Wednesday, February 15, 2017

दाने शक्तिः श्रुतौ भक्तिः गुरूपास्तिः गुणे रतिः ।

दाने शक्तिः श्रुतौ भक्तिः गुरूपास्तिः गुणे रतिः ।
दमे मतिः दयावृत्तिः षडमी सुकृताङ्कुराः ॥

दातृत्वशक्ति, वेदों में भक्ति, गुरुसेवा, गुणों की आसक्ति, (भोग में नहि पर) इंद्रियसंयम की मति, और दयावृत्ति – इन छे बातों में सत्कार्य के अंकुर हैं ।इन्हीं से भगवद्भक्ति का उदय होता है।

कुल - द्रव्येषु या भक्तिः, सा मोक्ष ... इस प्रकार की जो भक्ति होती है, वही मोक्षदायिनी मानी गई है ।

          –जय श्रीमन्नारायण।

Sunday, February 12, 2017

ननु स्वार्थपरो लोको न वेद परस्पङ्कटम् ।

ननु स्वार्थपरो लोको न वेद परस्पङ्कटम् ।
यदि वेद न याचेत नेति नाह यदीश्वरः ॥ 
( श्रीमद्भा० ६ । १० । ६ )

 जो मनुष्य दूसरों के दुःख-कष्ट को अपना दुःख-कष्ट नहीं समझता, वह अनिवार्यतः स्वार्थी होता है। जो समझ लेता है, वह अपने लिये दूसरों से कुछ भी नहीं चाहता। किन्तु कोई यदि संकट में पड़कर उससे कुछ भी माँगता है तो वह कभी ' ना ' नहीं कहता। भागवत पुराण में तीन कथाओं के माध्यम से इस श्लोक की महिमा के बारे में बताया गया है कि कैसे - जो पुरुष नाशवान् शरीरके द्वारा समर्थ होकर भी प्राणियों पर दया करके धर्म या यश प्राप्त करनेकी इच्छा, चेष्टा, प्रयत्न नहीं करता, वह तो स्थावर वृक्ष - पर्वतादि से भी गया-गुजरा है, उसकी दशा अधिक शोचनीय है; क्योंकि वृक्ष - पर्वतादि भी अपने शरीर के द्वारा प्राणियों की सेवा करते हैं
[ कथा इस प्रकार है श्रीप्रह्लाद जी के पुत्र दैत्यराज विरोचन परम ब्राह्मणभक्त थे । इन्द्रके साथ ही ब्रह्मलोकमें ब्रह्माजी के पास ब्रह्मचर्यका पालन करते हुए उन्होंने निवास किया था। ब्रह्माजी के द्वारा उपदेश किया हुआ तत्त्वज्ञान यद्यपि वे यथार्थरुप से ग्रहण नहीं कर सके, तथापि धर्ममें उनकी श्रद्धा थी और उनकी गुरुभक्ति के कारण महर्षि शुक्राचार्य उनपर बहुत प्रसन्न थे । विरोचन के दैत्याधिपति होनेपर दैत्यों, दानवों तथा असुरों का बल बहुत बढ़ गया था । इन्द्र को कोई रास्ता ही नहीं दीखता था कि कैसे वे दैत्योंकी बढ़ती हुई शक्तिको दबाकर रक्खें । विरोचनने स्वर्गपर अधिकार करनेकी इच्छा नहीं की थी; किंतु इन्द्रका भय बढ़ता जाता था । इन्द्र देखते थे कि यदि कभी दैत्योंने आक्रमण किया तो हम धर्मात्मा विरोचन को हरा नहीं सकते । अन्तमें देवगुरु बृहस्पति की सलाह से एक दिन वे वृद्ध ब्राह्मण का रुप धारण करके विरोचन के यहाँ गये । ब्राह्मणोंके परम भक्त और उदार शिरोमणि दैत्यराज ने उनका स्वागत किया, उनके चरण धोये और उनका पूजन किया। इन्द्रने विरोचन के दान और उनकी उदारता की बहुत ही प्रशंसा की । विरोचन ने नम्रतापूर्वक वृद्ध ब्राह्मण से कहा कि ' आपको जो कुछ माँगना हो, उसे आप संकोच छोड़कर माँग लें ।' इन्द्रने बातको अनेक प्रकार से पक्की कराके तब कहा -- ' दैत्यराज ! मुझे आपकी आयु चाहिये ।' बात यह थी कि यदि विरोचन को किसी प्रकार मार भी दिया जाता तो शुक्राचार्य उन्हें अपनी संजीवनी विद्या से फिर जीवित कर सकते थे । विरोचनको बड़ी प्रसन्नता हुई । वे कहने लगे -- ' मैं धन्य हूँ । मेरा जन्म लेना सफल हो गया । आज मेरा जीवन एक विप्रने स्वीकार किया, इससे बड़ा सौभाग्य मेरे लिये और क्या हो सकता है ।' अपने हाथमें खडग लेकर स्वयं उन्होंने अपना मस्तक काट कर वृद्ध ब्राह्मण बने हुए इन्द्रको दे दिया । इन्द्र उस मस्तक को लेकर भयके कारण शीघ्रता से स्वर्ग चले आये और यह अपूर्व दान करके विरोचन तो भगवान के नित्य धाममें ही पहुँच गये । भगवान नें उन्हें अपने निज जनों में ले लिया ।

वह मानव निर्मित वस्तु जिसमें कुछ रखा जाता है

वह मानव निर्मित वस्तु जिसमें कुछ रखा जाता है
उदाहरण: वह कुत्ते को मिट्टी के पात्र में दूध पिला रहा है ।
निश्चित और परिमित स्थितिवाला वह भू-भाग जिसमें कोई बस्ती, प्राकृतिक रचना या कोई विशेष बात हो
उदाहरण: काशी हिन्दुओं का धार्मिक स्थान है ।
वह स्थान जहाँ कोई रहता हो
उदाहरण: स्वच्छ और हवादार आवास स्वास्थ्य के लिए लाभदायक होता है।
पद, मर्यादा आदि के विचार से समाज में किसी व्यक्ति, संस्था आदि की वह विधिक स्थिति जो अपने क्षेत्र में कुछ निश्चित सीमा में प्राप्त होती है
उदाहरण: किसी की स्थिति उसकी मर्यादा, पद, सम्मान आदि का सूचक होती है ।
वंश का नाम
उदाहरण: प्रपत्र के इस खंड में आप अपना गोत्र या उपगोत्र लिख सकते हैं ।
जन्म कुंडली में दसवाँ स्थान
उदाहरण: बिटिया का आस्पद अधिक प्रबल है ।

अबुद्धिमाश्रितानां तु क्षन्तव्यमपराधिनाम् ।

अबुद्धिमाश्रितानां तु क्षन्तव्यमपराधिनाम् । न हि सर्वत्र पाण्डित्यं सुलभं पुरुषेण वै ॥

भावार्थ :
अनजाने में जिन्होंने अपराध किया हो उनका अपराध क्षमा किया जाना चाहिए, क्योंकि हर मौके या स्थान पर समझदारी मनुष्य का साथ दे जाए ऐसा हो नहीं पाता है । भूल हो जाना असामान्य नहीं, अतः भूलवश हो गये अनुचित कार्य को क्षम्य माना जाना चाहिए ।

आस्पदशब्दो$यं प्रतिष्ठायां,पदे स्थाने

आस्पदशब्दो$यं प्रतिष्ठायां,पदे स्थाने
यथा=सरागमस्यारसनागुणास्पदम्(कुमारसम्भवे)
निर्धनता सर्वापदास्पदम्( किरातार्जुनीयम्)

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मेरा मानना है कि भेद-भाव इतना बुरा भी नही है

मेरा मानना है कि भेद-भाव इतना बुरा भी नही है जितना लोग समझते है। क्योंकि ढाई अक्छर का पवित्र शब्द "प्रेम" का प्रारम्भ भेद भाव से ही होता है।या यो कहे अगर भेद भाव न हो तो शायद प्रेम हो ही नही। आइए समझे भेद भाव है क्या? --मैं और तू!यही है भेद भाव।विस्तार में चले। प्रेम दो तरह के होते है।एक साधारण प्रेम,दूसरा अतिशय प्रेम। कोई हमे कहे प्रेम करो। तब प्रश्न उठता है किससे करू?भाई कोई वस्तु,कोई जिव तो होना चाहिए न? यही भेद भाव है। साधारण प्रेम में मैं और तू ये दो भिन्न होते है ।ये प्रारम्भिक प्रेम है,भेद भाव दोनों में होती है।पर जब वही प्रेम अतिशय हो जाय तो दोनों एक हो जाते है। जैसे जिव और ईश्वर।प्रारम्भिक प्रेम में दोनों भिन्न होते है दोनों में भेद भाव रहता है मैं जिव हु ये ईश्वर है। पर जब दोनों में अतिशय प्रेम हो जाता है तो दोनों एक हो जाते है भेद भाव खत्म हो जाता है।आप कहेंगे प्रमाण? तो लीजिए प्रमाण भी देता हूं।किसी ने गोस्वामी जी से पूछा भगवान को कौन जान सकता है?बोले कोई नही। फिर भी?बोले--सोई जानई जेहि देहु जनाई,(जिसे भगवान जना से वही जान सकता है)फिर क्या होगा? बोले--जानत तुम्हहि तुम्हई होइ जाइ । ( जो भगवान को जान लेता है वह भगवान ही हो जाता है।फिर जिव और ईश्वर में भेद ही नही रह जाता। जैसे दूध और पानी। दोनों अलग चीज,वस्तु है।पर पानी को दूध में मिला दे तो वह दूध बन जाता है। जिव ईश्वर का अंश है। जिव अंश है,ईश्वर अंशी है अतिशय प्रेम में अंश और अंशी मिल जाते है। प्रेम जब अनन्त हो गया,रोम रोम सन्त हो गया- - - । हाँ एक बात है भेद-भाव हर जगह नही। जैसे--गरीब आमिर,ऊंच नीच,जात पात को लेकर किसी को सतना, या निचा दिखाना,तिरस्कार करना,सरकार से लाभ लेना आरक्छन आदि ये सब गलत है। कहने का भाव ये है कि भेद-भाव न कभी खत्म होगा,न ही होना चाहिए। क्योंकि ये तो प्रेम को बढ़ाने में कार्य करता है। आप सभी गुरुजनो,विद्वानों भाइयो बहनो को नमन बन्दन प्रणाम। मेरा यैसा लिखने से यदि किसी को बुरा लगे तो माफ करेंगे। ये तो एक मन की उद्गार था जो डरते डरते प्रकट किया।

पत्नी सावित्री ने ब्रह्मा जी को क्यों दिया था श्राप

पत्नी सावित्री ने ब्रह्मा जी को क्यों दिया था श्राप

हिन्दू धर्मग्रन्थ पद्म पुराण के मुताबिक एक समयधरती पर वज्रनाश नामक राक्षस ने उत्पात मचा रखा था। उसके बढ़ते अत्याचारों से तंग आकर ब्रह्मा जी ने उसका वध किया। लेकिन वध करते वक़्त उनके हाथों से तीन जगहों पर कमल का पुष्प गिरा, इन तीनों जगहों पर तीन झीलें बनी। इसी घटना के बाद इस स्थान का नाम पुष्कर पड़ा। इस घटना के बाद ब्रह्मा ने संसार की भलाई के लिए यहाँ एक यज्ञ करने का फैसला किया।

ब्रह्मा जी यज्ञ करने हेतु पुष्कर पहुँच गए लेकिन किसी कारणवश सावित्री जी समय पर नहीं पहुँच सकी। यज्ञ को पूर्ण करने के लिए उनके साथ उनकी पत्नी का होना जरूरी था, लेकिन सावित्री जी के नहीं पहुँचने की वजह से उन्होंने गुर्जर समुदाय की एक कन्या ‘गायत्री’ से विवाह कर इस यज्ञ शुरू किया। उसी दौरान देवी सावित्री वहां पहुंची और ब्रह्मा के बगल में दूसरी कन्या को बैठा देख क्रोधित हो गईं।
उन्होंने ब्रह्मा जी को श्राप दिया कि देवता होने के बावजूद कभी भी उनकी पूजा नहीं होगी। सावित्री के इस रुप को देखकर सभी देवता लोग डर गए। उन्होंने उनसे विनती की कि अपना शाप वापस ले लीजिए। लेकिन उन्होंने नहीं लिया। जब गुस्सा ठंडा हुआ तो सावित्री ने कहा कि इस धरती पर सिर्फ पुष्कर में आपकी पूजा होगी। कोई भी दूसरा आपका मंदिर बनाएगा तो उसका विनाश हो जाएगा। भगवान विष्णु ने भी इस काम में ब्रह्मा जी की मदद की थी। इसलिए देवी सरस्वती ने विष्णु जी को भी श्राप दिया था कि उन्हें पत्नी से विरह का कष्ट सहन करना पड़ेगा। इसी कारण राम (भगवान विष्णु का मानव अवतार) को जन्म लेना पड़ा और 14 साल के वनवास के दौरान उन्हें पत्नी से अलग रहना पड़ा था।

धर्मार्थ वार्ता

[2/12, 15:43] आचार्य मंगलेश्वर त्रिपाठी: हमलोग आजकल अपनी वेश-भूषा में, बातचीत के लहजे में, आचार-व्यवहार में पारिवारिक सम्बन्धों को निभाने में, बहुत बेशर्मी के साथ पाश्चात्य संस्कृति का अनुकरण करने लगे हैं। (चरण-स्पर्श को घुटना-छूने जे तरीके में बदल देना, माँ -पिताजी को 'मम्मी-पापा' कहना, उनके लिये 'ओल्ड एज होम' आदि बनवाना चाचा,फूफा,मौसा -चाची, बुआ,मौसी के लिये 'अंकल-आंटी'  कहना, आदि ) हमलोग शुद्ध हिन्दी तो नहीं बोल पाते किन्तु अंग्रेजी बोलने और अंग्रेजी ढंग से 'Birth Day' गीत गाने सीखने के स्कूल खोलते हैं। हमारे पास शब्दों की गरीबी इतनी है कि हमलोग थोड़ी देर के लिए भी भारत के किसी भी भाषा में भाषण नहीं कर सकते हैं, चेष्टा करने से भी विदेशी  भाषा के शब्द बीच में आ ही जाते हैं। किन्तु इस प्रकार हम किसी नई ' भारतीय-संस्कृति ' का निर्माण नहीं कर सकते। यदि हमलोग शिक्षा प्रचार के साथ साथ संस्कृति प्राप्त करने की अनिवार्यता को थोडा भी समझते हैं, तो हमें यह समझना पड़ेगा कि हमलोग किस बुनियाद के उपर अपनी संस्कृति का निर्माण कर सकते हैं ? इसका गहराई से चिन्तन करने पर हम देखेंगे कि इसके लियेपाश्चात्य जगत की ओर न देखकर हमें अपने गौरवशाली अतीत की ओर ही निहारना पड़ेगा। 
आप सब "अपनी दृष्टि को प्राचीन भारत के महिमामय अतीत पर केन्द्रित करके देखो, तुमको कितनी गौरवशाली सांस्कृतिक विरासत प्राप्त है, तुम कितने गौरवशाली अतीत के अधिकारी हो, तुम्हारे पूर्वजों ने कितना बड़े ज्ञान का भण्डार तुम्हारे लिये रख छोड़ा है !पहले उसको समझने की चेष्टा करो !"
[2/12, 15:43] आचार्य मंगलेश्वर त्रिपाठी: हमारे दो जगत हैं - भीतरी जगत एवं बाह्य जगत। इसीलिये हमलोगों का मन भी दोनों दिशाओं में जा सकता है। पतंजली योगसूत्र के भाष्य में व्यासदेव ने बहुत सुन्दर ढंग से कहा है- " चित्तनदी नामोभयतो वाहिनी वहति कल्याणय वहति पापय च ।"  
महर्षि वेदव्यास ने वेदों की संहिता की थी, उनहोंने उपनिषदों के सार को संकलित करके ब्रह्मसूत्र की रचना की थी, महाभारत के इतिहास की रचना की थी, १८ पुराणों की रचना की थी, किन्तु उन्होंने किसी एकमात्र शास्त्र पर भाष्य लिखा था, तो वह है -पतंजली का योगसूत्र। पतंजली योग सूत्र में योग को इस प्रकार परिभाषित किया गया है- "योगः चित्तवृत्तिनिरोधः।" 
यही है मन को सुसंस्कृत करने का उपाय। सुसंस्कृत बनने के लिये मन को अन्तर्जगत से जोड़ने का तरीका या 'योग' सीखना आवश्यक है। जो चित्त, जो मन हमेशा चंचल, विक्षुब्ध बना रहता है, यह चाहिए, वह चाहिये, यह लूँगा-वह लूँगा के लालच में पड़ा रहता है, उस मन को कभी सुसंस्कृत नहीं बनाया जा सकता है।
चंचल मन को यदि थोड़ा शान्त किया जा सकेगा, तभी उसमें प्रकृति का समस्त सौन्दर्य प्रतिबिंबित हो सकेगा। अपने अन्तर्जगत से जुड़ा हुआ चित्त,या " योगसमाहित चित्त ही संस्कृति का आधार है।" उपरोक्त सूत्र के भाष्य में व्यासदेव कहते हैं, चित्त-नदी के प्रवाह के मानो दो भाग हैं, उसकी एक धारा कल्याण की दिशा में प्रवाहित होती है, दूसरी धारा पाप की दिशा में प्रवाहित होती है। कौन सी धारा कल्याण की दिशा में प्रवाहित होती है ? किस प्रवाह को हम कल्याणकारी कहेंगे ?   
या तु कैवल्यप्राग्भारा विवेकविषयनिम्ना सा कल्याणवहा ।
- व्यासदेव कहते हैं, जो हमें 'कैवल्य-प्राप्ति' (विभिन्नता में एकत्व की अनुभूति करने) की दिशा में ले जाएगी,  और जो धारा ' विवेक-विषय-निम्ना ' होगी। जिस मन की चिन्तन धारा, या चित्त का प्रवाह विवेक की तली के उपर से बहेगी वही कल्याणवहा धारा है। किन्तु अभी हमारा चित्त नाम-रूपात्मक बाह्य-जगत को देखकर अनेकों आकांक्षाओं के तीव्र प्रलोभनों से बहुत चंचल हो उठता है, हम लोगों को रातदिन दौड़ाता रहता है, कभी चैन से बैठने नहीं देता, वैसा चित्त कभी सुसंस्कृत नहीं बन सकता। क्योंकि कामना वासना से निरंतर तरंगायित रहने वाले चित्त या मानस-पटल पर  अन्तर्निहित दिव्यता की छाप पड़ ही नहीं पाती है। किन्तु मन तो गतिशील रहेगा ही, क्योंकि उसका धर्म भी जल की तरह प्रवाहमान रहना है। क्योंकि  चित्त का धर्म ही वैसा है, चित्त चीज ही वैसी है, उसका स्वरुप ही पारे के जैसा है। तब, उस मन के प्रवाह को कल्याणवहा कैसे किया जाये ? यदि उसके प्रवाह की धारा की तली या फर्श विवेक की बनी हुई हो, तो उस चिन्तन प्रवाह को हम कैवल्य के पथ में अपने स्वरुप को जानने के दिशा में ले जा सकते हैं।
संसारप्राग्भाराऽविवेकविषयनिम्ना पापवहा। यदि हम उसका विपरीत करें, अर्थात अविवेक के उपर से यदि चिन्तन धारा को बहने दिया जाये तो वह धारा कैवल्य की और न जाकर संसार की ओर बहने लगेगी, जो हमारे बंधन का कारण होगा, उसी ओर ले जाएगी। चित्त की इसी धारा का नाम है-पापवहा धारा । तो फिर हमें क्या करना होगा ? तत्र वैराग्येण विषयस्रोतः खिलीक्रियते --पतंजली सूत्र के भाष्य में व्यासदेव कहते हैं, हमलोग आसक्ति के त्याग का मनोभाव बनाकर, या वैराज्ञ का फाटक लगाकर पापवहा चिन्तन प्रवाह को रुद्ध कर देना होगा, और विवेकदर्शन का अभ्यास या विवेक-प्रयोग द्वारा कल्याणवहा स्रोत को उद्घाटित करना होगा। जिस प्रकार डैम का फाटक गिरा कर, नदी की धारा को रोक दिया जाता है, उसी प्रकार पाप की चिन्तन धारा को भी वैराज्ञ के मनोभावरूपी फाटक से बन्द कर दो।  
विवेकदर्शनाभ्यासेन विवेकस्रोत्र उद्धाट्यत
और जो स्वतः कल्याण की दिशा में बहने वाली चिन्तन धारा है, उसको विवेक के अभ्यास द्वारा खोल दो, चित्त की चिन्तन धारा को विवेक की तली से ही प्रवाहित होने दो। जिस व्यक्ति का चित्त इस प्रकार कल्याण मुखी हो जाता है, उसी मनुष्य को सुसंस्कृत मनुष्य कहा जा सकता है। 
[2/13, 01:42] आचार्य मंगलेश्वर त्रिपाठी: हमारे दो जगत हैं - भीतरी जगत एवं बाह्य जगत। इसीलिये हमलोगों का मन भी दोनों दिशाओं में जा सकता है। पतंजली योगसूत्र के भाष्य में व्यासदेव ने बहुत सुन्दर ढंग से कहा है- " चित्तनदी नामोभयतो वाहिनी वहति कल्याणय वहति पापय च ।"  
महर्षि वेदव्यास ने वेदों की संहिता की थी, उनहोंने उपनिषदों के सार को संकलित करके ब्रह्मसूत्र की रचना की थी, महाभारत के इतिहास की रचना की थी, १८ पुराणों की रचना की थी, किन्तु उन्होंने किसी एकमात्र शास्त्र पर भाष्य लिखा था, तो वह है -पतंजली का योगसूत्र। पतंजली योग सूत्र में योग को इस प्रकार परिभाषित किया गया है- "योगः चित्तवृत्तिनिरोधः।" 
यही है मन को सुसंस्कृत करने का उपाय। सुसंस्कृत बनने के लिये मन को अन्तर्जगत से जोड़ने का तरीका या 'योग' सीखना आवश्यक है। जो चित्त, जो मन हमेशा चंचल, विक्षुब्ध बना रहता है, यह चाहिए, वह चाहिये, यह लूँगा-वह लूँगा के लालच में पड़ा रहता है, उस मन को कभी सुसंस्कृत नहीं बनाया जा सकता है।
चंचल मन को यदि थोड़ा शान्त किया जा सकेगा, तभी उसमें प्रकृति का समस्त सौन्दर्य प्रतिबिंबित हो सकेगा। अपने अन्तर्जगत से जुड़ा हुआ चित्त,या " योगसमाहित चित्त ही संस्कृति का आधार है।" उपरोक्त सूत्र के भाष्य में व्यासदेव कहते हैं, चित्त-नदी के प्रवाह के मानो दो भाग हैं, उसकी एक धारा कल्याण की दिशा में प्रवाहित होती है, दूसरी धारा पाप की दिशा में प्रवाहित होती है। कौन सी धारा कल्याण की दिशा में प्रवाहित होती है ? किस प्रवाह को हम कल्याणकारी कहेंगे ?   
या तु कैवल्यप्राग्भारा विवेकविषयनिम्ना सा कल्याणवहा ।
- व्यासदेव कहते हैं, जो हमें 'कैवल्य-प्राप्ति' (विभिन्नता में एकत्व की अनुभूति करने) की दिशा में ले जाएगी,  और जो धारा ' विवेक-विषय-निम्ना ' होगी। जिस मन की चिन्तन धारा, या चित्त का प्रवाह विवेक की तली के उपर से बहेगी वही कल्याणवहा धारा है। किन्तु अभी हमारा चित्त नाम-रूपात्मक बाह्य-जगत को देखकर अनेकों आकांक्षाओं के तीव्र प्रलोभनों से बहुत चंचल हो उठता है, हम लोगों को रातदिन दौड़ाता रहता है, कभी चैन से बैठने नहीं देता, वैसा चित्त कभी सुसंस्कृत नहीं बन सकता। क्योंकि कामना वासना से निरंतर तरंगायित रहने वाले चित्त या मानस-पटल पर  अन्तर्निहित दिव्यता की छाप पड़ ही नहीं पाती है। किन्तु मन तो गतिशील रहेगा ही, क्योंकि उसका धर्म भी जल की तरह प्रवाहमान रहना है। क्योंकि  चित्त का धर्म ही वैसा है, चित्त चीज ही वैसी है, उसका स्वरुप ही पारे के जैसा है। तब, उस मन के प्रवाह को कल्याणवहा कैसे किया जाये ? यदि उसके प्रवाह की धारा की तली या फर्श विवेक की बनी हुई हो, तो उस चिन्तन प्रवाह को हम कैवल्य के पथ में अपने स्वरुप को जानने के दिशा में ले जा सकते हैं।
संसारप्राग्भाराऽविवेकविषयनिम्ना पापवहा। यदि हम उसका विपरीत करें, अर्थात अविवेक के उपर से यदि चिन्तन धारा को बहने दिया जाये तो वह धारा कैवल्य की और न जाकर संसार की ओर बहने लगेगी, जो हमारे बंधन का कारण होगा, उसी ओर ले जाएगी। चित्त की इसी धारा का नाम है-पापवहा धारा । तो फिर हमें क्या करना होगा ? तत्र वैराग्येण विषयस्रोतः खिलीक्रियते --पतंजली सूत्र के भाष्य में व्यासदेव कहते हैं, हमलोग आसक्ति के त्याग का मनोभाव बनाकर, या वैराज्ञ का फाटक लगाकर पापवहा चिन्तन प्रवाह को रुद्ध कर देना होगा, और विवेकदर्शन का अभ्यास या विवेक-प्रयोग द्वारा कल्याणवहा स्रोत को उद्घाटित करना होगा। जिस प्रकार डैम का फाटक गिरा कर, नदी की धारा को रोक दिया जाता है, उसी प्रकार पाप की चिन्तन धारा को भी वैराज्ञ के मनोभावरूपी फाटक से बन्द कर दो।  
विवेकदर्शनाभ्यासेन विवेकस्रोत्र उद्धाट्यत
और जो स्वतः कल्याण की दिशा में बहने वाली चिन्तन धारा है, उसको विवेक के अभ्यास द्वारा खोल दो, चित्त की चिन्तन धारा को विवेक की तली से ही प्रवाहित होने दो। जिस व्यक्ति का चित्त इस प्रकार कल्याण मुखी हो जाता है, उसी मनुष्य को सुसंस्कृत मनुष्य कहा जा सकता है। 
[2/13, 01:42] आचार्य मंगलेश्वर त्रिपाठी: प्रभवार्थाय भूतानां धर्मप्रवचनं कृतम्। 
यः स्यात्प्रभवसंयुक्तः स धर्म इति निश्चयः।। 
- महर्षियों ने मनुष्य की उन्नति के लिए ही धर्म का प्रवचन किया है। जिससे मनुष्य का कल्याण होता हो वही धर्म है।
[2/13, 01:42] आचार्य मंगलेश्वर त्रिपाठी: मेरा मानना है कि भेद-भाव इतना बुरा भी नही है जितना लोग समझते है। क्योंकि ढाई अक्छर का पवित्र शब्द "प्रेम" का प्रारम्भ भेद भाव से ही होता है।या यो कहे अगर भेद भाव न हो तो शायद प्रेम हो ही नही। आइए समझे भेद भाव है क्या? --मैं और तू!यही है भेद भाव।विस्तार में चले। प्रेम दो तरह के होते है।एक साधारण प्रेम,दूसरा अतिशय प्रेम। कोई हमे कहे प्रेम करो। तब प्रश्न उठता है किससे करू?भाई कोई वस्तु,कोई जिव तो होना चाहिए न? यही भेद भाव है। साधारण प्रेम में मैं और तू ये दो भिन्न होते है ।ये प्रारम्भिक प्रेम है,भेद भाव दोनों में होती है।पर जब वही प्रेम अतिशय हो जाय तो दोनों एक हो जाते है। जैसे जिव और ईश्वर।प्रारम्भिक प्रेम में दोनों भिन्न होते है दोनों में भेद भाव रहता है मैं जिव हु ये ईश्वर है। पर जब दोनों में अतिशय प्रेम हो जाता है तो दोनों एक हो जाते है भेद भाव खत्म हो जाता है।आप कहेंगे प्रमाण? तो लीजिए प्रमाण भी देता हूं।किसी ने गोस्वामी जी से पूछा भगवान को कौन जान सकता है?बोले कोई नही। फिर भी?बोले--सोई जानई जेहि देहु जनाई,(जिसे भगवान जना से वही जान सकता है)फिर क्या होगा? बोले--जानत तुम्हहि तुम्हई होइ जाइ । ( जो भगवान को जान लेता है वह भगवान ही हो जाता है।फिर जिव और ईश्वर में भेद ही नही रह जाता। जैसे दूध और पानी। दोनों अलग चीज,वस्तु है।पर पानी को दूध में मिला दे तो वह दूध बन जाता है। जिव ईश्वर का अंश है। जिव अंश है,ईश्वर अंशी है अतिशय प्रेम में अंश और अंशी मिल जाते है। प्रेम जब अनन्त हो गया,रोम रोम सन्त हो गया- - - । हाँ एक बात है भेद-भाव हर जगह नही। जैसे--गरीब आमिर,ऊंच नीच,जात पात को लेकर किसी को सतना, या निचा दिखाना,तिरस्कार करना,सरकार से लाभ लेना आरक्छन आदि ये सब गलत है। कहने का भाव ये है कि भेद-भाव न कभी खत्म होगा,न ही होना चाहिए। क्योंकि ये तो प्रेम को बढ़ाने में कार्य करता है। आप सभी गुरुजनो,विद्वानों भाइयो बहनो को नमन बन्दन प्रणाम। मेरा यैसा लिखने से यदि किसी को बुरा लगे तो माफ करेंगे। ये तो एक मन की उद्गार था जो डरते डरते प्रकट किया।
[2/13, 01:42] आचार्य मंगलेश्वर त्रिपाठी: पत्नी सावित्री ने ब्रह्मा जी को क्यों दिया था श्राप

हिन्दू धर्मग्रन्थ पद्म पुराण के मुताबिक एक समयधरती पर वज्रनाश नामक राक्षस ने उत्पात मचा रखा था। उसके बढ़ते अत्याचारों से तंग आकर ब्रह्मा जी ने उसका वध किया। लेकिन वध करते वक़्त उनके हाथों से तीन जगहों पर कमल का पुष्प गिरा, इन तीनों जगहों पर तीन झीलें बनी। इसी घटना के बाद इस स्थान का नाम पुष्कर पड़ा। इस घटना के बाद ब्रह्मा ने संसार की भलाई के लिए यहाँ एक यज्ञ करने का फैसला किया।

ब्रह्मा जी यज्ञ करने हेतु पुष्कर पहुँच गए लेकिन किसी कारणवश सावित्री जी समय पर नहीं पहुँच सकी। यज्ञ को पूर्ण करने के लिए उनके साथ उनकी पत्नी का होना जरूरी था, लेकिन सावित्री जी के नहीं पहुँचने की वजह से उन्होंने गुर्जर समुदाय की एक कन्या ‘गायत्री’ से विवाह कर इस यज्ञ शुरू किया। उसी दौरान देवी सावित्री वहां पहुंची और ब्रह्मा के बगल में दूसरी कन्या को बैठा देख क्रोधित हो गईं।
उन्होंने ब्रह्मा जी को श्राप दिया कि देवता होने के बावजूद कभी भी उनकी पूजा नहीं होगी। सावित्री के इस रुप को देखकर सभी देवता लोग डर गए। उन्होंने उनसे विनती की कि अपना शाप वापस ले लीजिए। लेकिन उन्होंने नहीं लिया। जब गुस्सा ठंडा हुआ तो सावित्री ने कहा कि इस धरती पर सिर्फ पुष्कर में आपकी पूजा होगी। कोई भी दूसरा आपका मंदिर बनाएगा तो उसका विनाश हो जाएगा। भगवान विष्णु ने भी इस काम में ब्रह्मा जी की मदद की थी। इसलिए देवी सरस्वती ने विष्णु जी को भी श्राप दिया था कि उन्हें पत्नी से विरह का कष्ट सहन करना पड़ेगा। इसी कारण राम (भगवान विष्णु का मानव अवतार) को जन्म लेना पड़ा और 14 साल के वनवास के दौरान उन्हें पत्नी से अलग रहना पड़ा था।
[2/13, 01:42] आचार्य मंगलेश्वर त्रिपाठी: श्रीहरिः
प्रतिष्ठित परिवार
श्री धरमार्थ समूह से एक महत्वपूर्ण शब्द की जानकारी चाहता हँ
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संदर्भ सहित विस्तृत जानकारी देने का कष्ट करेंगे

आस्पद
क्या है
किसे कहते हैं
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[2/13, 01:42] आचार्य मंगलेश्वर त्रिपाठी: आस्पदशब्दो$यं प्रतिष्ठायां,पदे स्थाने
यथा=सरागमस्यारसनागुणास्पदम्(कुमारसम्भवे)
निर्धनता सर्वापदास्पदम्( किरातार्जुनीयम्)
[2/13, 01:42] आचार्य मंगलेश्वर त्रिपाठी: वह मानव निर्मित वस्तु जिसमें कुछ रखा जाता है
उदाहरण: वह कुत्ते को मिट्टी के पात्र में दूध पिला रहा है ।
निश्चित और परिमित स्थितिवाला वह भू-भाग जिसमें कोई बस्ती, प्राकृतिक रचना या कोई विशेष बात हो
उदाहरण: काशी हिन्दुओं का धार्मिक स्थान है ।
वह स्थान जहाँ कोई रहता हो
उदाहरण: स्वच्छ और हवादार आवास स्वास्थ्य के लिए लाभदायक होता है।
पद, मर्यादा आदि के विचार से समाज में किसी व्यक्ति, संस्था आदि की वह विधिक स्थिति जो अपने क्षेत्र में कुछ निश्चित सीमा में प्राप्त होती है
उदाहरण: किसी की स्थिति उसकी मर्यादा, पद, सम्मान आदि का सूचक होती है ।
वंश का नाम
उदाहरण: प्रपत्र के इस खंड में आप अपना गोत्र या उपगोत्र लिख सकते हैं ।
जन्म कुंडली में दसवाँ स्थान
उदाहरण: बिटिया का आस्पद अधिक प्रबल है ।
[2/13, 01:42] आचार्य मंगलेश्वर त्रिपाठी: अबुद्धिमाश्रितानां तु क्षन्तव्यमपराधिनाम् । न हि सर्वत्र पाण्डित्यं सुलभं पुरुषेण वै ॥

भावार्थ :
अनजाने में जिन्होंने अपराध किया हो उनका अपराध क्षमा किया जाना चाहिए, क्योंकि हर मौके या स्थान पर समझदारी मनुष्य का साथ दे जाए ऐसा हो नहीं पाता है । भूल हो जाना असामान्य नहीं, अतः भूलवश हो गये अनुचित कार्य को क्षम्य माना जाना चाहिए ।
[2/13, 01:42] आचार्य मंगलेश्वर त्रिपाठी: ननु स्वार्थपरो लोको न वेद परस्पङ्कटम् ।
यदि वेद न याचेत नेति नाह यदीश्वरः ॥ 
( श्रीमद्भा० ६ । १० । ६ )

 जो मनुष्य दूसरों के दुःख-कष्ट को अपना दुःख-कष्ट नहीं समझता, वह अनिवार्यतः स्वार्थी होता है। जो समझ लेता है, वह अपने लिये दूसरों से कुछ भी नहीं चाहता। किन्तु कोई यदि संकट में पड़कर उससे कुछ भी माँगता है तो वह कभी ' ना ' नहीं कहता। भागवत पुराण में तीन कथाओं के माध्यम से इस श्लोक की महिमा के बारे में बताया गया है कि कैसे - जो पुरुष नाशवान् शरीरके द्वारा समर्थ होकर भी प्राणियों पर दया करके धर्म या यश प्राप्त करनेकी इच्छा, चेष्टा, प्रयत्न नहीं करता, वह तो स्थावर वृक्ष - पर्वतादि से भी गया-गुजरा है, उसकी दशा अधिक शोचनीय है; क्योंकि वृक्ष - पर्वतादि भी अपने शरीर के द्वारा प्राणियों की सेवा करते हैं
[ कथा इस प्रकार है श्रीप्रह्लाद जी के पुत्र दैत्यराज विरोचन परम ब्राह्मणभक्त थे । इन्द्रके साथ ही ब्रह्मलोकमें ब्रह्माजी के पास ब्रह्मचर्यका पालन करते हुए उन्होंने निवास किया था। ब्रह्माजी के द्वारा उपदेश किया हुआ तत्त्वज्ञान यद्यपि वे यथार्थरुप से ग्रहण नहीं कर सके, तथापि धर्ममें उनकी श्रद्धा थी और उनकी गुरुभक्ति के कारण महर्षि शुक्राचार्य उनपर बहुत प्रसन्न थे । विरोचन के दैत्याधिपति होनेपर दैत्यों, दानवों तथा असुरों का बल बहुत बढ़ गया था । इन्द्र को कोई रास्ता ही नहीं दीखता था कि कैसे वे दैत्योंकी बढ़ती हुई शक्तिको दबाकर रक्खें । विरोचनने स्वर्गपर अधिकार करनेकी इच्छा नहीं की थी; किंतु इन्द्रका भय बढ़ता जाता था । इन्द्र देखते थे कि यदि कभी दैत्योंने आक्रमण किया तो हम धर्मात्मा विरोचन को हरा नहीं सकते । अन्तमें देवगुरु बृहस्पति की सलाह से एक दिन वे वृद्ध ब्राह्मण का रुप धारण करके विरोचन के यहाँ गये । ब्राह्मणोंके परम भक्त और उदार शिरोमणि दैत्यराज ने उनका स्वागत किया, उनके चरण धोये और उनका पूजन किया। इन्द्रने विरोचन के दान और उनकी उदारता की बहुत ही प्रशंसा की । विरोचन ने नम्रतापूर्वक वृद्ध ब्राह्मण से कहा कि ' आपको जो कुछ माँगना हो, उसे आप संकोच छोड़कर माँग लें ।' इन्द्रने बातको अनेक प्रकार से पक्की कराके तब कहा -- ' दैत्यराज ! मुझे आपकी आयु चाहिये ।' बात यह थी कि यदि विरोचन को किसी प्रकार मार भी दिया जाता तो शुक्राचार्य उन्हें अपनी संजीवनी विद्या से फिर जीवित कर सकते थे । विरोचनको बड़ी प्रसन्नता हुई । वे कहने लगे -- ' मैं धन्य हूँ । मेरा जन्म लेना सफल हो गया । आज मेरा जीवन एक विप्रने स्वीकार किया, इससे बड़ा सौभाग्य मेरे लिये और क्या हो सकता है ।' अपने हाथमें खडग लेकर स्वयं उन्होंने अपना मस्तक काट कर वृद्ध ब्राह्मण बने हुए इन्द्रको दे दिया । इन्द्र उस मस्तक को लेकर भयके कारण शीघ्रता से स्वर्ग चले आये और यह अपूर्व दान करके विरोचन तो भगवान के नित्य धाममें ही पहुँच गये । भगवान नें उन्हें अपने निज जनों में ले लिया ।