Sunday, February 12, 2017

मेरा मानना है कि भेद-भाव इतना बुरा भी नही है

मेरा मानना है कि भेद-भाव इतना बुरा भी नही है जितना लोग समझते है। क्योंकि ढाई अक्छर का पवित्र शब्द "प्रेम" का प्रारम्भ भेद भाव से ही होता है।या यो कहे अगर भेद भाव न हो तो शायद प्रेम हो ही नही। आइए समझे भेद भाव है क्या? --मैं और तू!यही है भेद भाव।विस्तार में चले। प्रेम दो तरह के होते है।एक साधारण प्रेम,दूसरा अतिशय प्रेम। कोई हमे कहे प्रेम करो। तब प्रश्न उठता है किससे करू?भाई कोई वस्तु,कोई जिव तो होना चाहिए न? यही भेद भाव है। साधारण प्रेम में मैं और तू ये दो भिन्न होते है ।ये प्रारम्भिक प्रेम है,भेद भाव दोनों में होती है।पर जब वही प्रेम अतिशय हो जाय तो दोनों एक हो जाते है। जैसे जिव और ईश्वर।प्रारम्भिक प्रेम में दोनों भिन्न होते है दोनों में भेद भाव रहता है मैं जिव हु ये ईश्वर है। पर जब दोनों में अतिशय प्रेम हो जाता है तो दोनों एक हो जाते है भेद भाव खत्म हो जाता है।आप कहेंगे प्रमाण? तो लीजिए प्रमाण भी देता हूं।किसी ने गोस्वामी जी से पूछा भगवान को कौन जान सकता है?बोले कोई नही। फिर भी?बोले--सोई जानई जेहि देहु जनाई,(जिसे भगवान जना से वही जान सकता है)फिर क्या होगा? बोले--जानत तुम्हहि तुम्हई होइ जाइ । ( जो भगवान को जान लेता है वह भगवान ही हो जाता है।फिर जिव और ईश्वर में भेद ही नही रह जाता। जैसे दूध और पानी। दोनों अलग चीज,वस्तु है।पर पानी को दूध में मिला दे तो वह दूध बन जाता है। जिव ईश्वर का अंश है। जिव अंश है,ईश्वर अंशी है अतिशय प्रेम में अंश और अंशी मिल जाते है। प्रेम जब अनन्त हो गया,रोम रोम सन्त हो गया- - - । हाँ एक बात है भेद-भाव हर जगह नही। जैसे--गरीब आमिर,ऊंच नीच,जात पात को लेकर किसी को सतना, या निचा दिखाना,तिरस्कार करना,सरकार से लाभ लेना आरक्छन आदि ये सब गलत है। कहने का भाव ये है कि भेद-भाव न कभी खत्म होगा,न ही होना चाहिए। क्योंकि ये तो प्रेम को बढ़ाने में कार्य करता है। आप सभी गुरुजनो,विद्वानों भाइयो बहनो को नमन बन्दन प्रणाम। मेरा यैसा लिखने से यदि किसी को बुरा लगे तो माफ करेंगे। ये तो एक मन की उद्गार था जो डरते डरते प्रकट किया।

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