Wednesday, January 25, 2017

धर्मार्थ वार्ता

[1/20, 10:12] ‪+91 94153 60939‬: ।।श्रीमते रामानुजाय नमः।।

सांकेत्यं पारिहास्यं वा स्तोभं हेलनमेव वा।
वैकुंठनामग्रहणमशेषाघहरं विदुः।।

पतितः स्खलितो भग्नः संदष्टस्तप्त आहतः।
हरिरित्यवशेनाह पुमान्नार्हति यातनाम्।।

            –भाग0 6/2/14-15

संकेत में, परिहास में, तान अलापने में अथवा किसी की अवहेलना करने ने में, गिरते समय, पैर फिसलते समय, अंग-भंग होते समय, सांप के डंसते समय, आग में जलते समय, चोट लगते समय अथवा विवशता से ही यदि मनुष्य 'हरि हरि' कह कर भगवान् के नाम का उच्चारण कर लेता है , वह याम यातना का पात्र नहीं  रह जाता (उसको मुक्ति मिल जाती है)।

श्रीमन्नारायण नारायण नारायण।
लक्ष्मीनारायण नारायण नारायण।

              –रमेशप्रसाद शुक्ल

              –जय श्रीमन्नारायण।
[1/20, 10:38] ‪+91 94153 60939‬: मेरे बहुत से मित्रों और भगवद्भक्तों ने मेरी अनुपस्थिति का कारण जानना चाहा।
उत्तर –
मैं एक माह के लिए तीर्थराज प्रयाग में माँ गंगा जी के तट पर निवास कर रहा हूँ, जिसके कारण आप सब से जुड़ने का समय नहीं मिल पा रहा है। सारा समय संत-महात्मा और भगवान को समर्पित है। अतः क्षमा करेंगे।

       –जय श्रीमन्नारायण।
[1/20, 11:24] P Alok Ji: लोभी जसु चह चार गुमानी ।                            नभ दुहि दूध चहत ए प्रानी ।।                            * मानस 3/16                                               ( जिस प्रकार आकाश को दुह कर दूध प्राप्त करना असंभव है,  उसी प्रकार लोभी और अहंकारी व्यक्ति के लिए चारों फल " अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष "; प्राप्त करना असंभव है ।)पिबतरामचरितरस मानसम् astro alok
[1/20, 15:19] ‪+91 70603 15143‬: ब्राह्मण क्यों देवता ?

•पृथिव्यां यानी तीर्थानि तानी तीर्थानि सागरे ।
सागरे  सर्वतीर्थानि पादे विप्रस्य दक्षिणे ।।
चैत्रमाहात्मये तीर्थानि दक्षिणे पादे वेदास्तन्मुखमाश्रिताः  ।
सर्वांगेष्वाश्रिता देवाः पूजितास्ते तदर्चया  ।।
अव्यक्त रूपिणो विष्णोः स्वरूपं ब्राह्मणा भुवि ।
नावमान्या नो विरोधा कदाचिच्छुभमिच्छता ।।

•अर्थात पृथ्वी में जितने भी तीर्थ हैं वह सभी समुद्र में मिलते हैं और समुद्र में जितने भी तीर्थ हैं वह सभी ब्राह्मण के दक्षिण पैर में  है । चार वेद उसके मुख में हैं  अंग में सभी देवता आश्रय करके रहते हैं इसवास्ते ब्राह्मण को पूजा करने से सब देवों का पूजा होती है । पृथ्वी में ब्राह्मण जो है विष्णु रूप है इसलिए  जिसको कल्याण की इच्छा हो वह ब्राह्मणों का अपमान तथा द्वेष  नहीं करना चाहिए ।

•देवाधीनाजगत्सर्वं मन्त्राधीनाश्च देवता: ।
ते मन्त्रा: ब्राह्मणाधीना:तस्माद् ब्राह्मण देवता ।

•अर्थात् सारा संसार देवताओं के अधीन है तथा देवता मन्त्रों के अधीन हैं और मन्त्र ब्राह्मण के अधीन हैं इस कारण ब्राह्मण देवता हैं ।    
🌹उत्तम ब्राम्हण की महिमा🌹

ऊँ जन्मना ब्राम्हणो, ज्ञेय:संस्कारैर्द्विज उच्चते।
विद्यया याति विप्रत्वं,
त्रिभि:श्रोत्रिय लक्षणम्।।

ब्राम्हण के बालक को जन्म से ही ब्राम्हण समझना चाहिए।
संस्कारों से "द्विज" संज्ञा होती है तथा विद्याध्ययन से "विप्र"
नाम धारण करता है।

जो वेद,मन्त्र तथा पुराणों से शुद्ध होकर तीर्थस्नानादि के कारण और भी पवित्र हो गया है,
वह ब्राम्हण परम पूजनीय माना गया है।

ऊँ पुराणकथको नित्यं,
     धर्माख्यानस्य सन्तति:।
अस्यैव दर्शनान्नित्यं,
अश्वमेधादिजं फलम्।।

जिसके हृदय में गुरु,देवता,माता-पिता और अतिथि के प्रति भक्ति है।
जो दूसरों को भी भक्तिमार्ग पर अग्रसर करता है,
जो सदा पुराणों की कथा करता और धर्म का प्रचार करता है ऐसे ब्राम्हण के दर्शन से ही अश्वमेध यज्ञों का फल प्राप्त होता है।

पितामह भीष्म जी पुलस्त्य जी से पूछा--
गुरुवर!मनुष्य को देवत्व, सुख, राज्य, धन, यश, विजय, भोग, आरोग्य, आयु, विद्या, लक्ष्मी, पुत्र, बन्धुवर्ग एवं सब प्रकार के मंगल की प्राप्ति कैसे हो सकती है?
यह बताने की कृपा करें।

पुलस्त्यजी ने कहा--
राजन!इस पृथ्वी पर ब्राम्हण सदा ही विद्या आदि गुणों से युक्त और श्रीसम्पन्न होता है।
तीनों लोकों और प्रत्येक युग में विप्रदेव नित्य पवित्र माने गये हैं।
ब्राम्हण देवताओं का भी देवता है।
संसार में उसके समान कोई दूसरा नहीं है।
वह साक्षात धर्म की मूर्ति है और सबको मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करने वाला है।

ब्राम्हण सब लोगों का गुरु,पूज्य और तीर्थस्वरुप मनुष्य है।

पूर्वकाल में नारदजी ने ब्रम्हाजी से पूछा था--
ब्रम्हन्!किसकी पूजा करने पर भगवान लक्ष्मीपति प्रसन्न होते हैं?"

ब्रम्हाजी बोले--जिस पर ब्राम्हण प्रसन्न होते हैं,उसपर भगवान विष्णुजी भी प्रसन्न हो जाते हैं।
अत: ब्राम्हण की सेवा करने वाला मनुष्य निश्चित ही परब्रम्ह परमात्मा को प्राप्त होता है।
ब्राम्हण के शरीर में सदा ही श्रीविष्णु का निवास है।

जो दान,मान और सेवा आदि के द्वारा प्रतिदिन ब्राम्हणों की पूजा करते हैं,
उसके द्वारा मानों शास्त्रीय पद्धति से उत्तम दक्षिणा युक्त सौ अश्वमेध यज्ञों का अनुष्ठान हो जाता है।

जिसके घरपर आया हुआ ब्राम्हण निराश नहीं लौटता,
उसके समस्त पापों का नाश हो जाता है।
पवित्र देशकाल में सुपात्र ब्राम्हण को जो धन दान किया जाता है वह अक्षय होता है।
वह जन्म जन्मान्तरों में फल देता है,
उनकी पूजा करने वाला कभी दरिद्र, दुखी और रोगी नहीं होता है।
जिस घर के आँगन में ब्राम्हणों की चरणधूलि पडने से वह पवित्र होते हैं वह तीर्थों के समान हैं।

ऊँ न विप्रपादोदककर्दमानि,
न वेदशास्त्रप्रतिघोषितानि!
स्वाहास्नधास्वस्तिविवर्जितानि,
श्मशानतुल्यानि गृहाणि तानि।।

जहाँ ब्राम्हणों का चरणोदक नहीं गिरता,
जहाँ वेद शास्त्र की गर्जना नहीं होती,
जहाँ स्वाहा,स्वधा,स्वस्ति और मंगल शब्दों का उच्चारण नहीं होता है।
वह चाहे स्वर्ग के समान भवन भी हो तब भी वह श्मशान के समान है।

भीष्मजी!पूर्वकाल में विष्णु भगवान के मुख से ब्राम्हण, बाहुओं से क्षत्रिय, जंघाओं से वैश्य और चरणों से शूद्रों की उत्पत्ति हुई।

पितृयज्ञ(श्राद्ध-तर्पण), विवाह, अग्निहोत्र, शान्तिकर्म और समस्त मांगलिक कार्यों में सदा उत्तम माने गये हैं।

ब्राम्हण के मुख से देवता हव्य और पितर कव्य का उपभोग करते हैं।
ब्राम्हण के बिना दान,होम तर्पण आदि सब निष्फल होते हैं।

जहाँ ब्राम्हणों को भोजन नहीं दिया जाता,वहाँ असुर,प्रेत,दैत्य और राक्षस भोजन करते हैं।

ब्राम्हण को देखकर श्रद्धापूर्वक उसको प्रणाम करना चाहिए।

उनके आशीर्वाद से मनुष्य की आयु बढती है,वह चिरंजीवी होता है।
ब्राम्हणों को देखकर भी प्रणाम न करने से,उनसे द्वेष रखने से तथा उनके प्रति अश्रद्धा रखने से मनुष्यों की आयु क्षीण होती है,
धन ऐश्वर्य का नाश होता है तथा परलोक में भी उसकी दुर्गति होती है।

चौ- पूजिय विप्र सकल गुनहीना।
शूद्र न गुनगन ग्यान प्रवीणा**।।

कवच अभेद्य विप्र गुरु पूजा।
एहिसम विजयउपाय न दूजा।।
रामचरित मानस......

ऊँ नमो ब्रम्हण्यदेवाय,
       गोब्राम्हणहिताय च।
जगद्धिताय कृष्णाय,
        गोविन्दाय नमोनमः।।

जगत के पालनहार गौ,ब्राम्हणों के रक्षक भगवान श्रीकृष्ण जी कोटिशःवन्दना करते हैं।

जिनके चरणारविन्दों को परमेश्वर अपने वक्षस्थल पर धारण करते हैं,
उन ब्राम्हणों के पावन चरणों में हमारा कोटि-कोटि प्रणाम है।।
ब्राह्मण जप से पैदा हुई शक्ति का नाम है,
ब्राह्मण त्याग से जन्मी भक्ति का धाम है।

ब्राह्मण ज्ञान के दीप जलाने का नाम है,
ब्राह्मण विद्या का प्रकाश फैलाने का काम है।

ब्राह्मण स्वाभिमान से जीने का ढंग है,
ब्राह्मण सृष्टि का अनुपम अमिट अंग है।

ब्राह्मण विकराल हलाहल पीने की कला है,
ब्राह्मण कठिन संघर्षों को जीकर ही पला है।

ब्राह्मण ज्ञान, भक्ति, त्याग, परमार्थ का प्रकाश है,
ब्राह्मण शक्ति, कौशल, पुरुषार्थ का आकाश है।

ब्राह्मण न धर्म, न जाति में बंधा इंसान है,
ब्राह्मण मनुष्य के रूप में साक्षात भगवान है।

ब्राह्मण कंठ में शारदा लिए ज्ञान का संवाहक है,
ब्राह्मण हाथ में शस्त्र लिए आतंक का संहारक है।

ब्राह्मण सिर्फ मंदिर में पूजा करता हुआ पुजारी नहीं है,
ब्राह्मण घर-घर भीख मांगता भिखारी नहीं है।

ब्राह्मण गरीबी में सुदामा-सा सरल है,
ब्राह्मण त्याग में दधीचि-सा विरल है।

ब्राह्मण विषधरों के शहर में शंकर के समान है,
ब्राह्मण के हस्त में शत्रुओं के लिए परशु कीर्तिवान है।

ब्राह्मण सूखते रिश्तों को संवेदनाओं से सजाता है,
ब्राह्मण निषिद्ध गलियों में सहमे सत्य को बचाता है।

ब्राह्मण संकुचित विचारधारों से परे एक नाम है,
ब्राह्मण सबके अंत:स्थल में बसा अविरल राम है..
[1/20, 18:16] ओमीश: http://www.enavabharat.com/news/dharmshetre/story/31550.html
[1/20, 18:18] अरविन्द गुरू जी: हरि ॐ तत्सत्!  शुभसन्ध्या।
सर्वेभ्यो विप्रेभ्यो भक्तेभ्यो गणसदस्येभ्यश्च नमो नमः।
साधुवादः।
🌺🙏�🌺
[1/20, 18:35] ‪+91 98854 71810‬: आचार्यश्च पिता चैव
         माता भ्राता च पूर्वजः।
नार्तेनाप्यवमन्तव्या
         ब्राह्मणेन     विशेषतः।।
आचार्यो ब्रह्मणो मूर्तिः
         पिता मूर्तिः प्रजापतेः।
माता पृथिव्या मूर्तिस्तु
         भ्राता स्वो मूर्तिरात्मनः।।
यं मातापितरौ क्लेशं
          सहेते सम्भवे नृणाम्।।
न तस्य निष्कृतिः शक्या
           कर्तुं वर्षशतैरपि।।
              (मनुस्मृति)

आचार्य, पिता, माता और बड़े भाई --- इनका दुखी होने पर भी अपमान न करे।और ब्राह्मण को तो विशेष करके इनका अपमान नहीं करना चाहिए।

क्योंकि आचार्य  ब्रह्मा की मूर्ति, पिता प्रजापति की मूर्ति, माता पृथ्वी की मूर्ति और बड़ा भाई अपनी आत्मा की ही दूसरी मूर्ति है।(इनका अपमान करने से इन इन देवताओं का अपमान होता है )।बालकों को जन्म देकर उनके पालन में माता पिता को जो कष्ट सहना पड़ता है, उसका बदला सैकड़ों वर्ष सेवा करने पर भी पूरा नहीं हो सकता ।

अतएव प्रतिदिन माता पिता और आचार्य की सेवा करनी चाहिए ।इन तीनों के संतुष्ट होने से सब तप पूर्ण हो जाते हैं ।इसलिए इन तीनों की सेवा करना ही परम तप कहलाता है ।

                   ।। शुभ संध्या ।।
🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏
[1/20, 18:55] प सुभम्: निन्दन्तु नीतिनिपुणा यदि वा स्तुवन्तु
लक्ष्मीः समाविशतु गच्छतु वा यथेष्टम्।
अद्यैव वा मरणमस्तु युगान्तरे वा
न्याय्यात्पथः प्रविचलन्ति पदं न धीराः।।
नीति में निपुण व्यक्ति निन्दा करे अथवा प्रशंसा करे, धन-सम्पत्ति समीप आये अथवा इच्छानुसार चली जावे, मृत्यु आज ही हो अथवा एक युग के बाद हो किन्तु धैर्यशाली पुरुष न्याययुक्त मार्ग से एक पग भी विचलित नहीं होते हैं।
           पंडित शुभम तिवारी।
             संoसंoविoविoवाराणसी
[1/20, 19:36] पं ऊषा जी: नमस्ते, परिवार सदस्यों को प्यार भरा नमन।
सत्य तो सत्य होता है.. सही है।
धार्मिक विषयों का धार्मिक ग्रन्थ ही प्रमाण है.. शतप्रतिशत सही बात है।
पर स्त्री हो या पुरुष हो, व्यक्ति किसी भी जाती-वर्ण आदि के सम्बन्धित हो,-- आधुनिक युग में इन बातों से परिचित नही हुआ करता। और ऊपर से अर्धज्ञों द्वारा फैलाए गए झूठी अप्रमाणित मिथ्यातथ्य अधिक भ्रमित कर देते हैं। उसके भी ऊपर से शिष्टप्रमाण भी आज कल इतना भ्रमात्मक हो चला है कि सूक्ष्मता को समझाना कठिन होजाता है। अतः मन आहत होना- इत्यादि प्रमाद होजाते हैं। देखिए- शास्त्र पढने वाले अपनी पन्था और आधुनिक युग अपनी पन्था पर अलग अलग डिगे रहने के कारण कहीं न कहीं असुविधा का स्पर्श होता ही रहता है, चाहे स्त्रीविषय, या जाती-वर्णादि विषय। बस, आपसी स्नेह व आत्मीयता, सहृदयता ही सत्सम्बन्ध बनाते हुए सत्य को जानने में सहायक होगी। धन्यवाद।
[1/20, 21:57] ‪+91 98896 25094‬: "दरिया" बन कर
किसी को डुबाना बहुत आसान है.

मगर "जरिया" बनकर
किसी को बचायें तो कोई
बात बनें...!
[1/20, 23:25] P Alok Ji: जग बहू नर सर सरि सम भाई । जे निज बाढहिं बढ़हिं जल पाई॥
सज्जन सकृत सिन्धु सम कोई । देखी पुर बिधु बाढ़ई जोई ।

जगत में तालाबों और नदियों के समान मनुष्य ही अधिक है जो जल पाकर अपनी ही बाढ़ से बढ़ते हैं अर्थात अपनी ही उन्नति से प्रसन्न होते हैं . समुद्र - सा तो कि एक बिरला ही सज्जन होता है जो चन्द्रमा को पूर्ण देख कर उमड़ पड़ता है ..पिबत रामचरितमानसम् श्रद्धेय आलोकजी शास्त्री इन्दौर
[1/21, 00:46] ओमीश: जय माँ              ॐ     २०/१/१७
गीता जी के अनुसार अपने  कल्याण के लिए इन्द्रियो पर संयम अनिवार्य है !यदि इंद्रिया विषयो में लगी रही तो अनिष्ट परम्परा होना ही है! पहले विषय चिंतन फिर आसक्ति ,फिर कामना ,फिर क्रोध ,फिर बुद्धि नाश और फिर खुद का ही विनाश !लेकिन जो संसार में रहते  हुवे भी अपने को भगवत परायण हो कर सांसारिक आसक्ति से रहित रखता है वह सदा प्रस्सन रहता है ,इससे व्यक्ति को ही परमात्म प्राप्ति होती है !
गीता जी २/६१ से ६५
[1/21, 08:36] ‪+91 98854 71810‬: *बुद्धि को शुद्ध रखने के तीन उपाय, जो गीता में बताये है.*

*१) यज्ञ - हरी नाम का यज्ञ* *अपनी बुद्धि को शुद्ध रखता है.*
*२) दान - अपने से जो हो. मीठी वाणी बोलना भी दान है.*
*३) तप - कलयुग का तप है निंदा को सहन कर लेना और जिसने निंदा की उसके प्रति दुर्भाव न हो ।*

     🌄🌄 सुप्रभातम् 🌄🌄
[1/21, 12:58] ‪+91 94153 60939‬: ।।श्रीमते रामानुजाय नमः।।

विभ्व्यस्तवामृतकथोदवहास्त्रिलोक्याः
पादावनेजसरितः शमलानि
हन्तुम् ।
आनुश्रवं
श्रुतिभिरङ्घृजमंगसँगै-
स्तीर्थद्वयं शुचिषदस्त
उपस्पृशन्ति।।

हे भगवन ! आपने त्रिलोक की पाप राशि को नष्ट करने लिए इस संसार में अपने भक्तों के कल्याणार्थ दो प्रकार की पवित्र नदियां बहा रखी हैं। पहली तो आपकी लीला-रस से भरी आपकी कथा-नदी और दूसरी आपके पाद प्रक्षालन के जल से निकली माँ गंगा जी।
जो भी सत्संगी-साधु-विवेकी जन अपने कानों के द्वारा  आपकी कथा-नदी में और शरीर के द्वारा माँ गंगा जी में स्नान कर दोनों ही तीर्थों का सेवन करते हैं , उनके सारे पाप मिट जाते हैं। इसप्रकार वे सहज ही जीवन-मुक्त हो जाते हैं।

              –रमेशप्रसाद शुक्ल

              –जय श्रीमन्नारायण।
[1/21, 12:58] ‪+91 94153 60939‬: ।।श्रीमते रामानुजाय नमः।।

विभ्व्यस्तवामृतकथोदवहास्त्रिलोक्याः पादावनेजसरितः
शमलानि हन्तुम् ।
आनुश्रवं श्रुतिभिरङ्घृजमंग-
सँगैस्तीर्थद्वयं शुचिषदस्त
उपस्पृशन्ति।।

हे भगवन ! आपने त्रिलोक की पाप राशि को नष्ट करने लिए इस संसार में अपने भक्तों के कल्याणार्थ दो प्रकार की पवित्र नदियां बहा रखी हैं। पहली तो आपकी लीला-रस से भरी आपकी कथा-नदी और दूसरी आपके पाद प्रक्षालन के जल से निकली माँ गंगा जी।
जो भी सत्संगी-साधु-विवेकी जन अपने कानों के द्वारा  आपकी कथा-नदी में और शरीर के द्वारा माँ गंगा जी में स्नान कर दोनों ही तीर्थों का सेवन करते हैं , उनके सारे पाप मिट जाते हैं। इसप्रकार वे सहज ही जीवन-मुक्त हो जाते हैं।

              –रमेशप्रसाद शुक्ल

              –जय श्रीमन्नारायण।
[1/21, 13:50] ओमीश: शरज्ज्योत्स्नाशुद्धां शशियुतजटाजूटमुकुटां
वरत्रासत्राणस्फटिकघटिकापुस्तककराम् ।
सकृन्न त्वा नत्वा कथमिव सतां सन्निदधते
मधुक्षीरद्राक्षामधुरिमधुरीणाः फणितयः ।। 15 ।।

अर्थ - शरद् पूर्णिमा की चन्द्रिका ( चाँदनी ) के समान स्वच्छ , निर्मल , धवल वर्णो वाली , तथा द्वितीया के चन्द्रमा युक्त जटाजूट रूपी मुकुटों से सुशोभित , अपने दोनों हाथों में वरमुद्रा एवं भयमुक्ति की अभयमुद्रा को प्रदर्शित किये हुए तथा दोनों कर - कमलों में , एक में शुद्ध स्फटिक मणियों की माला एवं दूसरे में पुस्तक धारण किये हुए ऐसे तुम्हारे सौम्य स्वरूप का एक बार भी वन्दना न करने वाले मनुष्य को मधु , दूध एवं द्राक्षा के मिश्रण के समान मधुर सत्कवियों के समान मधुर कविता करने की शक्ति कैसे प्राप्त होगी ? ।।
[1/21, 13:53] पं ऊषा जी: 🙏🌷🙏 नमस्सदसे, सरस्वत्यै नमः।
यह अत्यन्त शक्तिशाली व उपयोगी मन्त्र है। इसके प्रतिदिन एकबार नियमित पठन से धीशक्ति, चिन्तशक्ति, व स्मरणशक्ति की वृद्धि होती है।
[1/21, 14:44] ओमीश: साधना के महत्वपूर्ण सूत्र (भाग 2)

वीर्य-

वीर्य का अर्थ जितेंद्रियता है और जितेंद्रियता का आशय है कि आपकी इंद्रियों में पवित्रता आए। अगर आपके संसाधन अनैतिक हैं, आपके विचार नैतिक नहीं हैं, आपके चिंतन नैतिक नहीं हैं अथवा आप नैतिक दृष्टि से बड़े दुर्बल हैं तो आप आध्यात्मिक व्यक्ति नहीं हो सकते। आध्यात्मिक व्यक्ति बहुत नैतिक होता है। नैतिकता के बिना आध्यात्मिकता की कल्पना करना बिल्कुल व्यर्थ है। इसलिए पहले हमें नैतिक बनना होगा।

नैतिकता का अर्थ है-हमें अपनी इंद्रियों पर अंकुश रखना आए ताकि हमारा देखना, सूंघना, सुनना, छूना, चखना तथा बोलना नैतिक हो। इसीलिए कहा गया है कि जो व्यक्ति मनसा, वाचा एवं कर्मणा से एक है, वही महात्मा है। साधु महात्मा का अर्थ गैरिक वस्त्र धारण नहीं है। वस्तुतः जो जीवन से संन्यास ले लेता है,
उसे साधु-महात्मा कहते हैं।
संन्यास परम पवित्रता का नाम है। परम पवित्रता का पर्याय संन्यास है। संन्यास का अर्थ है-जिनके प्रति यह अपेक्षा हो कि इनमें पवित्रता है, पूज्यता है, दिव्यता है। इनमें कहीं जागतिक आकर्षण नहीं है। इनमें कहीं जगत के लिए कोई भाव नहीं है। जो अपने मन को इतना निर्लेप कर ले कि जगत में रहकर भी जगत से भिन्न हो जाए। कभी-कभी बहुत अच्छी बातें मन में आती हैं कि सच्चा साधक या सच्चा यति कौन है ? वह कौन है जिसे हम जितेंद्रिय की संज्ञा दे रहे हैं ?

जो संसार में तो रहता है परंतु उसके भीतर से संसार खो जाता है, वही महात्मा है। हम संसार में तो रहेंगे परंतु गृह त्याग करने का अर्थ गिरि, गह्वरों या उपत्यकाओं में जाकर धूनी रमाना नहीं है। सच तो यह है कि सबके बीच में रहकर भी आप संसार में रह रहे हैं और आपका संसार खो गया है। जो वैषयिक आकर्षण है, विषयगत है, पदार्थगत है, आपके भीतर विमोहन या सम्मोहन है, पदार्थ के प्रति एक गहरी अभिरुचि है, उसे सूंघने-चखने या पाने-छूने की सतत एक सातत्य है तथा वस्तुओं के भोगपूर्ति की आकांक्षा है जब उस पर अंकुश लगेगा तो जितेंद्रियता कहलाएगी।

वीर्य का अर्थ यह है कि हमारी इंद्रियां सधें। हम इंद्रियों तथा मन बुद्धि के धरालत पर पवित्र हों। एक बात देखी गई है कि जिनमें श्रद्धा की प्रचंडता होती है, उनकी इंद्रियां स्वाभाविक रूप से नियंत्रित हो जाती हैं। गुरुजन इंद्रियों को साधने का कोई पाठ नहीं बताते कि अब आपको अपनी आंख साधनी है, कान साधना है या मन साधना है। अगर आपमें अत्यंत श्रद्धा है तो जो मूल्य हैं, परंपरा है और चिंतन की प्रक्रिया है; उसके साथ जुड़ते ही आप अतींद्रिय हो जाते हैं।

साधु-महात्मा को ही भोग में योग की कला आती है कि संसार के सब भोगों में कैसे योग-युक्ति धारण की जाए ? ये भोग हैं। इनका भोग करें या उपयोग करें ? संसार की सभी वस्तुओं का उपभोग नहीं उपयोग करें। उपभोग में योग जगाएं इसीलिए योग-मुक्ति होकर पदार्थों के साथ आत्मैक्यता हो, तादात्म्य हो एवं पदार्थ हितकारक हो। ये निंदनीय हैं, ऐसी बात नहीं। पदार्थ कैसा है ? उसके मूल में जाकर उसका परिणाम जानने का नाम योग है।
[1/21, 14:45] ‪+91 98878 72076‬: मयूर  मुकुट कनक कुण्डल
हस्त   वेणु    नयन  मनहर
पीत वसन  वाणी  सुखकर
कुसुम  वदन मन तोषकरण
मधुवन में पकड़ कलाई मुझसे निशिदिन रार करे!
                      सखि! माधव नही माने मोहे छेड़े!

मेरे  मुख पर वह घुँघट डाले
मेरी अखियन से अश्रु  पोंछे
कुञ्चितकुन्तल कपोल बिखेरे 
बइयां पकड़ कभी हाथ मरोड़े
मुरली की तान वह छेड़ हृदय में मुझपर जादू करे!
                     सखि! माधव नही माने मोहे  छेड़े!

अभिनवकुसुम आभूषण सुंदर
सुलझे केशों में  गजरा शोभित
चलती ज्यों  पुरवाई  पवन धर
मोहे   लागे  जैसे  यही  वसन्त
कभी नटनागर नटखट कन्हाई नीर भरण नही दे!
                     सखि! माधव नही माने मोहे छेड़े!

चाहे   रार  करे  बरजोरी करे
चाहे  रास  करे मन चौरी करे
वह ऐसे   सम्मोहन बाण चले
अब उन बिन नही जिया लगे
जिस ओर नयनदेखे उस ओर वह माखनचोर दिखे!
                       सखि! माधव नही माने मोहे छेड़े!

मेरे   नयनों  में   मचल रहा
मेरे  हृदय क्षेत्र में उमड़ रहा
मेरे  अधरों  में   प्रकट  रहा
मेरे तन  मन में   पसर  रहा
वह कृष्णप्रेम  जितना कम करती उतना हृदय भरे!
                       सखि! माधव नही माने मोहे छेड़े!

कटि-तट-चारु शुभ मञ्जुलछवि
लाकृति रूप निहारन शशि- रवि
शिशिर समय दिनकर नही  जागे
शिशिर निशा शशधर  नही  सोये
ज्योत्स्ना उतरी झर झर झरती कान्हा नही जाने दे!
                     सखि! माधव नही  माने  मोहे छेड़े!

बाट-चलत  कभी जाल बुनत  है
डगर चलत कभी गगरी छिनत है
आरूढ़ होय कभी तरु पर निर्लज्ज
वस्त्र हरत  कभी कंकर  मारत  है
चञ्चलचपल कन्हाई मोहे कोई काम करण नही दे!
                    सखि! माधव  नही  माने  मोहे  छेड़े!

गोपियन सङ्ग जब बात करत है
क्षण क्षण मोरा   जिया तड़पे है
मुझ   जैसी  नही  प्रेम  दीवानी
फिर क्यों बैरन से रास करत है?
बाहर राधा हृद् में राधा री!और मिलन क्या शेष रहे!
                   सखि!  माधव  नही  माने  मोहे  छेड़े!

श्यामल पर जब ज्योत्स्ना पड़ती
चन्द्रप्रिया  जैसे   धन्य   समझती
बाँस   बनी  वह  धन्य  है  मुरली
सो   श्रीपति के अधरों पर साजी
"दर्शन"राधा बड़ी  भाग्यवान जो मन की बात कहे!
                  सखि!  माधव  नही  माने  मोहे  छेड़े!
       
पञ्च  विषय  युत गुलाल बनाई
वह  भव सागर  के  मध्य उड़ाई
जिन  जन के लोचन में गिर गई
वह सुधबुध तनमन लाज गंवाई
कस्तूरी भ्रम में इत उत दौड़े हृदय में कबहुँ न ढूंढें!
                     सखि! माधव नही माने मोहे छेड़े!

आपका सुहृद्-  नीतिन् मिश्र "दर्शन"

कृपया मूलरूप में प्रेषित करें।

सर्वेभ्यो नमः। वन्दे वाणीविनायकौ।
🙏🏻🙏🏻🙏🏻
[1/21, 16:28] ओमीश: रहीम दास के दोहे

  बिगरी बात बने नहीं, लाख करो किन कोय.
रहिमन फाटे दूध को, मथे न माखन होय.

अर्थ : मनुष्य को सोचसमझ कर व्यवहार करना चाहिए,क्योंकि किसी कारणवश यदि बात बिगड़ जाती है तो फिर उसे बनाना कठिन होता है, जैसे यदि एकबार दूध फट गया तो लाख कोशिश करने पर भी उसे मथ कर मक्खन नहीं निकाला जा सकेगा.

रहिमन धागा प्रेम का, मत तोड़ो चटकाय.
टूटे पे फिर ना जुड़े , जुड़े गाँठ परी जाय.

अर्थ : रहीम कहते हैं कि प्रेम का नाता नाज़ुक होता है. इसे झटका देकर तोड़ना उचित नहीं होता. यदि यह प्रेम का धागा एक बार टूट जाता है तो फिर इसे मिलाना कठिन होता है और यदि मिल भी जाए तो टूटे हुए धागों के बीच में गाँठ पड़ जाती है.

रहिमन देखि बड़ेन को, लघु न दीजिए डारि.
जहां काम आवे सुई, कहा करे तरवारि.

अर्थ : रहीम कहते हैं कि बड़ी वस्तु को देख कर छोटी वस्तु को फेंक नहीं देना चाहिए. जहां छोटी सी सुई काम आती है, वहां तलवार बेचारी क्या कर सकती है?

जो रहीम उत्तम प्रकृति, का करी सकत कुसंग.
चन्दन विष व्यापे नहीं, लिपटे रहत भुजंग.

अर्थ : रहीम कहते हैं कि जो अच्छे स्वभाव के मनुष्य होते हैं,उनको बुरी संगति भी बिगाड़ नहीं पाती. जहरीले सांप चन्दन के वृक्ष से लिपटे रहने पर भी उस पर कोई जहरीला प्रभाव नहीं डाल पाते.

रूठे सुजन मनाइए, जो रूठे सौ बार.
रहिमन फिरि फिरि पोइए, टूटे मुक्ता हार.

अर्थ : यदि आपका प्रिय सौ बार भी रूठे, तो भी रूठे हुए प्रिय को मनाना चाहिए,क्योंकि यदि मोतियों की माला टूट जाए तो उन मोतियों को बार बार धागे में पिरो लेना चाहिए.

जो बड़ेन को लघु कहें, नहीं रहीम घटी जाहिं.
गिरधर मुरलीधर कहें, कछु दुःख मानत नाहिं.

अर्थ : रहीम कहते हैं कि बड़े को छोटा कहने से बड़े का बड़प्पन नहीं घटता, क्योंकि गिरिधर (कृष्ण) को मुरलीधर कहने से उनकी महिमा में कमी नहीं होती.
संकलन - आचार्य 🙏🙏🙏
[1/21, 20:29] पं ऊषा जी: हास्य के लिए-
श्वशुरगृहनिवासः स्वर्गतुल्यो नराणां
यदि भवति दिनानि त्रीणि पञ्चाथ सप्त ।
दधि –मधु- घृत- भक्ष्य-क्षीरसारप्रवाहः
तदुपरि निवसेत् चेत् पादरक्षाप्रयोगः ॥
(गणान्तरात्)
[1/21, 20:59] ‪+91 94153 60939‬: उष्ट्राणां च विवाहेषु गीतं
गायन्ति गर्दभाः ।
परस्परं प्रशंसन्ति अहो रूपमहो
ध्वनिः॥

  –महासुभाषितसंग्रहे,७२७६-२

इति समीचीनः पाठ:।

उष्ट्राणां च गृहे लग्नं गर्दभाः
शान्तिपाठकाः।
परस्परं प्रशंसन्ति अहो रूपं
अहो ध्वनिः।।

इति च। बहुधा दृश्यते।

         –जय श्रीमन्नारायण।
[1/21, 21:13] ‪+91 94153 60939‬: 'क्षमा याचे’ इति प्रयोगे विवक्षायाः स्पष्टीकरणम्–

याच् धातुर्द्विकर्मक एव। 'भवतः क्षमाः याचे' इत्येव अर्थात् आपद्यते इति संक्षेपेण भवतः उद्दिश्य लेखनात्  अर्थापत्त्या सिद्धे, साक्षात् कर्मण एवोपादानम्।

क्षमाः याचे इति उद्दिष्टम्। क्षमापणानि प्रार्थ्यन्ते विवक्षा। कृतस्यापराधस्य ज्ञातस्याज्ञातस्य च विविधत्वात् बहुवचनं क्षमानाम्।

क्षमूष् सहने इत्यस्मात् भावे अङ् प्रत्यये, क्षमा-शब्दः, तितिक्षा इत्यर्थे भाववचनः। क्षमते इति पचाद्यचि भूवाचकः कर्तरि प्रत्यये क्षमाशब्दः इति भेदस्तु स्पष्ट एवेति ।

          –जय श्रीमन्नारायाण।
[1/21, 22:03] ‪+91 98854 71810‬: जैसे महासागर से मिलने के पश्चात झीलों-तालाबों व नदी-नालों से मोह छूट जाता है, वैसे ही सच्चिदानंद की अनुभूति के पश्चात सब मत-मतान्तरों, सिद्धांतों, वाद-विवादों, राग-द्वेष व अहंकार रूपी पृथकता के बोध से चेतना हट कर परमात्मा के लिए तड़प उठती है| सारे प्रश्न भी तिरोहित हो जाते हैं| परमात्मा ही हमारे हर प्रश्न का का उत्तर और हर समस्या का समाधान है|
.
जैसे विवाह के पश्चात नव विवाहिता की जाति, कुल व गौत्र अपने पति का ही हो जाता है, वैसे ही मेरी जाति भी वह ही है जो परमात्मा की है, मेरा कुल व गौत्र भी वही है जो परमात्मा का है| यह देह तो एक दिन नष्ट हो कर पंचभूतों में मिल जायेगी पर परमात्मा के साथ मेरा सम्बन्ध शाश्वत है| ॐ ॐ ॐ ||

हे प्रभु, जब आप ह्रदय में आकर आड़े हो ही गए हो तो बस अब सदा ऐसे ही रहना| अब कहीं भी मत जाना| आप मेरे ह्रदय में हो तो मेरी भी स्थायी स्थिति आपके ही ह्रदय में है| मेरा ह्रदय ही आपका भी ह्रदय है| ॐ ॐ ॐ ||
[1/21, 22:38] ‪+91 98854 71810‬: 🌹🌿🌹🌿गुरु की महिमा🌿🌹🌿🌹

🌼🌿🌼🌿"गुरु गूंगे गुरू बावरे गुरू के रहिये दास "

एक बार की बात है नारद जी विष्णु जी से मिलने गए !
विष्णु जी ने उनका बहुत सम्मान किया ! जब नारद जी वापिस गए तो विष्णु जी ने कहा हे लक्ष्मी जिस स्थान पर नारद जी बैठे थे ! उस स्थान को गाय के गोबर से लीप दो !

जब विष्णु जी यह बात कह रहे थे तब नारद जी बाहर ही खड़े थे ! उन्होंने सब सुन लिया और वापिस आ गए और विष्णु जी से पुछा हे विष्णु जी जब मै आया तो आपने मेरा खूब सम्मान किया पर जब मै जा रहा था तो आपने लक्ष्मी जी से यह क्यों कहा कि जिस स्थान पर नारद बैठा था उस स्थान को गोबर से लीप दो !

विष्णु जी ने कहा हे नारद मैंने आपका सम्मान इसलिए किया क्योंकि आप देव ऋषि है और मैंने देवी लक्ष्मी से ऐसा इसलिए कहा क्योंकि आपका कोई गुरु नहीं है ! आप निगुरे है ! जिस स्थान पर कोई निगुरा बैठ जाता है वो स्थान गन्दा हो जाता है !

यह सुनकर नारद जी ने कहा हे भगवान आपकी बात सत्य है पर मै गुरु किसे बनाऊ ! विष्णु जी बोले हे नारद धरती पर चले जाओ जो व्यक्ति सबसे पहले मिले उसे अपना गुरु मानलो !

नारद जी ने प्रणाम किया और चले गए ! जब नारद जी धरती पर आये तो उन्हें सबसे पहले एक मछली पकड़ने वाला एक मछुवारा मिला ! नारद जी वापिस विष्णु जी के पास चले गए और कहा महाराज वो मछुवारा तो कुछ भी नहीं जानता मै उसे गुरु कैसे मान सकता हूँ !

यह सुनकर विष्णु जी ने कहा नारद जी अपना प्रण पूरा करो ! नारद जी वापिस आये और उस मछुवारे से कहा मेरे गुरु बन जाओ ! पहले तो मछुवारा नहीं माना बाद में बहुत मनाने से मान गया !

मछुवारे को राजी करने के बाद नारद जी वापीस विष्णु जी के पास गए और कहा हे विष्णु जी मेरे गुरूजी को तो कुछ भी नहीं आता वे मुझे क्या सिखायेगे ! यह सुनकर विष्णु जी को क्रोध आ गया और उन्होंने कहा हे नारद गुरु निंदा करते हो जाओ मै आपको श्राप देता हूँ कि आपको ८४ लाख योनियों में घूमना पड़ेगा !

यह सुनकर नारद जी ने दोनों हाथ जोड़कर कहा हे विष्णु जी इस श्राप से बचने का उपाय भी बता दीजिये ! विष्णु जी ने कहा इसका उपाय जाकर अपने गुरुदेव से पूछो ! नारद जी ने सारी बात जाकर गुरुदेव को बताई ! गुरूजी ने कहा ऐसा करना विष्णु जी से कहना ८४ लाख योनियों की तस्वीरे धरती पर बना दे फिर उस पर लेट कर गोल घूम लेना और विष्णु जी से कहना ८४ लाख योनियों में घूम आया मुझे माफ़ करदो आगे से गुरु निंदा नहीं करूँगा !

नारद जी ने विष्णु जी के पास जाकर ऐसा ही किया उनसे कहा ८४ लाख योनिया धरती पर बना दो और फिर उन पर लेट कर घूम लिए और कहा विष्णु जी मुझे माफ़ कर दीजिये आगे से कभी गुरु निंदा नहीं करूँगा ! यह सुनकर विष्णु जी ने कहा जिस गुरु की निंदा कर रहे थे उसी ने मेरे श्राप से बचा लिया !

गुरु की महिमा अपरम्पार है ! मैंने लोगो को कहते हुए सुना है कि गुरु पूरा होना चाहिए इसलिए वो ऐसे लोगो को गुरु बनाते है जिनका नाम बडा होता है । दर्शनों से भक्तो पर कृपा आने लगती है पर ऐसा कुछ नहीं होता !

कोई भी साधक कभी पूरा नहीं हो सकता क्योंकि पूरे तो केवल ईश्वर है और दूसरा ईश्वर कोई बन नहीं सकता ! इसलिए माना जाता है कि…

गुरु गूंगे गुरु बाबरे गुरु के रहिये दास
गुरु जो भेजे नरक नु स्वर्ग कि रखिये आस !

गुरु चाहे गूंगा हो चाहे गुरु बाबरा हो (पागल हो) गुरु के हमेशा दास रहना चाहिए ! गुरु यदि नरक को भेजे तब भी शिष्य को यह इच्छा रखनी चाहिए कि मुझे स्वर्ग प्राप्त होगा ! यदि शिष्य को गुरु पर पूर्ण विश्वास हो तो उसका बुरा स्वयं गुरु भी नहीं कर सकते !

गुरु ग्रन्थ साहिब में एक प्रसंग है कि एक पंडीत ने धन्ने भगत को एक साधारण पत्थर देकर कहा इसे भोग लगाया करो एक दिन भगवान कृष्ण दर्शन देगे ! उस धन्ने भक्त के विश्वास से एक दिन उस पत्थर से भगवान प्रकट हो गए ! गुरु तो केवल गुरु है फिर चाहे वे लोक गुरु हो या पंथक गुरु !🌼🌿🌼🌿🌼
[1/21, 23:07] P Alok Ji: कांस्य पात्र में भोजन करने के लाभ(व्यासजी के अनुसार)

   एक एव तु यो भुंक्ते गृहस्थः कांस्यभाजने।
  चत्वारि तस्य वर्द्धन्ते प्रजा आयुः यशो बलम्।।
 
  जो गृहस्थ व्यक्ति एक ही काँस्यपात्र में नित्य भोजन करे तो उसे आयु,संतान , यश और बल ,ये चार पदार्थ प्राप्त होते हैं।
[1/22, 07:46] ‪+91 98895 15124‬: *स्वर्ग  का  सपना  छोड़  दो*,
    *नर्क   का   डर   छोड़   दो* ,
    *कौन   जाने   क्या   पाप ,*
              *क्या   पुण्य* ,
                   *बस............*
    *किसी   का   दिल   न   दुखे*
    *अपने   स्वार्थ   के   लिए* ,
               *बाकी   सब*
  *कुदरत   पर   छोड़   दो*
🌞।। *सुप्रभात नमस्कार* ।।🌞
🙏👏🏻🌹🌹🌹🌹🌹👏🏻🙏
[1/22, 09:14] पं अर्चना जी: *शब्द शब्द में, ब्रह्म है,*
*शब्द शब्द में, सार,*
*शब्द, सदा ऐसे कहो,*
*जिनसे, उपजे प्यार !!*
🌸 *सदा मुस्कराते रहें !* 🌸
       *🙏🏻सुप्रभात🙏🏻*
*शुभ-शुभ-वन्दन, अभिनन्दन*
🚩🇮🇳🚩जय हिंद🚩🇮🇳🚩
[1/22, 09:23] ओमीश: 🙏🌹शुभ-प्रभात🌹🙏
    🌺श्री मात्रे नमः🌺
शाहजहां को उसके बेटे औरंगजेब ने 7 वर्ष तक तक कारागार में रखा था।वह उनके पीने के लिए नपा-तुला पानी एक फूटी हुई मटकी में भेजता था । तब शाहजहाँ ने अपने बेटे औरंगजेब को पत्र लिखा जिसकी अंतिम पंक्तियां थी-

"ऐ पिसर तू अजब मुसलमानी
ब पिदरे जिंदा आब तरसानी।
आफरीन बाद हिंदवान सद बार
मैं देहदं पिदरे मुर्दारावा दायम आब॥"
                                                         
अर्थात् हे पुत्र! तू भी विचित्र मुसलमान है जो अपने जीवित पिता को पानी के लिए भी तरसा रहा है। शत शत बार प्रशंसनीय हैं वे *हिन्दू* जो अपने मृत पूर्वजो को भी पानी देते हैं...
[1/22, 09:37] ओमीश: क्या ऐसा संभव है कि जब आप किताब को सीधा पढ़े तो रामायण की कथा पढ़ी जाए और जब उसी किताब में लिखे शब्दों को उल्टा करके पढ़े
तो कृष्ण भागवत की कथा सुनाई दे।

जी हां, कांचीपुरम के 17वीं शदी के कवि वेंकटाध्वरि रचित ग्रन्थ "राघवयादवीयम्" ऐसा ही एक अद्भुत ग्रन्थ है।

इस ग्रन्थ को
‘अनुलोम-विलोम काव्य’ भी कहा जाता है। पूरे ग्रन्थ में केवल 30 श्लोक हैं। इन श्लोकों को सीधे-सीधे
पढ़ते जाएँ, तो रामकथा बनती है और
विपरीत (उल्टा) क्रम में पढ़ने पर कृष्णकथा। इस प्रकार हैं तो केवल 30 श्लोक, लेकिन कृष्णकथा के भी 30 श्लोक जोड़ लिए जाएँ तो बनते हैं 60 श्लोक।

पुस्तक के नाम से भी यह प्रदर्शित होता है, राघव (राम) + यादव (कृष्ण) के चरित को बताने वाली गाथा है ~ "राघवयादवीयम।"

उदाहरण के तौर पर पुस्तक का पहला श्लोक हैः

वंदेऽहं देवं तं श्रीतं रन्तारं कालं भासा यः ।
रामो रामाधीराप्यागो लीलामारायोध्ये वासे ॥ १॥

अर्थातः
मैं उन भगवान श्रीराम के चरणों में प्रणाम करता हूं, जो
जिनके ह्रदय में सीताजी रहती है तथा जिन्होंने अपनी पत्नी सीता के लिए सहयाद्री की पहाड़ियों से होते हुए लंका जाकर रावण का वध किया तथा वनवास पूरा कर अयोध्या वापिस लौटे।

विलोमम्:

सेवाध्येयो रामालाली गोप्याराधी भारामोराः ।
यस्साभालंकारं तारं तं श्रीतं वन्देऽहं देवम् ॥ १॥

अर्थातः
मैं रूक्मिणी तथा गोपियों के पूज्य भगवान श्रीकृष्ण के
चरणों में प्रणाम करता हूं, जो सदा ही मां लक्ष्मी के साथ
विराजमान है तथा जिनकी शोभा समस्त जवाहरातों की शोभा हर लेती है।

" राघवयादवीयम" के ये 60 संस्कृत श्लोक इस प्रकार हैं:-

राघवयादवीयम् रामस्तोत्राणि
वंदेऽहं देवं तं श्रीतं रन्तारं कालं भासा यः ।
रामो रामाधीराप्यागो लीलामारायोध्ये वासे ॥ १॥

विलोमम्:
सेवाध्येयो रामालाली गोप्याराधी भारामोराः ।
यस्साभालंकारं तारं तं श्रीतं वन्देऽहं देवम् ॥ १॥

साकेताख्या ज्यायामासीद्याविप्रादीप्तार्याधारा ।
पूराजीतादेवाद्याविश्वासाग्र्यासावाशारावा ॥ २॥

विलोमम्:
वाराशावासाग्र्या साश्वाविद्यावादेताजीरापूः ।
राधार्यप्ता दीप्राविद्यासीमायाज्याख्याताकेसा ॥ २॥

कामभारस्स्थलसारश्रीसौधासौघनवापिका ।
सारसारवपीनासरागाकारसुभूरुभूः ॥ ३॥

विलोमम्:
भूरिभूसुरकागारासनापीवरसारसा ।
कापिवानघसौधासौ श्रीरसालस्थभामका ॥ ३॥

रामधामसमानेनमागोरोधनमासताम् ।
नामहामक्षररसं ताराभास्तु न वेद या ॥ ४॥

विलोमम्:
यादवेनस्तुभारातासंररक्षमहामनाः ।
तां समानधरोगोमाननेमासमधामराः ॥ ४॥

यन् गाधेयो योगी रागी वैताने सौम्ये सौख्येसौ ।
तं ख्यातं शीतं स्फीतं भीमानामाश्रीहाता त्रातम् ॥ ५॥

विलोमम्:
तं त्राताहाश्रीमानामाभीतं स्फीत्तं शीतं ख्यातं ।
सौख्ये सौम्येसौ नेता वै गीरागीयो योधेगायन् ॥ ५॥

मारमं सुकुमाराभं रसाजापनृताश्रितं ।
काविरामदलापागोसमावामतरानते ॥ ६॥

विलोमम्:
तेन रातमवामास गोपालादमराविका ।
तं श्रितानृपजासारंभ रामाकुसुमं रमा ॥ ६॥

रामनामा सदा खेदभावे दया-वानतापीनतेजारिपावनते ।
कादिमोदासहातास्वभासारसा-मेसुगोरेणुकागात्रजे भूरुमे ॥ ७॥

विलोमम्:
मेरुभूजेत्रगाकाणुरेगोसुमे-सारसा भास्वताहासदामोदिका ।
तेन वा पारिजातेन पीता नवायादवे भादखेदासमानामरा ॥ ७॥

सारसासमधाताक्षिभूम्नाधामसु सीतया ।
साध्वसाविहरेमेक्षेम्यरमासुरसारहा ॥ ८॥

विलोमम्:
हारसारसुमारम्यक्षेमेरेहविसाध्वसा ।
यातसीसुमधाम्नाभूक्षिताधामससारसा ॥ ८॥

सागसाभरतायेभमाभातामन्युमत्तया ।
सात्रमध्यमयातापेपोतायाधिगतारसा ॥ ९॥

विलोमम्:
सारतागधियातापोपेतायामध्यमत्रसा ।
यात्तमन्युमताभामा भयेतारभसागसा ॥ ९॥

तानवादपकोमाभारामेकाननदाससा ।
यालतावृद्धसेवाकाकैकेयीमहदाहह ॥ १०॥

विलोमम्:
हहदाहमयीकेकैकावासेद्ध्वृतालया ।
सासदाननकामेराभामाकोपदवानता ॥ १०॥

वरमानदसत्यासह्रीतपित्रादरादहो ।
भास्वरस्थिरधीरोपहारोरावनगाम्यसौ ॥ ११॥
अवनीश

विलोमम्:
सौम्यगानवरारोहापरोधीरस्स्थिरस्वभाः ।
होदरादत्रापितह्रीसत्यासदनमारवा ॥ ११॥

यानयानघधीतादा रसायास्तनयादवे ।
सागताहिवियाताह्रीसतापानकिलोनभा ॥ १२॥

विलोमम्:
भानलोकिनपातासह्रीतायाविहितागसा ।
वेदयानस्तयासारदाताधीघनयानया ॥ १२॥

रागिराधुतिगर्वादारदाहोमहसाहह ।
यानगातभरद्वाजमायासीदमगाहिनः ॥ १३॥

विलोमम्:
नोहिगामदसीयामाजद्वारभतगानया ।
हह साहमहोदारदार्वागतिधुरागिरा ॥ १३॥

यातुराजिदभाभारं द्यां वमारुतगन्धगम् ।
सोगमारपदं यक्षतुंगाभोनघयात्रया ॥ १४॥

विलोमम्:
यात्रयाघनभोगातुं क्षयदं परमागसः ।
गन्धगंतरुमावद्यं रंभाभादजिरा तु या ॥ १४॥

दण्डकां प्रदमोराजाल्याहतामयकारिहा ।
ससमानवतानेनोभोग्याभोनतदासन ॥ १५॥

विलोमम्:
नसदातनभोग्याभो नोनेतावनमास सः ।
हारिकायमताहल्याजारामोदप्रकाण्डदम् ॥ १५॥

सोरमारदनज्ञानोवेदेराकण्ठकुंभजम् ।
तं द्रुसारपटोनागानानादोषविराधहा ॥ १६॥

विलोमम्:
हाधराविषदोनानागानाटोपरसाद्रुतम् ।
जम्भकुण्ठकरादेवेनोज्ञानदरमारसः ॥ १६॥

सागमाकरपाताहाकंकेनावनतोहिसः ।
न समानर्दमारामालंकाराजस्वसा रतम् ॥ १७॥

विलोमम्:
तं रसास्वजराकालंमारामार्दनमासन ।
सहितोनवनाकेकं हातापारकमागसा ॥ १७॥

तां स गोरमदोश्रीदो विग्रामसदरोतत ।
वैरमासपलाहारा विनासा रविवंशके ॥ १८॥

विलोमम्:
केशवं विरसानाविराहालापसमारवैः ।
ततरोदसमग्राविदोश्रीदोमरगोसताम् ॥ १८॥

गोद्युगोमस्वमायोभूदश्रीगखरसेनया ।
सहसाहवधारोविकलोराजदरातिहा ॥ १९॥

विलोमम्:
हातिरादजरालोकविरोधावहसाहस ।
यानसेरखगश्रीद भूयोमास्वमगोद्युगः ॥ १९॥

हतपापचयेहेयो लंकेशोयमसारधीः ।
राजिराविरतेरापोहाहाहंग्रहमारघः ॥ २०॥

विलोमम्:
घोरमाहग्रहंहाहापोरातेरविराजिराः ।
धीरसामयशोकेलं यो हेये च पपात ह ॥ २०॥

ताटकेयलवादेनोहारीहारिगिरासमः ।

हासहायजनासीतानाप्तेनादमनाभुवि  ॥ २१॥

विलोमम्:
विभुनामदनाप्तेनातासीनाजयहासहा ।
ससरागिरिहारीहानोदेवालयकेटता ॥ २१॥

भारमाकुदशाकेनाशराधीकुहकेनहा ।
चारुधीवनपालोक्या वैदेहीमहिताहृता ॥ २२॥

विलोमम्:
ताहृताहिमहीदेव्यैक्यालोपानवधीरुचा ।
हानकेहकुधीराशानाकेशादकुमारभाः ॥ २२॥

हारितोयदभोरामावियोगेनघवायुजः ।
तंरुमामहितोपेतामोदोसारज्ञरामयः ॥ २३॥

विलोमम्:
योमराज्ञरसादोमोतापेतोहिममारुतम् ।
जोयुवाघनगेयोविमाराभोदयतोरिहा ॥ २३॥

भानुभानुतभावामासदामोदपरोहतं ।
तंहतामरसाभक्षोतिराताकृतवासविम् ॥ २४॥

विलोमम्:
विंसवातकृतारातिक्षोभासारमताहतं ।
तं हरोपदमोदासमावाभातनुभानुभाः ॥ २४॥

हंसजारुद्धबलजापरोदारसुभाजिनि ।
राजिरावणरक्षोरविघातायरमारयम् ॥ २५॥

विलोमम्:
यं रमारयताघाविरक्षोरणवराजिरा ।
निजभासुरदारोपजालबद्धरुजासहम् ॥ २५॥

सागरातिगमाभातिनाकेशोसुरमासहः ।
तंसमारुतजंगोप्ताभादासाद्यगतोगजम् ॥ २६॥

विलोमम्:
जंगतोगद्यसादाभाप्तागोजंतरुमासतं ।
हस्समारसुशोकेनातिभामागतिरागसा ॥ २६॥

वीरवानरसेनस्य त्राताभादवता हि सः ।
तोयधावरिगोयादस्ययतोनवसेतुना ॥ २७॥

विलोमम्
नातुसेवनतोयस्यदयागोरिवधायतः ।
सहितावदभातात्रास्यनसेरनवारवी ॥ २७॥

हारिसाहसलंकेनासुभेदीमहितोहिसः ।
चारुभूतनुजोरामोरमाराधयदार्तिहा ॥ २८॥

विलोमम्
हार्तिदायधरामारमोराजोनुतभूरुचा ।
सहितोहिमदीभेसुनाकेलंसहसारिहा ॥ २८॥

नालिकेरसुभाकारागारासौसुरसापिका ।
रावणारिक्षमेरापूराभेजे हि ननामुना ॥ २९॥

विलोमम्:
नामुनानहिजेभेरापूरामेक्षरिणावरा ।
कापिसारसुसौरागाराकाभासुरकेलिना ॥ २९॥

साग्र्यतामरसागारामक्षामाघनभारगौः ॥
निजदेपरजित्यास श्रीरामे सुगराजभा ॥ ३०॥

विलोमम्:
भाजरागसुमेराश्रीसत्याजिरपदेजनि ।स
गौरभानघमाक्षामरागासारमताग्र्यसा ॥ ३०॥

॥ इति श्रीवेङ्कटाध्वरि कृतं श्री  ।।

कृपया अपना थोड़ा सा कीमती वक्त निकाले और उपरोक्त श्लोको को गौर से अवलोकन करें की दुनिया में कहीं भी ऐसा नही पाया गया ग्रंथ है ।

शत् शत् प्रणाम ऐसे रचनाकार को 🙏
[1/22, 10:21] ‪+91 98878 72076‬: रूखी सूखी  बातों से टूट गया
जगमग जगदीपों से रूठ गया
मीठी मीठी बातों से ऊब गया!
अब तोड़ सभी द्वारों के ताले आ! मन के द्वार सखे!
                           ज्योत्सने! कमनीय चरण धर दे!

विकच  पँखुड़ी  सा  तेरा  तन
दीप  शिखा  सा  तेरा   यौवन
फैले सुषमा सुदूर क्षितिज बन
तोड़  व्योम  की  सीमा बैरन आ! पैदल पाँव  सखे!
                          ज्योत्सने! कमनीय चरण धर दे!

हृदयस्थित  कवि  राग अलापे
कोयल   भी  सुन गीत  सुनावे
थका पथिक अब छाँव निहारे
तोड़ रवि का मान निकल आ!बलखाती चाल सखे!
                          ज्योत्सने! कमनीय चरण धर दे!

कण-कण पल-पल नाच उठे
ताली  देकर  वह  थिरक उठे
थरथर कम्पन निशि में  जागे
नीरवरजनी का मौन तोड़ आ! गाती भैरवराग सखे!
                         ज्योत्सने! कमनीय  चरण  धर दे!

जल  बूँद  में  सागर   नहीं  मिला
नही व्योम का अंतिम छोर दिखा
नही शून्य  में सच का भान हुआ!
देखें मधुवन में राह अपलक आ! यमुना घाट सखे!
                        ज्योत्सने! कमनीय  चरण धर दे!

साँसों के तार  झंकृत हो जाये
देख  जिसे  यह  मन सकुचाये
मधुहासिनी पर ये मुँह फुलाये
रहे मिश्री जल में घुल मिलकर आ! भूली याद सखे!
                        ज्योत्सने! कमनीय   चरण  धर दे!

सम्पुटिता तारुण्य रूप रस भरी
दबे    पाँव  भूभृत्  से   निकली
आह!  निराली   सुषमा    कैसी?
रहा छिपा पन्नों में स्वर्ग आ!धरती पर विस्तार सखे!
                       ज्योत्सने! कमनीय   चरण धर  दे!

दूब   बिछी   थी  वन में  सुनहरी
कळ कळकळ जलधार है बहती
जो याचे ज्यों शशधर की कौमुदी
खिले पुष्प कलियाँ जाग आ!'दर्शन' की आश सखे!
                      ज्योत्सने!  कमनीय  चरण   धर  दे!

ऊँचे  अद्रि पाषाण खण्ड पर
गिरती कौमुदी जब लहराकर
बने रजत  पाषाण खण्ड नव
चमक उठे बिखरे कंकड़ आ! रैना बीती जाये सखे!
                      ज्योत्सने! कमनीय  चरण  धर   दे!

यह जीव ललाम सी बूँद क्षणिक
उठती सागर से मिलती एकक्षण
अटल  सत्य  सागर  है प्रतिक्षण
निजऔर औरों की बातों में आ!थोड़ीदूरी न्यून करें!
                      ज्योत्सने!  कमनीय  चरण धर   दे!

आपका सुहृद्- नीतिन् मिश्र "दर्शन"

कृपया मूलरूप में प्रेषित करें।

सर्वेभ्यो नमः। वन्दे वाणीविनायकौ।
🙏🏻🙏🏻🙏🏻
[1/22, 10:24] पं अर्चना जी: *धर्मस्य दुर्लभो ज्ञाता*
         *सम्यक् वक्ता ततोऽपि च ।*
*श्रोता ततोऽपि श्रद्धावान्*
         *कर्ता कोऽपि ततः सुधीः ॥*

       धर्म को जानने वाला दुर्लभ होता है, उसे श्रेष्ठ तरीके से बताने वाला उससे भी दुर्लभ, श्रद्धा से सुनने वाला उससे दुर्लभ, और धर्म का आचरण करने वाला सुबुद्धिमान सबसे दुर्लभ है।
         *🌹जय श्री राम🌹*
     🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹
[1/22, 10:38] पं अनिल ब: परस्तस्मात्तु भावोऽन्योऽव्यक्तोऽव्यक्तात्सनातनः।
यः स सर्वेषु भूतेषु नश्यत्सु न विनश्यति॥

उस अव्यक्त से भी अति परे दूसरा अर्थात विलक्षण जो सनातन अव्यक्त भाव है, वह परम दिव्य पुरुष सब भूतों के नष्ट होने पर भी नष्ट नहीं होता
॥20॥
जय महाँकाल

💐💐💐सुप्रभातम्💐💐💐
[1/22, 12:15] ओमीश: पाँच तत्व का कोड है भगवान जिससे यह ब्रह्माण्ड बना।
👇👇👇👇👇
भ + ग + व + अ+ न
भूमि- पृथ्वी
गगन- आकाश
वायु- हवा
अग्नि- आग
नीर- पानी
क्या अब भी कोई है जिसने भगवान को देखा अथवा जाना नही?
अब जब हम अपने अन्दर झांक कर देखेंगे भगवान नज़र भी आएगा और महसूस भी होगा !
          आचार्य ओमीश ✍
        09699662944
[1/22, 12:57] ‪+91 98879 63775‬: नमः समस्तभूतानामादिभूताय भूभृते। अनेकरुपरुपाय विष्णवे प्रभविष्णवे ।। 💐🌸🌷🌹🌺💐 🙏🏻🙏🏻
[1/22, 12:57] ‪+91 98879 63775‬: *"पाप हमारी सोच से होता हैं,*
          *शरीर से नही*
                *और*
        *तीर्थों का जल,*
*हमारे शरीर को साफ करता हैं,*
       *हमारी सोच को नही।"*
             🙏🏻 🙏🏻
[1/22, 16:10] P Alok Ji: *समुझत सरिस नाम अरु नामी। प्रीति परसपर प्रभु अनुगामी॥
नाम रूप दुइ ईस उपाधी। अकथ अनादि सुसामुझि साधी॥

भावार्थ:-समझने में नाम और नामी दोनों एक से हैं, किन्तु दोनों में परस्पर स्वामी और सेवक के समान प्रीति है (अर्थात्‌ नाम और नामी में पूर्ण एकता होने पर भी जैसे स्वामी के पीछे सेवक चलता है, उसी प्रकार नाम के पीछे नामी चलते हैं। प्रभु श्री रामजी अपने 'राम' नाम का ही अनुगमन करते हैं (नाम लेते ही वहाँ आ जाते हैं)। नाम और रूप दोनों ईश्वर की उपाधि हैं, ये (भगवान के नाम और रूप) दोनों अनिर्वचनीय हैं, अनादि हैं और सुंदर (शुद्ध भक्तियुक्त) बुद्धि से ही इनका (दिव्य अविनाशी) स्वरूप जानने में आता है॥
[1/22, 18:09] पं अनिल ब: 👌🏼 *पतन का कारण* :

श्री अर्जुन जी ने एक रात को स्वप्न में देखा कि, एक गाय अपने नवजात बछड़े को प्रेम से चाट रही है।  चाटते-चाटते वह गाय, उस बछड़े की कोमल खाल को छील देती है । उसके शरीर से रक्त निकलने लगता है । और वह बेहोश होकर, नीचे गिर जाता है। श्री अर्जुन ने प्रातः यह स्वप्न,जब भगवान श्री कृष्ण को बताते हैं । तो, भगवान कहते हैं कि :-

यह स्वप्न, पंचमकाल (कलियुग) का लक्षण है ।

कलियुग में *माता-पिता, अपनी संतान को,इतना प्रेम करेंगे, उन्हें सुविधाओं का इतना व्यसनी बना देंगे कि, वे उनमें डूबकर, अपनी ही हानि कर बैठेंगे। सुविधा, भोगी और कुमार्ग - गामी बनकर विभिन्न अज्ञानताओं में फंसकर अपने होश गँवा देंगे।*

आजकल हो भी यही रहा है। माता पिता अपने बच्चों को, मोबाइल, बाइक, कार, कपड़े, फैशन की सामग्री और पैसे उपलब्ध करा देते हैं । बच्चों का चिंतन, इतना विषाक्त हो जाता है कि, वो माता-पिता से झूठ बोलना, बातें छिपाना,बड़ों का अपमान करना आदि सीख जाते
हैं ।

☝🏼 *याद रखियेगा* ! 👇🏽

संस्कार दिये बिना सुविधायें देना, पतन का कारण है।
जय महाँकाल🙏🏼💐🙏🏼
आचार्य अनिल पाण्डेय
उपाध्यक्ष
धर्मार्थ वार्ता समाधान संघ
[1/22, 20:19] P Alok Ji: संसार मे प्रत्येक प्राणी सांसारिक प्रवृत्तियो मेँ उलझा रहता है , उन्हीँ प्रवृत्तियोँ मेँ वह भौतिक सुख का अनुभव करता है । इसलिए वह अपने आपको सजाकर रखना चाहता है और दूसरो के समक्ष स्वयं को आकर्षक सिद्ध करना चाहता है अर्थात् आत्मा की अपेक्षा शरीर को अधिक महत्व देता है । विभिन्न आभूषणोँ को धारण करता है . परन्तु ये आभूषण तो नष्ट हो जाते हैँ । सच्चा आभूषण तो मधुर वाणी है , जो कभी भी नष्ट नहीँ होती है । मधुर वाणी तो ऐसा आभूषण है जिसके कारण उसकी शोभा तो बढ़ती ही है साथ समाज मेँ भी सम्मान और प्रतिष्ठा को भी अर्जित करता है ।।
[1/22, 20:30] पं ऊषा जी: स्वागतम् 🌷💐
[1/22, 20:30] पं ऊषा जी: पुनः मा गच्छतु। यह बहुत ही दुःखदायक है।
[1/22, 20:33] ‪+91 94751 18880‬: धर्मः इत्यस्य का व्युत्पत्तिः किञ्च लिङ्गम्। ज्ञातुकामोsहम्।
[1/22, 20:34] पं ऊषा जी: भ्राता समाधान दे।😊💐
[1/22, 20:35] ‪+91 94751 18880‬: न जानामि। अज्ञानतः पृच्छामि मान्याः!
[1/22, 20:38] पं ऊषा जी: धर्म्मः, पुं क्ली, (धरति लोकान् ध्रियते पुण्यात्मभि-रिति वा । धृ + “अर्त्तिस्तुहुस्रिति ।” उणां १ । १३९ । इति मन् ।) शुभादृष्टम् ।
[1/22, 20:41] ‪+91 94751 18880‬: कुत्रापि क्लीवे प्रयोगे चेत् दर्शयतु
[1/22, 20:52] ‪+91 94751 18880‬: व्यर्थता किल वैराग्यस्य कारणम् ???
[1/22, 20:55] पं ऊषा जी: पर अन्यत्र यही श्लोक धर्म शब्द को पुल्लिङ्ग में दर्शा रहा है।
[1/22, 21:00] पं ऊषा जी: क्षमा। वैराग्य शब्द से आप क्या समझ रहे हैं??
[1/22, 21:01] पं विजय जी: ऋषि परम्परा के महान ऋषियों, एवम् सप्त ऋषियों के बारे में महत्त्वपूर्ण जानकारी
°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°
यह बातें हमें अपने पावनी ऋषि कुल की हम भारतीय को जानना अत्यन्त जरूरी है, ये जानकारी दुर्लभ भी है, हमें गर्व होना चाहिए कि हमारे पावन धरा पर कैसे-कैसे ऋषियों ने अवतार लिया।  

ऋग्वेद के प्रसिद्ध ऋषि अंगिरा ब्रह्मा के पुत्र थे, उनके पुत्र बृहस्पति देवताओं के गुरु थे, ऋग्वेद के अनुसार, ऋषि अंगिरा ने सर्वप्रथम अग्नि उत्पन्न की थी, गायत्री मंत्र का ज्ञान देने वाले विश्वामित्र वेदमंत्रों के सर्वप्रथम द्रष्टा माने जाते हैं, आयुर्वेदाचार्य सुश्रुत इनके पुत्र थे, विश्वामित्र की परंपरा पर चलने वाले ऋषियों ने उनके नाम को धारण किया, यह परंपरा अन्य ऋषियों के साथ भी चलती रही।

ऋग्वेद के मंत्रद्रष्टा और गायत्री मंत्र के महान साधक वशिष्ठ सप्तऋषियों में से एक थे, उनकी पत्नी अरुंधती वैदिक कर्मो में उनकी सहभागी थीं, मारीच ऋषि के पुत्र और आर्य नरेश दक्ष की तेरह कन्याओं के पुत्र थे, स्कंद पुराण के केदारखंड के अनुसार, इनसे देव, असुर और नागों की उत्पत्ति हुई।

भृगुपुत्र यमदग्नि ने गोवंश की रक्षा पर ऋग्वेद के सोलह मंत्रों की रचना की है। केदारखंड के अनुसार, वे आयुर्वेद और चिकित्साशास्त्र के भी विद्वान थे, सप्तर्षियों में एक ऋषि अत्रि ऋग्वेद के पांचवें मंडल के अधिकांश सूत्रों के ऋषि थे, वे चंद्रवंश के प्रवर्तक थे, महर्षि अत्रि आयुर्वेद के आचार्य भी थे।

अत्रि एवं अनुसुइया के द्वारा अपाला एवं पुनर्वसु का जन्म हुआ, अपाला द्वारा ऋग्वेद के सूक्त की रचना की गई, पुनर्वसु भी आयुर्वेद के प्रसिद्ध आचार्य हुए, ऋग्वेद के मंत्र द्रष्टा ये ऋषि धर्म और मातामूर्ति देवी के पुत्र थे, नर और नारायण दोनों भागवत धर्म तथा नारायण धर्म के मूल प्रवर्तक थे।

ऋषि वशिष्ठ के पुत्र पराशर कहलाए, जो पिता के साथ हिमालय में वेदमंत्रों के द्रष्टा बने। ये महर्षि व्यास के पिता थे, बृहस्पति के पुत्र भारद्वाज ने 'यंत्र सर्वस्व' नामक ग्रंथ की रचना की थी, जिसमें विमानों के निर्माण, प्रयोग एवं संचालन के संबंध में विस्तारपूर्वक वर्णन है, ये आयुर्वेद के ऋषि थे तथा धन्वंतरि इनके शिष्य थे।

आकाश में सात तारों का एक मंडल नजर आता है, उन्हें सप्तर्षियों का मंडल कहा जाता है, उक्त मंडल के तारों के नाम भारत के महान सात संतों के आधार पर ही रखे गए हैं, वेदों में उक्त मंडल की स्थिति, गति, दूरी और विस्तार की विस्तृत चर्चा मिलती है, प्रत्येक मनवंतर में सात सात ऋषि हुए हैं।

मैं आपको बताने जा रहा हूँ वैवस्तवत मनु के काल में जन्में, सात महान ‍ऋषियों का संक्षिप्त परिचय, ऋग्वेद में लगभग एक हजार सूक्त हैं, लगभग दस हजार मन्त्र हैं, चारों वेदों में करीब बीस हजार हैं, और इन मन्त्रों के रचयिता कवियों को हम ऋषि कहते हैं, बाकी तीन वेदों के मन्त्रों की तरह ऋग्वेद के मन्त्रों की रचना में भी अनेकानेक ऋषियों का योगदान रहा है।

पर इनमें भी सात ऋषि ऐसे हैं जिनके कुलों में मन्त्र रचयिता ऋषियों की एक लम्बी परम्परा रही, ये कुल परंपरा ऋग्वेद के सूक्त दस मंडलों में संग्रहित हैं, और इनमें दो से सात यानी छह मंडल ऐसे हैं जिन्हें हम परम्परा से वंशमंडल कहते हैं, क्योंकि इनमें छह ऋषिकुलों के ऋषियों के मन्त्र इकट्ठा कर दिए गए हैं।

वेदों का अध्ययन करने पर जिन सात ऋषियों या ऋषि कुल के नामों का पता चलता है, वे हैं वशिष्ठजी, विश्वामित्रजी,कण्व ऋषि, भारद्वाजजी, अत्रि ऋषि, वामदेवजी और शौनकजी, पुराणों में सप्त ऋषि के नाम पर भिन्न-भिन्न नामावली मिलती है, विष्णु पुराण के अनुसार इस मन्वन्तर के सप्तऋषि इस प्रकार है।

वशिष्ठकाश्यपो यात्रिर्जमदग्निस्सगौत।
विश्वामित्रभारद्वजौ सप्त सप्तर्षयोभवन्।।

अर्थात् सातवें मन्वन्तर में सप्तऋषि इस प्रकार हैं- वशिष्ठजी, कश्यपजी, अत्रिजी, जमदग्निजी, गौतम ऋषि, विश्वामित्रजी और भारद्वाजजी, इसके अलावा पुराणों की अन्य नामावली इस प्रकार है- ये क्रमशः केतु, पुलह, पुलस्त्य, अत्रि, अंगिरा, वशिष्ट तथा मारीचि है।

महाभारत में सप्तर्षियों की दो नामावलियां मिलती हैं, एक नामावली में कश्यप, अत्रि, भारद्वाज, विश्वामित्र, गौतम, जमदग्नि और वशिष्ठ के नाम आते हैं, तो दूसरी नामावली में पांच नाम बदल जाते हैं, कश्यप और वशिष्ठ वहीं रहते हैं पर बाकी के बदले मरीचि, अंगिरस, पुलस्त्य, पुलह और क्रतु नाम आ जाते हैं।

कुछ पुराणों में कश्यप और मरीचि को एक माना गया है तो कहीं कश्यप और कण्व को पर्यायवाची माना गया है, मैं आपको बताने जा रहा हूँ- वैदिक नामावली के अनुसार सप्तऋषियों का परिचय।

राजा दशरथ के कुलगुरु ऋषि वशिष्ठ को कौन नहीं जानता, ये दशरथ के चारों पुत्रों के गुरु थे, वशिष्ठ के कहने पर दशरथ ने अपने दो पुत्रों को ऋषि विश्वामित्र के साथ आश्रम में राक्षसों का वध करने के लिए भेज दिया था।

कामधेनु गाय के लिए वशिष्ठ और विश्वामित्र में युद्ध भी हुआ था, वशिष्ठ ने राजसत्ता पर अंकुश का विचार दिया तो उन्हीं के कुल के मैत्रावरूण वशिष्ठ ने सरस्वती नदी के किनारे सौ सूक्त एक साथ रचकर नया इतिहास बनाया।

ऋषि होने के पूर्व विश्वामित्र राजा थे, और ऋषि वशिष्ठ से कामधेनु गाय को हड़पने के लिए उन्होंने युद्ध किया था, लेकिन वे हार गये, इस हार ने ही उन्हें घोर तपस्या के लिए प्रेरित किया, विश्वामित्र की तपस्या और मेनका द्वारा उनकी तपस्या भंग करने की कथा जगत प्रसिद्ध है।

विश्वामित्र ने अपनी तपस्या के बल पर त्रिशंकु को सशरीर स्वर्ग भेज दिया था। इस तरह ऋषि विश्वामित्र के असंख्य किस्से हैं, माना जाता है कि हरिद्वार में आज जहां शांतिकुंज हैं उसी स्थान पर विश्वामित्र ने घोर तपस्या करके इंद्र से रुष्ठ होकर एक अलग ही स्वर्ग लोक की रचना कर दी थी।

विश्वामित्र ने इस देश को ऋचा बनाने की विद्या दी, और गायत्री मन्त्र की रचना की जो भारत के हृदय में और जिह्ना पर हजारों सालों से आज तक अनवरत निवास कर रहा है।

माना जाता है इस देश के सबसे महत्वपूर्ण यज्ञ सोमयज्ञ को कण्वों ने व्यवस्थित किया, कण्व वैदिक काल के ऋषि थे, इन्हीं के आश्रम में हस्तिनापुर के राजा दुष्यंत की पत्नी शकुंतला एवं उनके पुत्र भरत का पालन-पोषण हुआ था।

वैदिक ऋषियों में भारद्वाज-ऋषि का उच्च स्थान है, भारद्वाज के पिता बृहस्पति और माता ममता थीं, भारद्वाज ऋषि राम के पूर्व हुए थे, लेकिन एक उल्लेख अनुसार उनकी लंबी आयु का पता चलता है कि वनवास के समय श्रीराम इनके आश्रम में गए थे, जो ऐतिहासिक दृष्टि से त्रेता-द्वापर का सन्धिकाल था।

माना जाता है कि भरद्वाजों में से एक भारद्वाज विदथ ने दुष्यन्त पुत्र भरत का उत्तराधिकारी बन राजकाज करते हुए मन्त्र रचना जारी रखी, ऋषि भारद्वाज के पुत्रों में दस ऋषि ऋग्वेद के मन्त्रदृष्टा हैं, और एक पुत्री जिसका नाम 'रात्रि' था, वह भी रात्रि सूक्त की मन्त्रदृष्टा मानी गई हैं।

ॠग्वेद के छठे मण्डल के द्रष्टा भारद्वाज ऋषि हैं, इस मण्डल में भारद्वाज के 765 मन्त्र हैं, अथर्ववेद में भी भारद्वाज के 23 मन्त्र मिलते हैं, 'भारद्वाज-स्मृति' एवं 'भारद्वाज-संहिता' के रचनाकार भी ऋषि भारद्वाज ही थे, ऋषि भारद्वाज ने 'यन्त्र-सर्वस्व' नामक बृहद् ग्रन्थ की रचना की थी।

इस ग्रन्थ का कुछ भाग स्वामी ब्रह्ममुनि ने 'विमान-शास्त्र' के नाम से प्रकाशित कराया है, इस ग्रन्थ में उच्च और निम्न स्तर पर विचरने वाले विमानों के लिए विविध धातुओं के निर्माण का वर्णन मिलता है।

ऋग्वेद के पंचम मण्डल के द्रष्टा महर्षि अत्रि ब्रह्मा के पुत्र, सोम के पिता और कर्दम प्रजापति व देवहूति की पुत्री अनुसूया के पति थे, अत्रि जब बाहर गए थे तब त्रिदेव अनसूया के घर ब्राह्मण के भेष में भिक्षा मांगने लगे और अनुसूया से कहा कि जब आप अपने संपूर्ण वस्त्र उतार देंगी तभी हम भिक्षा स्वीकार करेंगे।

तब अनुसूया ने अपने सतित्व के बल पर उक्त तीनों देवों को अबोध बालक बनाकर उन्हें भिक्षा दी, माता अनुसूया ने देवी सीता को पतिव्रत का उपदेश दिया था, अत्रि ऋषि ने इस देश में कृषि के विकास में पृथु और ऋषभ की तरह योगदान दिया था।

अत्रि कुल के ही सिन्धु पार करके पारस (आज का ईरान) चले गए थे, जहां उन्होंने यज्ञ का प्रचार किया, अत्रियों के कारण ही अग्निपूजकों के धर्म पारसी धर्म का सूत्रपात हुआ, अत्रि ऋषि का आश्रम चित्रकूट में था।

मान्यता है कि अत्रि-दम्पति की तपस्या और त्रिदेवों की प्रसन्नता के फलस्वरूप विष्णु के अंश से महायोगी दत्तात्रेय, ब्रह्मा के अंश से चन्द्रमा तथा शंकर के अंश से महामुनि दुर्वासा महर्षि अत्रि एवं देवी अनुसूया के पुत्र रूप में जन्मे, ऋषि अत्रि पर अश्विनीकुमारों की भी कृपा थी।

वामदेव ने इस देश को सामगान (अर्थात् संगीत) दिया, वामदेव ऋग्वेद के चतुर्थ मंडल के सूत्तद्रष्टा, गौतम ऋषि के पुत्र तथा जन्मत्रयी के तत्ववेत्ता माने जाते है

शौनक ऋषि ने दस हजार विद्यार्थियों के गुरुकुल को चलाकर कुलपति का विलक्षण सम्मान हासिल किया, और किसी भी ऋषि ने ऐसा सम्मान पहली बार हासिल किया, वैदिक आचार्य और ऋषि जो शुनक ऋषि के पुत्र थे।

फिर से बताएं तो वशिष्ठ, विश्वामित्र, कण्व, भरद्वाज, अत्रि, वामदेव और शौनक- ये हैं वे सात ऋषि जिन्होंने इस देश को इतना कुछ दे दिया कि कृतज्ञ देश ने इन्हें आकाश के तारामंडल में बिठाकर एक ऐसा अमरत्व दे दिया कि सप्तर्षि शब्द सुनते ही हमारी कल्पना आकाश के तारामंडलों पर टिक जाती है।

इसके अलावा मान्यता हैं कि अगस्त्य, कष्यप, अष्टावक्र, याज्ञवल्क्य, कात्यायन, ऐतरेय, कपिल, जेमिनी, गौतम आदि सभी ऋषि उक्त सात ऋषियों के कुल के होने के कारण इन्हें भी वही दर्जा प्राप्त है।
•°•°•°•°•°•°•°•°•°•°•°•°•°•°•°•°•°•°•°•°•°•°•°•

No comments:

Post a Comment