Wednesday, January 25, 2017

धर्मार्थ वार्ता

[1/11, 13:11] ‪+91 98896 25094‬: समय की .. इस अनवरत बहती धारा में ..
अपने चंद सालों का .. हिसाब क्या रखें .. !!

जिंदगी ने .. दिया है जब इतना .. बेशुमार यहाँ ..
तो फिर .. जो नहीं मिला उसका हिसाब क्या रखें .. !!

दोस्तों ने .. दिया है .. इतना प्यार यहाँ ..
तो दुश्मनी .. की बातों का .. हिसाब क्या रखें .. !!

दिन हैं .. उजालों से .. इतने भरपूर यहाँ ..
तो रात के अँधेरों का .. हिसाब क्या रखे .. !!

खुशी के दो पल .. काफी हैं .. खिलने के लिये ..
तो फिर .. उदासियों का .. हिसाब क्या रखें .. !!

हसीन यादों के मंजर .. इतने हैं जिंदगानी में ..
तो चंद दुख की बातों का .. हिसाब क्या रखें .. !!

मिले हैं फूल यहाँ .. इतने किन्हीं अपनों से ..
फिर काँटों की .. चुभन का हिसाब क्या रखें .. !!

चाँद की चाँदनी .. जब इतनी दिलकश है ..
तो उसमें भी दाग है .. ये हिसाब क्या रखें .. !!

जब खयालों से .. ही पुलक .. भर जाती हो दिल में ..
तो फिर मिलने .. ना मिलने का .. हिसाब क्या रखें .. !!

कुछ तो जरूर .. बहुत अच्छा है .. सभी में यारों ..
फिर जरा सी .. बुराइयों का .. हिसाब क्या रखें .. !!!
[1/11, 13:30] P Alok Ji: दर्शने स्पर्शणे वापि श्रवणे
भाषणेऽपि वा।
यत्र द्रवत्यन्तरङ्गं स स्नेह इति
कथ्यते॥

जब किसी को देखने से , स्पर्श करने से, सुनने से या बात करने से हृदय द्रवित हो जाय तब उस उत्पन्न हुए भाव को  स्नेह कहा जाता है ।

          –जय श्री राम..!!
[1/11, 13:34] ‪+91 98854 71810‬: राजा परीक्षित ने इतनी कथा सुनकर पूछा - हे शुकदेव स्वामी। विश्वरूप की थोड़ी कृपा करने से इन्द्र ने किस प्रकार दैत्यों को जीतकर अपना राज्य स्थिर रखा। शुकदेवजी बोले - हे राजन। विश्वरूप ने इन्द्र को ऐसा नारायण कवच सिखला दिया कि जिस कवच का मन्त्र पढ़कर अंग पर फूँक देने और वह कवच लिखकर भुजा पर बाँधने से किसी शस्त्र का घाव नहीं लगता। जिस तरह शूरवीर अपने अंग की रक्षा के लिए कवच पहन लेता है, उसी तरह का कवच इसे समझना चाहिए। सो राजा इंद्र वही मन्त्र अपने शरीर पर फूँककर लङने के लिए चढे थे, उसी के प्रताप से दैत्यों को जीता। यह सुनकर परीक्षित ने विनय किया - महाराज। जिस कवच में ऐसा गुण व प्रताप हैं, उसका विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिए। शुकदेवजी बोले - हे राजन। जिस समय किसी मनुष्य को कुछ भय प्राप्त हो, उस समय हाथ पाँव धोकर आचमन करके उत्तर मुँह बैठे और आठ अक्षर के ऊँ नमो नारायणाय के मन्त्र से अंगन्यास व करन्यास करके बारह अक्षर के ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय का मन्त्र पढ़कर यो कहे - जल में मत्स्यावतार से रक्षा करो, पाताल में वामन अवतार से रक्षक हो, जहाँ पर किला व जंगल है वहाँ नृसिंहजी रक्षा करे, मार्ग में यज्ञ भगवान रक्षा करे, विदेश में व पर्वत पर श्री रामचंद्रजी रक्षक हो, योग मार्ग में दत्तात्रेयजी रक्षा करें, देवता के अपराध से सनत्कुमार रक्षक हो, पूजा के विध्न में नारदजी सहायक हों,कुपथ्य से धन्वंतरि वैध रक्षा करें, अज्ञान से वेदव्यासजी और अर्धम से कलकी भगवान सहयता करें। गोविंद, नारायण, बलभद्र, मधुसूदन, हृषीकेश, पद्मनाभ, गोपीनाथ, दामोदर, ईश्वर, परमेश्वर जो भगवान के नाम हैं, वे आठों पहर सब अंगों व इन्द्रियों की रक्षा करें। बैकुण्ठनाथ का शंख, चक्र, गदा, पद्म और गरूङजी अनेक भय से रक्षा करें। यही कवच विश्वरूप ने इन्द्र को बतलाकर कहा, हे इन्द्र। इस नारायण कवच को धारण करने वाले मनुष्य का सब भय छूट जाता है। यही कवच पढ़कर गरूङजी बैकुण्ठनाथ को अपने ऊपर बैठाकर उङते है, जिसके प्रताप से कोई उनको जीत नहीं सकता। इस कवच का अभ्यास रखने वाला कौशिक नाम का ब्राह्मण मरूदेश में मर गया था, उसकी हङिङया वहाँ पङी थी, एक दिन चित्ररथ गन्धर्व का विमान उड़ता हुआ चला जाता था। जैसे ही विमान की छाया उन हङिङयो पर पड़ी, वैसे ही विमान उलट गया। जब बालखिल्य ॠषीवर के उपदेश से उस गन्धर्व ने उन हङिङयों को सरस्वती नदी में प्रवाहित किया, तब उसका विमान फिर से उङने लगा। सो हे राजन। ऐसा नारायण कवच हमने तुम्हें सुनाया। जो इस कवच को पढ़ा करे उसके सामने युद्ध में कोई नहीं ठहर सकता।
।।श्री नारायण भगवान की जय।।
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
[1/11, 13:49] ‪+91 98896 25094‬: *☀  कर्म भोग  ☀*
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🔷  पूर्व जन्मों के कर्मों से ही हमें इस जन्म में माता-पिता, भाई-बहन, पति-पत्नि, प्रेमी-प्रेमिका, मित्र-शत्रु, सगे-सम्बन्धी इत्यादि संसार के जितने भी रिश्ते नाते हैं, सब मिलते हैं । क्योंकि इन सबको हमें या तो कुछ देना होता है या इनसे कुछ लेना होता है ।

♦ *सन्तान के रुप में कौन आता है ?*

🔷  वेसे ही सन्तान के रुप में हमारा कोई पूर्वजन्म का 'सम्बन्धी' ही आकर जन्म लेता है । जिसे शास्त्रों में चार प्रकार से बताया गया है --

🔷  *ऋणानुबन्ध  :* पूर्व जन्म का कोई ऐसा जीव जिससे आपने ऋण लिया हो या उसका किसी भी प्रकार से धन नष्ट किया हो, वह आपके घर में सन्तान बनकर जन्म लेगा और आपका धन बीमारी में या व्यर्थ के कार्यों में तब तक नष्ट करेगा, जब तक उसका हिसाब पूरा ना हो जाये ।

🔷  *शत्रु पुत्र  :* पूर्व जन्म का कोई दुश्मन आपसे बदला लेने के लिये आपके घर में सन्तान बनकर आयेगा और बड़ा होने पर माता-पिता से मारपीट, झगड़ा या उन्हें सारी जिन्दगी किसी भी प्रकार से सताता ही रहेगा । हमेशा कड़वा बोलकर उनकी बेइज्जती करेगा व उन्हें दुःखी रखकर खुश होगा ।

🔷  *उदासीन पुत्र  :* इस प्रकार की सन्तान ना तो माता-पिता की सेवा करती है और ना ही कोई सुख देती है । बस, उनको उनके हाल पर मरने के लिए छोड़ देती है । विवाह होने पर यह माता-पिता से अलग हो जाते हैं ।

🔷  *सेवक पुत्र  :* पूर्व जन्म में यदि आपने किसी की खूब सेवा की है तो वह अपनी की हुई सेवा का ऋण उतारने के लिए आपका पुत्र या पुत्री बनकर आता है और आपकी सेवा करता है । जो  बोया है, वही तो काटोगे । अपने माँ-बाप की सेवा की है तो ही आपकी औलाद बुढ़ापे में आपकी सेवा करेगी, वर्ना कोई पानी पिलाने वाला भी पास नहीं होगा ।

🔷  आप यह ना समझें कि यह सब बातें केवल मनुष्य पर ही लागू होती हैं । इन चार प्रकार में कोई सा भी जीव आ सकता है । जैसे आपने किसी गाय कि निःस्वार्थ भाव से सेवा की है तो वह भी पुत्र या पुत्री बनकर आ सकती है । यदि आपने गाय को स्वार्थ वश पालकर उसको दूध देना बन्द करने के पश्चात घर से निकाल दिया तो वह ऋणानुबन्ध पुत्र या पुत्री बनकर जन्म लेगी । यदि आपने किसी निरपराध जीव को सताया है तो वह आपके जीवन में शत्रु बनकर आयेगा और आपसे बदला लेगा ।

🔷  इसलिये जीवन में कभी किसी का बुरा ना करें । क्योंकि प्रकृति का नियम है कि आप जो भी करोगे, उसे वह आपको इस जन्म में या अगले जन्म में सौ गुना वापिस करके देगी । यदि आपने किसी को एक रुपया दिया है तो समझो आपके खाते में सौ रुपये जमा हो गये हैं । यदि आपने किसी का एक रुपया छीना है तो समझो आपकी जमा राशि से सौ रुपये निकल गये ।

🔷  ज़रा सोचिये, "आप कौन सा धन साथ लेकर आये थे और कितना साथ लेकर जाओगे ? जो चले गये, वो कितना सोना-चाँदी साथ ले गये ? मरने पर जो सोना-चाँदी, धन-दौलत बैंक में पड़ा रह गया, समझो वो व्यर्थ ही कमाया । औलाद अगर अच्छी और लायक है तो उसके लिए कुछ भी छोड़कर जाने की जरुरत नहीं है, खुद ही खा-कमा लेगी और औलाद अगर बिगड़ी या नालायक है तो उसके लिए जितना मर्ज़ी धन छोड़कर जाओ, वह चंद दिनों में सब बरबाद करके ही चैन लेगी ।"

🔶  मैं, मेरा, तेरा और सारा धन यहीं का यहीं धरा रह जायेगा, कुछ भी साथ नहीं जायेगा । साथ यदि कुछ जायेगा भी तो सिर्फ *नेकियाँ* ही साथ जायेंगी । इसलिए जितना हो सके *नेकी* कर, *सतकर्म* कर ।

श्रीमद्भगवद्गीता
[1/11, 14:33] ‪+91 98854 71810‬: ईश्वर का वास

एक संन्यासी घूमते-फिरते एक दुकान पर पहुंच गए । दुकान
में अनेक छोटे-बडे डिब्बे थे । एक डिब्बे की ओर इशारा करते हुए
संन्यासी ने दुकानदार से पूछा - इसमें क्या है ? दुकानदार
ने कहा - इसमें नमक है ।

संन्यासी ने फिर पूछा इसके पास वाले में क्या है ? दुकानदार
ने कहा इसमें हल्दी है । संन्यासी - इसके बाद वाले में ? दुकानदार
ने कहा - जीरा है । संन्यासी ने फिर पूछा - आगे वाले में ?
दुकानदार - उसमें हींग है ।

इस प्रकार संन्यासी पूछ्ते गए और दुकानदार बतलाता रहा ।
आखिर पीछे रखे डिब्बे का नंबर आया । संन्यासी ने पूछा - उस
अंतिम डिब्बे में क्या है ? दुकानदार ने कहा -उसमें राम-राम है ।
संन्यासी चौंक पडे यह राम-राम किस वस्तु का नाम है । दुकानदार
ने कहा - महात्मन ! और डिब्बों में तो भिन्न-भिन्न वस्तुएं
डाली हुई हैं । पर यह डिब्बा खाली है । हम खाली को खाली
नहीं कहते, इसमें राम-राम है ।

संन्यासी की आंखें खुली की खुली रह गई , खाली में राम-राम !
ओह ! तो खाली में राम-राम रहता है , भरे हुए में राम को स्थान
कहाँ ? लोभ,लालच,ईर्ष्या,द्वेष और भली-बुरी बातों से जब
दिल-दिमाग भरा रहेगा तो उसमें ईश्वर का वास कैसे होगा ?
उसमें राम यानी ईश्वर तो साफ-सुथरे मन में निवास करता है ।
दुकानदार की बात से संन्यासी के ज्ञान चक्षु खुल गए
[1/11, 14:46] P Alok Ji: मानस मे बालि प्रसंग,,,,, बालि मरते समय राम से पूछते हैं:
मैं बैरी सुग्रीव पियारा। कारन कवन नाथ मोहि मारा॥
राम जी उनको समझाइस देते हैं:
अनुज वधू भगिनी सुत नारी। सुनु सठ कन्या सम ए चारी॥
इनहिं कुदृष्टि बिलोकइ जोई। ताहिं बधे कछु पाप न होई॥
इसका विस्तार किया जाये तो हर स्त्री किसी न किसी की अनुज बधु, भगिनी या सुत नारी होती है। इस तरह किसी भी स्त्री को बुरी नजर से देखने वाले का अगर कोई वध करता है तो उसको पाप नहीं लगता है।
[1/11, 15:12] ‪+91 94153 60939‬: अवसरे खलु तत्र च काचन व्रजपदे मधुराकृतिरङ्गना ।
तरलषट्पदलालितकुन्तला कपटपोतक ते निकटं गता ॥

हे माया से बाल स्वरूपधारी! ठीक उसी समय गोकुल में, कोई सुन्दर स्वरूप वाली युवती जिसके सुसज्जित केशों पर भंवरे मण्डरा रहे थे, आपके पास गई।

सपदि सा हृतबालकचेतना निशिचरान्वयजा किल पूतना ।
व्रजवधूष्विह केयमिति क्षणं विमृशतीषु भवन्तमुपाददे ॥

राक्षसों के कुल में उत्पन्न हुई,
बालकों के प्राणों को हरने वाली उस पूतना ने, व्रज गोपियों के बीच से, आपको तुरन्त ही उठा लिया। ब्रज गोपियां विचार ही करती रह गईं कि 'यह सुन्दरी कौन है?'

ललितभावविलासहृतात्मभिर्युवतिभि: प्रतिरोद्धुमपारिता ।
स्तनमसौ भवनान्तनिषेदुषी प्रददुषी भवते कपटात्मने ॥

पूतना के मनोहर हाव भावों के विलास से मोहित हुई युवतियां उसको रोकने मे असमर्थ हो गईं। हे कपट बाल रूप धारी! तब उसने भवन के बीच में बैठ कर अपको मुंह में अपना स्तन दे दिया।

समधिरुह्य तदङ्कमशङ्कितस्त्वमथ बालकलोपनरोषित: ।
महदिवाम्रफलं कुचमण्डलं प्रतिचुचूषिथ दुर्विषदूषितम् ॥

बालकों का वध करने वाली पूतना के प्रति अत्यधिक क्रोध से भरे आपने उसकी गोद में निशङ्क भाव से चढ कर, बडे बडे आमों के फलों के समान उसके स्तन मण्डलों को चूसा, जो घोर विष से लिप्त होने के कारण दूषित थे।

असुभिरेव समं धयति त्वयि स्तनमसौ स्तनितोपमनिस्वना ।
निरपतद्भयदायि निजं वपु: प्रतिगता प्रविसार्य भुजावुभौ ॥

उसके स्तनों के साथ साथ जब उसके  स्तनों ( प्राणों ) को आपने पीया, तब वह मेघगर्जना के समान चीत्कार करती हुई, अपने भयानक शरीर को प्रकट करती हुई दोनो भुजाएं फैला कर गिर पडी।

भयदघोषणभीषणविग्रहश्रवणदर्शनमोहितवल्लवे ।
व्रजपदे तदुर:स्थलखेलनं ननु भवन्तमगृह्णत गोपिका: ।।

उसकी भयानक चीत्कार सुन कर और भयानक आकार देख कर गोप जन और पूरा गोकुल आश्चर्यचकित हो गया। उसकी छाती पर क्रीडा करते हुए आपको गोपिकाओं ने उठा लिया।

       ।।श्रीकृष्ण: शरणं मम।।

         –जय श्रीमन्नारायण।
[1/11, 16:05] ‪+91 94153 60939‬: अत्रामोदमरंदयोर्न कणिका
कोषांतरस्थायिनी
पत्रच्छत्रपरंपराऽपि विफलारंभा
कियद्वर्ण्यताम् ।
एतत्सर्वमपूर्वशिल्परचनाचातुर्यमुच्चावचं
किं मोहादलिपुत्र चित्रकमले
भूयः परिभ्राम्यसि ॥

              – अन्योक्तिस्तबक

     –जय श्रीमन्नारायण।
[1/11, 16:18] अरविन्द गुरू जी: हरि ॐ तत्सत्!  शुभसन्ध्या।
भगवदनुग्रहात्सर्वे सत्पुरुषाः परोपकारं कुर्वन्तः स्व-जीवनं सानन्दं यापयन्तु। नमस्सर्वेभ्यः।

विवेक-विचार

'सर्वं खल्विदं ब्रह्म'(छान्दोग्योपनिषद्- ३/१४/१) तथा 'वासुदेवः सर्वम्'(श्रीमद्भवद्गीता-७/९)

इन दोनों महावाक्यों का अत्यन्त सूक्ष्म और मार्मिक विवेचन हमारे सन्त-मनीषियों ने किया है।

' सर्वं खल्विदं ब्रह्म ' इस महा वाक्य में भगवान् के निर्गुण-निराकर तत्व की मुख्यता है और असत् का निषेध है,  एवं ' वासुदेवः सर्वम् ' में सच्चिदानन्दघन परमात्मा के सगुण-साकार तत्व का प्राधान्य है, कुछ भी निषेध नहीं है।

"सीयराम मय सब जग जानी।
करउँ प्रनाम जोर जुग पानी॥"

परमात्मा निर्गुण-निराकर भी हैं और सगुण-साकार भी हैं साथ ही भक्त की भावना के अनुरूप भी हैं।
"भावग्राही जनार्दनः"

" यादृशी भावना यस्य सिद्धिर्भवति तादृशी "

"हरि व्यपक सर्वत्र समाना।
प्रेम ते प्रकट होहिं मैं जाना॥"

॥ सत्यसनातधर्मो  विजयतेतराम् ॥
[1/11, 16:22] ‪+91 94153 60939‬: उत्तमं प्रणिपातेन शूरं भेदेन योजयेत् ।
नीचमल्पप्रदानेनेष्टं धर्मेण योजयेत् ॥

अपने से जो श्रेष्ठ हो उसको प्रणाम करके अर्थात् विनम्रता से, शूर-वीर को भेदनीति से, अपने से  कम दरजे (अपने से कम हैसियत) वाले को कुछ देकर, और  जो जरूरतमंद  हो उसे न्याय पूर्वक अपना बना लेना चाहिए ।

        –जय श्रीमन्नारायण।
[1/11, 17:00] ‪+91 94153 60939‬: माता-पिता का महत्व
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पिता स्वर्गः पिता धर्मः पिता हि  परमं तपः ।
पितरि प्रितिमापन्ने सर्वाः प्रोणन्ति देवताः ।।

                 –स्कन्द पुराण

पिता स्वर्ग है, पिता धर्म है और पिता ही सर्वश्रेष्ठ तपस्या है । पिता के प्रसन्न होने पर सब देवता प्रसन्न हो जाते हैं ।

यह सन्दर्भ चिरकारी की कथा से लिया गया है जिसमें चिरकारी माता और पिता के महत्त्व को लेकर असमंजस में हैं । उनके पिता ने उन्हें अपनी माता का वध करने का आदेश दिया । क्योंकि वो चिरकारी थे अतः अपने स्वभाव स्वरुप वो इस आदेश के बाद भी मंथन में बैठ गए  कि  क्या उचित है और क्या अनुचित । वे सोचने लगे की स्त्री की उसमें भी माता की हत्या करके कभी भी कौन सुखी रह सकता है । पुत्रत्व सर्वथा परतंत्र है – पुत्र माता और पिता दोनों के अधीन है । माना की पिता की आज्ञा पालन करना सबसे बड़ा धर्म है परन्तु उसी प्रकार माता की रक्षा भी तो मेरा अपना धर्मं है । किन्तु पिता की अवज्ञा करके भी कौन प्रतिष्ठा प्राप्त कर सकता है । पुत्र के लिए यही उचित है की पिता की अवहेलना न करे । साथ ही उसके लिए माता की रक्षा करना भी उचित है । शरीर आदि जो देने  योग्य वस्तुयें हैं, उन सबको एक मात्र पिता देते हैं, इसलिए पिता की प्रत्येक आज्ञा का पालन करना चाहिए । पिता की आज्ञा पालन करने वाले पुत्र के पूर्वकृत पातक भी धुल जाते हैं ।

           –रमेशप्रसाद शुक्ल

           –जय श्रीमन्नारायण।
[1/11, 20:16] पं विजय जी: समस्त भुदेवों को सादर नमन 🙏🙏🙏
यः प्रीणयेत् सुचरितैः पितरं स पुत्रो
यद्भर्तुरेव हितमिच्छति तत्कलत्रम्।
तन्मित्रमापदि सुखे च समक्रियं य-
देतत्रयं जगति पुण्यकृतो लभन्ते।।

जो अपने सदाचरणों से पिता को संतुष्ट कर देता है, वही सत्पुत्र है। जो सदा पति का हित चाहती है, वही वस्तुतः पत्नी है। जो विपत्ति और सुख में समान व्यवहार करता है, वही सच्चा मित्र है। इस संसार में  पुण्यशील लोग ही इन तीनों को प्राप्त करते हैं।

              || शुभ रात्री ||
             ✍🍀💕
[1/11, 20:31] रजनीस: राजा जनक को आत्म ज्ञान की प्राप्ति

मिथिला नामक देश में एक महाप्रतापी राजा हुए । उनका नाम महाराज जनक था । महाराज जनक को आत्मज्ञान के बारे में बहुत जिज्ञासा थी । और इस पर चर्चा के लिए उनके दरबार में हमेशा विद्वानों की महफ़िल बनी रहती थी । पर राजा जनक को जिस आत्मज्ञान की तलाश थी । उसके बारे में कोई विद्वान उन्हें संतुष्ट नहीं कर पाता था । उन्हीं दिनों की बात है राजा जनक ने एक रात में सोते हुए एक सपना देखा कि वो अपने बहुत सारी सेना के साथ जंगल में शिकार खेलने के लिए गए हुए हैं । एक जंगली सूअर का पीछा करते करते राजा जनक बहुत दूर तक निकल गए । उनकी सारी सेना पीछे छूट गयी । और वह सूअर घने जंगल में बहुत दूर जाकर अदृश्य हो गया । राजा जनक थककर चूर हो चूका थे । उनकी पूरी सेना का कोई पता नहीं था । अब राजा को बहुत तेज भूख प्यास लगने लगी थी । बेचैन होकर राजा ने इधर उधर नजर दौड़ाई । तो कुछ ही दूर पर उन्हें एक झोपड़ी नजर आई । जिसमें से धुआं उठ रहा था । राजा ने सोचा कि वहां कुछ खाने पीने के लिए मिल जायेगा । वो झोपड़ी में गये । तो देखा कि झोपड़ी के अन्दर एक बुढ़िया औरत बैठी हुई थी । राजा ने कहा । मैं एक राजा हूँ । और मुझे खाने की लिए कुछ दो । मैं बहुत भूखा हूँ । बुढिया ने कहा कि इस समय खाने के लिए कुछ नहीं है । और मुझसे काम नहीं होता । लेकिन यदि तुम चाहो तो वहां थोड़े से चावल रखे है । तुम उनको पकाकर खा सकते हो । राजा ने सोचा । इस समय इसके अतिरिक्त और कोई उपाय भी तो नहीं है । राजा ने बड़ी मुश्किल से चूल्हा जलाकर किसी तरह भात को पकाया । फिर जैसे ही राजा एक केले के पत्ते पर रखकर उस भात को खाने लगा । तभी तेजी से दौड़ता हुआ एक सांड आया । और पूरे भात पर धूल गिर गई । उसी समय राजा की आँख खुल गई । और वो राजा आश्चर्यचकित होकर चारों और देखने लगा । उसके मन में ख्याल आया कि मैंने एक राजा होकर इस तरह का स्वप्न क्यों देखा ?? यही सोचते हुए राजा को पूरी रात नींद नहीं आई ।
दूसरी सुबह राजा ने दो सिंहासन बनवाये और एक एलान अपने राज्य में कर दिया कि मेरे दो प्रश्न हैं । जो कोई मेरे पहले प्रश्न का जवाब देगा । उसे मैं अपना आधा राज्य दूंगा । और यदि नहीं दे पाया । तो बदले में आजीवन कारावास मिलेगा । तथा जो मेरे दूसरे प्रश्न का उत्तर देगा । उसे मैं पूरा राज्य दूंगा । और यदि नहीं दे पाया तो उसे फांसी की सजा होगी । राजा ने ये दोनों सजाएँ इसलिए तय कर दी थी कि वही लोग उसका उत्तर देने आये जिनको वास्तविक ज्ञान हो । ऐसा न करने पर फालतू लोगों की काफी भीड़ हो सकती थी ।
.. आगे की कहानी जानने से पहले हमें महान संत अष्टावक्र के बारे में जानना होगा । अष्टावक्र जी उन दिनों मां के गर्भ में थे । और संत होने के कारण उन्हें गर्भ में भी ज्ञान था । एक दिन की बात है । जब अष्टावक्र के पिता शास्त्रों का अध्ययन कर रहे थे । अष्टावक्र ने कहा । पिताजी । जिस परमात्मा को तुम खोज रहे हो । वो शास्त्रों में नहीं है । अष्टावक्र के पिता शास्त्रों के ज्ञाता थे । उन्हें अपने गर्भ स्थिति पुत्र की बात सुनकर बहुत क्रोध आया । उन्होंने कहा । तू मुझ जैसे ज्ञानी से ऐसी बात कहता है । जा मैं तुझे शाप देता हूँ कि तू आठ जगह से टेढा पैदा होगा । इस तरह ज्ञानी अष्टावक्र विकृत शरीर के साथ पैदा हुए थे । उधर क्या हुआ कि अष्टावक्र के पिता को धन की कमी हो गई । तो वे राजा जनक के आधे राज्य के इनाम वाला उत्तर देने चले गए । और उत्तर ठीक से नहीं दे पाए । अतः आजीवन कारावास में डाल दिए गए । इस तरह 12 साल गुजर गए । अष्टावक्र अब 12 साल की आयु के हो गए थे । और लगभग विकलांग जैसे थे । एक दिन जब अष्टावक्र अपने साथियों के साथ खेल रहे थे । सब अपने अपने पिता के बारे में बात करने लगे । तो अष्टावक्र भी करने लगे । अब क्योंकि बच्चों ने उनके पिता को जेल मैं पड़े होने के कारण कभी देखा नहीं था । इसलिए सब बच्चों ने उन्हें झिड़क दिया कि झूठ बोलता है । तेरा पिता तो कोई है ही नहीं । हमने उन्हें कभी नहीं देखा
अष्टावक्र जी अपनी माँ के पास आये । और बोले कि माँ आज तुम्हे बताना ही होगा कि मेरे पिता कहाँ गए हैं ?? वास्तव में जब भी बालक अष्टावक्र अपने पिता के बारे में पूछता । तो उसकी माँ जवाव देती कि वे धन कमाने बाहर गए हुए है । आज अष्टावक्र जी जिद पकड़ गए कि उन्हें सच बताना ही होगा कि उनके पिता कहाँ हैं ?? तब हारकर उनकी माँ ने उन्हें बताया कि वे राजा जनक की जेल में पड़े हुए है । बालक अष्टावक्र ने कहा कि वे अपने पिता को छुडाने जायेंगे । और राजा के दोनों प्रश्नों का जवाव भी देंगे । उनकी माँ ने बहुत कहा कि यदि राजा ने तुझे भी जेल में डाल दिया । तो फिर मेरा कोई सहारा नहीं रहेगा । लेकिन अष्टावक्र जी ने उनकी एक न सुनी । और वे कुछ बालकों के साथ राजा जनक के महल के सामने पहुँच गए । एक बालक को महल की तरफ घुसते हुए देखकर दरबान ने उन्हें झिड़का । ऐ बालक कहाँ जाता है ?? वक्र जी बोले । मैं राजा जनक के प्रश्नों का उत्तर देने आया हूँ । मुझे अन्दर जाने दो । दरबान ने बालक जानकर उन्हें रोकने की बहुत कोशिश की । तब अष्टावक्र ने कहा कि वो राजा से उसकी शिकायत करेंगे । क्योंकि राजा ने ये घोषणा कराइ है कि कोई भी उनके प्रश्नों का उत्तर दे सकता है । ये सुनकर दरबान डर गया । वो समझ गया कि ये बालक तेज है । यदि इसने मेरी शिकायत कर दी । तो राजा मुझे दंड दे सकता है । क्योंकि ये बालक सच कह रहा है । उसने अष्टावक्र को अन्दर जाने दिया । अन्दर राजा की सभा जमी हुई थी । अष्टावक्र जी जाकर सीधे उस सिंहासन पर बैठ गए । जिस पर बैठने बाले को राजा के दुसरे प्रश्न का जवाव देना था । और इनाम में पूरा राज्य मिलता । तथा जवाव न दे पाने की दशा में उन्हें फांसी की सजा मिलती । एक विकलांग बालक को ऐसा करते देखकर सब आश्चर्यचकित रह गए । और फिर पूरी सभा जोर जोर से हंसी । उनके चुप हो जाने के बाद अष्टावक्र जोर से हँसे । राजा जनक ने कहा कि सभा के विद्वान क्यों हँसे ? ये तो मेरी समझ में आया । पर तुम क्यों हँसे ? ये मेरी समझ में नहीं आया ।
अष्टावक्र ने कहा । राजा मैं इसलिए हंसा कि मैंने सुना था कि आपके यहाँ विद्वानों की सभा होती है, पर मुझे तो इनमें एक भी विद्वान नजर नहीं आ रहा । ये सब तो चमड़े की पारख करने वाले चर्मकार मालूम होतें हैं । अष्टावक्र के ये कहते ही राजा जनक समझ गए कि ये बालक कोई साधारण बालक नहीं हैं । लेकिन अष्टावक्र के द्वारा विद्वानों को चर्मकार कहते ही सभा में मौजूद विद्वान भड़क उठे । उन्होंने कहा । ये चपल बालक हमारा अपमान करता है । अष्टावक्र ने कहा । मैं किसी का अपमान नहीं करता । पर आप लोगों को मेरा विकलांग शरीर दिखाई देता है । विकलांग शरीर होने से क्या इसमें विराजमान आत्मा भी विकलांग हो गयी । क्या किसी भी ज्ञान का शरीर से कोई सम्बन्ध है ? उनकी ये बात सुनकर पूरी सभा में सन्नाटा हो गया । राजा जनक ने उनकी बात का समर्थन किया । राजा जनक समझ गए कि बालक के रूप में ये कोई महान ज्ञानी आया है । ये बोध होते ही जनक अपने सिंहासन से उठकर कायदे से अष्टावक्र के पास पहुंचे । और उन्हें दंडवत प्रणाम किया । अष्टावक्र बोले । पूछो क्या पूछना है ?? जनक ने अपना पहला प्रश्न किया । उन्होंने अपने सूअर के शिकार वाला स्वप्न सुनाया । और कहा कि स्वप्न व्यक्ति की दशा और सोच पर आधारित होते हैं । कहाँ मैं एक चक्रवर्ती राजा । और कहाँ वो दीनदशा दर्शाता मेरा स्वप्न ? जिसमें मैं लाचारों की तरह परेशान था । इनमें क्या सच है ? एक चक्रवर्ती राजा या वो स्वप्न .. ? अष्टावक्र हंसकर बोले । न ये सच है । न वो स्वप्न सच था । वो स्वप्न 15 मिनट का था । और जो ये तू राजा है । ये स्वप्न 100 या 125 साल का है । इन दोनों में कोई सच्चाई नहीं है । वो भी सपना था । ये जो तू राजा है । ये भी एक सपना ही है । क्योंकि तेरे मरते ही ये सपना भी टूट जायेगा.. ?? इस उत्तर से पूरी सभा दंग रह गई । इस उत्तर ने सीधे राजा की आत्मा को हिला दिया । और वे संतुष्ट हो गए । आधा राज्य अष्टावक्र जी को दे दिया गया । पर क्योंकि अष्टावक्र जी पूरे राज्य के इनाम वाली कुर्सी पर बैठे थे । इसलिए बोले बताओ । राजन तुम्हारा दूसरा प्रश्न क्या है
?? जनक ने कहा । मैंने शास्त्रों में पढा है । और बहुतों से सुना है कि यदि कोई सच्चा संत मिल जाय । तो परमात्मा का ज्ञान इतनी देर में हो जाता है । जितना घोड़े की एक रकाब से दूसरी रकाब में पैर रखने में समय लगता है । अष्टावक्र बोले । बिलकुल सही सुना है । राजा बोले ठीक है । फिर मुझे इतने समय में परमात्मा का अनुभव कराओ । अष्टावक्र जी बोले । राजन तैयार हो जाओ । लेकिन इसके बदले में मुझे क्या दोगे ? जनक बोले- मेरा सारा राज्य आपका । अष्टावक्र जी बोले । राज्य तो तुझे भगवान का दिया है । इसमें तेरा क्या है ? जनक बोले- मेरा ये शरीर भी आपका । अष्टावक्र जी बोले । तूने तन तो मुझे दे दिया । लेकिन तेरा मन अपनी चलाएगा । तब जनक बोले- मेरा ये मन भी आपका हुआ । अष्टावक्र जी बोले – देख राजन, तुम मुझे अपना तन मन धन सब दे चुके हो अब मैं इसका मालिक हूँ, तुम नहीं | तो मैं हुक्म करता हूँ कि तुम सबके जूतों में जाकर बैठ जाओ | यह बात सुनकर दरबार में सन्नाटा छा गया | मगर राजा जनक समझदार थे जरा भी नहीं झुंझलाये | और जूतियों में जाकर बैठ गये | अष्टावक्र ने ऐसा इस लिए किया कि राजा से लोक-लाज छुट जाये | लोक- लाज रूकावट है बड़े-बड़े लोग यहाँ आकर रुक जाते है |
फिर अष्टावक्र ने कहा कि यह धन मेरे है मेरे धन में मन न लगाना | राजा का ध्यान बार-बार अपने राज,धन की और जाता और वापस आ जाता कि नहीं यह तो अब अष्टावक्र जी का हो चूका है | मन की आदत है, वह बेकार और चुप नहीं बैठता, कुछ न कुछ सोचता ही रहता है | राजा के मन का यह खेल अष्टावक्र देख रहे थे | आखिर राजा आँखे बंद करके बैठ गया कि मैं बाहर न देखूं,न मेरा मन वैभवो में भागे | अष्टावक्र जी यही चाहते थे उन्होंने राजा जनक से कहा तुम कहाँ हो | राजा जनक बोले मैं यहाँ हूँ | इस पर अष्टावक्र बोले- तुम मुझे मन भी दे चुके हो, खबरदार जो उसमे कोई ख्याल भी उठाया तो | राजा जनक समझदार थे समझ गये कि अब मेरे अपने मन पर भी मेरा कोई अधिकार नहीं है | समझने की देर थी कि मन रुक गया | जब ख्याल बंद हुआ तो अष्टावक्र ने अपनी अनुग्रह दृष्टी दे दी | रूह अंदर की यात्रा पर चल पड़ी रूहानी मंजिल की सैर करने | राजा को अंतर का आनंद होने लगा | घंटे भर पश्चात राजा जनक को अष्टावक्र ने आवाज दी | राजा ने अपनी आंखे खोली तो अष्टावक्र ने पुछा – क्या तुम्हे ज्ञान हो गया | राजा जनक ने जवाब दिया - हाँ हो गया | तब अष्टावक्र ने कहा मैं तुम्हे तन,मन,धन वापिस देता हूँ इसे अपना न समझना | अब तुम राज्य भी करो और आत्म ज्ञान का आनंद लो | इस तरह अष्टावक्र ने एक सेकंड में मुक्ति और जीवनमुक्ति पाने की विधि बताई और ज्ञान दिया | राजा जनक ने अष्टावक्र जी के पिता और सभी कैदियों को रिहा करवा दिया । राजा जनक ने उन्हे गुरु का स्थान दिया । और आत्मज्ञान प्राप्त किया
आध्यात्मिक भाव.......
*********
जीवनमुक्त स्तिथि माना जीते जी सब आकर्षण, बंधन, वैभवो के प्रभाव ससे मुक्त रहना | इसका मतलब यह नहीं कि सब कुछ छोडकर सभी से दूर रहना परन्तु सबके बीच रहते हुए, सभी जिम्मेवारियों को निभाते हुए भी किसे भी बंधन में नहीं फँसना सुख और दुख: के बंधन में भी नहीं फँसना – यही सच्ची जीवनमुक्त स्तिथि है
[1/11, 20:36] रजनीस: *एक गिलहरी रोज अपने काम पर समय से आती थी और अपना काम पूरी मेहनत और ईमानदारी से करती थी !*
गिलहरी जरुरत से ज्यादा काम कर के भी खूब खुश थीl
*क्योंकि उसके मालिक, जंगल के राजा शेर ने उसे दस बोरी अखरोट देने का वादा कर रखा था।*
गिलहरी काम करते करते थक जाती थी तो सोचती थी , कि थोडी आराम कर लूँ , वैसे ही उसे याद आता कि शेर उसे दस बोरी अखरोट देगाl
गिलहरी फिर काम पर लग जाती !
गिलहरी जब दूसरे गिलहरीयों को खेलते देखती थी, तो उसकी
भी इच्छा होती थी कि मैं भी खेलूं , पर उसे अखरोट याद आ जाता,
और वो फिर काम पर लग जाती !

*ऐसा नहीं कि शेर उसे अखरोट नहीं देना चाहता था, शेर बहुत ईमानदार था !*

ऐसे ही समय बीतता रहा....
एक दिन ऐसा भी आया जब जंगल के राजा शेर ने गिलहरी को दस बोरी अखरोट दे कर आज़ाद कर दिया !

*गिलहरी अखरोट के पास बैठ कर सोचने लगी कि अब अखरोट मेरे किस काम के ?*

पूरी जिन्दगी काम करते - करते दाँत तो घिस गये, इन्हें खाऊँगी कैसे !

*यह कहानी आज जीवन की हकीकत बन चुकी है !*

इन्सान अपनी इच्छाओं का त्याग करता है, पूरी ज़िन्दगी नौकरी, व्योपार, और धन कमाने में बिता देता है !
*60 वर्ष की उम्र में जब वो सेवा निवृत्त होता है, तो उसे उसका जो फन्ड मिलता है, या बैंक बैलेंस होता है, तो उसे भोगने की क्षमता खो चुका होता हैl*

तब तक जनरेशन बदल चुकी होती है, परिवार को चलाने वाले बच्चे आ जाते है।

क्या इन बच्चों को इस बात का अन्दाजा लग पायेगा की इस फन्ड, इस बैंक बैलेंस के लिये : -
*कितनी इच्छायें मरी होंगी ?*
*कितनी तकलीफें मिली होंगी ?*
*कितनें सपनें अधूरे रहे होंगे ?*

क्या फायदा ऐसे फन्ड का, बैंक  बैलेंस का, जिसे पाने के लिये पूरी ज़िन्दगी लग जाये और मानव उसका
भोग खुद न कर सके !

*इस धरती पर कोई ऐसा अमीर अभी तक पैदा नहीं हुआ जो बीते हुए समय को खरीद सके।*

इसलिए हर पल को खुश होकर जियो व्यस्त रहो, पर साथ में मस्त
रहो सदा स्वस्थ रहो।

*BUSY पर BE-EASY भी रहोl*
[1/11, 21:31] ‪+91 98854 71810‬: बजरंज बली वीर हनुमान जी के गुण :-

(१) वेदज्ञ और राजमन्त्री हनुमान जी :-

सचिवोऽयं कपीन्द्रस्य सुग्रीवस्य महात्मनः । तमेव कांक्षमाणस्य ममान्तिक मिहागतः ।।२३।।
ना ऋग्वेद विनीतस्य ना यजुर्वेदधरिणः । ना सामवेदविदुषः शक्यमेवविभाषितम् ।।२८।।
( वल्मिक रामायण किष्किन्धा काण्ड सर्ग-३ )
अर्थात् :- हे लक्षमण ! यह ( हनुमान जी ) सुग्रीव के मन्त्री हैं और उनकी इच्छा से यह मेरे पास आये हैं । जिस व्यक्ति ने ऋग्वेद को नहीं पढ़ा है, जिसने यजुर्वेद को धारण नहीं किया है, जो सामवेद का पण्डित नहीं है, वह व्यक्ति, जैसी वाणी यह बोल रहे हैं वैसी नहीं बोल सकता है ।

(२) शब्दशास्त्र ( व्यकरण ) के पण्डित हनुमान जी :-

नृनं व्याकरण कृत्मनमनेन बहुधा श्रुतम् । बहुव्यवहारतानेन न किञ्चिदशाब्दितम् ।।२९।।
( वल्मिकी रामायण किष्किन्धा काण्ड सर्ग-३ )
अर्थात् :- इन्होंने निश्चित ही सम्पूर्ण व्याकरण पढ़ा है क्योंकि इन्होंने अपने सम्पूर्ण वर्तालाप में एक भी अशुद्ध शब्द का उच्चारण नहीं किया है ।

श्रीरामो लक्ष्मणं प्राह पश्यैनं बटृरूपिणाम । शब्दशास्त्रमशेण श्रुतं नृनमनेकधा ।।१७।।
अनेकभाषितं कृत्सनं न किञ्चिदपशब्दितम् । ततः प्राह हनुमन्तं राघवो ज्ञान विग्रहः ।।१८।।
( वल्मिकी रामायण किष्किन्धा काण्ड सर्ग-१ )
अर्थात् :- राम ने कहा "हे लक्षमण ! इस ब्रह्मचारी को देखो । अवश्य ही इसने सम्पूर्ण व्याकरण कई बार भली प्रकार से पढ़ा है । देखो ! इतनी बातें कहीं किन्तु इसके बोलने में कहीं कोई एक भी अशुद्धि नहीं हुई ।

(३) सर्वशास्त्रों के ज्ञाता हनुमान जी :-

महर्षि अगस्त्य से श्रीराम जी ने कहा :-
परक्रमोत्साहमति प्रताप, सौशील्यमधुर्य्य नया नयैश्च ।
गम्भीर्य चातुर्य्य सुच्चीर्यधैर्य्येः, हनृमंतः कोऽस्ति लोके ।।४३।।
असौ पुनर्व्याकरणं ग्रहीष्यन्, सुर्य्योन्मुखः पृष्टुमना कपीन्द्रः ।
उद्यग्निरेरस्त गिरि जगाम, ग्रन्थं महद्वारयन प्रमेयः ।।४४।।
ससूत्र बृत्यर्थपदं महर्थ, स संग्रह सिध्यति वैकषीन्द्रः ।
ह्यस्यकश्चित्सद्धशोऽस्ति शास्त्रे, वैशारदे छन्द गतौ तथैव ।।४५।।
सर्वासु विद्यासु तपो विधाने, प्रस्पर्धतेऽयंहि गुरू सुराणाम् ।।४६।।
( वाल्मिकी रामायण उत्तरकाण्ड सर्ग-३६ )

अर्थात् :- पराक्रम, उत्साह, बुद्धि, प्रताप, सुशीलता, नम्रता, न्याय, धैर्य, बल, अन्याय का ज्ञान, गम्भीरता, चतुरता, में हनुमान जी के समान लोक में कोई भी दूसरा मनुष्य नहीं है । अध्ययन काल में वे व्याकरण पढ़ते हुए इतने व्यस्त रहते थे कि सूर्य सामने होकर पीछे चला जाता था, तबतक वह पढ़ते ही रहते थे । और जितने समय में सूर्य उदयचल से अस्तचल पर्वत तक पहुँचता था वे एक दिन में बड़े बड़े ग्रन्थ को कंठ कर लेते थे । हनुमान जी ने सूत्र, वृत्ति, वर्तिक भाष्य, साधन और संग्रह सहित सब पढ़ा है । व्याकरण के अतिरिक्त अन्य ( वेदांगों ) छन्द आदि में भी वे अद्वितीय विद्वान हैं । समस्त विद्याओं तथा तपस्या में हनुमान जी गुरू बृहस्पति के समान हैं ।

(४) श्वेत वस्त्रों वाले हनुमान जी :-

ततः शाखान्तरे लीनं दृष्ट्वा चलित मानस ।
वेष्टतर्जुन वस्त्र तं विद्युत्संघात पिंगलम् ।।१।।
( वाल्मिकी रामायण सुन्दर काण्ड ३१ )

अर्थात् :- ऊपर वृक्ष की शाखाओं में छिपे हुए हनुमान जी को देखकर जानकी घबरा गईं । हनुमान जी के उस समय श्वेत वस्त्र पहने हुए गोरे शरीर वाले ऐसे लगते थे जैसे बिजली चमकती है ।

(५) वानर मनुष्य हनुमान जी :-

संस्कृत शब्दकोष में कपि के ये अर्थ होते हैं :- सुगन्धि, हाथी, बन्दर, सूर्य और शिलारस । दक्षिण के जंगलों में सूर्यवंशी क्षत्रिय जाती को कपि ( सूर्य ) कहा जाता था । या फिर वनों में रहने के कारण वानर कहा जाता था । और यही वानरराज सुग्रीव का किष्किन्धा ( कर्णाटक ) में राज्य हुआ करता था ।

सुगरीव के मनुष्य होने का प्रमाण इस प्रकार है :-

अरयश्च मनुष्येण विज्ञेयाश्छद्म चारिणः ।।२२।। ( वाल्मिकी रामायण किष्किन्धा काण्ड सर्ग २ )
अर्थात् :- अपने बारे में सुग्रीव ने कहा कि कपट वेष में घूमने वाले शत्रुओं का मनुष्यों को अवश्य ही भेद जानना चाहिए ।

सुग्रीव का यहाँ अपने आप को मनुष्य बतना ये सिद्ध करता है कि वानर जाती एक सूर्यवंशी क्षत्रीय जाती की दक्षिणीय शाखा है । न कि बंदर जैसे कि मिथ्या धारणा लोगों के मनों में घर कर गई है ।

(६) आर्य पुत्र हनुमान जी :-

समीक्ष्य व्यथिता भूमौ सश्भ्रान्तानिपपातह ।
सप्त्वेव पुनरुत्थाय आर्य पुत्रेति वादिनी ।।२८।।
( वल्मिकी रामयण किष्किन्धा काण्ड सर्ग १९ )

अर्थात् :- बली को हत्त देखकर तारा अति दुखी होकर मूर्छित होकर पृथिवी पर घिर पड़ी । कुछ देर बाद चैतन्य होकर वह बली को आर्य पुत्र कहकर रुदन करने लगी ।

इससे स्पष्ट है कि हनुमान जी कि महत्ता ।
[1/11, 22:05] पं अर्चना जी: प्रस्तुत है एक स्वरचित भजन 💐
             🌺👇🏻👇🏻🌺
   💐हे कान्हाँ मेरे श्याम !💐
   🌺💐🌺💐🌺💐🌺
मुझे इस कदर तेरा शौक हो गया है ,
लोग कहने लगे तेरा रोग हो गया है।
१-)न रसना को अपनी मैं रटना सिखाऊँ ,
    न हाथों को माला ही जपकर थकाऊँ ,
     फिरभी साँसों को तेरा ही जोग हो गया है,
         लोग कहने लगे तेरा रोग हो गया है ...../
२-) ग्रन्थ न जानूँ और न ही मंत्र मैं जानूँ ,
     तुझको पाने का न ही यंत्र मैं जानूँ ,
      फिरभी धड़कनों को तेरा ही लोभ हो गया है ,
      लोग कहने लगे तेरा रोग हो गया है....../
३-)भक्ति क्या है मुझे ये पता ही नहीं है,
     दे न दर्शन तो तेरी खता भी नहीं है ,
      तेरा सुमिरन ही अब मेरा भोग हो गया है,
       लोग कहने लगे तेरा रोग हो गया है ...../
४-)जब तू रहता है हर इक कण-कण में कान्हाँ ,
     कभी मन की देहरी पर भी ,मेरे तू आना ,
      तेरी सेवा ही अब मेरा श्लोक हो गया है ,
       लोग कहने लगे तेरा रोग हो गया है....../

    मुझे इस कदर तेरा शौक हो गया है,
     लोग कहने लगे तेरा रोग हो गया है।।
               🌺 🌺🌺🌺
        रचित द्वारा अर्चना भूषण त्रिपाठी.....
          (१०/१/२०१७)
[1/11, 22:14] पं अर्चना जी: 🌻🌻यत्रविश्वम्भबत्येक नीडं🌻🌻
शाठ्येन धर्मं कपटेन मित्रं,
परोपतापेन समृद्धिभावम्।
सुखेन विद्यां परुषेण नारीं,
वाञ्छन्ति ये व्यक्तमपण्डितास्ते।।
     
जो लोग शठता से धर्म को सिद्ध करना चाहते है,कपट से मित्र बनाना चाहते है, सुखोपभोग भुगतते भुगतते विद्या प्राप्त करना चाहते है और कठोर भाव से नारी को समझाना चाहते है, वे वास्तव में मूर्ख ही है।
🌺🙏जय श्री कृष्ण हर हर महादेव🙏🌺
[1/12, 06:00] अरविन्द गुरू जी: हरि ॐ तत्सत्!  सुप्रभातम्।
भगवदनुग्रहात्सर्वे जनाः परोपकारं कुर्वन्तः परमकल्याणं पश्यन्तु।

साधना का सर्वोत्कृष्ट साधन

*सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः।*
*सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद्  दुखःभाग्भवेत्॥*

हम जो कार्य-व्यवहार समाज करें, उसे लोक कल्याण की भावना से करें, यह सार्वभौम सिद्धान्त है, जो सबका कल्याण चाहता है, उसका परमकल्याण (लोक-परलोक) परमात्मा की कृपा से सदा ही होता है।

*अयं निजः परो वेत्ति गणना लघुचेतसाम् ।*
*उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्॥*

यह मेरा और यह पराया है, इस प्रकार की सोंच संकुचित हृदय वाले लोग रखते हैं। समुदार विशाल और निर्मल हृदय वाले लोगों के लिए सम्पूर्ण वसुधा पर विद्यमान जन उनके प्रिय कुटुम्बी हैं।

सज्जनों!
जो परमार्थं की पवित्र गङ्गा में स्नान कर अपने को धन्य मानता है, उसके लिए संसार में कुछ भी दुर्लभ नहीं रह जाता है।

*परहित बस जिन्ह के मन माहीं।*
*तिन्ह कहूँ जग दुर्लभ कछु नाहीं॥*
(श्रीरामचरितमानस)

*लभन्ते ब्रह्मनिर्वाणमृषयः क्षीणकल्मषाः।*
*छिन्नद्वैधा यतात्मानः सर्वभूतहिते रताः॥*
(इति श्रीमद्भगवद्गीतायाम्)

भगवान् उपदेशित करते हैं, जिनका शरीर, मन, बुद्धि और इन्द्रियाँ उनके वशीभूत हैं। जो प्रसन्नता पूर्वक निष्कामरूप से सभी प्राणियों के हित में रत हैं, श्रीगुरु-गोविन्द की अमोघकृपा से जिनके सम्पूर्ण संशय मिट गये हैं, जिनके समस्त कल्मष समाप्त हो गये हैं, ऐसे विवेकी सत्पुरुष साधक सहज ही ब्रह्म को वरण कर लेते हैं।

॥ सत्यसनातनधर्मो विजयतेतराम्॥
[1/12, 07:53] पं अर्चना जी: 🙌🙌🙌🙌🙏🙌🙌🙌

*प्रभु का रास्ता बड़ा सीधा है*
*— और बड़ा उलझा भी।*

*बुद्धि से चलो तो बहुत उलझा,*
*भक्ति से चलो तो बड़ा सीधा।*

*विचार से चलो तो बहुत दूर ,*
*भाव से चलो तो बहुत पास।*

*नजरो से देखो तो कण कण मे ,*
*अंतर्मन से देखो  तो जन जन मे   😊🍀🙏शुभ प्रभात🙏🍀😊
🍁आपका दिन मंगलमय हो 🍁
[1/12, 07:58] ‪+91 98854 71810‬: 🌞🌞🌞🌞🌞🌞🌞🌞🌞🌞🌞
*नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः।*
*उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्वदर्शिभिः।।*
🌞🌞🌞🌞🌞🌞🌞🌞🌞🌞🌞
भावार्थ - कोई व्यक्ति कितना भी चाहे वह न तो संसार में सदा के लिये निवास कर सकता है और न ही निरन्तर परमात्मा की ओर अपनी गति को रोक सकता है। इससे सिद्ध होता है कि असत्‌ वस्तु की तो सत्ता नहीं है और सत्‌ का अभाव नहीं है। तत्व ज्ञानियों द्वारा इस प्रकार इन दोनों को ही तत्त्वत: देखा गया है ।
🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹
*आपका आज का दिन परम् उत्साह से सम्पन्न रहे, इस शुभकामना के साथ -*
         *- सुप्रभात प्रणाम समस्त गुरुजनो को
🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹
[1/12, 08:55] पं अर्चना जी: अभिगम्य कृते दानं त्रेतास्वाहूय दीयते ।
द्वापरे याचमानाय सेवया दीयते कलौ ।।

सत्युग में संत ब्राह्मण के घर पर जाकर लोग दान देते थे । त्रेता में बुलाकर, द्वापर में माँगने पर और कलियुग में जो सेवा करे उसे देते हैं ।
🌺🙏जय श्री कृष्ण हर हर महादेव🙏🌺
[1/12, 08:57] पं अर्चना जी: 🚩उठो मेरे शेरो, 🐅इस भ्रम को मिटा दो कि तुम निर्बल हो , तुम एक अमर आत्मा हो, स्वच्छंद जीव हो, धन्य हो, सनातन हो , तुम तत्व  नहीं हो , ना ही शरीर हो , तत्व तुम्हारा सेवक है तुम तत्व के सेवक नहीं हो।

अगर धन दूसरों की भलाई  करने में मदद करे, तो इसका कुछ मूल्य है, अन्यथा, ये सिर्फ बुराई का एक ढेर है, और इससे जितना जल्दी छुटकारा मिल जाये उतना बेहतर है.

जिस तरह से विभिन्न स्रोतों से उत्पन्न धाराएँ अपना जल समुद्र में मिला देती हैं, उसी प्रकार मनुष्य द्वारा चुना हर मार्ग, चाहे अच्छा हो या बुरा भगवान तक जाता है ।

ऐसे विचारो को रखने वाले महापुरुष स्वामी विवेकानंद जी को उनके जन्म दिवस पर बारम्बार प्रणाम । ;;;;;; आपको शुँभ कामनाए🚩
         🙏ऊँ०शिवः हरिः🙏
   🌹🌹🌹🌹ॐ 🌹🌹🌹🌹
[1/12, 09:08] ओमीश: 🌹श्री मात्रे नमः🌹
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ततोअ्हमखिलं लोकमात्मदेहसमुद्भवैः ।
भरिष्यामि सुराः शाकैरावृष्टेः प्राणधारकैः ।।
शाकम्भरीति विख्यातिं तदा यास्याम्यहं भुवि
तत्रैव च वधिष्यामि दुर्गमाख्यं महासुरम् ।।

अर्थ - देवताओं ! उस समय मैं अपने शरीर से उत्पन्न हुए शाकों द्वारा समस्त संसार का भरण पोषण करुँगी ।जब तक वर्षा नही होगी तब तक वे शाक ही सबके प्राणों की रक्षा करेंगे ।ऐसा करने के कारण पृथ्वी पर शाकम्भरी के नाम से मेरी ख्याति होगी ।उसी अवतार में मैं दुर्गम नामक महादैत्य का वध भी करुँगी।

धर्मार्थ वार्ता समाधान एवं मातृशक्ति प्रेम
            आचार्य ओमीश ✍
[1/12, 09:40] ओमीश: जन्मतिथिः फलकम्:Birth date।1863।1।12। सोमवासरः
जन्मस्थानम् कोलकता, पश्चिमबङ्गराज्यम्, भारतम्
पूर्वाश्रमनाम नरेन्द्रनाथ दत्त
मृत्युतिथिः फलकम्:Death date and age।1902।7।4।1863।1।12।df=y Friday
मृत्युस्थानम् कोलकतासमीपे बेलूरुमठः
गुरुः/गुरवः रामकृष्णपरमहंसः
शिष्याः स्वामी सदानन्दः सोदरी निवेदिता
तत्त्वचिन्तनम् वेदान्तः
सम्मानाः चित्रम्:Vivekananda1.ogg।विश्वधार्मिकसभायां हिन्दुप्रतिनिधिरूपेण भाषणम्
साहित्यिककृतयः राजयोगः, कर्मयोगः, भक्तियोगः, ज्ञानयोगः
उक्तिः Come up, O lions, and shake off the delusion that you are sheep; you are souls immortal, spirits free, blest and eternal; ye are not matter, ye are not bodies; matter is your servant, not you the servant of matter.[१]
हस्ताक्षरम्
दृ सं प
सन्ति बहवो भारतस्य वरपुत्राः येषु अविस्मरणीयः स्वामी विवेकानन्दः। सः विश्वधर्मसम्मेलने भारतीय-संस्कृतेः उपादेयतां श्रेष्ठतां च प्रादर्शयत्। बङ्गप्रान्तस्य कोलकातानगरे त्रिषष्ट्यधिकशततमे(१८६३) वर्षे जनवरी मासस्य द्वादशे दिने एतस्य जन्म अभवत्। तस्य पिता श्री विश्वनाथदत्तमहोदय:। पूर्वं तस्य नाम नरेन्द्रनाथदत्तः इति आसीत्। एषः उत्साही, हास्यप्रियः, करुणापरः च आसीत्। नरेन्द्रः बाल्ये कपीन्, मयूरान्, कपोतान् च पालयति स्म। एषः पितुः हयान् अपि रक्षति स्म। अध्ययनपटुरयं नरेन्द्रः शास्त्रीयसङ्गीतस्य अभ्यासं करोति स्म। प्रतिदिनं व्यायामं करोति स्म। ध्यानसिद्धः अयं भ्रूमध्ये ज्योतिरेकं पश्यति स्म। ईश्वर-जिज्ञासुः अयं सर्वान् पृच्छति स्म यत् किं भवान् ईश्वरं दृष्टवान्? इति। ईश्वरं ज्ञातुं पाश्चात्यदर्शनस्य भारतीयदर्शनस्य च गभीरम् अध्ययनं कुर्वन् अयं नरेन्द्रः विश्वविद्यालयस्य स्नातकपदवीम् अधिगतवान्। अस्मिन्नेव समये दैवयोगात् दक्षिणेश्वरस्थे कालीमन्दिरे परमहंसस्य रामकृष्णदेवस्य दर्शनं तेन प्राप्तम्। रामकृष्णमुद्दिश्य नरेन्द्रः पृष्टवान् ‘किं भवान् ईश्वरं दृष्टवान् ?’ इति। ‘आम्। त्वामिव ईश्वरमपि पश्यामि’ इति श्रीरामकृष्णदेवः स्मयमानः अवदत्। एष एव महापुरुषः नरेन्द्रस्य अध्यात्म-गुरुः अभवत्।

सन्यासदीक्षानन्तरं नरेन्द्रस्य नाम विवेकानन्दः इति अभवत्। अयं च नरेन्द्रः भारतभ्रमणं योगसाधनां च कृत्वा त्रिनवत्यधिकाष्टादशत(१८९३)तमे वर्षे अमेरिकादेशस्य शिकागोनगरे विश्वधर्मसभायां भारतस्य गौरवं प्रतिष्ठापितवान् । तत्र सभास्थले विविध धर्मग्रन्थाः एकस्य उपरि एकः इति क्रमेण स्थापिताः आसन् । संयोगवशात् श्रीमद्भगवद्गीता सर्वेषां पुस्तकानाम् अधः आसीत् । एकः अमेरिकावासी उपहासपूर्वकम् अवदत् - ‘स्वामिन्। भवतां गीता सर्वेषां धर्मग्रन्थानाम् अधः वर्तते’ इति । प्रत्युत्पन्नमतिः स्वामी विवेकानन्दः हसन्नेव प्रत्यवदत् - ‘आम् । सत्यम्। आधारशिला तु अधः एव भवति। सा यदि बहिः स्वीक्रियेत तर्हि समग्रम् अधः पतिष्यति’ इति। विदेशेषु वेदान्तधर्मस्य प्रचारं कृत्वा भारतं प्रत्यागतः सः देशोद्धाराय युवकान् प्रेरितवान्। जनसेवा, स्वास्थ्यरक्षा, स्त्रीशिक्षा, आधुनिकप्रौद्योगिकी प्रभृतिषु क्षेत्रेषु असाधारणं कार्यं कर्तुं ‘रामकृष्णमिशन्’ इति संस्थां संस्थाप्य जनेषु शक्तिजागरणं कृतवान्। स्वामिविवेकानन्दस्य अयं सन्देशः अद्यापि भारतीयान् प्रेरयति - "उत्तिष्ठत, जाग्रत, प्राप्य वरान्निबोधत।"

स्वामी विवेकानन्दःसंपादित करें

"हे सोदरसोदरीमणयः ! सुदीर्घायाः कालरात्रेः इदानीम् अन्तिमक्षणाः आगताः । कष्टानि, दुःखानि नाशं यान्ति । पवित्रा भूमिरस्माकम् । सर्वत्र प्रसृतानां मलयवीचिकानां स्पर्शेन भारताम्बा प्रबुध्यमानाऽस्ति । तस्याः महाशक्तिं अवरोद्धुं कोऽपि न शक्तः भवति ।"

"अस्मन्मातृभूमये सर्वम् अर्पयितुं भवन्तः सिद्धाः वा ? सिद्धाः चेत् अस्मिन् देशे दारिद्र्यस्य, आज्ञानस्य च नाशं कर्तुं समर्थाः भवन्ति भवन्तः । अस्माकं देशीयाः सोदराः कोटिशः जनाः क्षुधातुराः कष्टानि अनुभवन्तः सन्तीति भवन्तः जानन्ति किम् ? तेषां विषये भवन्तः परितपन्ति किम् ?"

"गिरयः इव विघ्नाः भवन्तु नाम तानतिक्रान्तुं धैर्यसाहसे भवत्सु स्तः वा ? भवताम् आप्ताः सन्निहिताः, भवतां विरोधिनो वा भवन्तु नाम लक्ष्यसाधनाय पुरोगन्तुं वज्रसङ्कल्पः भवतामस्ति वा ? स्वेषु विश्वासः अस्ति चेदेव भवन्तः स्वतन्त्रजीविनः भवन्ति । सुदृढदेहं भवन्तः वर्धयेयुः । अध्ययनद्वारा ध्यानद्वारा भवतां मनसां रूपनिर्माणं करणीयम् । तदैव भवन्तः विजयिनः भवन्ति ।

"अमेरिकादेशम्, इङ्ग्लण्ड्देशं प्रति च गमनात् पूर्वं मम मातृभूमिं प्रगाढं प्रीणामि स्म । ततः निर्वर्त्य आगमनानन्तरम् अस्याः भूम्याः प्रतिधूलिकणमपि मे पवित्रं दृश्यते ।"

अमुं सन्देशं भरतखण्डस्य कोणं कोणं प्रति कः नीतवानिति भवन्तः जानन्ति वा ? सः एव स्वामी विवेकानन्दः ।

चैतन्यवान् बालकःसंपादित करें

संन्यासी भूत्वा स्वामी विवेकानन्दः इति नाम प्राप्तवान् सः । पितरौ नरेन्द्र इति आह्वयतः स्म तम् । नरेन्द्रस्य जनकस्य नाम विश्वनाथदत्तः । जननी भुवनेश्वरीदेवी । कोलकातानगरे १८६३ संवत्सरे जनवरीमासस्य १२ दिनाङ्के नरेन्द्रः जातः । शैशवे एव अत्यन्तचैतन्यवान्, चपलः च आसीत् सः ।

नरेन्द्रे बाल्ये पदं न्यस्यति सति तस्य चापलता अपि प्रवृद्धा । परितः विद्यमानानां बालकानां सहजतया सः एव नायकः भवति स्म । सहचराः सर्वदा तस्य निर्णयं शिरसा वहन्ति स्म । एकदा कश्चित् गृहयजमानः "तस्मिन् वृक्षे एकः पिशाचः अस्ति, सः बालान् निगिरति" इत्युकत्वा बालान् भायितवान् । तेन तर्जनेन नऱेन्द्रः किञ्चिदपि न भीतः । तं वृक्षमारुह्य एकस्यां शाखायाम् उपविष्टवान् । इतरे बालाः सर्वे भीरुतां प्रदर्शितवन्तः । नऱेन्द्रः बहुकालं वृक्षे एव उपविश्य निरीक्षां कृतवान् । पिशाचः प्रेतः वा कोऽपि नागतः । अतः गृहस्वामिना उक्ता काककथा (असत्यकथा) इति सर्वान् अवदत् । ध्यानमपि तस्य क्रीडा इवासीत् । किन्तु ध्यानसमये प्रापञ्चिकसम्बन्धिस्पृहाहीनः भवति स्म । ध्यानसमये गृहगोधिका सर्पः वा समीपमागच्छतु नाम तस्य एकाग्रता भग्ना न भवति स्म ।

बाल्यतः एव नरेन्द्रः साधूनां संन्यासिनां विषये गौरवं प्रीतिं च दर्शयति स्म । याचनमात्रेण सर्वस्मै अपि सर्वं ददाति स्म सः । यदा स्वजन्मदिने नूतनवस्त्रं धरति स्म, तदा कोऽपि भिक्षुकः 'भिक्षां देहि' इति हस्तं प्रसारयति चेत् तत् नूतनवस्त्रमपि तस्मै ददाति स्म । अत एव तस्य माता स्वगृहं प्रति कस्यापि भिक्षुकस्यागमनं पश्यति चेत् नरेन्द्रं प्रकोष्ठे स्थापयित्वा कीलयति स्म । किन्तु नरेन्द्रस्य स्वभावं सर्वोऽपि भिक्षुकः जानाति स्म, अतः ते नऱेन्द्रः यत्रास्ति तत्प्रकोष्ठवातायनसमीपमागत्य याचन्ते स्म । नरेन्द्रः स्वसमीपे यदस्ति तद्वस्तु तेषां भिक्षापात्रे समर्पयति स्म । त्यागभावः वैराग्यभावः अन्ये च सुगुणाः तस्मिन् विकस्यमानाः आसन् ।

विरामसमयेषु तन्माता तस्य कृते रामायणकथां वदति स्म । रामायणस्थां यां कमपि कथां न वदति चेत् सः न निद्राति स्म । मातरि कथां कथयन्त्यां सत्यां नरेन्द्रः स्वीयाध्ययनं, क्रीडाः, गीतानि सर्वाणि विस्मृत्य एकनिष्ठया शृणोति स्म । आञ्जनेये तस्य अमिता भक्तिः आसीत् । एकदा सः शरीरे सर्वत्र भस्म विलेप्य शिवविग्रहस्य पुरतः उपविष्टवान् । तं दृष्ट्वा विस्मिता तस्य माता 'नरेन्द्र! कः एषः वेषः ?' इति पृष्टवती । तदा सः हसन् 'अम्ब! अहं शिवः, जानाति वा ?' इति अवदत् । तत्पितामहः इव एषः अपि संन्यासी भवेदिति तन्माता भीता भवति स्म ।

बाल्यम्संपादित करें

नरेन्द्रस्य जनकः न्यायवादी आसीत् । प्रतिदिनं विविधकुलजाः न्यायार्थिनः बहवः तदगृहमायान्ति स्म । तदगृहं धर्मशाला इव भवति स्म । ते सर्वेऽपि तत्रैव अल्पाहारं भोजनं च कुर्वन्ति स्म । भोजनानन्तरं धूमपानार्थं हुक्कानां प्रदानं तत्र सम्प्रदायः आसीत् । तत्र एकैककुलजानां प्रत्येकतया हुक्का भवति स्म । इतरकुलजानां हुक्काम् अहं पिबामि चेत् किं भवतीति ज्ञातव्यम् इति नरेन्द्रस्य उत्सुकता आसीत् । एकदिने तादृशप्रयोगं कृतवानपि । अनर्थं न किञ्चित् जातम् । कुलभेदाः निरर्थकाः इति सः तदानीमेव निर्णीतवान् ।

"वार्धक्यलक्षणानि बाल्ये एव द्र्ष्टुं शक्यन्ते" इति सूक्तिः करुणार्द्रहृदयस्य नरेन्द्रस्य विषये सम्पूर्णतया सत्यार्था अभवत् । एकदा तत्रत्य-व्यायामशालायां व्यायामविन्यासानां प्रदर्शनम् आसीत् । अनूह्यतया एका भारयुक्ता अयश्शलाका सन्दर्शकेषु कस्यचन नाविकस्योपरि पतिता । स च मूर्छितः । आरक्षकाः प्रश्नं करिष्यन्तीति सन्दर्शकाः सर्वे भयेन पलायितवन्तः । नरेन्द्र: द्वयोः मित्रयोः साहाय्येन व्रणितस्य नाविकस्य प्रथमचिकित्सां कृतवान् । अन्यस्मिन् सन्दर्भे अश्वशकटस्य चक्रयोरधः पतितं किञ्चन मित्रं नरेन्द्रः चक्रयोर्मध्यतः बहिरानीय रक्षितवान् । अन्यदा अज्ञातं बालकं कञ्चन रक्षितवान् । तीव्रज्वरेण मध्येमार्गं नष्टप्रज्ञं तं बालकं स्वगृहं नीत्वा तस्य सेवामकरोत् ।

नरेन्द्रः न केवलं क्रीडासु निपुणः, विद्यास्वपि सः निपुणः एव । यं कञ्चन पाठम् एकवारं पठित्वा अक्षरशः सर्वं स्मरति स्म सः । तस्य स्मरणशक्तिः अपूर्वा आसीत् । अध्ययने विजयप्राप्तेः मूलकारणं तस्य एकाग्रता एव ।

विश्वनाथदत्तः यदा यदा समयः लभ्यते तदा तदा नरेन्द्रमेवं बोधयति स्म "सत्यधर्मयुतं मार्गं यावदनुसरति भवान् तावत् कस्मादपि भयं अनुभोक्तव्यं नास्ति । दुष्टानां वशः मा भवतु । आत्मगौरवं सर्वदा रक्षतु भवान् । स्वमते प्रेम इत्यस्य अर्थः परमते द्वेषः न । देशभक्तिरस्ति चेत् एव मानवः सुखेन जीवति । परदेशीयाः शत्रवः अस्माकं देशस्य उपरि आक्रमणं कृतवन्तः चेदपि अस्माकं देशस्य प्राचीनां महिमान्वितां संस्कृतिं ते हर्तुं न शक्नुवन्ति" इति । स्वकुमारस्य नरेन्द्रस्य मधुरं कण्ठस्वरं श्रोतुम् इच्छति स्म पिता । भक्तिगीतानाम् आलापनसमये नरेन्द्रस्य मुखम् उज्ज्वलं प्रकाशते स्म ।

नरेन्द्रः स्वजननीं प्राणसमं प्रीणाति स्म । तां साक्षात् देवतां मनुते स्म । तस्य चिन्तनानुसारं त्यागे मातृसमः जनः अन्यः कोऽपि न भवति । न केवलं गृहे किन्तु समाजेऽपि तस्याः कृते अत्युन्नतस्थानं दातव्यम् । जनकेऽपि नरेन्द्रे अपारं प्रीत्यादरवान् आसीत् । सर्वमिदं तस्य स्वेच्छायाः, स्वतन्त्रविहाराणां वा प्रतिबन्धकं नासीत् । पितरमुद्दिश्यापि स्वाभिप्रायान् स्पष्टतया प्रकटयामास सः । "आतिथ्यमिति सत्यमेव सुगुणः, किन्तु अलसानां कृते भोजनदानं किमुचितम् ? धूमपानाय तेषां कृते धूमवर्तिकानां, हुक्कानां प्रदानं न्याय्यं वा ?" इति पितरं दृढं पृच्छति स्म । तस्य पिता तु 'पुत्र ! तेषां कष्टानि भवान् न जानाति, धूमपानावसरे वा ते स्वजीवनस्य कष्टं विस्मरेयुः इति वदति स्म ।।

१८८० तमे वर्षे नरेन्द्रः माध्यमिकशिक्षां समाप्य मेट्रिक्युलेषन्, कलाशालाप्रवेशपरीक्षाञ्चोत्तीर्णवान् । सः काञ्चन कलाशालां प्राविशत् । तस्य ज्ञानतृष्णा दिने दिने वर्धते स्म । विविधानि पुस्तकानि ग्रन्थालयतः आनीय तृष्णायाः निवारणाय पठति स्म सः । विशेषतया भगवतः सृष्टिरहस्यानि तं सम्मोहयन्ति स्म । न केवलम् इतिहासं, विज्ञानशास्त्रं पाश्चात्यतत्त्वशास्त्रमपि सम्यगधीतवान् सः । अध्ययनेन तस्य मेधाशक्तिः विकसिता भवति स्म । सन्देहसन्दोहाः तं परितः भवन्ति स्म । अन्धविश्वासान् मनसः सः तिरस्कर्तुं शक्तवान्, तत्त्वस्य साक्षात्कारन्तु न प्राप्तवान् ।

प्रसिद्धपण्डितान् सन्दृश्य, स्वसन्देहान् तेषु निवेद्य तेषां मार्गदर्शनं प्रार्थयति स्म । तर्कवितर्केषु पण्डिताः एकमन्यो विशिष्यन्ते स्म, किन्तु तेषां तर्काः नरेन्द्रस्य तृप्तिकराः नासन् । तेषां विचारशैली शिथिला, पुरातनी आसीत् । तेषु कस्यचन वा देवस्य साक्षात्कारानुभूतेः अविद्यमानत्वात् तद्विचारधारा नरेन्द्रस्य अतृप्तिकरी आसीत् ।

गुरोः अन्वेषणम्संपादित करें

रामकृष्णपरमहंसः
जगन्मातुः कालीदेव्याः मन्दिरे रामकृष्ण परमहंस।श्रीरामकृष्णः अर्चकः आसीत् । सः तु न पण्डितः । किन्तु भक्तौ परमोन्नतः आसीत् । सः भगवतः साक्षात्कारं प्राप्तवानिति वदन्ति स्म सर्वे । तस्य सन्दर्शनार्थं गताः पण्डिताः तस्य शिष्याः अभवन् । एकदा नरेन्द्रः मित्रैः सह तस्य दर्शनाय दक्षिणेश्वरं गतवान् । श्रीरामकृष्णं परितः भक्ताः आसन् । सः भगवद्विषयकचर्चायां निमग्रः आसीत् । नऱेन्द्रः स्वमित्रैः सह एकस्मिन् कोणे उपविष्टवान् । श्रीरामकृष्णस्य मनसि किमपि चलनं प्रारब्धम् । आनन्दः अनुभूतः । केऽप्यनिर्वचनीयाः भावाः तस्य मनः कल्लोलितम् अकुर्वन् । पूर्वानुबन्धविषयिकाः काः अपि स्मृतयः तस्मिन्नुदभूय व्याप्नुवन्ति स्म । किञ्चित्कालपर्यन्तं सः भावसमाधाविव निश्चलः जातः । नरेन्द्रस्य आकर्षणीया मूर्तिः, प्रकाशवत् नेत्रयुगलञ्च तमाश्चर्यचकितमकरोत् । 'भवान् गातुं श्क्नोति वा ?' इति श्रीरामकृष्णः नरेन्द्रं पृष्टवान् । वीणारवसदृशेन श्राव्येण स्वकण्ठस्वरेण नरेन्द्रः वङ्गभाषया गीतद्वयं गीतवान् । तत् सङ्गीतमाधुर्यम् आस्वदमानः भगवान् श्रीरामकृष्णः समाधिं गतः । सः नरेन्द्रं कञ्चन प्रकोष्ठं नीतवान् । नरेन्द्रस्य पृष्ठं स्पृशन् 'वत्स ! कुतः विलम्बः ? एतावत्पर्यन्तं भवतः निरीक्षया मम नेत्रद्वयं श्रान्तं जातम् । मम दिव्यानुभूतयः योग्येन जनेन सह चर्चनीयाः । भवान्न साधारणः । नररूपधारी नारायणो भवान् । अहं बहुकालतः निरीक्षणं करोमीति जानाति वा भवान् ?' इति उक्त्वा भृशं रुदितवान् श्रीरामकृष्णः ।

श्रीरामकृष्णस्य प्रवर्तनं दृष्ट्वा नरेन्द्रः चकितः । 'वृद्धः एषः उन्मत्तः’ इत्ति चिन्तितवान् । ‘वत्स ! पुनः आगच्छति वा ? आगच्छामीति वचनं ददातु ।' इति श्रीरामकृष्णः तमभ्यर्थितवान् । 'अस्तु' इत्यवदत् नरेन्द्रः बहिरागमनमेव ततः श्रेयः इति चिन्तयन् । श्रीरामकृष्णस्य भाषणस्यान्ते नऱेन्द्रः 'भवान् भगवन्तं दृष्टवान् वा?' इत्ति पृष्टवान् । ‘सत्यं भोः! दृष्टवान् । भवन्तमिव भगवन्तं दृष्टवान् । तेन सह वार्तालापं कृतवानपि । भवते अपि दर्शयामि । किन्तु भगवन्तं द्रष्टुं तातप्यमानः कः अस्ति?’ इति श्रीरामकृष्णः प्रत्यवदत् । नरेन्द्रः स्वगतमेवं चिन्तितवान् ‘अद्यपर्यन्तं भगवन्तमहं दृष्टवानिति वक्ता कोऽपि जनः न दृष्टः । एषः तु मतिहीनः इव अस्ति । उन्मत्तः स्यात् । अथवा परिशीलनम् अकृत्वा निर्णयस्वीकारः नोचितः अत्र' इति ।

एकः मासः अतीतः । कदाचित् नरेन्द्रः एकाकी दक्षिणेश्वरं गतः । श्रीरामकृष्णः स्वप्रकोष्ठे खटवायाम् उपविष्टवानासीत् । नरेन्द्रं दृष्ट्वा आनन्दितः सः तं खटवायाम् उपवेशितवान् । सः समाधिं गतः । स्वपादं नरेन्द्रस्याङ्के न्यस्तवान् । नरेन्द्रः बाह्यप्रपञ्चं विस्मृतवान् । स्वयं शून्ये आर्दीभवन्निव अनुभूतिं प्राप्तवान् ।'किमेतत् ? भवान् मां किं कुर्वन्नस्ति ? मम पितरौ जीवन्तौ स्तः । अहं तयोः समीपं गच्छामि' इति सम्भ्रान्तः उक्तवान् नरेन्द्रः । श्रीरामकृष्णः हसन् 'अस्तु । अद्य एतावत् पर्याप्तम् ।' इति वदन् स्वपादं तदङ्कतः स्वीकृतवान् । नरेन्द्रः पुनः साधारणस्थितिं प्राप्तवान् ।

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दिनेषु गच्छत्सु तयोः परस्परम् आकर्षणं सञ्जातम् । परस्परं त्यक्त्वा जीवनम् असाध्यम् इति भावः उत्पन्नः । नरेन्द्रस्य सामर्थ्यं विज्ञातुं श्रीरामकृष्णस्य अधिककालः नावश्यकः अभवत् । विशिष्य सः जगन्मातुः कालिकायाः इच्छानुसारं प्रवर्तते स्म । युवकः नरेन्द्रः तु श्रीरामकृष्णं परीक्ष्य एव गुरुत्वेन अङ्गीकर्तुम् इच्छति स्म । 'भगवतः साक्षात्करणाय ऐहिकवाञ्छाः त्याज्याः' इति श्रीरामकृष्णः वदति स्म । एकस्मिन् दिने नरेन्द्रः श्रीरामकृष्णे बहिर्गते सति तस्य शय्यायाः अधः नाणकमेकं स्थापितवान् । श्रीरामकृष्णः प्रत्यागत्य खट्वायां शयितवान् । तत्क्षणम् एव सः वृश्चिकेन दष्ट इव उत्पतितः । शय्यायाम् अन्वेषणेन नाणकं प्राप्तं तेन । तत् नरेन्द्रस्य कार्यमेवेति सः अनन्तरं ज्ञातवान् । नरेन्द्रः श्रीरामकृष्णस्य प्रियशिष्यः सञ्जातः । sa

नरेन्द्रस्य वचनानि श्रीरामकृष्णः यथातथं नाङ्गीकरोति स्म । नरेन्द्रः विग्रहाराधकान् तीव्रतया विमृशति स्म । अद्वैतसिद्धान्तं तिरस्करोति स्म । लोकोत्तरानुभूतीः न विश्वसिति स्म । 'अहं ब्रह्मास्मि' 'शिवोऽहम्' इत्येतादृशानि अद्वैतबोधकवाक्यानि नरेन्द्रे कमपि परिणामं न अजनयन् । श्रीरामकृष्णः सर्वदा नरेन्द्रम् एवं वदति स्म - "किञ्चन् गम्यस्थानं गन्तुं बहवः मार्गाः भवन्ति । इतरप्रवासिनां मार्गः अनुचितः इति वक्तुं कस्यापि अधिकारः नास्ति । अज्ञातविषयानुद्दिश्य स्वसिद्धान्तप्रकटनं नोचितम्" इति । एवं श्रीरामकृष्णः नरेन्द्रं क्रमशः समीचीनमार्गं प्रापयति स्म ।

एकदा श्रीरामकृष्णः नरेन्द्रं निर्जनप्रदेशं नीतवान् । 'बहुकालं अत्र तपः कृत्वा नरेन्द्रः काश्चन् सिद्धीः सम्पादितवान् । एताभिः मानवः वाञ्छितं प्राप्तुं शक्नोति । अहं तु सर्वान् कामान् त्यक्तवान् । एताभिः शक्तिभिः मम प्रयोजनं नास्ति । एताः भवते यच्छामि वा ?' इति नरेन्द्रं पृष्टवान् रामकृष्णः । 'एताभिः शक्तिभिः आत्मसाक्षात्कारः मया लभ्यते वा ?' इति नरेन्द्रः तं पृष्टवान् । 'न लभ्यते' इति श्रीरामकृष्णस्य समाधानम् ।"तथा चेत् एताः शक्तयः मम नावश्यक्यः, मम वाञ्छा तु भगवत्साक्षात्कारः एव" इति नरेन्द्रस्य वचनं श्रुत्वा श्रीरामकृष्णे आनन्दः सुविकसितः । गुरुदेवः नरेन्द्रं परीक्षितवान् । परीक्षायां नरेन्द्रः सफलः अभवत् ।

क्रमशः नरेन्द्रः प्रापञ्चिकवासनाः त्यक्त्वा, वैराग्यधर्मासक्तः भवति स्म । तस्य पितरौ अमुमंशं ज्ञातवन्तौ । तदा नरेन्द्रः स्नातकपरीक्षायै (B.A) पठति स्म । तस्य विवाहं कृत्वा प्रापञ्चिकजीवनं प्रति आनेतुं तौ चिन्तितवन्तौ । अमुं विषयं ज्ञात्वा श्रीरामकृष्णः कल्लोलितस्वान्तः अभवत् । 'कौटुम्बिकबन्धेषु लग्रः भवति चेत् मानवसेवां कर्तुं न शक्नोति भवान्' इति तं बोधितवान् । कदाचित् श्रीरामकृष्णस्य बोधनेषु नरेन्द्रः न विश्वसिति स्म । तादृशसमयेषु श्रीरामकृष्णः आदौ तं स्वहस्ताभ्यां स्पृशति स्म । तेन नरेन्द्रः प्रापञ्चिकविषयनिस्स्पृहः भवति स्म । गुरुबोधेन पुनः प्राप्तचैतन्यः भवति स्म । एवं क्रमशः स गुरुः स्वशक्तिं शिष्याय दत्तवान् । १८८४ संवत्सरे नरेन्द्रः स्नातकपरीक्षाम् (B.A) उत्तीर्णवान् । तस्य किञ्चन मित्रं मिष्टान्नोपहारं पुरस्कृतवान् । तत्र नरेन्द्रः गीतमेकं गीतवान् । तस्मिन्नेव समये अशनिपात इव जनकस्य मरणवार्ता नरेन्द्रेण श्रुता ।

पितुः मरणानन्तरं तत् कुटुम्बं दारिद्र्येण आवृतम् । ऋणदातारः ऋणनिर्यातनाय पीडनम् आरब्धवन्तः । तेषु केचन न्यायालये अभियोगम् अग्च्छन् । आजीविकासम्पादनाय नरेन्द्रः बहुधा अटितवान् । तस्य वस्त्राणि खण्डशः छिन्नानि अभवन् । दिने एकवारं भोक्तुम् अपि कष्टमभवत् । स्वजननी-सोदरी-सोदराणाम् उदरपूरणाय सः बहुदिनानि निराहारः आसीत् । क्षुधया कदाचित् वीथीषु विसंज्ञः सन् पतति स्म । एवं दौर्भाग्ये तमनुसरति सत्यपि सः भगवति विश्वासं तु न त्यक्तवान् । 'मानवसेवां, जगन्मातुः कालिकायाः कार्यं निर्वोढुम् एव लोकेऽस्मिन् भवानस्ति । धीरः भवतु' इति तं सान्त्वयति स्म श्रीरामकृष्णः ।

'मम गुरुणा दृष्टः भगवान् सर्वं ददाति । अतः गुरोः सन्निधौ अभ्यर्थनं कार्यसाधनाय, वाञ्छापूरणाय उत्तमोपायः' इत्ति चिन्तितवान् एकदा नरेन्द्रः । साक्षात् गुरोः समीपं गत्वा 'एतस्मात् दारिद्र्यात् मां मोचयितुं मम पक्षतः जगन्मातरं कृपया प्रार्थयतु । भवान् यत्पृच्छति सा देवी तत्पूरयत्येव खलु ।' इत्यवदत् । 'वत्स ! मम तु जनन्यां सुतरां विश्वासः नास्ति । सा कथं मम प्रार्थनां शृणोति ? भवानेव तस्याः समीपं गत्वा पृच्छतु । तदा सा भवतः अभीष्टं सफलं करोति' इति गुरुः उक्तवान् । नरेन्द्रः अर्धरात्रिवेलायां कालीमातुः विग्रहस्य पुरतः उपविष्य गाढं ध्यानम् अकरोत् । 'अम्ब ! मह्यं त्यागभावं, वैराग्यभावं च ददातु । भवत्याः प्रत्यक्षदर्शनं ददातु । भवतीमहम् एतावदेव प्रार्थयामि' इति अभ्यर्थितवान् । नरेन्द्रः बहिरागते सति गुरुः 'भवतः आभीष्टं मातरि निवेदितवान् वा ? सा किम् उक्तवती ?' इति पृष्टवान् । नरेन्द्रः विस्मितः । 'अये ! तं विषयं सम्पूर्णतया विस्मृतवान्' इति उक्तवान् ।' तर्हि पुनः गत्वा कालीं प्रार्थयतु' इति उक्तवान् गुरुः । 'दारिद्य्रबाधां वारयतु 'इति प्रार्थनां सः पुनरपि विस्मृतवान् । गुरुः पुनरपि तं कालीसमीपं प्रेषितवान् । स च पुनरपि तं विषयं विस्मृतवान् । गुरोः आनन्दस्य सीमा एव नासीत् । 'वत्स! भोजनवस्त्रादिषु विषयेषु चिन्तां न करोतु । भगवति विश्वसितु । भवतः कुटुम्बस्य योगक्षेमं सा एव वहति’ इति गुरुः प्रेम्णा उक्तवान् ।

नरेन्द्रः उपाध्यायवृत्तिं स्वीकृतवान् । किञ्चित्कालं विद्यासागरस्य पाठशालायां विद्याबोधनं कृतवान् । तदानीं कुटुम्बस्य यथावसरं खादितुं धनं लभ्यते स्म । उपाध्यायः भूत्वा एव न्यायशास्त्राध्ययनम् अनुवर्तितवान् । गुरोः स्वास्थ्यं सम्यक् नासीत् । श्रीरामकृष्णस्य कण्ठे व्रणः जातः । नरेन्द्रः स्वोद्योगं विद्याभ्यासं च परित्यज्य गुरोः परिचर्यार्थम् उपस्थितः जातः । सः गुरोः अन्त्यसमयः । तस्मिन् दिने सः नरेन्द्रं शय्यासमीपम् आहूय स्पृष्टवान् । आध्यात्मिकशक्तीः सर्वाः नरेन्द्राय दत्तवान् । 'नरेन्द्र ! इदानीं भवान् सर्वशक्तिसमन्वितः । एते सर्वे मम पुत्राः । एतेषाम् आवश्यकातादिविषये भवानेव चिन्तयतु' इति उक्तवान् । तानि वचनानि श्रुत्वा नरेन्द्रस्य हृदयं दुःखपूरितं जातम् । शिशुरिव उच्चैः रुदन् प्रकोष्ठात् बहिः गतवान् । श्रीरामकृष्णस्य निर्णयानुसारं तस्य युवशिष्याः सर्वे बारानगरे एकं भाटकगृहं स्वीकृत्य तत्र निवासं कृतवन्तः । तद् गृहं पुरातनं नगरतः दूरे गङ्गानदीतटे आसीत् । श्रीरामकृष्ण्स्य समाधेः अत्यन्तसमीपे अस्ति तत् । अतः तत्रैव मठस्य निर्माणं कृतवन्तः । तेषां युवसन्यासिनां द्वे लक्ष्ये आस्ताम् । मोक्षसाधनम्, मानवसेवनञ्च । केचन युवकाः स्वगृहाणि त्यक्त्वा संन्यासं स्वीकृतवन्त: । नरेन्द्रोऽपि संन्यासी भूत्वा तस्याः संस्थायाः नायकः अभवत् । भोजनेन, वस्त्रेण च हीना अपि युवसंन्यासिनः किमपि न गणितवन्तः । निराहारिणः सन्तोऽपि शास्त्राध्ययनं, ध्यानसाधनं च कृतवन्तः । नरेन्द्रः संस्कृतं वेदान्तं च बोधितवान् । मठसन्दर्शकान् गुरुबोधनानि वदति स्म ।

तीर्थयात्रासंपादित करें

संन्यासी एकस्मिन्नेव स्थाने चिरं न तिष्ठेत् । मठः अपि कारागारसदृशः । एकस्मिन् प्रदेशे अनुबन्धः अपि दोषाय एव । नरेन्द्रः संन्यासी भूत्वा 'विवेकानन्दः' अभवत् । भारतदेश एव तस्य गृहं, भारतीयाः सर्वे तस्य सहोदराः । तेन देशे पर्यटनं करणीयम् । काषायवस्त्रदण्डकमण्डलादयः एव तस्य सम्पदः अभवत् । पर्यटनं कुर्वन् सः अनेकपुण्यक्षेत्राणि सन्दृष्टवान् । पर्णशालासु धर्मशालासु वसन् कठिनभूमौ निद्रां करोति स्म । भिक्षाटनं कृत्वा उदरपूरणं, साधुभिः सह सहवासः, धार्मिकचर्चाभिः पुण्यकर्मभिः कालयापनं, पादभ्यां गमनं तस्य दिनचर्या आसीत् ।कोऽपि सहृदयः वाहनचालकः लभ्यते चेत् तस्य प्रवासः तेन सह भवति स्म । विवेकानन्देन दृष्टं प्रथमक्षेत्रं वाराणसी । तत्र कतिचन दिनानि निवसन् तत्रत्यपण्डितान् स्वीयविचारान् श्रावितवान् । तत्त्वशास्त्रसम्बद्धचर्चायां तान् जितवानपि । अयोध्यायां सीतारामयोः स्मृतिभिः तस्य ऊहालोकः नन्दितः । आगरायां ताजमहल् तस्य विस्मयं जनयामास । बृन्दावनं गच्छन् मध्येमार्गं कञ्चन धीवरं याचित्वा हुक्कां पीतवान् । कस्यचन पारियागृहे जलं पीतवान् । भिक्षाटनं कृतवान् । केनचित् चर्मकारेण दत्तम् आहारं भुक्तवान् । श्रीकृष्णवासस्थाने बृन्दावने पदं स्थापयन् भावपरवशोऽभूत् ।

आल्वारुमध्ये केचन महम्मदीयाः तस्य शिष्याः अभवन् । तेषां गृहेषु निवाससमये एव स्वामिनः महाराजस्य मङ्गलदाससिंहस्य परिचयः अभवत् । आदौ महाराजस्य विवेकानन्दे विश्वासः नोत्पन्नः । तयोः मध्ये तीव्रवादोपवादाः अभवन् । 'स्वामिन्! मूर्त्याराधने मम विश्वासः नास्ति' इति उक्तवान् महाराजः । तदा विवेकानन्दः मूर्तिः तु प्रतीकमात्रम् । तस्य दूषणं निरर्थकम् । सर्वोऽपि भक्तः स्वीयया पद्धत्या दैवसाक्षात्कारं प्राप्नोति । मानवस्य स्वस्वभक्तिश्रद्धयोः अनुरूपा पूजापद्धतिः भवति' इति उक्तवान् । स्वामिनः स्पष्टीकरणेन राज्ञः तृप्तिः नाभवत् । समीपे राज्ञः चित्रमेकम् आसीत् । ‘तत् कस्य चित्रम् ?' इति स्वामी अमात्यं पृष्टवान् । 'तत् महाराजस्य चित्रम्' इति अमात्यः उक्तवान् । 'तस्मिन् निष्ठीवनं करोतु' इति स्वामी उक्तवान् । अमात्यः चकितः ।'किं तथा दीनवदनः अस्ति?' स्वामी पृष्टवान् । ‘एषः वस्तुतः उन्मत्तः स्यात्’ इति अमात्यः चिन्तितवान् । तदा स्वामी एवं स्पृष्टीकृतवान् - 'चित्रं राज्ञः छायामात्रम् । तस्मिन् रक्तमांसादिकं नास्ति । अत्र निष्ठीवने कः क्लेशः ?' इति । ‘चित्रं राजानमेव स्मारयति खलु !' अमात्यः पृष्टवान् । तदा महाराजस्य ज्ञानोदयः अभवत् । सः स्वामिनः सविधे क्षमां प्रार्थितवान् । ततः स्वामी जयपुरम्, अज्मीरम् अतिरिच्य अबूपर्वतं गतवान् । तत्र गुहायां कञ्चित् कालं तपसा यापितवान् ।

विवेकानन्दे रेलयानेन प्रवासं कुर्वति सति राजस्थाने एका कुतूहलकरी घटना अभवत् । सः द्वितीयश्रेणीशकटापवर्गे प्रवासं कुर्वन् आसीत् । धनाभावात् अधिककालतः सः आहारं न खादितवान् आसीत् । एकदा स्वामिनः सहप्रवासी कश्चन वणिक् बहुविधखाद्यानि खादति स्म । स्वामी तु क्षुधया, श्रान्त्या च पीडितः आसीत् । वणिक् तं विडम्बयन् 'भवान् सुतराम् अलसः । कार्यं कर्तुमनिच्छन् काषायवस्त्राणि धृत्वा अटति । भवते कः ददाति ? मम खादनं भवान् पश्यति चेदपि कः दयां करोति ?' इत्यवदत् । स्वामी शान्ततया अवदत् - ‘देवः मम आहारव्यवस्थाम् अवशयं करिष्यति’ इति । किंचित्कालानन्तरं कश्चित् मिष्टविक्रेता स्वामिसमीपमागत्य कानिचन मिष्टानि तस्मै समर्प्य 'स्वामिन् ! अद्य प्रगे स्वप्ने भवन्तं दृष्टवान् । भगवान् श्रीरामचन्द्रः एव भवते आहारं दातुं माम् आदिष्टवान्' इति अवदत् । सर्वमिदं दृष्ट्वा अहङ्कारी वणिक् लज्जया अवनतमुखः जातः ।

अमेरिकाप्रवासःसंपादित करें

मैसूरनगरे स्वामी दिवान् शेषाद्रिअय्यरेण मैसूरुमहाराजेन सह च अमिलत् । कस्याञ्चन पण्डितसभायां स्वामिना कृतेन संस्कृतप्रसङ्गेण आकृष्टः महाराजः ‘भवतः भविष्यत्प्रणालिका का ?' इति पृष्टवान् । 'भारतदेशः अनेकमतानां, दर्शनसिद्धान्तानां च आश्रयस्थानम् अस्ति । एतयोः द्वयोः समन्वयेन एव समाजस्य श्रेयः साध्यं भवति । अतः वेदान्तबोधनं कर्तुम् अहम् अमेरिकादेशं गच्छामि' इति स्वामी उक्तवान् । 'तस्य व्ययभारम् अहं वहामि' इति महाराजः उक्तवान् । महाराजस्य निर्णयाय स्वामी धन्यवादान् समर्प्य 'यथावसरं साहाय्यं प्राप्स्यामि' इति उक्त्वा ततः निर्गतः । अनन्तरं स्वामी रामनाडं दृष्टवान् । तदानीन्तनः रामनाडपालकः भास्करसेतुपतिः । सः देशस्य समस्याः अधिकृत्य स्वामिना सह चर्चां कृतवान् । स्वामिनि राजा महत् गौरवं दर्शितवान् । 'अमेरिकादेशे भविष्यमाणां विश्वधर्ममहासभां प्रति भवता गन्तव्यम् । भवतः प्रवासभारम् अहं वहामि' इति राजा उक्तवान् । एतं विषयं परिशीलयामि इति उक्त्वा स्वामी रामेश्वरं गत्वा ततः अन्ते कन्याकुमारीं प्राप्तवान् । समुद्रे प्लवनं कुर्वन् काञ्चन शिलां दृष्ट्वा तत्रोपविष्टवान् । एवं समुद्रमध्ये उपविश्य भारतदेशस्य विषयकचिन्तने मग्रः अभवत् । देशे प्रजाः पीडयन्ती दारिद्र्यदशा तं दुःखितम् अकरोत् । कुलतत्त्वस्य निर्मूलनेन विना स्वदेशप्रजानां विमुक्तिः न भवतीति निर्णीतवान् स्वामी पाश्चात्यदेशेषु पर्यटन् तत्रत्यानां कृते भारतीयायाः आध्यात्मिकसम्पदः औनन्त्यस्य स्पष्टीकरणमेव स्वस्य प्रथमकर्तव्यमिति निर्णीतवान् । ततः निद्रां कुर्वतः स्वदेशीयान् प्रबोधयेयमिति चिन्तितवान् । नरेन्द्ररूपेण स्थितः वङ्गराज्यस्य लघुदीपः विवेकानन्दरूपेण समग्रभारतस्य कृते कान्तिप्रदा महाज्वाला इव परिणतः अभवत् । अमेरिकां प्रति अवश्यं गन्तव्यमिति दृढता मद्रपुर्यामेव प्राप्ता । मद्रास् नगरे तेन सम्पादिता कीर्तिः भाग्यनागरं प्रति तस्य प्रवासमकारयत् । भाग्यनगरे तस्य भाषणं श्रोतुं सहस्रशः जनाः उपस्थिताः । स्वामिनः प्रथमभाषणस्य महासभावेदिका भाग्यनगरे एव अभवत् ।

भाग्यनगरतः मद्रासनगरं प्रत्यागत्य विदेशपर्यटनाय सिद्धतां कृतवान् स्वामी । तस्य प्रयाणव्ययाय देशस्य सर्वकोणेभ्यः धनसाहाय्यं प्राप्तम् । स्वप्रवासाय अपेक्षितमात्रं परिमितं धनं स्वीकृत्य अवशिष्टं दातृभ्यः प्रत्यर्पितवान् स्वामी ।

१८९३ संवत्सरे मे मासे ३१ तमे दिनाङ्के मुम्बयीनौकाश्रयतः नौका प्रस्थिता । मध्येमार्गं कोलम्बो, सिंगपूर्, हांगकांग्, टोक्यो नौकाश्रयान् अतिक्रम्य जुलैमासे स्वामी चिकागोनगरं प्राप्तवान् । निवासाय किञ्चन वसतिगृहं स्वीकृतवान् । इतोऽपि मासत्रयानन्तरं विश्वधर्ममहासभायाः प्रारम्भः इति ज्ञातम् । अस्मिन् अपरिचितप्रदेशे मासत्रयं यावत् कथं स्थातव्यम् ? इति सः अचिन्तयत् । तत्र कोऽपि अन्तर्जातीयवाणिज्योत्सवः प्रचलति स्म । तत्स्थाने स्वामी अटन्नासीत् । भारतीयः कश्चन महाराजः तेन दृष्टः । स्वामी महाराजसमीपं गत्वा भाषितुं प्रयत्नं कृतवान् । किन्तु महाराजः मुखं परिवर्त्य ततः गतवान् ।

चिकागो महानगरे व्ययः अधिकः भवतीति स्वामी समीपस्थं बोस्टन् पट्ट्णं गतवान् । मध्येमार्गं सः काञ्चन महिलां दृष्टवान् । सा बोस्टन् नागरवासिनी एव । स्वामिनः चित्रं वेषधारणम् , विस्मयकारिणीं मूर्तिं, कान्तिमयनेत्रे च दृष्ट्वा सा चकिता । सः साधारणजनः न इति सा ज्ञातवती । अतिथित्वेन मम गृहे तिष्ठतु इति तं सा अभ्यर्थितवती । स्वामी अङ्गीकृतवान् । तया उपकल्पितेषु लघुसमावेशेषु सः विषयम् उपन्यस्यति स्म । भारतीयसंस्कृतिः हिन्दुधर्मः तस्य भाषणविषयः आसीत् । क्रमशः बहवः पण्डिताः तस्य मित्राणि अभवन् । जान् हेन्री रैट् तेषु अन्यतमः । हार्व्रर्डविश्वविद्यालये सः ग्रीक् प्राचार्यः आसीत् । स्वामिनः पाण्डित्यप्रकर्षं दृष्ट्वा सः अत्यन्तं चकितः । विश्वधर्ममहासभायां भागग्रहीतृभिः सर्वैः स्वीयपरिचयपत्राणि सभानिर्वाहकाणां कृते दातव्यानि आसन् । स्वामिनः समीपे परिचयपत्रं न आसीत् । प्राचार्यः रैट् स्वामिने परिचयपत्रं ददत् ‘प्राचार्यान् अस्मान् पराजितान् कर्तुं समर्थः महाशेमुषीधुरन्धरः एषः' इति तत्र लिखितवान् ।

स्वामी पुनः चिकागोनगरं गतवान् । तत्र मेलनीयानां जनानां सङ्केतानां सूची नष्टा जाता इत्यतः किं करणीयमिति स्वामी न ज्ञातवान् । मार्गान्तरस्य अभावात् रेल् स्थाने कस्मिंश्चिद् स्थगिते रिक्तशकटापवर्गे निद्रितवान् । अनन्तरदिने क्षुद्बाधया पीड्यमानः सः वीथीषु अटितवान् । कोऽपि किमपि न दत्तवान् । श्रान्तः स्वामी एकत्र क्रीडाङ्गण्स्य सोपानेषु उपविष्टवान् । क्रीडाङ्गणस्य पुरतः विद्यमानगृहतः काचन महिला बहिरागत्य तम् उपेत्य 'भवान् विश्वधर्ममहासभासु प्रतिनिधिरूपेण आगतवान् वा ?' इति तं पृष्टवती । आम् इत्युक्तवान् स्वामी । 'कृपया अस्मद् गृहम् आगच्छतु ।स्नानं, भोजनं च करोतु । अनन्तरम् अहं भवन्तं सभास्थलीं प्रापयामि' इति सा अवदत् । तस्याः नाम श्रीमती जार्ज् हेल्स् ।

१८९३ संवत्सरे सेप्टेम्बर् मासे ११ दिनाङ्के महासभायाः प्रारम्भः अभवत् । विविधदेशेभ्यः सहस्रशः प्रतिनिधयः तां सभां प्रति आगतवन्तः । तेषु कनीयान् विवेकानन्दः एव । भाषणाय स्वपर्यायः आगच्छतीति तस्य हृदयस्पन्दनम् अधिकम् अभवत् । कण्ठः शुष्कः अभवत् । इतरप्रतिनिधयः इव भाषणस्य पूर्वसज्जतामपि न कृतवान् आसीत् सः । सर्वेषां भाषणानन्तरम् अन्तिमवक्तृरूपेण अहं भाषणं करोमि इति सभाध्यक्षं निवेदितवान् । अन्ते तस्य समयः आगतः एव । श्रीरामकृष्णं च सम्प्रार्थ्य वक्तुमारब्धवान् ।

"अमेरिकादेशीयाः सोदरसोदरीमणयः !" इति मृदुमधुरकण्ठेन सः स्वभाषणम् आरब्धवान् । तेन एकदैव सभायां सर्वत्र हर्षोद्गारः उद्गतः । निमेषत्रयं यावत् करतालध्वनयः एवासन् । तेषां स्थगनानन्तरं सः स्वलघुभाषणम् अनुवर्तितवान् । विविधप्रदेशेषु उत्पन्नाः नद्यः सर्वाः अपि समुद्रमेव प्राप्नुवन्ति, एवं विविधधर्मेषु जाताः जनाः सर्वे एकमेव भगवन्तं प्राप्नुवन्ति इति सः उक्तवान् । कोपि धर्मः धर्मान्तरापेक्ष्या महान् भवितुं नार्हति इति सः उक्तवान् । प्रतिनिधयः सर्वेऽपि तस्य भाषणं प्रशंसितवन्तः । वार्तापत्रिकासु अपि तस्य छायाचित्राणि भाषणविषयश्च सर्वप्रमुखतया प्रकाशिताः आसन् । तदनन्तरदिनेषु तस्य भाषणं श्रोतुं जनाः प्रवाहरूपेण आगच्छन्ति स्म । तत्रत्यानां प्रजानां अत्यन्तं प्रियः अभवत् सः । भाषणाय विवेकानन्दस्य उत्थानमात्रेण जनाः हर्षातिरेकेण जयघोषं कुर्वन्ति स्म ।

धर्ममहासभासु एव अनेकाः विद्यासंस्थाः, सङ्घाः विवेकानन्दाय आह्वानानि अयच्छन् । स्वगृहम् आगत्य स्वातिथ्यं स्वीकृत्य अनुगृह्यताम् इति बहवः धनिनः विवेकानन्दं प्रार्थितवन्तः । अल्पसमये एव सः जगद्व्याप्तां कीर्तिं सम्पादितवान् । सर्वत्र सः भारतीयसंस्कृतेः महत्त्वम् अधिकृत्य एव भाषते स्म । इतिहासे, सामाजिकशास्त्रे, तत्त्वशास्त्रे, साहित्ये इत्याद्यंशेषु अपि आशु प्रवाहरूपेण तस्य भाषणमासीत् । भारतदेशे क्रैस्तसंस्थाजनैः क्रियमाणान् कुतन्त्रपूरितान् दुष्प्रचारान् विरुद्ध्य सः भाषितवान् ।

'ह्स्ते स्मरणाय लिखितविषयं पत्रखण्डं वा अगृहीत्वा आशुभाषणं करोति स्म सः । विचित्रं काषायवेषधारणम् उत्पतत् तेजः, विलक्षणं व्यक्तित्वम्, विरला आकर्षणीयता हिन्दुमतस्वरूपस्य स्पष्टीकरणे विस्मयकरं नैपुण्यम् - एतादृशविशिष्टवरसम्पदा सः प्रजाहृदयानि हृतवान् । वशीकरणे मान्त्रिकः जातः । आङ्ग्लभाषायाम् अपूर्वः अधिकारः तस्यासीत् । तादृशः जनः युगे एक एवावतरति । तस्य दर्शनं, तस्य वचसां श्रवणं वस्तुतः भाग्यमेव' इति वार्तापत्रिकासु आनन्दातिरेकः प्रकटितः । भारतीयाः अज्ञानिनः इति, अन्धविश्वासशीलाः इति चिन्तयताम् अमेरिकावासिनां स्वामिनः प्रबोधभाषणस्य श्रवणात् भ्रमः निर्गतः । न केवलममेरिकादेशे किन्तु प्रगतदेशेषु सर्वत्र भारतदेशस्य गौरवध्वजः उत्तोलितः अनेन।

इंग्लण्ड्तः तेन बहुधा आह्वानं प्राप्तम् । तेन लण्डन् नगरे पदस्थापनमात्रेण अपूर्वस्वागतं प्राप्तवान् सः । हिन्दुयोगिनः एतस्य वाक्प्रावीण्यं, विशाललक्ष्यं च पत्रिकासु बहुधा प्रशंसितम् । असंख्याकाः जनाः तस्य शिष्याः अभवन् । 'सोदरी निवेदिता' इति प्रसिद्धिं गता मार्गरेट् नोबेल् अपि तेषु अन्यतमा । सा भारतदेशम् आगत्य अत्रैव स्थिरवासमकरोत् ।

वर्षचतुष्टयं यावत् विदेशेषु पर्यटनं कृत्वा स्वामी विवेकानन्दः भारतभूमिं प्रत्यागतः ।

आशयसाफल्यम्संपादित करें

भारतदेशे पदन्यासात् पूर्वमेव स्वामिनः कीर्तिः दिगन्तव्याप्ता अभवत् । १८९७ संवत्सरे जनवरी १५ दिनाङ्के सः कोलम्बो नगरे यदा पादं स्थापितवान् तदा तस्य चक्रवर्तिनः इव स्वागतोपचाराः अभवन् । सः यदा मद्रास् नगररेलस्थानं प्राप्तवान् तदा असंख्याकाः अभिमानिनः स्वागतं चक्रुः । अभिमानिनः तेन उपविष्टं शकटं स्वयं कर्षन्तः शोभां कल्पितवन्तः । तदा प्रशंसावाक्यानां, पुष्पमालानां वा मितिरेव नासीत् । स्वामी यत्र यत्र गतवान् तत्र सर्वत्र स्वगुरुदेवस्य सन्देशं श्रावितवान् । अभ्यर्थितवतां सर्वेषां कृते आध्यात्मिकतायाः साधने मार्गदर्शनं कृतवान् सः । सोदरसंन्न्यासिनः मानवसेवायै अङ्कितजीवनाः अभवन् । स्वीयमोक्षाय इच्छाऽपि स्वार्थपूर्णा एव इति वारं वारं स वदति स्म । 'भारतदेशे बाधाग्रस्तः एकः अपि न भवेत् । तावदवधि अहं मोक्षं न इच्छामि' इति वदति स्म स्वामी । संस्थारूपेण सेवाकार्यं भवेत् । तदैव सामाजिकसेवा साध्या भवतीति सः चिन्तितवान् । १८९७ संवत्सरे 'श्रीरामकृष्णमिषन्' इति संस्थां प्रारभ्य तस्याः सिद्धान्तानां, लक्ष्यस्य च रूपकल्पनां कृतवान् । वर्षद्वयानन्तरं गङ्गानदीतीरे बेलूरुसमीपे किञ्चित् स्थलं क्रीत्वा भवनानि निर्माय श्रीरामकृष्णमठं स्थापितवान् स्वामी ।

विरामरहितकार्यैः स्वामिनः स्वास्थ्यं क्षीणम् अभवत् । विश्रान्तये हिमालयेषु अनुकूलपर्वतप्रदेशान् अनेकान् आश्रितवान् । तत्रापि स्वसेवाकार्यम् अनुवर्तयति स्म । जनानाम् अभ्यर्थनानुसारम् उत्तरभारते बहूनि पट्ट्णानि सः दृष्टवान् । अमेरिकाशिष्याणाम् आह्वानम् अङ्गीकृत्य पुनरेकवारं अमेरिकादेशपर्यटनं कृतवान् । प्यारिस् नगरे प्रचलितासु धर्मसभासु भागं गृहीत्वा भारतं प्रत्यागतवान् ।

शिष्यैः बहुधा अनुनीतोऽपि विश्रान्तिं न स्वीकरोति स्म सः । सः अन्तर्मुखी जातः । शरीरं दुर्बलं जातम् । मनः जागरितम्, आत्मा उत्तेजितः च आसीत् ।

१९०२ संवत्सरे जुलै ४ दिनाङ्के सः यथापूर्वं शिष्यान् पाठान् बोधितवान् । भोजनानन्तरं किञ्चिदिव विश्रान्तिं स्वीकृतवान् । किञ्चित्कालानन्तरं कोऽपि परिणामः जातः इव । अनुचरैः सह वार्तालापं कुर्वन्, हास्योक्तीः वदन् आनन्देन किञ्चित् कालं यापितवान् । रात्रौ नववादनसमये श्रान्तः इव दृष्टः । तस्य ह्स्तौ कम्पमानौ आस्ताम् । दीर्घं निश्वस्य निद्रां कृतवान् । अचिरात् सः महासमाधिं प्राप्तवान् । तस्य शिष्याः, सोदरसंन्यासिनः अनाथा वयमिति शिशवः इव रोदनम् अकुर्वन् । स्वामी इदानीं नास्ति । तस्य वचांसि तु शाश्वतानि सन्ति । लक्षशः जनानां कृते स्फूर्तिं यच्छन्ति । एतत् पुनरेकवारं स्मरन्तु - "महापुरुषाणां, महर्षीणां च औरसाः अपत्यानि वयमिति भवन्तः आनन्दम् अनुभवन्तः जीवन्तु । अकिञ्चनानां भाग्यहीनानां समुद्धरणाय सम्पन्नाः यावदग्रे नायान्ति, लुण्ठनतत्त्वस्य नाशः यावत् न भवति तावत् भारतदेशः श्मशानवाटिका एव भवति । निर्धनकृषिकस्य कुटीरात् भारतमातृदेवी नूतनशक्त्या उदयं प्राप्नुयात् ।

धीवरगृहेषु सा अवतरतु । पादरक्षानिर्मातुः, वीथीसम्मार्जकस्य पर्णशालाभ्यः सा बहिरायातु । धान्यागारेषु, कर्मगारेषु सा प्रतिष्ठिता भवतु । सर्वत्र पर्वतेषु, उपत्यकासु, कन्दरेषु नवभारतोदयगीतं प्रतिध्वनिभिः नर्तयतु विश्वम् " इति ।
[1/12, 10:10] अरविन्द गुरू जी: हरि ॐ तत्सत्!  सुप्रभातम् ।
नमस्सर्वेभ्यः। 🌺🙏🌺

*"सर्वे भवन्तु सुखिनः"*इति विचार्य सदैव श्रीभगवन्तं प्रार्थयेत्। यदा सर्वे जनाः सुखिनो भविष्यन्ति, तर्हि वयमपि स्वतः सुखिनो भविष्यामः।
कथ्यते , ये जनाः सर्वेषां कल्याणमिच्छन्ति, तेषां कल्याणं भगवन्मङ्गलमयविधानेन स्वयमेव भवति।
अतः मनसा, वाचा कर्मणा च सदैव परोपकारं कुर्यात्, यतोहि सर्वेषां प्राणीनां हृदये भगवानेव विराजते शोभते च। अतः प्रमुदितमनसा भगवद्भावेन सर्वेषां प्राणीनां समादरं कुर्यात्। श्रीमद्भागवते वर्णितम्-

*"मनसैतानि भूतानि प्रणमेद्बहु मानयन्।*
*ईश्वरो जीवकलया प्रविष्टो भगवानिति॥"*
(३/२९/३४)

भो सज्जनाः! निवेदयामि, विचारयन्तु भवन्तः सर्वे-
यथा एकः चन्द्र एव सरोवरतडागनदीसागरेषु च दृश्यते, तथैव एको नारायणः चराचरेषु सदा एकरूपेण विराजते शोभते च।

*"सीयराम मय सब जग जानी॥*
*करउँ प्रनाम जोर जुग पानी॥"*

॥ सत्यसनातधर्मो  विजयतेतराम् ॥
[1/12, 10:20] रजनीस: 🙌🙌🙌🙌🙏🙌🙌🙌

*प्रभु का रास्ता बड़ा सीधा है*
*— और बड़ा उलझा भी।*

*बुद्धि से चलो तो बहुत उलझा,*
*भक्ति से चलो तो बड़ा सीधा।*

*विचार से चलो तो बहुत दूर ,*
*भाव से चलो तो बहुत पास।*

*नजरो से देखो तो कण कण मे ,*
*अंतर्मन से देखो  तो जन जन मे   😊🍀🙏शुभ प्रभात🙏🍀😊
🍁आपका दिन मंगलमय हो 🍁
[1/12, 10:39] रजनीस: वरं न राज्यं न कुराजराज्यं वरं न मित्रं न कुमित्रमित्रम् ।
वरं न शिष्यो न कुशिष्यशिष्यो वरं न दारा न कुदारदाराः ।।

एक बेकार राज्य का राजा होने से यह बेहतर है की व्यक्ति किसी राज्य का राजा ना हो, एक पापी का मित्र होने से बेहतर है की बिना मित्र का हो, एक मुर्ख का गुरु होने से बेहतर है की बिना शिष्य वाला हो, एक बुरीं पत्नी होने से बेहतर है की बिना पत्नी वाला हो।
[1/12, 10:39] रजनीस: वाचः शौचं  च मनसः  शौचमिन्द्रियनिग्रहः।
सर्वभूते दया शौचं एतच्छौचं पराऽर्थिनाम्॥

केवल परोपकार और परहित की भावना ही मनुष्य को पवित्र करती है। इसके अभाव मे मन, वाणी और इन्द्रियों की पवित्रता कोई महत्व नहीं रखती।
[1/12, 10:39] रजनीस: स्नातश्च वरुणस्तेजो जुह्वतोग्निः श्रियंहरेत् "
" भुन्जानस्य यमस्यायुस्तस्मान्न व्याहरेत् त्रिषु"" 

स्नान करते समय बोलने वाले के  तेज को वरुण हरण कर लेते है, हवन करते समय बोलने वालेकि श्री को अग्निदेव हरण कर लेते है , तथा भोजन करते समय बोलने वाले की आयु को यमदेव  हरण कर लेते है ।अत: उक्त तीनों कर्मो में मनुष्य को बोलना नहीं चाहिए ।

🌄🌄 राम 🌄🌄
[1/12, 10:45] ‪+91 96916 06692‬: ज्योतिष द्वारा रोगों का ज्ञान- नवग्रहों से जाने-शरीर के रोग
अथर्ववेद, वेद का चौथा अंग साक्षात् परमात्मा जैसे मानवता को सभी कष्टों, दु:खों, रोगों, जादू-टोनें, तंत्र-मंत्र व यंत्र के मायावी प्रभावों से मुक्ति देने वाला आशीर्वाद हो। वेद का छठा अंग ज्योतिष, अपनी दिव्य दृष्टि से, भूतकाल, वर्तमान व भविष्य में होने वाले रोगों को उत्पन्न होने से पूर्व ही जान लेता है।

ज्योतिष शास्त्र का मुख्य सिद्धांत है कि इस ब्रह्मांड में सभी जीव-जन्तु, स्थावर, जंगल, पेड़-पौधों पर आकर्षण व विकर्षण शक्ति का प्रभाव होता है। पंच तत्वों से बना यह ब्रह्मांड तत्वीय प्रभावों से युक्त होता है। ‘यत्पिंडे तत् ब्रह्मांडे’ अर्थात जो भी इस देह में है वही ब्रह्माण्ड में भी है। 27 नक्षत्रों, 12 राशियों व 9 ग्रहों के अपने-अपने गति मार्गों में भ्रमण करने से उनका प्रभाव इस ब्रह्मांड के सभी जीवों पर पड़ता है। कर्मों के फल को भी जीव बिना भोगे मुक्त नहीं हो सकता है।

‘अवश्य मेव ही भोक्तव्यं कृतृ शुभं अशुभं च।’ अर्थात् शुभ हो या अशुभ फल ‘कर्मगति भोगकर ही कर्मफल नष्ट होते हैं। जैसे ही बच्चा मां के पेट से इस संसार में आता है उस पर इस ब्रहमांड के ग्रहों, नक्षत्रों, राशियों का प्रभाव क्षण भर में अंकित हो जाता है। पूर्व जन्मों में किये हुए शुभ-अशुभ कर्मों का प्रभाव ही, एक विशेष समय, लग्न व ग्रहों के प्रभाव तथा माता-पिता व स्थान का चुनाव करता है। पेट से बाहर आते ही ग्रहों के गुण-दोष व्यक्ति के मस्तिष्क में नेगेटिव-फिल्म की भांति बीज रूप में अंकित हो जाते है।

अनुकूल ग्रहों की दशा-अन्तरदशा आने पर वह बीज ही वृक्ष बनकर शुभ व अशुभ फल देने लगते हैं। ज्योतिष के मर्मज्ञ ऋषियों व मुनियों के इन्हीं गुण-दोषों से उत्पन्न होने का ज्ञान हो जाता है। नव ग्रहों का संसार के जीवों वस्तुओं, पंच तत्वों से उत्पन्न विभिन्न प्रकार की स्थावर, जंगम जीवित देह धारियों पर प्रभाव पड़ता है। कौन से ग्रह के गुण, अवस्था, धातु, रंग-धातु व स्वभाव प्रभाव डालते हैं, ग्रहों का कारकत्व क्या हैं।

सूर्य- आत्मा, पिता, नेत्र, हृदय, अस्थि, ऊँचे लोग, राजा, धनवान लोग, अग्नि, राज्य, माणिक्य व पूर्व दिशा का स्वामी है।

चंद्रमा- मन, माता, रक्त, रानी, छाती, आँख, फेफड़े, जनता, कामनायें, इच्छायें, स्मरण शक्ति, पानी, सफेद रंग, मोती, चांदी, उत्तर-पश्चिम दिशा का स्वामी रहा।

मंगल- पुरुषार्थ, छोटे भाई, वीरता, तर्क, रक्षा विभाग, सिर, चोटी, अण्डकोष, मज्जा, तर्क-वितर्क, मूंगा-दक्षिण दिशा, हिंसा, हड्डी के भीतर का तत्व मज्जा।

बुध- वाणी, बालक, सांस की नली, त्वचा, व्यापारी, हरा रंग, अंतड़ियां, बुद्धि, माया, खेल-कूद, हंसी-मजाक, नपुंसकता, कलई धातु, टीचिंग, कोचिंग, उत्तर दिशा।

गुरु- ज्ञान, स्वाभिमान, लीवर, चर्बी, पीला रंग, पुत्र, बड़ा भाई, धन दौलत, कन्या की पत्री में पति, नितम्ब (HIPS) राजकृपा, वायु, पुखराज, पांव, उत्तर-पूर्व दिशा।

शुक्र- वीर्य, नारी, मुख, गला, पुरुषार्थ, सौन्दर्य, काम-वासना, गुप्तेन्द्रिय, संगीत, प्रेम, जल, हीरा, महंगी वस्तुएं, ऊँची पसंद पार्टनरिशप, SE दिशा।

शनि- धैर्य, ठंडक, नपुंसकता, स्त्रीलिंग, नौकर नीच व्यक्ति, पत्थर, लोहा, पेट्रोल, चमड़ा, तेल, श्रम, पिंडली, अन्धकार, प्रथकता, रुकावट, विष, दीर्घ प्रभाव, धीरे चलना, लंगड़ापन, कर्कश वाणी, काला रंग, दार्शनिक, योगी, वैराग्य, स्नायु तंत्र व पश्चिम दिशा।

राहु- शनि के समान गुण हैं। क्रांतिकारी, असहमति में उठा हाथ, विस्फोट, ऊँचाई से गिरना, कोमा में बेहोश व्यक्ति, जहर से मूर्छा, गोमेद रत्न।

केतु- मंगल के समान गुण है। उग्रवाद, अल्गाववादी, धमाका, हिंसक, क्रूरू, मोक्षदायक, ऊँचाई में रहने वाला, लहसुनियां (कैटस आई) रत्न।

उपरोक्त गुण-दोषों को (नव ग्रहों के प्रभाव से) प्रत्येक जीव अपने-अपने कर्मों के आधार पर कर्मफल निश्चित भोगता है। ‘अवश्यमेव ही भोक्तव्यं कृतं शुभम् अशुभमम् च’। बिना कर्म भोगे कर्म फलों का नाश नहीं होता है। पूर्व जन्मों में किये शुभ-अशुभ कर्म व्याधि (रोग) रूप में कष्ट देते हैं। रोगों के शमन के लिये क्रमश: औषधि, रत्न धारण, हवन व ईश्वर की स्तुति करनी चाहिये। ‘स्तुति किं न तोषयति’ अर्थात् स्तुति से कौन प्रसन्न नहीं होता है।

पूर्व जन्म कृतं पापं व्याधि रूपेण बाध्यते।

तत शान्तं औषधं, रत्न धारणम् होमं च सुरार्चनै:।

अर्थात पूर्व जन्म में किये पापों के कारण आधि व्याधि के रूप में जीव कष्ट उठाता है। रोगों की शांति के लिये पहले औषध, फिर रत्न धारणम्, यज्ञ व देव स्तुतियों से रोगों का निदान पायें।.                                                                    आचार्य बीरेन्द्र दैवज्ञ , जन्मपत्री , मुहूर्त्त , वास्तु विशेषज्ञ 9691606692
[1/12, 11:06] पं सत्यशु: भाक्ति क्या है??,

"भक्ति" हाथ पैरो से नहीं होती है। वर्ना विकलांग
कभी नहीं कर पाते।

भक्ति ना ही आँखो से होती है
वर्ना सूरदास जी कभी नहीं कर पाते।

ना ही भक्ति
बोलने सुनने से होती है वर्ना "गूँगे" "बैहरे" कभी
नहीं कर पाते।

ना ही "भक्ति" धन और ताकत से
होती है वर्ना गरीब और कमजोर कभी नहीं कर
पाते।

"भक्ति" केवल  भाव से होती है
एक अहसास
है "भक्ति"
जो हृदय से होकर विचारों में आती है
और हमारी आत्मा से जुड़ जाती है।
"भक्ति" भाव का सच्चा सागर है। 🙏🙏
[1/12, 11:34] ‪+91 88897 47545‬: त्रिपुंड़ तो सभी जानते है।
  ***************
ललाट पर तीन रेखाओं मे आप देवताओं का
प्रति एक रेखा मे 9,9 देवताओं का वास भी देखे ।

ललाट अर्थात माथे पर भस्म या चंदन से
तीन रेखाएं बनाई जाती हैं उसे त्रिपुंड कहते हैं।

तीन रेखाओं में 27 देवताओं का वास होता है। यानी प्रत्येक रेखाओं में 9 देवताओं का वास होता हैं।जो पूर्णाक हैऔर भगवान राम ही इनके इष्ट है।

विज्ञान की नजर में त्रिपुंड-
*******************
शिव पुराण के अनुसार जो व्यक्ति नियमित अपने माथे पर भस्म से त्रिपुण्ड यानी तीन रेखाएं सिर के एक सिरे से दूसरे सिरे तक धारण करता है उसके सभी पाप नष्ट हो जाते हैं और व्यक्ति शिव कृपा का पात्र बन जाता है।

विज्ञान ने त्रिपुंड को लगाने या धारण करने के अनेक लाभ बताएं हैं। विज्ञान कहता है कि त्रिपुंड चंदन या भस्म से लगाया जाता है। चंदन और भस्म माथे को शीतलता प्रदान करता है। अधिक मानसिक श्रम करने से विचारक केंद्र में पीड़ा होने लगती है। ऐसे में त्रिपुण्ड ज्ञान-तंतुओं को शीतलता प्रदान करता है।

त्रिपुंड में देवताओं का वास-
********************
ललाट पर लगा त्रिपुंड की पहली रेखा में नौ देवताओं का नाम इस प्रकार है। अकार, गार्हपत्य अग्नि, पृथ्वी, धर्म, रजोगुण, ऋग्वेद, क्रिया शक्ति, प्रात:स्वन, महादेव।

इसी प्रकार त्रिपुंड की दूसरी रेखा में, ऊंकार, दक्षिणाग्नि, आकाश, सत्वगुण, यजुर्वेद, मध्यंदिनसवन, इच्छाशक्ति, अंतरात्मा, महेश्वर जी का नाम आता है.

अंत में त्रिपुंड की तीसरी रेखा में मकार,
आहवनीय अग्नि, परमात्मा, तमोगुण, द्युलोक,
ज्ञानशक्ति, सामवेद, तृतीयसवन,
      शिव जी वास करते हैं।

      ।। जय हो भोलेनाथ ।।
[1/12, 11:39] ‪+91 88897 47545‬: *"नदी में गिरने से किसी की मृत्यु नहीं होती,*
मृत्यु इस लिए होती है क्योंकि उसे *तैरना नहीं आता।"*
वैसे ही
*"परिस्थितिया कभी समस्या नहीं बनती,*
समस्या इस लिए बनती है क्योंकि हमें *उन परिस्थितियों से लड़ना नहीं आता।"*
[1/12, 11:48] पं सत्यशु: आज का विचार 🕉

अच्छे व्यवहार का आर्थिक मूल्य भले ही ना हो,
लेकिन अच्छा व्यवहार करोड़ो दिलों को खरीदने
की ताकत रखता है।

🙏🏻सुप्रभात् 🙏🏻
[1/12, 11:59] ओमीश: 🙏श्री मात्रे नमः🙏
स्वामी विवेकानंद को एक राजा ने अपने भवन में बुलाया और बोला
: तुम हिन्दू लोग मूर्ती कि पूजा करते हो, मिट्टी, पीतल, पत्थर, कि मूर्ती का !
पर मैं ये सब नही मानता।
ये तो केवल एक पदार्थ है।
(उस राजा के सिंहासन के पीछे किसी आदमी की तस्वीर लगी थी।)
विवेकानंद जी कि नजर उस तस्वीर पर पडी़।
विवेकानंद जी ने राजा से पूछा: राजा जी, ये तस्बीर किसकी है?
राजा बोला: मेरे पिताजी की।
स्वामी जी बोले: उस तस्बीर को अपने हाँथ मे लीजिए।
(राजा तस्बीर को हांथ मे ले लेता है)
स्वामी जी, राजा से: अब आप उस तस्बीर पर थूकिए!
राजा: ये आप क्या बोल रहे है, स्वामी जी ???
स्वामी जी: मैने कहा उस तस्बीर पे थूकिए!
राजा (क्रोध से): स्वामी जी, आप होश मे तो है न ?
मै ये काम नहीं कर सकता।
स्वामी जी बोले: क्यो राजा! ये तस्वीर तो सिर्फ केवल एक कागज का टुकड़ा है, और जिस पर कुछ रंग लगा है, इसमे न तो जान है, न आवाज, न तो ये सुन सकता है,  और न हि कुछ बोल सकता है।
इसमे न हि हड्डी है. और न प्राण,।
फिर भी आप इसपे कभी थूक नही सकते।
क्योकि आप इसमे अपने पिता का स्वरूप देखते हो।
और आप इस तस्बीर का अनादर करना अपने पिता का अनादर करना ही समझते हो।
वैसे ही हम ''हिंदू'' भी उन पत्थर, मिट्टी, या धातू का पूजा भगवान का स्वरूप मान कर करते है।
भगवान तो कण- कण मे है, पर एक आधार मानने के लिये और मन को एकाग्र करने के लिये हम मूर्ती पूजा करते है।
तब राजा ने स्वामी जी से चरणो में गिर कर क्षमा मांगी।🙏🌺🌷🌸💐💐💐
[1/12, 13:09] ‪+91 98896 25094‬: 🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏
धर्मार्थ परिवार के इस पावन बगिया को हृदय से नमन है । प्रणम्य हैं इस परिवार के सभी विद्वत जन जिनके अनुशीलन भरी ज्ञान के मार्गदर्शन में हम जैसे छोटों को भी बहुत लाभान्वित हुआ । काफी अनुकरणीय और अनुशरणीय आप सभी के विचार को जब निश्छलता पुर्वक पढ़कर मनन करने में हृदय आह्लादित हो जाता है ।
बहुत ही बधाई और धन्यबाद के पात्र हैं हमारे ओमिश भैया जी जन्होंने कुशल माली की तरह इतना सुन्दर बगिया का निर्माण किया और कर रहे हैं । आपके अतुलनीय अद्भुत प्रयास को नमन है 🙏🙏

इस परिवार में आये अतिथि का हार्दिक वन्दन है ।
🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏
[1/12, 13:17] ‪+91 98896 25094‬: ✍वक्त से लड़कर*
            जो नसीब बदल दे !!*
            इन्सान वही जो*
      अपनी तक़दीर बदल दे !!*

            कल क्या होगा*
            कभी मत सोचो !!*
        क्या पता कल वक्त खुद*
       अपनी तस्वीर बदल दे !!*
🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏
[1/12, 13:19] पं विजय जी: शंका- क्या स्त्री किसी को गुरु बना सकती है ?
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समाधान - स्त्री को कोई गुरु नहीँ बनाना चाहिये । अगर बनाया हो तो छोड़ देना चाहिए । स्त्री का पति ही उसका गुरु है । शास्त्र मेँ आया है -
गुरुरग्निर्द्विजातीनां वर्णानां ब्राह्मणो गुरुः ।
पतिरेव गुरुः स्त्रीणां सर्वस्याऽभ्यागतो गुरुः ॥
(पद्मपुराण स्वर्ग॰ 51 । 51, ब्रह्मपुराण 80 । 47)
'अग्नि द्विजातियोँ का गुरु है, ब्राह्मण चारोँ वर्णोँ का गुरु है, एकमात्र पति ही स्त्रियोँ का गुरु है और अतिथि सबका गुरु है ।'
वैवाहिको विधिः स्त्रीणां संस्कारो वैदिकः स्मृतः ।
पतिसेवा गुरौ वासो गृहार्थोँऽग्निपरिक्रिया ॥ (मनुस्मृति 2 । 67)
'स्त्रियोँ के लिये वैवाहिक विधि का पालन ही वैदिक-संस्कार (यज्ञोपवीत), पति की सेवा ही गुरुकुलवास और गृह-कार्य ही अग्निहोत्र कहा गया है ।'
सन्यासी को भी चाहिए कि वह किसी स्त्री को चेली न बनाये । दीक्षा देते समय गुरुको शिष्य के हृदय आदि का स्पर्श करना पड़ता है, जबकि संन्यासी के लिये स्त्री के स्पर्श का कड़ा निषेध है । श्रीमद्भागवत मेँ आया है कि हाड़-माँसमय शरीरवाली स्त्री का तो कहना ही क्या है, लकड़ी की बनी हुई स्त्री का भी स्पर्श न करे और हाथ से स्पर्श करना तो दूर रहा, पैर से भी स्पर्श न करे-
पदापि युवतीँ भिक्षुर्न स्पृशेद् दारवीमपि । (श्रीमद्भाग॰ 11 । 8 । 13 )
शास्त्र मेँ यहाँ तक कहा गया है-
मात्रा स्वस्रा दुहित्रा वा न विविक्तासनो भवेत् ।
बलवानिन्दियग्रामो विद्वांसमपि कर्षति ॥ (मनु॰ 2 । 215)
'मनुष्य को चाहिये कि अपनी माता, बहन अथवा पुत्री के साथ कभी एकांत मेँ न रहेँ; क्योँकि इन्द्रियाँ बड़ी प्रबल होती हैँ, वे विद्वान मनुष्य को भी अपनी तरफ खीँच लेती हैँ ।'
सङ्गं न कुर्यात्प्रमदासु जातु योगस्य पारं परमारुरुक्षुः ।
मत्सेवया प्रतिलब्धात्मलाभो वदन्ति या निरयद्वारमस्य ॥ (श्रीमद्भाग॰ 3 । 31 । 39)
'जो पुरुष योग के परम पदपर आरुढ़ होना चाहता हो अथवा जिसे मेरी सेवा के प्रभाव से आत्मा-अनात्मा का विवेक हो गया हो, वह स्त्रियोँ का संग कभी न करे; क्योँकि उन्हेँ ऐसे पुरुष के लिए नरक का खुला द्वार बताया गया है ।'
विश्वामित्रपराशरप्रभृतयो वाताम्बुपर्णाशनास्तेऽपि स्त्रीमुखपड़्कजं सुललितं दृष्ट्वैव मोहं गताः ।
शाल्यन्नं सघृतं पयोदधियुतं भुञ्जन्ति ये मानवास्तेषामिन्द्रियनिग्रहो यदि भवेद्विन्ध्यस्तरेत्सागरे ॥ (भर्तृहरिशतक)
'जो वायु-भक्षण करके, जल पीकर और सूखे पत्ते खाकर रहते थे, वे विश्वामित्र, पराशर आदि भी स्त्रियोँ के सुंदर मुख को देखकर मोह को प्राप्त हो गये, फिर जो लोग शाली धान्य (सांठी चावल) को घी, दूध और दही के साथ खाते हैँ, वे यदि अपनी इन्द्रियका निग्रह कर सकेँ तो मानो विन्ध्याचल पर्वत समुद्रपर तैरने लगा !'
ऐसी स्थिति मेँ जो जवान स्त्रियोँ को अपनी चेली बनाते हैँ, उनको अपने आश्रम मेँ रखते हैँ, उनका स्वप्न मेँ भी कल्याण नहीं पायेगा।
[1/12, 20:19] ‪+91 88897 47545‬: दौलत छोडी   
दुनिया छोडी
सारा खजाना - छोड दिया
" श्री कृष्ण"  दिवानी  मीरा ने।
राज घराना - छोड दिया।।
दिल के दरवाजे पर,
        जब नाम लिखा " गिरधारी का।।
सच कहता हूँ, आजमा लेना।
      मुसीबतों ने आना छोड़ दिया।।

चिन्ता हमें नहीं अपनी.
        चिन्ता उन्हें हमारी हैं।
हमारी नाव के रक्षक,
        स्वयं कृष्ण मुरारी है।
🌹🌹*जय श्री श्याम*🌹🌹
[1/12, 21:03] आचार्य मंगलेश्वर त्रिपाठी: सम्यक प्रस्तुति आदरणीय भैया विजय जी।मैने भी एक भागवत प्रवक्ता जी के श्रीमुख सुना था वे इन्द्रीयों की प्रबलता के विषय में बता रहे थे।उन्हों जैमिनी जी के बारे में बताया।एक समय की बात थी जैमिनी जी को अपनी विद्वता एवं ब्रह्मचर्य पर घमंड हो गया जैमिनी जी अपने गुरू वृहस्पति जी से कहते हैं कि मैने इन्द्रीयों पर विजय प्राप्त कर ली है।
गुरू वृहस्पति जी के मन में आया क्यों न जैमिनी जी के ब्रह्मचर्य की परिक्षा ही ले लिया जाये।एक दिन गुरू वृहस्पति जी सुन्दर नारी का आवरण पहनकर जैमिनी जी के कुटिया के समकक्ष अर्धरात्रि में पहुंच गये और आवाज लगाते हैं।हे महात्मन मैं अकेली अबला अपने घर जा रही थी इस जंगल से गुजरते मुझे रात्रि हो गयी क्या मैं आपके इस कुटिया मे रात्रि तक सरण पा सकती हूं।तो जैमिनी जी ने साफ इनकार किया और कहा कि हे देवी मेरी कुटिया में स्त्रियों के लिये निषेध है।मैं तुम्हे कैसे सरण दूं तुम कहीं और चली जाओ।तब वृहस्पति जी नें पुन: याचना की हे महात्मन मात्र एक ही रात्रि की बात है।सूर्योदय होते ही मैं अपने घर चली जाऊंगी।तब जैमिनी जी को दया आ गयी और अपनी कुटिया से निकल कर बाहर आ गये और उस नारी को बोले तुम इसमे रात्रि विश्राम करो दरवाजा लगा लो कोई भी बुलाये सुबह तक खोलना मत चाहे मैं ही क्यों ना कहूं।नारी वेशधारी वृहस्पति जी ने दरवाजा बन्द कर लिया।कुछ ही देर बाद अकेली अबला देख जैमिनी जी के मन में काम का विकार जागृत हो उठा।जैमिनी जी दरवाजे पर दस्तक देते हैं और कहते हैं हे देवी दरवाजा खोलो।अन्दर से आवाज आती है आप कौन तब जैमिनी जी कहते हैं मै जैमिनी।अन्दर से वृहस्पति जी कहते हैं आपने तो कहा था रात्रि मे दरवाजा मत खोलना मेरे कहने पर भी फिर आप क्यों ऐसा कर रहे है तो जैमिनी जी कहते हैं खोलो कुछ बात करनी है तो वृहस्पति जी नें दरवाजा खोल दिया।तब जैमिनी जी कहते हैं हे देवी मै अब तुमसे बिना समागम किये जी नहीं सकता।तो नारी वेश धारी वृहस्पति जी कहते हैं कि जब कोई अबला किसी पर पुरूष से समागम करती है तो उसके लिये किसी देवी का मन्दिर होना चाहिये।कामुक जैमिनी जी ने झट से कहा पास में ही देवी का मन्दिर है चलो इसमे कौन सी बड़ी बात है फिर वृहस्पति जी ने कहा मंदिर तक आपको मुझे अपने पीठ पर बैठाकर ले जाना होगा फिर भी कामवासना में अन्धे जैमिनी जी ने कहा चलो बैठो वैसे भी रात्रि में कौन देखेगा।फिर जैमिनी जी ने वृहस्पति जी को अपनी पीठ पर बैठाकर मंदिर पहुंचे और कामान्धतावस कहते हैं हे देवी अब तो अपना घूघट खोलो।वृहस्पति जी कहते हैं आप स्वयं ही घूंघट हटाकर देख लिजिये कामुक जैमिनी जी ने ज्यों ही घूंघट हटाया तो देखते हैं सामने साक्षात गुरूवृहस्पति जी खड़े हैं।वृहस्पति जी कहते हैं क्यो जैमिनी जी आप तो इन्द्रीयों पर विजय प्राप्त कर चुके थे फिर आपके ब्रह्मचर्य को क्या हो गया। यह सब देखकर एवं सुनकर जैमिनी जी लज्जा से शर्मसार नजर आते हैं और कहते हैं गुरू जी इन्द्रीयों पर विजय पाना सब के बस की बात नहीं है मुझे क्षमा करें मैं कामान्धतावस यहां तक आ पहुंचा कि देवी के मंदिर में भी जघन्य अपराध करने को उद्यत हो गया।तब वृहस्पति जी नें जैमिनी जी को वैराग्य का ज्ञान देकर वहां से चले गये।
[1/13, 07:30] ‪+91 88897 47545‬: 🌱न भारतीयो नववत्सरोSयं
तथापि सर्वस्य शिवप्रद: स्यात् ।
यतो धरित्री निखिलैव माता
तत: कुटुम्बायितमेव विश्वम् ।।🌿
🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃
यद्यपि यह नव वर्ष भारतीय नहीं है। तथापि सबके लिए कल्याणप्रद हो ; क्योंकि सम्पूर्ण धरा माता ही है।-
”माता भूमि: पुत्रोSहं पृथिव्या:”
अत एव पृथ्वी के पुत्र होने के कारण समग्र विश्व ही कुटुम्बस्वरूप है।

पाश्चात्य नववर्षस्य हार्दिक शुभाशयाः
[1/13, 07:58] पं अर्चना जी: 💐🍂🐾👏🏻🌻🌹🌾🌿🌺🍂💐
  💐🌞 *_सूर्योदय अभिवादन_* 🌞💐

*_✍🏻"स्वर्ण कितना भी मूल्यवान क्यों ना हो किन्तु सुगंध पुष्प से ही आती है। श्रृंगार के लिये दोनों का ही जीवन मे महत्व है।_*
          *_इसी तरह ज्ञान कितना भी मूल्यवान क्यों ना हो, किन्तु उसकी सुगंध बिना आचरण के नही आ सकती।_*
           *_संग्रह किए हुए ढेर सारे ज्ञान की अपेक्षा आचरण में उतरा हुआ रत्ती भर भी ज्ञान श्रेष्ठ है।"_*

       
         🙏🏻    *_सुप्रभात_*  🙏🏻
*_🍁आप  सबका  दिन शुभ और मंगलमय हो।🍁_*