।।श्रीमते रामानुजाय नमः।।
श्रीमद्भागवत महापुराणम् : प्रथम स्कन्धः
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अथ पञ्चदशोऽध्यायः
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श्रीकृष्ण के विरह से पूर्व से ही दुखी अर्जुन से युधिष्ठिर का भिन्न-भिन्न प्रकार की आशंकाओं से युक्त प्रश्न करना और रोते-विलखते हुए अर्जुन का उत्तर देना
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सूत उवाच –
एवं कृष्णसखः कृष्णो भ्रात्रा राज्ञा विकल्पितः।
नानाशङ्कास्पदं रूपं कृष्णविश्लेषकर्शितः।। 1
सूतजी कहते हैं –
भगवान् श्रीकृष्ण के प्यारे सखा अर्जुन एक तो पहले ही श्रीकृष्ण के विरह से कृश हो रहे थे, उस पर राजा युधिष्ठिर ने उनकी विषादग्रस्त मुद्रा देखकर उसके विषय में कई प्रकार की आशंकाएँ करते हुए प्रश्नों की झड़ी लगा दी ।
शोकेन शुष्यद्वदनहृत्सरोजो हतप्रभः।
विभुं तमेवानुस्मरन्नाशक्नोत्प्रतिभाषितुम्।। 2
शोक से अर्जुन का मुख और हृदय - कमल सूख गया था , चेहरा फीका पड़ गया था। वे उन्हीं भगवान् श्रीकृष्ण के ध्यान में ऐसे डूब रहे थे कि बड़े भाई के प्रश्नों का कुछ भी उत्तर न दे सके ।
कृच्छ्रेण संस्तभ्य शुचः पाणिनाSमृज्य नेत्रयोः।
परोक्षेण समुन्नद्ध प्रणयौत्कण्ठ्यकातरः।। 3
सख्यं मैत्रीं सौहृदं च सारथ्यादिषु संस्मरन्।
नृपमग्रजमित्याह बाष्पगद्गदया गिरा ।। 4
श्रीकृष्ण की आँखों से ओझल हो जाने के कारण अर्जुन बढ़ी हुई प्रेमजनित उत्कंठा के परवश हो रहे थे। रथ हाँकने, टहलने आदि के समय भगवान् ने उनके साथ जो मित्रता , अभिन्नहृदयता और प्रेम से भरे हुए व्यवहार किये थे, उनकी याद-पर-याद आ रही थी ; बड़े कष्ट से उन्होंने अपने शोक का वेग रोका, हाथ से नेत्रों के आँसू पोंछे और फिर रुँधे हुए गले से अपने बड़े भाई महाराज युधिष्ठिर से कहा –
अर्जुन उवाच–
वञ्चितोऽहं महाराज हरिणा बन्धुरूपिणा।
येन मेऽपहृतं तेजो देवविस्मापनं महत् ।।5
अर्जुन बोले –
महाराज ! मेरे ममेरे भाई अथवा अत्यन्त घनिष्ठ मित्र का रूप धारणकर श्रीकृष्ण ने मुझे ठग लिया। मेरे जिस प्रबल पराक्रम से बड़े -बड़े देवता भी आश्चर्य में डूब जाते थे, उसे श्रीकृष्ण ने मुझसे छीन लिया ।
यस्य क्षणवियोगेन लोको ह्यप्रियदर्शनः।
उक्थेन रहितो ह्येष मृतकः प्रोच्यते यथा।। 6
जैसे यह शरीर प्राण से रहित होने पर मृतक कहलाता है, वैसे ही उनके क्षणभर के वियोग से यह संसार अप्रिय दीखने लगता है ।
यत्संश्रयाद्द्रुपदगेहमुपागतानां
राज्ञां स्वयंवरमुखे स्मरदुर्मदानाम्।
तेजो हृतं खलु मयाभिहतश्च मत्स्यः
सज्जीकृतेन धनुषाधिगता च कृष्णा।। 7
उनके आश्रय से द्रौपदी-स्वयंवर में राजा द्रुपद के घर आये हुए कामोन्मत्त राजाओं का तेज मैंने हरण कर लिया, धनुष पर बाण चढ़ाकर मत्स्यवेध किया और इस प्रकार द्रौपदी को प्राप्त किया था ।
यत्सन्निधावहमु खाण्डवमग्नयेऽदामिन्द्रं
च सामरगणं तरसा विजित्य।
लब्धा सभा मयकृताद्भुतशिल्पमाया दिग्भ्योऽहरन्नृपतयो बलिमध्वरे ते ।।8
श्रीकृष्ण की सन्निधिमात्र से मैंने समस्त देवताओं के साथ इन्द्र को अपने बल से जीतकर अग्निदेव को उनकी तृप्ति के लिए खाण्डव वन का दान कर दिया और मय दानव की निर्माण की हुई अलौकिक कलाकौशल से युक्त मायामयी सभा प्राप्त की और आपके यज्ञ में सब ओर से आ -आकर राजाओं ने अनेकों प्रकार की भेंटें समर्पित कीं ।
क्रमशः..........
–रमेशप्रसाद शुक्ल
–जय श्रीमन्नारायण।
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