Tuesday, June 28, 2016

भ्रष्टाचार मुक्त भारत

भ्रष्टाचार मुक्त भारत बनाने के संकल्प को लेकर जो आन्दोलन शुरू हुआ था, वह स्वार्थ और महत्वाकांक्षा के चलते भ्रष्ट-सियासी सोच में उलझ गया है। सब चाहते है संसदीय जनतंत्र को सदाचारी होना चाहिए, किन्तु कैसे? इस प्रश्न के जवाब में संस्कारपरक कार्ययोजना की जरूरत है। जिसका प्रेरक है पौराणिक प्रह्लाद प्रसंग। जब हिरण्यकश्यप की कुशासनिक व्यवस्था परिवर्तन हो सकती है तो नित नये घोटालों को जन्म देने वाली भ्रष्ट व्यवस्था परिवर्तन क्यों नहीं हो सकती? हिरण्यकश्यप की कुशासनिक व्यवस्था में हाहाकार मचा था। रानी कयाधू का देवराज इन्द्र ने हरण किया। कयाधू का गर्भस्थ बालक वंशानुक्रम गुण दोषों के आधार पर हिरण्यकश्यप का ‘बाप’ होगा। यानी ऐसे दैत्यराज का जन्म से पहले ही बध करना होगा, यह सोचकर इन्द्र भ्रूणहत्या करना चाहते थे। इस बीच देवर्षि नारद ने इन्द्र को अनर्थ करने से रोक दिया- ‘‘संस्कार द्वारा ही व्यवस्था परिवर्तन संभव है, हिंसा से नहीं। इन्द्र से नारद जी ने कहा कयाधू मेरे हवाले कर दो, मैं जिम्मेदारी लेता हूं कि भावी दैत्यसुत देवत्व संपन्न होगा।’’ कयाधू को लेकर देवर्षि नारद अपने आश्रम में ले गये। वहां एक शिक्षक की भांति कयाधू को पढ़ाने लगे। वे जानते थे कि पतिव्रता कयाधू को नहीं बदल सकते, उनकी ध्येय गर्भस्थ शिशु को सद्संस्कार देकर शिक्षित करना था। वे उसमें सफल भी हुए। पाठ्यक्रम पूरा होते ही कयाधू को नारद ने वापस भेज दिया। प्रह्लाद जन्मना ही देवत्वपूर्ण था, देवर्षि की दृढ़ इच्छाशक्ति के आधार पर सत्यनिष्ठा के प्रताप से ही व्यवस्था परिवर्तित हुई। आज भावी पीढ़ी को दुराचारी प्रवृत्ति से बचाने की जरूरत है, वह भी सद्संस्कारों से, ताकि आने वाला समय भष्टाचार मुक्त हो सके। भ्रष्टाचार के बीजारोपण भावी पीढ़ी में कुसंस्कार के रूप देने वाले कोई और नहीं, हम अभिभावक एवं शिक्षक ही हैं। सरकारी नौकरी के लिए मैरिट जरूरी है, अभिभावक उच्चमैरिट के लिए जुगाड़ लगाता है, लोभी शिक्षक सुविधाशुल्क के बदले अच्छी मैरिट की गारंटी ले लेते है। बच्चे में यह कुसंस्कार नहीं तो क्या है। किसी भी कार्यसिद्धि के लिए सिफारिश और जुगाड़ की मानसिकता ही भ्रष्टाचार की श्रेणी में आती है, लिहाजा अनासक्त-सत्यनिष्ठ कर्मयोगियों को नारद नीति के तहत आध्यात्मिक शैली में अभियान चलाना होगा। याद करें व्यवस्था को बदलने के लिए शिक्षा को ही सहज रास्ता माना जाता रहा है। शैशव, बाल, किशोर व युवा वर्ग में सदाचार के लिए नैतिक शिक्षा का पाठ्यक्रम लंबे समय तक रहा मगर कोई असर नहीं पड़ा। क्योंकि नैतिक शिक्षा का पाठ्यक्रम शासन स्तर पर था। क्या हिरण्यकश्यप ब्रह्मनिष्ठा का पाठ्यक्रम ला सकता था, ब्रह्मनिष्ठा के सद्संस्कार देवर्षि नारद ने दिये। उसी आधार पर सत्यनिष्ठ कर्मयोगियों को अनासक्त भाव से नारदनीति को नजीर बनाकर चाणक्यनीति का अनुपालन करते हुए भावी पीढ़ी की मानसिकता से भ्रष्टाचार के दूषित बायरस को मिटाने के लिए सद्संस्कार रूपी ऐण्टीवायरस का प्रयोग करना होेगा। कार्य योजना के तहत सभी जगह सत्यनिष्ठजनों की टीम बनाई जानी चाहिये। जो निकटवर्ती शिक्षण संस्थाओं में जाकर सप्ताह में एक वार संयुक्त कक्षा लेकर सन्मार्ग दिखाते हुए भारत के भविष्य को स्वच्छ बनाने का प्रयास करेंगे। यह अभियान दीर्घकालिक ही नहीं निरंतर प्रक्रिया हो जायेगी, बिल्कुल पल्स पोलियो अभियान की तरह। पोलियो के विषाणु मारे जा सकते हैं तो भ्रष्टाचार के क्यों नहीं? सदाचारी मानसिकता की भावी पीढ़ी शासन- प्रशासन में दाखिल होगी, तो व्यवस्था परिवर्तन का अहसास होने लगेगा।
पं. मंगलेश्वर त्रिपाठी✍

Monday, June 27, 2016

वात्‍यल्‍य रस की शुद्ध मूर्ति माता के सहज स्‍नेह की तुलना इस ज

वात्‍यल्‍य रस की शुद्ध मूर्ति माता के सहज स्‍नेह की तुलना इस जगत् में, जहाँ केवल अपना स्‍वार्थ ही प्रधान है, कहीं ढूँढने से भी न पाइएगा - सच है -

कुपुत्रो जाएत क्‍वचिदपि कुमाता न भवति।

मातृस्‍थानापन्‍न दादी, दादा, चाचा, ताऊ आदि का स्‍नेह बहुधा औचित्‍य विचार और मर्यादा परिपालन के ध्‍यान से देखा जाता है। किंतु माता तथा पिता का स्‍नेह पुत्र में निरे वात्‍सल्‍य भाव के मूल पर है। अब इन दोनों में भी विशेष आदरणीय, सच्‍चा और नि:स्‍वार्थ प्रेम किसका है? इसकी समालोचना आज हमारे इस लेख का मुख्‍य उद्देश्‍य है। लोग कहते हैं लाड़ प्‍यार से लड़के बिगड़ते हैं पर सूक्ष्‍म विचार से देखिए तो बालकों में हर एक अच्‍छी बातों का अंकुर गुप्‍त रीति पर प्‍यार ही से जमता है। विलायत के एक चितेरे ने लिखा है कि ''मेरी माँ के बाल चूम लेने ने मुझे चित्रकारी में प्रवीण कर दिया।'' गुरु और उस्‍ताद जितना हमें पाठशालाओं में भय और ताड़ना दिखला कर वर्षों में सिखला सकते हैं उतना अपने घर में हम सुतवत्‍सला माँ के अकृत्रिम सहज स्‍नेह के एक दिन में सीख लेते हैं। माँ का स्‍वाभाविक, सच्‍चा और वे बनावटी प्रेम का प्रमाण इससे बढ़कर और क्‍या मिल सकता है कि लड़का कितना ही रोता हो या बिरझाया हुआ हो माँ की गोद में जाते ही चुप हो जाता है। इसी तरह जहाँ थोड़ी देर तक लड़के ने दूध न पिया तो माँ के स्‍तन भी दूध से भर आते हैं, दूध टपकने लगता है और वह विकल हो जाती है। बिंदुपात के उपरांत पिता अलग हो जाता है। दश मास तक गर्भ में धारण का क्‍लेश, जनने के समय की पीड़ा, उसके पालन-पोषण की चिंता और फिक्र, उसे नीरोग और प्रसन्न देख चित्‍त का हुलास, रोगी तथा अनमन देख अत्यंत विकल होना इत्‍यादि सब माता ही में पाया जाता है। माता और पिता के स्‍नेह का तारतम्‍य इससे अधिक स्‍पष्‍ट और क्‍या हो सकता है कि लड़का कुपूत और निकम्‍मा निकल जाए तो बाप कभी उसका साथ नहीं देता, बल्कि घर से निकाल अलग कर देता है, पर माँ बहुधा सात भांवर वाले पति को भी त्‍याग निकम्‍मे पुत्र का साथ देती है। बंगालियों में तथा हमारे देश के कनौजियों में, जिनके बीच बहु-विवाह प्रचलित है अर्थात पुरुष बहुत-सी स्त्रियों को ब्‍याह लेने की बुराई को बुराई नहीं समझते, इसके बहुत से उदाहरण पाए जाते हैं। दो चार नहीं वरन हजार पाँच सौ ऐसी माँ देखी गई है जिन्‍होंने बालक की अत्यंत कोमल अवस्‍था ही में पिता के न रहने पर चक्कियाँ पीस-पीस अपने पुत्र को पाला और उसे पढ़ा-लिखा कर सब भाँति समर्थ और योग्‍य कर दिया। पुत्र भी ऐसे-ऐसे सुयोग्‍य हुए हैं कि जैसे सब भाँति भरे-पूरे घरानों में भी न निकलेंगे। जब महा‍कवि श्रीहर्ष पाँच वर्ष के थे तो इनके पिता ने वाद में पराजित हो लाज से तन त्‍याग दिया। तब इनकी माँ ने चिंतामणि मंत्र का इनसे जप करवा कर तथा सरस्‍वती देवी का कृपापात्र इन्‍हें कर अत्यंत उद्भट पंडित बना दिया और पीछे से अपने पति के परास्‍त करने वाले पण्डितों को इनके द्वारा वाद में हराय पूरा बदला चुका लिया।
पुराणों में ऐसी अनेक कथाएँ मिलती हैं जिनमें माता का वात्‍सल्‍य टपक रहा है। माँ का एक बार का प्रोत्‍साहन पत्र के लिए जैसा उपकारी और उसके चित्‍त में असर पैदा करने वाला होता है वैसा पिता की सौ बार की नसीहत और ताड़ना भी नहीं होती। सौतेली माँ सुरुचि के वज्रपात सदृश वाक् प्रहार से ताड़ित और पिता की अवज्ञा और निरादर से अत्यंत संतापित ध्रुव को, जब वह केवल पाँच ही वर्ष के बालक थे, सुनीथा देवी का एक बार का प्रोत्‍साहन उनके लिए ध्रुवपद की प्राप्ति का हेतु हुआ, जिसके समान उच्‍च और स्थिर पद आज तक किसी को मिला ही नहीं। पिता का स्‍नेह बदला चुकाने की इच्‍छा से होता है। वह पुत्र को इसीलिए पालता पोषता और पढ़ाता-लिखाता है कि बुढ़ापे में वह हमारे काम आएगा तथा जब हम सब भाँति अपाहिज और अपंग हो जाएँगे तो हमारी सेवा करेगा और हमारे अन्‍न वस्‍त्र की फिक्र रखेगा। पर माँ का उदार और अकृत्रिम प्रेम इन सब बातों की कभी नहीं इच्‍छा रखता। माँ अपने प्रिय संतान के लिए कितना कष्‍ट सहती है जिसे याद कर चित्‍त में वात्‍सल्‍यभाव का उद्गार हो आता है। माँ में पिता के समान प्रत्‍युपकार की वासना भी नहीं है, दया मानो देह धरे सामने आकर खड़ी हो जाती है। टूटी फूस की मढ़ी में, जब कि मूसलाधार अखंड पानी बरस रहा है और फस का ठाठ सब ओर से ऐसा टपकता है कि कहीं बीता भर जगह बची नहीं है न गरीबी के कारण इतना कपड़ा लत्‍ता पास है कि आप भी ओढ़े और प्रिय संतान को ढाँप कर वृष्टि के भयंकर उत्‍पात से बचाए, माता आधी धोती ओढ़े आधी से अपने दुधमुहे बालक को ढाँपे उसको छाती से लगाए हुए है। अपने प्राण और देह की उसे तनिक भी चिंता नहीं है, किंतु वात और वृष्टि से पुत्र को कोई अनिष्‍ट न हो इस लिए वह अत्यंत व्‍यग्र हो रही है। पुत्र की रोगी अस्‍वस्‍थ दशा में पलंग के पास बैठी उदासीन मन सारे वह उसका मुँह ताक रही है। रात की नींद और दिन का भोजन, उसे मुहाल हो गया है। भाँति-भाँति की मान-मनौती तथा उतारा और सदके में वह लगी है। जो जौन कहता है वह सब कुछ करती जाती है। अपनी जान तक चाहे चली जाए पर पुत्र को स्‍वस्‍थता हो इसी की फिक्र में वह है।
पिता के अपने शरीर पर इतना कष्‍ट उठाना कभी न भाएगा। यह माता ही है जो पुत्र के स्‍वाभाविक स्‍नेह के परवश हो इतने-इतने दु:ख सहती है। बुद्धिमानों ने इन्‍हीं सब बातों को सोच विचार कर लिख दिया कि ''पिता से माँ का गौरव सौ गुना अधिक है।''

प्रधान संकल्प

प्रधान संकल्प

ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णु:श्रीमद्भगवतो महापुरूषस्य विष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्य अद्य ब्रह्मणो द्वितीयपरार्द्धे श्रीश्वेतवराहकल्पे वैवस्वत मन्वन्तरेऽष्टाविंशतितमे कलियुगे कलिप्रथमचरणे जम्बूद्वीपे भारतवर्षे भरतखण्डे आर्यावर्तान्तर्गतब्रह्मावर्तैकदेशे श्रीरामक्षेत्रे परशुरामाश्रमे दण्डकारण्यदेशे पुण्यप्रदेशे महाराष्ट्रमहामण्डलान्तर्गते  ........ग्रामे गोदावर्या: दक्षिणदिङ्भागे श्रीमल्लवणाब्धे सिन्धुतीरे 
श्रीसंवत् द्वयसहस्त्र त्रयोसप्तति:शालिवाहनशाकेऽस्मिन् वर्तमाने सौम्य नामसंवत्सरे श्रीसूर्ये उत्तरायणे वसन्तर्तोः महामांगल्यप्रदेवैशाखमासे शुभेशुक्लपक्षे तृतियांतिथौ श्रीचंद्रवासरान्वितायाम् मृगशिरानक्षत्रे सुकर्मायोगे गरजकरणे मिथुनराशौ स्थितेश्रीचन्द्रे मेषराशिस्थितेश्रीसूर्ये शेषेषुग्रहेषु भौम बुध गुरू शुक्र शनि राहु केत्वादि यथायथं राशिस्थितेेषु  सत्सु एवंगुणविशेषण विशिष्टायां शुभपुण्यतिथौ, नाना नामगोत्रोत्पन्नो शर्मा/वर्मा/गुप्तो/दासो वा  सपत्नीको यजमानोऽहम् --मम आत्मन:श्रुति स्मृति पुराणोक्त पुण्य फल प्राप्त्यर्थम् धर्माऽर्थ काम मोक्ष पुरूषार्थचतुष्टयप्राप्त्यर्थं अप्राप्तलक्ष्मीप्राप्त्यर्थं प्राप्तलक्ष्म्याः चिरकालसंरक्षणार्थम् एेश्वर्याभिः वृद्'ध्यर्थं सकल इप्सित कामना संसिद्'ध्यर्थम् लोके सभायां राजद्वारे वा सर्वत्र विजयलाभादि प्राप्त्यर्थं इह जन्मनिजन्मान्तरे वा सकल दुरितोपशमनार्थं मम सभार्यस्य सपुत्रस्य सबान्धवस्य अखिलकुटुम्बसहितस्य सपशो: समस्त भय व्याधि जरा पीड़ा मृत्यु परिहार द्वारा आयु: ऐश्वर्याभि वृद्'ध्यर्थं मम जन्मराशे: अखिलकुटुम्बस्य वा जन्मराशे: सकाशात् केचिद् विरूद्ध चतुर्थाऽष्टमद्वादशस्थानस्थित क्रूर ग्रहा: तै: सूचितम् सूचयिष्यमाणं च यत् सर्वाऽरिष्टं तद्विनाशद्वारा एकादश स्थान स्थितिवत् शुभफल प्राप्त्यर्थं पुत्रपौत्रादि सन्तते: अविच्छिन्न वृद्धि अर्थं आदित्यादि नवग्रहाणां अनुकूलता सिद्धि अर्थं इन्द्रादि दशदिक्पालानां प्रसन्नता सिद्धि अर्थं आधिदैहिक आधिभौतिक आध्यात्मिक त्रिविधतापोपशमनार्थं तथा च अस्मिन् गृहनिर्माणकाले नानाविध जीवहिंसादि जन्य सकल पातक निरसन पूर्वकं सर्वारिष्ट शांत्यर्थम् सुवर्ण रजत ताम्र त्रपु सीसक कांस्य लौह पाषाणादि अष्ट शल्य मेदिनी दोष परिहार पूर्वकम्  आयव्यादि भवनदोष परिहारार्थम् अस्मिन् गृहे सुखपूर्वक सपरिवार चिरकाल निवासार्थम् श्री वास्तुदेवता प्रीत्यर्थम् सग्रहमखं वास्तुशान्त्यख्यं कर्म करिष्ये तथा च अद्यदिवसे शुभ वेलायां मंगलवेलायां प्रातःकालेऽस्मिन् नूतनगृहे तदंगभूतं निर्विघ्नता सिध्यर्थम् गणपतिपूजनं तथा च वसोर्धारा सहित सगणेशगौर्यादि मातॄणां पूजनं तथा च ब्राह्मण वरणं च करिष्ये। तत्रादौ आसनविधि दिग्रक्षणं कलशार्चनम् स्वस्तिपुण्याहवाचनम् दीपपूजनं आकाशमण्डले सूर्यपूजनं शंख घण्टार्चनं उत्तरे हनुमत ध्यानं दक्षिणे कालभैरव ध्यानं च करिष्ये। सर्वेषां देवानां सर्वाषाम्देवीनां ध्यायामि यथालब्ध सामग्रीभि: पूजनं   शिख्यादिवास्तुमंण्डलस्थ देवानां ध्यानम् पूजनं महाकालीमहालक्ष्मीमहासरस्वती समन्विता चतुष्षष्टियोगिनीदेवता: ध्यायामि पूजनं एकोऽनपंचाशत् अजरादि क्षेत्रपाल मण्डल देवता ध्यानम् पूजनम् असंख्यातरूद्र सहित नवग्रहाणां मण्डलस्थ देवानां ध्यानम् पूजनं  कुण्डस्थदेवतापूजन सहित अग्निस्थापनं पूजनं श्रीसर्वतोभद्रमंण्डलस्थ देवानां ध्यानम् आवाहनम् पूजनं च करिष्ये !

Sunday, June 5, 2016

!!श्रीसत्यनारायण पूजन सामग्री!!

|| श्री सत्यनारायण पूजन सामग्री ||
हल्दी,कुमकुम,अबीर,गुलाल,कपूर५०ग्राम,माचिस,अगरबत्ती,लौंग,इलायची,गंगाजल,अत्तर, पान२५पत्ते,सोपारी ३०,लाल कपड़ा १,नारियल २,दीपक १,तामे का कलश १,५ कटोरी,३ चम्मच,३ थाली,२ बैठने का आसन ,दूध-दही-घी-सक्कर,पंचमेवा,सहद,जनेऊ ५,मौली धागा,छुट्टे फूल
,दुर्वा,विल्वपत्र,तुलसी
,२ छोटे हार,कापूस ,चौरंगपाट १,लक्ष्मी गणेश प्रतिमा,सत्यनारायण भगवान की फोटो,
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हवन सामग्री-:हवनपूड़ा
,नवग्रह संविधा,अगर तगर 
,जटामासी,भोजपत्र,गुगल
,पीली सरसो,काला तिल,कमलगट्टा,भोजपत्र, 
,जौ,घी १ पाव,आम की लकड़ी १ किलो,केले के खम्बे ४
,हवनकुण्ड !!
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पं.मंगलेश्वर त्रिपाठी
८८२८ ३४७८३०