Sunday, February 12, 2017

ननु स्वार्थपरो लोको न वेद परस्पङ्कटम् ।

ननु स्वार्थपरो लोको न वेद परस्पङ्कटम् ।
यदि वेद न याचेत नेति नाह यदीश्वरः ॥ 
( श्रीमद्भा० ६ । १० । ६ )

 जो मनुष्य दूसरों के दुःख-कष्ट को अपना दुःख-कष्ट नहीं समझता, वह अनिवार्यतः स्वार्थी होता है। जो समझ लेता है, वह अपने लिये दूसरों से कुछ भी नहीं चाहता। किन्तु कोई यदि संकट में पड़कर उससे कुछ भी माँगता है तो वह कभी ' ना ' नहीं कहता। भागवत पुराण में तीन कथाओं के माध्यम से इस श्लोक की महिमा के बारे में बताया गया है कि कैसे - जो पुरुष नाशवान् शरीरके द्वारा समर्थ होकर भी प्राणियों पर दया करके धर्म या यश प्राप्त करनेकी इच्छा, चेष्टा, प्रयत्न नहीं करता, वह तो स्थावर वृक्ष - पर्वतादि से भी गया-गुजरा है, उसकी दशा अधिक शोचनीय है; क्योंकि वृक्ष - पर्वतादि भी अपने शरीर के द्वारा प्राणियों की सेवा करते हैं
[ कथा इस प्रकार है श्रीप्रह्लाद जी के पुत्र दैत्यराज विरोचन परम ब्राह्मणभक्त थे । इन्द्रके साथ ही ब्रह्मलोकमें ब्रह्माजी के पास ब्रह्मचर्यका पालन करते हुए उन्होंने निवास किया था। ब्रह्माजी के द्वारा उपदेश किया हुआ तत्त्वज्ञान यद्यपि वे यथार्थरुप से ग्रहण नहीं कर सके, तथापि धर्ममें उनकी श्रद्धा थी और उनकी गुरुभक्ति के कारण महर्षि शुक्राचार्य उनपर बहुत प्रसन्न थे । विरोचन के दैत्याधिपति होनेपर दैत्यों, दानवों तथा असुरों का बल बहुत बढ़ गया था । इन्द्र को कोई रास्ता ही नहीं दीखता था कि कैसे वे दैत्योंकी बढ़ती हुई शक्तिको दबाकर रक्खें । विरोचनने स्वर्गपर अधिकार करनेकी इच्छा नहीं की थी; किंतु इन्द्रका भय बढ़ता जाता था । इन्द्र देखते थे कि यदि कभी दैत्योंने आक्रमण किया तो हम धर्मात्मा विरोचन को हरा नहीं सकते । अन्तमें देवगुरु बृहस्पति की सलाह से एक दिन वे वृद्ध ब्राह्मण का रुप धारण करके विरोचन के यहाँ गये । ब्राह्मणोंके परम भक्त और उदार शिरोमणि दैत्यराज ने उनका स्वागत किया, उनके चरण धोये और उनका पूजन किया। इन्द्रने विरोचन के दान और उनकी उदारता की बहुत ही प्रशंसा की । विरोचन ने नम्रतापूर्वक वृद्ध ब्राह्मण से कहा कि ' आपको जो कुछ माँगना हो, उसे आप संकोच छोड़कर माँग लें ।' इन्द्रने बातको अनेक प्रकार से पक्की कराके तब कहा -- ' दैत्यराज ! मुझे आपकी आयु चाहिये ।' बात यह थी कि यदि विरोचन को किसी प्रकार मार भी दिया जाता तो शुक्राचार्य उन्हें अपनी संजीवनी विद्या से फिर जीवित कर सकते थे । विरोचनको बड़ी प्रसन्नता हुई । वे कहने लगे -- ' मैं धन्य हूँ । मेरा जन्म लेना सफल हो गया । आज मेरा जीवन एक विप्रने स्वीकार किया, इससे बड़ा सौभाग्य मेरे लिये और क्या हो सकता है ।' अपने हाथमें खडग लेकर स्वयं उन्होंने अपना मस्तक काट कर वृद्ध ब्राह्मण बने हुए इन्द्रको दे दिया । इन्द्र उस मस्तक को लेकर भयके कारण शीघ्रता से स्वर्ग चले आये और यह अपूर्व दान करके विरोचन तो भगवान के नित्य धाममें ही पहुँच गये । भगवान नें उन्हें अपने निज जनों में ले लिया ।

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