आतंक भी बढ़ रहा है।
पं रवीन्द्र मिश्र:
        भरत के लिए आदर्श भाई, हनुमान के लिए स्वामी, प्रजा के लिए नीति-कुशल व न्यायप्रिय राजा, सुग्रीव व केवट के परम मित्र और सेना को साथ लेकर चलने वाले व्यक्तित्व के रूप में भगवान राम को पहचाना जाता है। उनके इन्हीं गुणों के कारण उन्हें मर्यादा पुरुषोत्तम राम के नाम से पूजा जाता है। भगवान राम विषम परिस्थितियों में भी नीति सम्मत रहे। उन्होंने वेदों और मर्यादा का पालन करते हुए सुखी राज्य की स्थापना की। स्वयं की भावना व सुखों से समझौता कर न्याय और सत्य का साथ दिया। फिर चाहे राज्य त्यागने, बाली का वध करने, रावण का संहार करने या सीता को वन भेजने की बात ही क्यों न हो।
SKMishra.shoaqh: हमें 'मर्यादा' शब्द पर चर्चा करनी चाहिए। उदाहरण देने लगेंगे तो यह android भर जाएगा और फिर भी चर्चा अधूरी रहेगी। आप लोग धुरंधर विद्वान् हैं। चर्चा की भी मर्यादा को समझनाचाहिए। दृष्टान्त पर दृष्टांत दिये जा रहे हैं। मर्यादा पर तो कोई बोल ही नहीं रहा है।
पं सत्य प्रकाश तिवारी 'सत्यम्':
        वास्तव में जिस मर्यादा की वात हम लोग कर रहे है वह वह महर्षि वाल्मीकि या पूज्य पाद गोस्वामी जी की कल्पना है जिन्हें उन लोगों ने अपने पत्रो के माध्यम से जिया है । जो सामान्य व्यक्ति के बस की बात नही है यह कटु सत्य सबको स्वीकार करके नैतिक मूल्यों को आधार बनाकर मर्यादा को परिभाषित करना होगा जिसे आम आदमी अपने जीवन में सांसारिक कर्म में प्रवृत्त होते हुये भी उतार सके।
        परिवार समाज की सबसे छोटी इकाई है। सामाजिक संरचना को ध्यान में रखते हुए व्यक्ति विशेष की मर्यादा को परिभाषित करना उचित होगा वह भी इक्कसवीं सदी के माहौल को ध्यान में रखकर, क्योकि 16 वर्ष की इक्कसवीं सदी अब जवान हो रही है और इस पर सतयुग त्रेता द्वापर  की मर्यादा को थोपना आसान काम नहीं है। यह वैसे ही है जैसे भैस के आगे बीन बजावै, भैंस खड़ी पगुराय। आधुनिक युग की शुरुआत 1857 के बाद से ही मानी जाती है तब से कितनी प्रगति हुई, कितने प्रगतिशील विचार आये, गीता में कितने ही लोगो ने त्रिपदिक छंद पढ़े, लेकिन मर्यादा का वह मोहक स्वरूप बेडौल होता जा रहा है, जिसे सुधारने के लिये विद्वानों को समय निकलना चाहिये यह अपनी संस्कृत के प्रति सच्ची सेवा होगी ।
SKMishra.shoaqh:
        सत्यम् बोले और दुरुस्त बोले। मैं भी यही कह रहा हूँ कि हमें अपनी मर्यादा को समझने के लिए मानव विज्ञान को खँगालना चाहिए, जोकि अध्यात्म में है। महापुरुष तो दृष्टान्त हैं। विज्ञान तो कहीं और है।

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