Wednesday, August 31, 2016

कर्म स्वयं जड़ होते हैं

कर्म स्वयं जड़ होते हैं, कर्ता को उसकी भावना के अनुसार कर्म का फल मिलता है, ' ऐसा समझना कर्मों को अखिल रूप से, सम्पूर्ण रूप से जानना होगा।
कर्म को पता नहीं कि वह कर्म है, शरीर को पता नहीं कि वह शरीर है, मकान को पता नहीं कि वह मकान है, यज्ञ को पता नहीं कि वह यज्ञ है, क्यों? क्योंकि सब जड़ हैं लेकिन कर्ता जिस भावना, जिस विधि से जो-जो कार्य करता है, उसे वैसा-वैसा फल मिलता है।
किसी दुष्ट ने आपको चाकू दिखा दिया तो आप थाने में उसके खिलाफ शिकायत करते हैं, कोई आपको केवल मारने की धमकी देता है तब भी आप उसके विरुद्ध शिकायत करते हैं, लेकिन डॉक्टर न आपको धमकी देता है, न चाकू दिखाता है बल्कि चाकू से आपके शरीर की काट-छाँट करता है, फिर भी आप उसे 'फीस' देते हैं क्यों? क्योंकि उसका उद्देश्य अच्छा था, उद्देश्य था मरीज को ठीक करना, न कि बदला लेना, ऐसे ही आप भी अपने कर्मों का उद्देश्य बदल दो।
आप भोजन बनाओ लेकिन मजा लेने के लिए नहीं, बल्कि ठाकुरजी को प्रसन्न करने के लिए बनाओ, परिवार के लिए, पति के लिए, बच्चों के लिए भोजन बनाओगी तो वह आपका व्यवहारिक कर्तव्य हो जायेगा लेकिन 'परिवारवालों की, पति की और बच्चों की गहराई में मेरा परमेश्वर है, ' ऐसा समझकर परमेश्वर की प्रसन्नता के लिए भोजन बनाओगी तो वह बंदगी हो जायेगा, पूजा हो जायेगा, मुक्ति दिलाने वाला हो जायेगा।
वस्त्र पहनो तो शरीर की रक्षा के लिए, मर्यादा की रक्षा के लिए पहनो, यदि मजा लेने के लिए, फैशन के लिए वस्त्र पहनोगे, आवारा होकर घूमते फिरोगे तो वस्त्र पहनने का कर्म भी बंधनकारक हो जायेगा।
इसी प्रकार बेटे को खिलाया-पिलाया, पढ़ाया-लिखाया, यह तो ठीक है, लेकिन 'बड़ा होकर बेटा मुझे सुख देगा' ऐसा भाव रखोगे तो यह आपके लिए बंधन हो जायेगा।
सुख का आश्रय न लो, कर्म तो करो कर्तव्य समझकर करोगे तो ठीक है लेकिन ईश्वर की प्रीति के लिए कर्म करोगे तो कर्म, कर्म न रहेगा, साधना हो जायेगा, पूजा हो जायेगा।
कल्पना करो, दो व्यक्ति क्लर्क की नौकरी करते हैं और दोनों को तीन-चार हजार रूपये मासिक वेतन मिलता है, एक कर्म करने की कला जानता है और दूसरा कर्म को बंधन बना देता है, उसके घर बहन आयी दो बच्चों को लेकर, पति के साथ उसकी अनबन हो गयी है, वह बोलता है, "एक तो महँगाई है, ५०० रुपये मकान का किराया है, बाकी दूध का बिल, लाइट का बिल, बच्चों को पढ़ाना और यह आ गयी दो बच्चों को लेकर? मैं तो मर गया..." इस तरह वह दिन-रात दुःखी होता रहता है, कभी अपने बच्चों को मारता है, कभी पत्नी को आँखें दिखाता है, कभी बहन को सुना देता है, वह खिन्न होकर कर्म कर रहा है, मजदूरी कर रहा है और बंधन में पड़ रहा है।
दूसरे व्यक्ति के पास उसकी बहन दो बच्चों को लेकर आयी, वह कहता हैः "बहन ! तुम संकोच मत करना, अभी जीजाजी का मन ऐसा-वैसा है तो कोई बात नहीं, जीजाजी का घर भी तुम्हारा है और यह घर भी तुम्हारा ही है, भाई भी तुम्हारा ही है।"
बहनः "भैया ! मैं आप पर बोझ बनकर आ गयी हूँ।"
भाईः "नहीं-नहीं, बोझ किस बात का? तू तो दो रोटी ही खाती है और काम में कितनी मदद करती है ! तेरे बच्चों को भी देख, मुझे 'मामा-मामा' बोलते हैं, कितनी खुशी देते हैं, महँगाई है तो क्या हुआ? मिल-जुलकर खाते हैं। ये दिन भी बीत जायेंगे। बहन तू संकोच मत करना और ऐसा मत समझना कि भाई पर बोझ पड़ता है, बोझ-वोझ क्या है? यह भी भगवान ने अवसर दिया है सेवा करने का।"
यह व्यक्ति बहन की दुआ ले रहा है, पत्नी का धन्यवाद ले रहा है, माँ का आशीर्वाद ले रहा है और अपनी अंतरात्मा का संतोष पा रहा है, पहला व्यक्ति जल भुन रहा है, माता की लानत ले रहा है, पत्नी की दुत्कार ले रहा है और बहन की बद्दुआ ले रहा है।
कर्म तो दोनों एक सा ही कर रहे हैं लेकिन एक प्रसन्न होकर, ईश्वर की सेवा समझकर कर रहा है और दूसरा खिन्न होकर, बोझ समझकर कर रहा है, कर्म तो वही है लेकिन भावना की भिन्नता ने एक को सुखी तो दूसरे को दुःखी कर दिया। अतः जो जैसे कर्म करता है, वैसा ही फल पाता है।
जलियावाला बाग में जनरल डायर ने बहुत जुल्म किया, कितने ही निर्दोष लोगों की हत्या करवायी क्यों? उसने सोचा था कि 'इस प्रकार आजादी के नारे लगाने वालों को जलियाँवाला बाग में नष्ट कर दूँगा तो मेरा नाम होगा, मेरी पदोन्नति होगी, ' लेकिन नाम और पदोन्नति तो क्या, लानतों की बौछारें पड़ी उस पर उससे त्यागपत्र माँगा गया, नौकरी से निकाला गया और शाही महल से बाहर कर दिया गया, अंत में भारतवासियों के उस हत्यारे को भारत के बहादुर वीर ऊधमसिंह ने गोली मारकर नरक की ओर धकेल दिया, मरने के बाद भी कितने हजार वर्षों तक वह प्रेत की योनि में भटकेगा, यह तो भगवान ही जानते हैं।
जापान के हिरोशिमा एवं नागासाकी शहर पर बम गिराने वाला मेजर टॉम फेरेबी का भी बड़ा बुरा हाल हुआ। बम गिराकर जब वह घर पहुँचा तो उसकी दादी माँ ने कहाः "तू अमानवीय कर्म करके आया है, " उसकी अंतरात्मा ग्लानि से फटी जा रही थी, उसने तो इतने दुःख देखे कि इतिहास उसकी दुःखद आत्मकथा से भरा पड़ा है।
जब बुरा या अच्छा कर्म करते हैं तो उसका फल तुरंत चाहे न भी मिले लेकिन हृदय में ग्लानि या सुख-शांति का एहसास तुरंत होता है एवं बुरे या अच्छे संस्कार पड़ते हैं।
अतः मनुष्य को चाहिए कि वह बुरे कर्मों से तो बचे लेकिन अच्छे कर्म भी ईश्वर की प्रीति के लिए करे, कर्म करके सुख लेने की, वाहवाही लेने की वासना को छोड़कर सुख देने की, ईश्वर को पाने की भावना धारण कीजिये। ऐसा करने से आपके कर्म ईश्वर-प्रीतयर्थ हो जायेंगे, ईश्वर की प्रीति के लिए किये गये कर्म फिर जन्म-मरण के बंधन में नहीं डालेंगे वरन् मुक्ति दिलाने में सफल हो जायेंगे।
*॥ हरि: ॐ तत् सत् ॥*
*पं. मंगलेश्वर त्रिपाठी*
*धर्मार्थ वार्ता समाधान संघ*

Tuesday, August 30, 2016

धर्मदत्त नामक एक पवित्र और सदाचारी ब्राह्मण था।

धर्मदत्त नामक एक पवित्र और सदाचारी ब्राह्मण था। वह व्रत-उपवासादि करता था। श्वासोच्छावास में रामनामरूपी यज्ञ करने वाला वह ब्राह्मण एक बार निर्जला एकादशी करके दूसरे दिन अर्थात् द्वादशी के दिन प्रभातकाल में देवपूजन हेतु पूजा की थाली लिये मंदिर की ओर जा रहा था। मार्ग में एक प्रेतात्मा विकराल राक्षसी का रूप धारण करके उसके सामने आयी। उसे देखकर वह घबरा गया और हड़बड़ी में उसने पूजा की थाली जोर से राक्षसी पर दे मारी।
कथा कहती है कि पूजा की थाली में रखे हुए तुलसी-पत्र ता स्पर्श होते ही उस प्रेतात्मा की पूर्व-स्मृति जाग उठी और वह काँपती हुई दूर जा खड़ी हुई। फिर बोलीः "हे ब्राह्मण ! आपकी इस पूजा की थाली का स्पर्श होते ही मेरा कुछ उद्धार हुआ है और मुझे अपने पूर्वजन्म का स्मरण हो रहा है। अब आप जैसे भगवत्प्रेमी भक्त मुझ पर कृपा करें तो मेरा उद्धार हो।
हे भूदेव ! मैं पूर्वजन्म में कलहा नामक ब्राह्मणी थी और जैसा मेरा नाम था वैसे ही मेरे कर्म थे। मैं अपने पति के साथ खूब कलह करती थी। यह देखकर मेरे पति बहुत परेशान हो गये और अपने किसी मित्र के साथ उन्होंने विचार-विमर्श किया कि "मैं अपनी पत्नी से जो भी कहता हूँ, वह उसका उलटा ही करती है।" तब मित्र ने निषेधयुक्ति से काम लेने की पद्धति मेरे पति को बतलायी।
मेरे पति घर आये और बोलेः "कलहा ! मेरा जो मित्र है न, वह बहुत खराब है। अतः उसको भोजन के लिए नहीं बुलाना है।"
तब मैंने कहाः "नहीं, वह तो बहुत सज्जन है इसलिए उसे आज ही भोजन के लिए बुलाना है।"फिर मैंने उसे भोजन करवाया।
कुछ दिन बीतने पर मेरे पति ने पुनः निषधयुक्ति अपनाते हुए कहाः "कल मेरे पिता का श्राद्ध है किंतु हमें श्राद्ध नहीं करना है।"
मैंने कहाः "धिक्कार है तुम्हारे ब्राह्मणत्प पर ! श्राद्ध है और हम श्राद्ध न करें तो फिर यह जीवन किस काम का?"
तब पति बोलेः " अच्छा ठीक है। एक ब्राह्मण को बुलाना, किंतु वह अनपढ़ हो।"
मैंने कहाः "धिक्कार है, तुम ऐसे ब्राह्मण को पसंद करते हो ! जो संयमी हो, विद्वान हों ऐसे अठारह ब्राह्मणों को बुलाना।"
पतिः "अच्छा..... ठीक है। किंतु पकवान मत बनाना, केवल दाल रोटी बनाना।" मैंने तो खूब पकवान बनाये। वे जो-जो निषेधयुक्त से कहते, उसका उलटा ही मैं करती। मेरे पति भीतर से प्रसन्न थे किंतु बाहर से निषेधयुक्ति से काम ले रहे थे। किंतु बाद में वे भूल गये और बोलेः "यह जो पिण्ड है इसे किसी अच्छे तीर्थ में डाल आना।" मैंने वह पिण्ड नाली में डाल दिया। यह देखकर उन्हें दुःख हुआ किंतु वे सावधान हुए और बोलेः "हे प्रिये ! अब उस पिण्ड को नाली से निकालकर नदी में मत डालना, भले ही वह वहीं पड़ा रहे।" मैं तो उस पिण्ड को तुरंत नाली से निकालकर नदी में डाल आयी।
इस प्रकार वे जो भी कहते, मैं उसका उलटा ही करती। वे सावधानी पूर्वक काम लेते रहते तो भी मेरा स्वभाव कलहप्रिय होने के कारण एवं मेरा कलह का स्वभाव होने के कारण मेरे पति खूब दुःखी हुए एवं संतानप्राप्ति हेतु उन्होंने दूसरा विवाह कर लिया। तब मैंने फाँसी लगाकर आत्महत्या कर ली और वह भी इसलिए कि मेरे पति की बहुत बदनामी हो और लोग उन्हें परेशान करें।
आत्महत्या के कारण ही मुझे यह प्रेतयोनि मिली है। मैं किसी के शरीर में प्रविष्ट हुई थी किंतु जब वह कृष्णा और वेणी नदियों के संगम-तट पर पहुँचा, तब भगवान शिव और विष्णु के दूतों ने मुझे उसके शरीर से दूर भगा दिया। अब मैं किसी दूसरे के शरीर में प्रविष्ट होने के लिए ही आ रही थी कि सामने आप मिल गये। मैं आपको डराकर आपका मनोबल गिराना चाहती थी ताकि आपके श्वास द्वारा आपके शरीर में प्रविष्ट हो सकूँ, किंतु आपके पवित्र परमाणुओं से युक्त पूजा की थाली एवं तुलसी का स्पर्श होने से मेरा कुछ उद्धार हुआ है। मेरे कुछ पाप नष्ट हुए हैं किंतु अभी मेरी सदगति नहीं हुई है। अतः आप कुछ कृपा करें।"
तब धर्मदत्त ब्राह्मण ने सकल्प करके जन्म से लेकर उस दिन तक किये कार्तिक व्रत का आधा पुण्य उस प्रेतयोनि को पायी हुई कलहा को अर्पित किया। इतने में ही वहाँ भगवान के सुशील एवं पुण्यशील नाम के दो दूत विमान लेकर आये और प्रेतयोनि से मुक्त उस कलहा को उसमें बैठाया। फिर वे धर्मदत्त से बोलेः "हे ब्राह्मण ! जो परहित मे रत रहते हैं उनके पुण्य दुगने हो जाते हैं। अपनी दोनों पत्नियों के साथ तुम लम्बे समय तक सुखपूर्वक रहते हुए बाद में विष्णुलोक को प्राप्त करोगे। यह कलहा भी तुम्हें वहीं मिलेगी। वहाँ भी वर्षों तक रहकर फिर तुम लोग मनु-शतरूपा के रूप में अवतरित होकर तप करोगे और भगवान को पुत्ररूप में अपने घर आमंत्रित करोगे।
वरदान के फलस्वरूप तुम राजा दशरथ के रूप में जन्म लोगे और यह आधे पुण्यों की फलभागिनी कलहा तुम्हारी कैकेयी नामक रानी होगी। साथ ही स्वयं भगवान विष्णु साकार रूप लेकर श्रीराम के रूप में तुम्हारे घर अवतरित होंगे।"
यह कहते हुए दोनों पार्षद कलहा को लेकर चल दिये। कालांतर में वही बात अक्षरशः चरितार्थ हुई, जब दशरथ - कौशल्या के घर निर्गुण - निराकार ने सगुण - साकार रूप धरकर पृथ्वी को पावन किया।
कितनी महत्ता है हरिनाम एवं हरिध्यान की ! श्वास - श्वास में प्रभु नाम के रटन ने धर्मदत्त ब्राह्मण को दशरथ के रूप में भगवान के पिता होने का गौरव प्रदान कर दिया ! सच ही है कि शुभ कर्म व्यर्थ नहीं जाते।
*॥ हरि: ॐ तत्सत् ॥*
*शुभ रात्रि*

धर्मदत्त नामक एक पवित्र और सदाचारी ब्राह्मण

धर्मदत्त नामक एक पवित्र और सदाचारी ब्राह्मण था। वह व्रत-उपवासादि करता था। श्वासोच्छावास में रामनामरूपी यज्ञ करने वाला वह ब्राह्मण एक बार निर्जला एकादशी करके दूसरे दिन अर्थात् द्वादशी के दिन प्रभातकाल में देवपूजन हेतु पूजा की थाली लिये मंदिर की ओर जा रहा था। मार्ग में एक प्रेतात्मा विकराल राक्षसी का रूप धारण करके उसके सामने आयी। उसे देखकर वह घबरा गया और हड़बड़ी में उसने पूजा की थाली जोर से राक्षसी पर दे मारी।
कथा कहती है कि पूजा की थाली में रखे हुए तुलसी-पत्र ता स्पर्श होते ही उस प्रेतात्मा की पूर्व-स्मृति जाग उठी और वह काँपती हुई दूर जा खड़ी हुई। फिर बोलीः "हे ब्राह्मण ! आपकी इस पूजा की थाली का स्पर्श होते ही मेरा कुछ उद्धार हुआ है और मुझे अपने पूर्वजन्म का स्मरण हो रहा है। अब आप जैसे भगवत्प्रेमी भक्त मुझ पर कृपा करें तो मेरा उद्धार हो।
हे भूदेव ! मैं पूर्वजन्म में कलहा नामक ब्राह्मणी थी और जैसा मेरा नाम था वैसे ही मेरे कर्म थे। मैं अपने पति के साथ खूब कलह करती थी। यह देखकर मेरे पति बहुत परेशान हो गये और अपने किसी मित्र के साथ उन्होंने विचार-विमर्श किया कि "मैं अपनी पत्नी से जो भी कहता हूँ, वह उसका उलटा ही करती है।" तब मित्र ने निषेधयुक्ति से काम लेने की पद्धति मेरे पति को बतलायी।
मेरे पति घर आये और बोलेः "कलहा ! मेरा जो मित्र है न, वह बहुत खराब है। अतः उसको भोजन के लिए नहीं बुलाना है।"
तब मैंने कहाः "नहीं, वह तो बहुत सज्जन है इसलिए उसे आज ही भोजन के लिए बुलाना है।"फिर मैंने उसे भोजन करवाया।
कुछ दिन बीतने पर मेरे पति ने पुनः निषधयुक्ति अपनाते हुए कहाः "कल मेरे पिता का श्राद्ध है किंतु हमें श्राद्ध नहीं करना है।"
मैंने कहाः "धिक्कार है तुम्हारे ब्राह्मणत्प पर ! श्राद्ध है और हम श्राद्ध न करें तो फिर यह जीवन किस काम का?"
तब पति बोलेः " अच्छा ठीक है। एक ब्राह्मण को बुलाना, किंतु वह अनपढ़ हो।"
मैंने कहाः "धिक्कार है, तुम ऐसे ब्राह्मण को पसंद करते हो ! जो संयमी हो, विद्वान हों ऐसे अठारह ब्राह्मणों को बुलाना।"
पतिः "अच्छा..... ठीक है। किंतु पकवान मत बनाना, केवल दाल रोटी बनाना।" मैंने तो खूब पकवान बनाये। वे जो-जो निषेधयुक्त से कहते, उसका उलटा ही मैं करती। मेरे पति भीतर से प्रसन्न थे किंतु बाहर से निषेधयुक्ति से काम ले रहे थे। किंतु बाद में वे भूल गये और बोलेः "यह जो पिण्ड है इसे किसी अच्छे तीर्थ में डाल आना।" मैंने वह पिण्ड नाली में डाल दिया। यह देखकर उन्हें दुःख हुआ किंतु वे सावधान हुए और बोलेः "हे प्रिये ! अब उस पिण्ड को नाली से निकालकर नदी में मत डालना, भले ही वह वहीं पड़ा रहे।" मैं तो उस पिण्ड को तुरंत नाली से निकालकर नदी में डाल आयी।
इस प्रकार वे जो भी कहते, मैं उसका उलटा ही करती। वे सावधानी पूर्वक काम लेते रहते तो भी मेरा स्वभाव कलहप्रिय होने के कारण एवं मेरा कलह का स्वभाव होने के कारण मेरे पति खूब दुःखी हुए एवं संतानप्राप्ति हेतु उन्होंने दूसरा विवाह कर लिया। तब मैंने फाँसी लगाकर आत्महत्या कर ली और वह भी इसलिए कि मेरे पति की बहुत बदनामी हो और लोग उन्हें परेशान करें।
आत्महत्या के कारण ही मुझे यह प्रेतयोनि मिली है। मैं किसी के शरीर में प्रविष्ट हुई थी किंतु जब वह कृष्णा और वेणी नदियों के संगम-तट पर पहुँचा, तब भगवान शिव और विष्णु के दूतों ने मुझे उसके शरीर से दूर भगा दिया। अब मैं किसी दूसरे के शरीर में प्रविष्ट होने के लिए ही आ रही थी कि सामने आप मिल गये। मैं आपको डराकर आपका मनोबल गिराना चाहती थी ताकि आपके श्वास द्वारा आपके शरीर में प्रविष्ट हो सकूँ, किंतु आपके पवित्र परमाणुओं से युक्त पूजा की थाली एवं तुलसी का स्पर्श होने से मेरा कुछ उद्धार हुआ है। मेरे कुछ पाप नष्ट हुए हैं किंतु अभी मेरी सदगति नहीं हुई है। अतः आप कुछ कृपा करें।"
तब धर्मदत्त ब्राह्मण ने सकल्प करके जन्म से लेकर उस दिन तक किये कार्तिक व्रत का आधा पुण्य उस प्रेतयोनि को पायी हुई कलहा को अर्पित किया। इतने में ही वहाँ भगवान के सुशील एवं पुण्यशील नाम के दो दूत विमान लेकर आये और प्रेतयोनि से मुक्त उस कलहा को उसमें बैठाया। फिर वे धर्मदत्त से बोलेः "हे ब्राह्मण ! जो परहित मे रत रहते हैं उनके पुण्य दुगने हो जाते हैं। अपनी दोनों पत्नियों के साथ तुम लम्बे समय तक सुखपूर्वक रहते हुए बाद में विष्णुलोक को प्राप्त करोगे। यह कलहा भी तुम्हें वहीं मिलेगी। वहाँ भी वर्षों तक रहकर फिर तुम लोग मनु-शतरूपा के रूप में अवतरित होकर तप करोगे और भगवान को पुत्ररूप में अपने घर आमंत्रित करोगे।
वरदान के फलस्वरूप तुम राजा दशरथ के रूप में जन्म लोगे और यह आधे पुण्यों की फलभागिनी कलहा तुम्हारी कैकेयी नामक रानी होगी। साथ ही स्वयं भगवान विष्णु साकार रूप लेकर श्रीराम के रूप में तुम्हारे घर अवतरित होंगे।"
यह कहते हुए दोनों पार्षद कलहा को लेकर चल दिये। कालांतर में वही बात अक्षरशः चरितार्थ हुई, जब दशरथ - कौशल्या के घर निर्गुण - निराकार ने सगुण - साकार रूप धरकर पृथ्वी को पावन किया।
कितनी महत्ता है हरिनाम एवं हरिध्यान की ! श्वास - श्वास में प्रभु नाम के रटन ने धर्मदत्त ब्राह्मण को दशरथ के रूप में भगवान के पिता होने का गौरव प्रदान कर दिया ! सच ही है कि शुभ कर्म व्यर्थ नहीं जाते।
*॥ हरि: ॐ तत्सत् ॥*
*पं. मंगलेश्वर त्रिपाठी*

Monday, August 29, 2016

सभी मनुष्य जो कुछ करते हैं

सभी मनुष्य जो कुछ करते हैं, अपनी इच्छा के अनुसार करते हैं, आवश्यकता के अनुसार नहीं करते है, यही गलती करते रहते हैं, यदि इस गलती को हम सुधार लें तो किसी भी क्षेत्र में आसानी से सफल हो सकते हैं, चाहे वह भौतिक क्षेत्र (कुरु-क्षेत्र) हो या आध्यात्मिक क्षेत्र (धर्म-क्षेत्र) हो। 
संसार में कोई भी ऐसा मनुष्य नहीं मिलेगा, जिसमें कोई विशेषता न हो, जिसका कोई इष्ट न हो, हर मनुष्य जरूर किसी न किसी को अवश्य ही मानता है, ऐसा कोई मनुष्य नहीं जिसमें जानने की जिज्ञासा न हो, प्रत्येक मनुष्य कुछ न कुछ जानने की कोशिश तो अवश्य करता ही है, किसी मनुष्य में जानने की जिज्ञासा कम होती है तो किसी मनुष्य में जानने की जिज्ञासा अधिक होती है। 
प्रत्येक मनुष्य को ईश्वर ने बुद्धि द्वारा जानने की, मन के द्वारा मानने की और इन्द्रियों के द्वारा करने की शक्ति प्रदान की है, यदि मनुष्य इस शक्ति का आवश्यकता के अनुसार उपयोग करता है तो आसानी से जन्म से लेकर मृत्यु तक के सभी दुखों से मुक्त हो सकता हैं और यदि इच्छा के अनुसार उपयोग करता है तो करोड़ों जन्मों में भी इन दुखों से मुक्त नही हो सकता हैं। 
साधारण मनुष्यों में और महापुरूषों में इतना ही फर्क है कि महापुरूष आवश्यकता के अनुसार कर्म करते हैं जबकि साधारण मनुष्य इच्छा के अनुसार कर्म करते हैं।
संसार में प्रत्येक वस्तु अपूर्ण है।
प्रत्येक मनुष्य क्षणिक सुख की इच्छा करता है जबकि मनुष्य को कभी न मिटने वाले आनन्द की आवश्यकता है। मनुष्य जब सुख की इच्छा करता है तो दुख की प्राप्ति आवश्यकता बन जाती है। मनुष्य जब जीवित रहने की इच्छा करता है लेकिन मरना जीवन की आवश्यकता बन जाती है। मनुष्य जब मान की इच्छा करता है तो अपमान सहन करना आवश्यकता बन जाती है। मनुष्य जब किसी को अपना बनाने की इच्छा करता है तब अन्य कोई पराया बनना आवश्यकता बन जाती है। 
मनुष्य की आवश्यकतायें प्रकृति के सहयोग से आसानी से पूरी हो जाती है लेकिन सभी इच्छायें कभी पूरी नहीं होती है, बच्चा माँ की गोद में आता है तो उस बच्चे की आवश्यकता दूध होती है तो प्रकृति के सहयोग से दूध तैयार हो जाता है, जब बच्चा बड़ा होता है और उसकी आवश्यकता होती है दाँतों की तो उस बच्चे के दाँत आ जाते हैं।
मनुष्य को वायु, जल और अन्न की आवश्यकता होती है, यह सभी आवश्यकतायें आसानी से पूरी हो जाती है, जब मनुष्य मिठाई, नमकीन, तम्बाकू और शराब आदि की इच्छा करता है तो यह इच्छायें ही मनुष्य के जीवन के विनाश का कारण बनती हैं, शरीर को जीवित रखने के लिये इन वस्तुओं की कोई आवश्यकता नही होती है, इच्छाओं की पूर्ति दुख-पूर्वक होती है जबकि आवश्यकताओं की पूर्ति सहजता से हो जाती है।
जब मनुष्य आवश्यकताओं को अज्ञानतावश इच्छायें समझ लेता है तब अनेकों नई इच्छायें उत्पन्न हो जाती है जो कि पुनर्जन्म का कारण होती है, आवश्यकतापूर्ति से ही इच्छाओं की निवृत्ति हो सकती है, इच्छापूर्ति से कभी भी इच्छाओं से निवृत्ति नही हो सकती है। 
इच्छा के अनुसार सभी वस्तुयें कभी प्राप्त नही होंगी, इच्छा के अनुसार सभी आपकी बात नहीं मानेंगे, इच्छा के अनुसार सदा तुम्हारा शरीर नहीं रहेगा, शरीर चला जायगा अन्त में इच्छायें रह जायेंगी, अपनों के सुख की इच्छा, धन-सम्पत्ति की इच्छा, पद-प्रतिष्ठा की इच्छा, आदि यह सभी इच्छायें ही पुनर्जन्म का कारण बनती हैं।
जब तक इच्छायें बाकी रहती हैं तब तक मुक्ति असंभव होती है।
*॥ हरि: ॐ तत्सत् ॥*
*पं. मंगलेश्वर त्रिपाठी*
*धर्मार्थ वार्ता समाधान संघ✍*

Sunday, August 28, 2016

बिनु सत्संग विवेक न होई

बिनु सत्संग विवेक न होई| राम कृपा बिनु सुलभ न सोई||
सतसंगत मुद मंगल मूला| सोई फल सिधि सब साधन फूला||
सत्संग के बिना मनुष्य का विवेक जाग्रत नहीं होता और सत्संग श्री राम जी की कृपा के बिना नहीं मिलता है। संतों की संगति आनंद और कल्याण का मुख्य मार्ग है, संतों की संगति ही परम-सिद्धि का फल है और सभी साधन तो फूल के समान है। 
भगवान की कृपा निष्काम भाव से कर्तव्य समझ कर कर्म करने से प्राप्त होती है। इसलिये मनुष्य को संसार में भगवान की कृपा प्राप्त करने के लिये ही कर्म करना चाहिये। मनुष्य का संसार में विश्वास पतन का कारण होता है, और ईश्वर में विश्वास शाश्वत-सुख और परम-शान्ति का कारण होता है। हम किसी का कहना मानें यह हमारे वश की बात है, कोई हमारा कहना मानें यह हमारे वश की बात नहीं होती है। इसी प्रकार किसी को सुख देना हमारे हाथ में होता है परन्तु किसी से सुख पाना हमारे हाथ में नहीं होता है। जो हमारे हाथ की बात है, उसे करना ही स्वयं का उद्धार का कारण होती है, और जो हमारे हाथ की बात नहीं है उसे करना स्वयं के पतन का कारण होती है। 
यदि हमें परमात्मा की तरफ चलना है तो हमें सांसारिक सुख अच्छे नहीं लगने चाहिए। जब हम पिछले कदम को छोड़ते हैं तभी हम आगे चल पाते हैं, जैसे-जैसे हम पिछले कदमों को छोड़ते जाते हैं उतने ही आगे बढ़ते चले जाते हैं। इस प्रकार से आगे बढ़ते रहने से एक दिन मंज़िल पर पहुँच ही जायेंगे। यदि हम पिछले कदम को छोड़ेंगे नहीं तो आगे नही बढ़ सकते हैं इसी प्रकार हम सांसारिक सुख को छोड़ने की इच्छा करेंगे तभी परमात्मा का आनन्द प्राप्त कर पायेंगे। दो नावों में सवार होकर नहीं चला जा सकता है। एक संसार रूपी भौतिक नाव है, दूसरी परमात्मा रूपी आध्यात्मिक नाव है। जब तक संसार रूपी नाव से नहीं उतरोगे तब तक परमात्मा रूपी नाव पर सवार कैसे हो सकते हैं? 
जब संसार के लोग हमारा आदर करते है तो हमें समझना चाहिये कि हमारे ऊपर भगवान की कृपा है। वह हमारा आदर नहीं कर रहें हैं वह तो भगवान का आदर कर रहें होते हैं। जिस प्रकार किसी पद पर आसीन व्यक्ति को कोई सलाम करता है तो वह सलाम उस व्यक्ति के लिये न होकर उस पद के लिये होता है। हमारा आदर तो केवल भगवान ही कर सकते है। 
संसार में जब तक किसी व्यक्ति का स्वार्थ नहीं होता है तब तक वह किसी का भी आदर नहीं कर सकता है। आज तक का इतिहास उठाकर देख लो इस संसार से कभी कोई तृप्त नही हुआ है। जो वस्तु जिसके पास अधिक है उसको उसकी उतनी ही अधिक ज़रुरत रहती है। जिसके पास धन अधिक है, उसको और अधिक धन पाने की इच्छा होती है। जिस निर्धन व्यक्ति के पास रुपये नहीं है उसको पचास, सौ रुपये मिल जायेगें तो समझेगा कि बहुत मिल गया लेकिन जो जितना धनवान व्यक्ति होता है उसकी भूख उस निर्धन व्यक्ति से अधिक होती है। 
संसार में हमें सुख-सम्पत्ति का त्याग नहीं करना है, परन्तु सुख-सम्पत्ति को पाने की इच्छा का त्याग करना चाहिये।
यह इच्छा ही तो हमारे पतन का कारण बनती आयी है। ज्ञान के द्वारा ही संसार का त्याग हो सकता है और सम्पूर्ण विश्वास के साथ ही परमात्मा से प्रेम हो सकता है। जिनसे भी हमारा संसारिक संबन्ध है उन सभी का हमारे ऊपर पूर्व जन्मों का कर्जा है, उन सभी का कर्जा चुकाने के लिये ही तो यह शरीर मिला है। कर्जा तो हम चुकता करते हैं लेकिन साथ ही नया कर्जा हम फिर से चढ़ा लेते हैं। जब तक हम कर्जदार रहेंगे तो मुक्त कैसे हो सकते हैं। यह तभी संभव हो सकेगा जब कि हम इस संसार से नया कर्जा नहीं लेंगे। संसार तो केवल हमसे वस्तु ही चाहता है, हमारे को कोई नहीं चाहता है। 
हम सभी के ऊपर मुख्य रूप से दो प्रकार का ही कर्जा है, एक शरीर जो प्रकृति का कर्जा है, दूसरा आत्मा जो परमात्मा का कर्जा है।
इसलिये हमें संसार से किसी भी वस्तु को पाने की इच्छा का त्याग कर देना चाहिये और शरीर सहित जो कुछ भी सांसारिक वस्तु हमारे पास है उसे सहज मन-भाव से संसार को ही सोंपना देनी चाहिये। हम स्वयं आत्मा स्वरूप परमात्मा के अंश हैं इसलिये स्वयं को सहज मन-भाव से परमात्मा को सोंप चाहिये यानि भगवान के प्रति मन से, वाणी से और कर्म से पूर्ण समर्पण कर देना चाहिये।
यही मानव जीवन का एक मात्र उद्देश्य है। यही मनुष्य जीवन का एक मात्र लक्ष्य है। यही मानव जीवन की परमसिद्धि है। यही वास्तविक मुक्ति है। यह मुक्ति शरीर रहते हुए ही प्राप्त होती है। इसलिये यह मनुष्य जन्म अत्यन्त दुर्लभ है।
*जय श्री राधे*
*पं. मंगलेश्वर त्रिपाठी*
*धर्मार्थ वार्ता समाधान संघ*