Saturday, July 30, 2016

जो पिता के पैरों को छूता है

जो पिता के पैरों को छूता है वो कभी गरीब नहीं होता।
जो मां के पैरों को छूता है वो कभी बदनसीब नही होता।
जो भाई के पैरो को छूता है वो कभी गमगीन नही होता।
जो बहन के पैरों को छूता है वो कभी चरित्र  हीन नहीं होता
जो गुरू के पैरों को छूता है उस जैसा कोई खुशनशीब नहीं होता।
"धर्मार्थ वार्ता समाधान संघ"
पं.मंगलेश्वर त्रिपाठी✍

Thursday, July 28, 2016

लखनऊ के एक प्रोग्राम मे बाबा महाकाल जी के साथ

सतचण्डी यज्ञ मे आचार्य राजनाथ द्विवेदी जी के साथ

मेरे हाथो द्वारा हस्तनिर्मित पार्थिव शिवलिंग

एक बार महर्षि वाल्मीकि एक क्रौंच पक्षी के जोड़े को निहार रहे थे। वह जोड़ा प्रेमालाप में लीन था, तभी उन्होंने देखा कि एक बहेलिये ने कामरत क्रौंच (सारस) पक्षी के जोड़े में से नर पक्षी का वध कर दिया और मादा पक्षी विलाप करने लगी। उसके इस विलाप को सुन कर महर्षि की करुणा जाग उठी और द्रवित अवस्था में उनके मुख से स्वतः ही यह श्लोक फूट पड़ा--: मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः। यत्क्रौंचमिथुनादेकम् अवधीः काममोहितम्॥' ((निषाद)अरे बहेलिये, (यत्क्रौंचमिथुनादेकम् अवधीः काममोहितम्) तूने काममोहित मैथुनरत क्रौंच पक्षी को मारा है। जा तुझे कभी भी प्रतिष्ठा की प्राप्ति नहीं (मा प्रतिष्ठा त्वगमः) हो पायेगी) ज्ञान प्राप्ति के बाद उन्होंने प्रसिद्ध महाकाव्य "रामायण" (जिसे कि "वाल्मीकि रामायण" के नाम से भी जाना जाता है) की रचना की और "आदिकवि वाल्मीकि" के नाम से अमर हो गये। अपने महाकाव्य "रामायण" में अनेक घटनाओं के घटने के समय सूर्य, चन्द्र तथा अन्य नक्षत्र की स्थितियों का वर्णन किया है। इससे ज्ञात होता है कि वे ज्योतिष विद्या एवं खगोल विद्या के भी प्रकाण्ड पण्डित थे। अपने वनवास काल के मध्य "राम" वाल्मीकि ऋषि के आश्रम में भी गये थे। देखत बन सर सैल सुहाए। बालमीक आश्रम प्रभु आए॥ तथा जब "राम" ने अपनी पत्नी सीता का परित्याग कर दिया तब वाल्मीकि ने ही सीता को प्रश्रय दिया उपरोक्त उद्धरणों से सिद्ध है कि वाल्मीकि "राम" के समकालीन थे तथा उनके जीवन में घटित प्रत्येक घटनाओं का पूर्णरूपेण ज्ञान वाल्मीकि ऋषि को था। उन्हें "राम" का चरित्र को इतना महान समझा कि उनके चरित्र को आधार मान कर अपने महाकाव्य "रामायण" की रचना की।

सतचंण्डी यज्ञ मे आचार्य सुशील शास्त्री जी के साथ

जय माता दी

Tuesday, July 26, 2016

भगवान शिव के परम भक्त

भगवान शिव के परम भक्त पुष्पदंत प्रतिदिन विधिपूर्वक शिव पूजा करते थे अत: उन्हें नानाप्रकार के पुष्प तथा बिल्वपत्र की आवश्यकता होती थी। उस समय चित्ररथ नामक प्रतापी राजा हुए यह भी भगवान शिव के भक्त थे, पूजन में इन्हें भी पुष्प तथा अन्य वस्तुओं की प्रतिदिन आवश्यकता होती थी। सुविधानुसार इन्होंने अपने राज्य में एक उद्यान का निर्माण कराया। वहाँ मोंगरा, सेवंतिका, कमल, कृष्णकमल, गैंदा, चम्पा, चमेली इत्यादि कई प्रकार के पुष्प थे जिन्हें देश विदेश से लाया गया था, कई हजार बिल्व के वृक्ष थे राजा प्रतिदिन यहाँ से पुष्प लेजाकर शिवपूजन करते थे। एक दिन श्री पुष्पदंत प्रभु के लिये पुष्प लेकर जा रहे थे तभी उनके नेत्र इस सुन्दर उद्यान के पुष्पों पर पड़े उन्होंने सोचा कि इतने सुंदर पुष्प व्यर्थ ही देखने के लिये रखे गए हैं, इनका उपयोग तो शिवपूजन में होना चाहिये। दूसरे दिन पुर्वान्ह में वे इसी उद्यान में आए और पुष्प तोड़ने लगे, सारे माली शयन कर रहे थे अत: किसी ने पुष्पदंत को नही देखा, उन्होंने शिव पूजा की। सुबह राजा चित्ररथ को मालियों ने बताया कि कोई पुष्प की चोरी कर रहा है। राजा ने कई यत्न किया परंतु वह पुष्पदंत को पकड़ नहीं सका, उसने सोंचा कि जरूर यह कोई मायावी पुरुष है। रात्रि में राजा नें उद्यान के मुख्य द्वार पर शिव निर्माल्य रखवा दिया तथा ऊपर से कपड़ा डाल दिया, प्रात: जब पुष्पदंत उद्यान में प्रवेश कर रहा था तब उनके पैर शिवनिर्माल्य वस्तुओं पर पड़ी जिससे पुष्पदंत की सभी दैवीय शक्तियाँ नष्ट हो गईं। पुष्पदंत अत्यंत दुखी हुए तथा उन्होने वहीं एक शिवलिंग का निर्माण किया और विधिपूर्वक पूजा की तथा शिव को प्रसन्न करने हेतु उन्होनें एक स्तोत्र का पाठ किया। शिवशंकर के पास सबके लिये दया है, दया का भंडार है तभी उनका भोले भंडारी भी नाम है। प्रभु ने पुष्पदंत को क्षमादान दिया। भगवान बोले कि तुमने जिस श्लोकसंग्रह से मेरी प्रार्थना की मुझे सर्वदा प्रिय रहेगा तथा आगे जाकर श्रीशिवमहिम्न स्तोत्र के नाम से प्रचलित होगा। तुम्हारे द्वारा निर्मित यह शिवलिंग पुष्पदंतेश्वर शिवलिंग के नाम से जाना जाएगा, जो भी इसका दर्शनमात्र करेगा उसके सारे दुख दूर होंगे तथा स्तोत्रपाठ से वह पुण्य का भागी होगा।
शिवमहिम्न स्तोत्र के अंतिम श्लोक में लिखा है:--
श्री पुष्पदन्त-मुख-पङ्कज-निर्गतेन।
स्तोत्रेण किल्बिष-हरेण हर-प्रियेण।।
कण्ठस्थितेन पठितेन समाहितेन।
सुप्रीणितो भवति भूतपतिर्महेशः||
अर्थात्, श्री पुष्पदंत के कमल के समान मुख से निकला यह स्तोत्र सारे दुखों को दूर करने वाला है तथा शिव का प्रिय है। जो भी जन इसे सुनेंगे, पढ़ेंगे और धारण करेंगे, भगवान शिव उन्हें जन्म जन्मांतर के पापों से मुक्त कर देंगे।
"धर्मार्थ वार्ता समाधान संघ"
पं. मंगलेश्वर त्रिपाठी✍
हर हर महादेव 🌹🙏🌹

Sunday, July 24, 2016

एक दरिया ने झरने से कहा

एक दरिया ने झरने से कहा की तुझे
           समन्दर नही बनना
                  है क्या
झरने ने बहुत सुन्दर बात कही

बड़ा होकर खारा होने से बेहतर है कि
          छोटे बनकर मीठा
                बनना ही
                  अच्छा
                    है ।

Thursday, July 21, 2016

सन्तों की अपनी ही मौज होती है!

सन्तों की अपनी ही मौज होती है! एक संत अपने शिष्य के साथ किसी अजनबी नगर में पहुंचे।
रात हो चुकी थी और वे दोनों सिर छुपाने के लिए किसी आसरे की तलाश में थे।
उन्होंने एक घर का दरवाजा खटखटाया, वह एक धनिक का घर था और अंदर से परिवार का मुखिया निकलकर आया।
वह संकीर्ण वृत्ति का था, उसने कहा - "मैं आपको अपने घर के अंदर तो नहीं ठहरा सकता लेकिन तलघर में हमारा स्टोर बना है।
आप चाहें तो वहां रात को रुक सकते हैं, लेकिन सुबह होते ही आपको जाना होगा।
" वह संत अपने शिष्य के साथ तलघर में ठहर गए।
वहां के कठोर फर्श पर वे सोने की तैयारी कर रहे थे कि तभी संत को दीवार में एक दरार नजर आई।
संत उस दरार के पास पहुंचे और कुछ सोचकर उसे भरने में जुट गए।
शिष्य के कारण पूछने पर संत ने कहा-"चीजें हमेशा वैसी नहीं होतीं, जैसी दिखती हैं।
" अगली रात वे दोनों एक गरीब किसान के घर आसरा मांगने पहुंचे।
किसान और उसकी पत्नी ने प्रेमपूर्वक उनका स्वागत किया।
उनके पास जो कुछ रूखा-सूखा था, वह उन्होंने उन दोनों के साथ बांटकर खाया और फिर उन्हें सोने के लिए अपना बिस्तर दे दिया।
किसान और उसकी पत्नी नीचे फर्श पर सो गए।
सवेरा होने पर संत व उनके शिष्य ने देखा कि किसान और उसकी पत्नी रो रहे थे क्योंकि उनका बैल खेत में मरा पड़ा था।
यह देखकर शिष्य ने संत से कहा- 'गुरुदेव, आपके पास तो कई सिद्धियां हैं, फिर आपने यह क्यों होने दिया?
उस धनिक के पास सब कुछ था, फिर भी आपने उसके तलघर की मरम्मत करके उसकी मदद की,
जबकि इस गरीब ने कुछ ना होने के बाद भी हमें इतना सम्मान दिया फिर भी आपने उसके बैल को मरने दिया।
" संत फिर बोले-'चीजें हमेशा वैसी नहीं होतीं, जैसी दिखती हैं।
" उन्होंने आगे कहा- 'उस धनिक के तलघर में दरार से मैंने यह देखा कि उस दीवार के पीछे स्वर्ण का भंडार था।
चूंकि उस घर का मालिक बेहद लोभी और कृपण था, इसलिए मैंने उस दरार को बंद कर दिया, ताकि स्वर्ण भंडार उसके हाथ ना लगे।
इस किसान के घर में हम इसके बिस्तर पर सोए थे।
रात्रि में इस किसान की पत्नी की मौत लिखी थी और जब यमदूत उसके प्राण हरने आए तो मैंने रोक दिया।
चूंकि वे खाली हाथ नहीं जा सकते थे, इसलिए मैंने उनसे किसान के बैल के प्राण ले जाने के लिए कहा।
यह सुनकर शिष्य संत के समक्ष नतमस्तक हो गया।
ठीक इसी तरह गुरु की कृपा वह नहीं है जो हम चाहते बल्कि गुरु-कृपा तो वह है जो गुरुदेव चाहते हैं।

Wednesday, July 20, 2016

दाम्पत्य कहते किसे हैं?

दाम्पत्य कहते किसे हैं? क्या सिर्फ विवाहित होना या पति-पत्नी का साथ रहना दाम्पत्य कहा जा सकता है। पति-पत्नी के बीच का ऐसा धर्म संबंध जो कर्तव्य और पवित्रता पर आधारित हो। इस संबंध की डोर जितनी कोमल होती है, उतनी ही मजबूत भी। जिंदगी की असल सार्थकता को जानने के लिये धर्म-अध्यात्म के मार्ग पर दो साथी, सहचरों का प्रतिज्ञा बद्ध होकर आगे बढऩा ही दाम्पत्य या वैवाहिक जीवन का मकसद होता है
यह एक वैज्ञानिक तथ्य है कि शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक स्तरों पर स्त्री और पुरुष दोनों ही अधूरे होते हैं। दोनों के मिलन से ही अधूरापन भरता है। दोनों की अपूर्णता जब पूर्णता में बदल जाती है तो अध्यात्म के मार्ग पर बढऩा आसान और आनंद पूर्ण हो जाता है। दाम्पत्य की भव्य इमारत जिन आधारों पर टिकी है वे मुख्य रूप से सात प्रकार की हैं। रामायण में राम सीता के दाम्पत्य में ये सात प्रकार की बातें देखने को मिलती हैं। 
१.संयम : यानि समय-समय पर उठने वाली मानसिक उत्तेजनाओं जैसे- कामवासना, क्रोध, लोभ, अहंकार तथा मोह आदि पर नियंत्रण रखना। राम-सीता ने अपना संपूर्ण दाम्पत्य बहुत ही संयम और प्रेम से जीया। वे कहीं भी मानसिक या शारीरिक रूप से अनियंत्रित नहीं हुए। 
२.संतुष्टि : यानि एक दूसरे के साथ रहते हुए समय और परिस्थिति के अनुसार जो भी सुख-सुविधा प्राप्त हो जाए उसी में संतोष करना। दोनों एक दूसरे से पूर्णत: संतुष्ट थे। कभी राम ने सीता में या सीता ने राम में कोई कमी नहीं देखी। 
३.संतान : दाम्पत्य जीवन में संतान का भी बड़ा महत्वपूर्ण स्थान होता है। पति-पत्नी के  बीच के संबंधों को मधुर और मजबूत बनाने में बच्चों की अहम् भूमिका  रहती है। राम और सीता के बीच वनवास को खत्म करने और सीता को पवित्र साबित करने में उनके बच्चों लव और कुश ने बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। 
४.संवेदनशीलता : पति-पत्नी के रूप में एक दूसरे की भावनाओं का समझना और उनकी कद्र करना। राम और सीता के बीच संवेदनाओं का गहरा रिश्ता था। दोनों बिना कहे-सुने ही एक दूसरे के मन की बात समझ जाते थे। 
५.संकल्प : पति-पत्नी के रूप अपने धर्म संबंध को अच्छी तरह निभाने के  लिये अपने कर्तव्य को संकल्पपूर्वक पूरा करना। 
६.सक्षम : सामर्थ्य का होना। दाम्पत्य यानि कि वैवाहिक जीवन को सफलता और खुशहाली से भरा-पूरा बनाने के लिये पति-पत्नी दोनों को शारीरिक, आर्थिक  और मानसिक रूप से मजबूत होना बहुत ही आवश्यक है। 
७.समर्पण : दाम्पत्य यानि वैवाहिक जीवन में पति-पत्नी का एक दूसरे के  प्रति  पूरा समर्पण और त्याग होना भी आवश्यक  है। एक-दूसरे की खातिर अपनी कुछ इच्छाओं और आवश्यकताओं को त्याग देना या  समझौता कर लेना दाम्पत्य संबंधों को मधुर बनाए रखने के लिये बड़ा ही जरूरी होता है।
"धर्मार्थ वार्ता समाधान संघ"
पं. मंगलेश्वर त्रिपाठी✍

Monday, July 18, 2016

गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः, गुरुः साक्षात्‌ परब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः॥

🌜श्री सच्चा परमात्मने नम:🌛
गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः, गुरुः साक्षात्‌ परब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः॥
सन्तों ने जगत में गुरु को ही सर्वश्रेष्ट माना है । गुरु भक्तों के एक मात्र हितैषी हैं, वे सब कुछ करने वाले हैं, बिना उनकी कृपा के कुछ भी नहीं होने वाला है। गुरु के अतिरिक्त किसी और पर भरोसा करने वाला भक्ति प्राप्त नहीं कर सकता।
          गुरु हैं सब कुछ जगत में गुरु से सब कुछ होय ।
          गुरु बिन और जो जानहीं भक्ति न पावै सोय ॥
गुरु की कृपा प्राप्त करने का एकमात्र उपाय निश्छल, निर्मल और निष्काम भाव से तन, मन, धन तथा उनकें चरणों में सर्वस्व अर्पित कर उनकी प्रेम पूर्वक सेवा ही है। इसीलिये यह सन्तवाणी- ज्ञान ध्यान अरु जोग जप गुरु सेवा सम नाहिं,
भक्ति मुक्ति औ परमपद सब गुरु सेवा माहिं ॥
गुरु की सेवा तभी संभव है जब मनुष्य उनका सान्निध्य प्राप्त करे। गुरु को सद्‌ग्रन्थों में पारस की उपमा दी गई है। उनके पावन स्पर्श से जड़ जीव चेतन हो जाता है जैसे पारस के संपर्क से लोहा सोना हो जाता है। कहा गया है--
  ज्यों पारस के परस से लोहा कंचन होय, त्यों सन्तन के संग से जड़ से चेतन होय ॥
   पारस लोहा को सोना बना देता है परन्तु शर्त यह है कि दोनो में अभिन्न संबध हो। यदि पारस और लोहे के मध्य कोई भी विजातीय पदार्थ रहेगा तो लोहे पर पारस का प्रभाव नही पड़ेगा। अतः उनके बीच किसी प्रकार का पर्दा नहीं होना चाहिये। ठीक इसी प्रकार मानवरूपी लोहा गुरुरूपी पारस के साथ जब तक अभिन्नता को नहीं प्राप्त होता तब तक उसका जीवन स्वर्ण समान नहीं बन सकता। अतः शिष्य का गुरु के साथ अभिन्न संबंध होना अनिवार्य है। यह अभिन्न संबंध श्रद्धा, विश्वास एवं प्रेम का संबंध है, जो हर प्रकार से निश्छ्ल, निर्मल और निष्काम हो। जब तक शिष्य का अभिन्न प्रेम गुरु के चरण कमलों के साथ नहीं होता, तब तक बात बनने वाली नहीं है। यदि कोई गोबर भरा पात्र लेकर किसी के यहाँ दूध लेने जाय तो दूध देने वाला पात्र अशुद्ध होने के नाते उसमें दूध नहीं दे सकता। उसी प्रकार गुरु भी शिष्य की पात्रता से तुष्ट होकर ही बहुमूल्य कृपा रूपी अनुभूति शिष्य के ह्रदय में उतारते हैं। वे दयालु स्वयं साधना करा करा कर शिष्य के भीतर की गंदगी को हटाकर उसे अपनी कृपा के द्वारा सुयोग्य पात्र बना लेते हैं। गुरु के प्रति अचल विश्वास और एकनिष्ठ प्रेम ही गुरुकृपा प्राप्त करने के लिये शिष्य की पात्रता है। गुरु शिष्य के अन्तर्दोषों को क्रमशःदूर करते रहते हैं। इस प्रक्रिया कभी-कभी कृपालु गुरु में शिष्य को कठोरता का भी दर्शन होता है। परन्तु यह उसी प्रकार है जैसे पुत्र के फोड़े को चीर फाड़ कर स्वच्छ रखने में माता की कठोरता दिखाई देती है। जैसे माता कठोर नहीं होती पुत्र के प्रति प्रेम ही उसे उसके भले के लिये ऊपर से कठोर बनाता है, उसी प्रकार गुरु की कृपा ही शिष्य को सुधारने में कठोरता के रूप में दिखाई पड़ती है। कबीर साहब ने कहा है--
  गुरु कुम्हार शिष्य कुम्भ है गढ़ि गढ़ि काढ़े खोट,
अन्तर  हाथ  सहाय  दे बाहर  बाहै  चोट ॥
  कुम्हार मिट्टी से घड़ा बनाता है तो बाहर से उसे ठोकता-पीटता है, परन्तु भीतर हाथ से सहारा देता है कि कहीं घड़ा टूट न जाय क्योंकि उसका उद्देश्य घड़े को सुन्दर से सुन्दर बनाना होता है। इसी प्रकार कभी कभी गुरु की ताड़ना शिष्य को सुधारने के लिये होती है परन्तु वे उस दशा में भी अपनी कृपा रूपी  हाथ शिष्य के ऊपर रखे रहते हैं। इसलिये गुरु भक्त के लिये गुरु कृपा ही सार वस्तु है। गुरु के चरण कमलों में प्रेम हो जाना ही जीवन की सबसे महान्‌ उपलब्धि है। गुरु की कृपा से यदि उनके प्रति निश्छल, निर्मल,निश्चल प्रेम ह्रदय में उत्पन्न हो गया तो समझना चाहिये सब कुछ हस्तगत हो गया।
"धर्मार्थ वार्ता समाधान संघ"
पं. मंगलेश्वर त्रिपाठी✍

गु+रु=गुरु

गु+रु=गुरु यानि अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाने वाले सहायक को गुरु कहा जाता है।
गुरु बिन भव निधि तर ई न कोई।जो बिरंचि शंकर सम होई।।
अर्थात संसार रूपी सागर से कोई अपने आप तर नही सकता।चाहे ब्रह्मा जी जैसे सृष्टी कर्ता हों अथवा शिवजी जेसे संहार कर्ता फिर भी अपने मन की चाल से,अपनी मान्यताओं के जंगल से निकलने के लिए पगडंडी दिखाने वाले सद्गुरु अवस्य चाहिए।

गुरु पूर्णिमा की पुण्य तिथि

श्री सच्चानामध्याय गुरूवे परमीत्मने नम:🌹🙏🌹
आज गुरु पूर्णिमा की पुण्य तिथि पर आप को एवं आप के परिजनों को हार्दिक शुभ कामानायें !
गुरु ब्रह्मा, गुरु विष्णु गुरु देवो महेश्वर:।
गुरु साक्षात् परमं ब्रह्मा तस्मै श्री गुरुवे नम:।।
गुरु ही "ब्रह्मा" है, गुरु ही "विष्णु" है और गुरु ही भगवान "शंकर"है। गुरु जी ही साक्षात परब्रह्म है। ऐसे गुरु जी को मैं प्रणाम करता हूं।
गुरु जी के प्रति नतमस्तक होकर कृतज्ञता व्यक्त करने का दिन है गुरुपूर्णिमा। गुरु जी के लिए "पूर्णिमा" तिथि से बढ़कर और कोई "तिथि" नहीं हो सकती। जो स्वयं में पूर्ण है, वही तो पूर्णत्व की प्राप्ति दूसरों को करा सकता है। पूर्णिमा के चंद्रमा की भांति जिसके जीवन में केवल प्रकाश है, वही तो अपने शिष्यों के अंत:करण में ज्ञान रूपी चंद्र की किरणें बिखेर सकता है। इस दिन हमें अपने गुरुजनों के चरणों में अपनी समस्त श्रद्धा अर्पित कर अपनी कृतज्ञता ज्ञापित करनी चाहिए। गुरु जी की कृपा असंभव को संभव बनाती है। गुरु जी की कृपा शिष्य के "ह्रिदय" में अगाध ज्ञान का संचार करती है। गुरु भगवान के विषय में जितने भी शब्द कहे जाएं लिखे जाए उतना ही कम है इन की महिमा का वर्णन कर पाना बहुत मुश्किल है और गुरु पूर्णिमा के दिन भगवान गुरु जी की पूजा अर्चना करना चाहिए क्योंकि सत मार्ग की रक्षा करते हैं सही मार्ग बताते हैं हम सभी को !
संस्थापक-:"धर्मार्थ वार्ता समाधान संघ"
पं.मंगलेश्वर त्रिपाठी✍

प्रेरक कहानी

प्रेरक कहानी
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एक सेठ था| उसने एक नौकर रखा| रख तो लिया, पर उसे उसकी ईमानदारी पर विश्वास नहीं हुआ| उसने उसकी परीक्षा लेनी चाही|
अगले दिन सेठ ने कमरे के फर्श पर एक रुपया डाल दिया| सफाई करते समय नौकर ने देखा| उसने रुपया उठाया और उसी समय सेठ के हवाले कर दिया| 
दूसरे दिन वह देखता है कि फर्श पर पांच रुपए का नोट पड़ा है| उसके मन में थोड़ा शक पैदा हुआ|
हो-न-हो सेठ उसकी नीयत को परख रहा है| बात आई, पर उसने उसे तूल नहीं दिया| पिछली बार की तरह नोट उठाया और बिना कुछ कहे सेठ को सौंप दिया|
वह घर में काम करता था, पर सेठ की निगाह बराबर उसका पीछा करती थी|
मुश्किल में एक हफ्ता बीता होगा कि एक दिन उसे दस रुपए का नोट फर्श पर पड़ा मिला| उसे देखते ही उसके बदन में आग लग गई| उसने सफाई का काम वहीं छोड़ दिया और नोट को हाथ में लेकर सीधा सेठ के पास पहुंचा और बोला - "लो संभालो अपना नोट और घर में रखो अपनी नौकरी! तुम्हारे पास पैसा है, पर सेठ यह समझने के लिए कि अविश्वास से विश्वास नहीं पाया जा सकता, पैसे के अलावा कुछ और चाहिए| वह तुम्हारे पास नहीं है| मैं ऐसे घर में काम नहीं कर सकता|"
सेठ उसका मुंह ताकता रह गया| वह कुछ कहता कि उससे पहले ही वह नौजवान घर से बाहर जा चुका था|
इस कहानी से ये बात बहुत हद तक साबित होती है कि विश्वास पर दुनिया कायम है, लेकिन शक विश्वास का सबसे बड़ा दुश्मन होता है| 
किसी भी व्यकति के ऊपर बेवजह शक करना सर्वथा गलत हैं |शक जैसे मर्ज से बचना चाहिये इसका कोई इलाज नहीं है|
"धर्मार्थ वार्ता समाधान संघ"
पं.मंगलेश्वर त्रिपाठी✍

Sunday, July 17, 2016

एक आदमी के पास बहुत जायदाद थी|

एक आदमी के पास बहुत जायदाद थी| उसके कारण रोज घर मे कोई-न-कोई झगड़ा होता रहता था| बेचारा वकीलों और अदालत के चक्कर के मारे परेशान था|
उसकी स्त्री अक्सर बीमार रहती थी| वह दवाइयां खा-खाकर जीती थी और डॉक्टरों के मारे उसकी नाक में दम था| 
एक दिन पति-पत्नी में झगड़ा हो गया| पति ने कहा - "मैं लड़के को वकील बनाऊंगा, जिससे वह मुझे सहारा दे सके|"
स्त्री बोली - "मैं उसे डॉक्टर बनाउंगी, जिससे वह मेरी रात-दिन की परेशानी को दूर कर सके|"
दोनों अपनी-अपनी बात पर अड़ गए| बात बढ़ती गई तो दोनों चिल्ला-चिल्लाकर बोलने लगे| उनकी आवाज सुनकर राह चलते लोग रुक गए|
उन्होंने दोनों की बातें सुनीं| बोले - "आखिर लड़के से तो पूछो कि वह क्या बनना चाहता है? बुलाओ उसे, हम पूछ लेते हैं|"
उनका सवाल सुनकर पति-पत्नी का गुस्सा ठण्डा पड़ गया| लड़का था कहां! वह तो अभी पैदा होना था| 
इस कहानी का तात्पर्य यह कि व्यर्थ की लड़ाई बिन सिर पाव की तरह है इससे हमेशा बचें !
"धर्मार्थ वार्ता समाधान संघ"
पं. मंगलेश्वर त्रिपाठी✍

Saturday, July 16, 2016

कैसा अन्न खायें ?

कैसा अन्न खायें ?
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बारह वर्ष का वनवास तथा एक वर्ष के अज्ञातवास के बाद जब पांडवों को उनका जुएँ में धोखे से छीना गया राज्य वापस न मिला, धृतराष्ट्र ने तब संजय को दूत बनाकर पांडवों के पास भेजा|
संजय ने युधिष्ठर को बार-बार वैराग्य धर्म का उपदेश दिया कि तुम्हारी यदि जय भी हो जाए तो इससे क्या लाभ होगा, कुल का नाश हो जाएगा| श्री कृष्ण ने कहा- “पांडव अपना अधिकार क्यों छोड़े? यह वैराग्य धर्म का उपदेश उस समय कहाँ गया था, जब छल से शकुनि ने युधिष्ठिर का राज्य छीना था, उस समय वैराग्य कहाँ गया था जब द्रौपदी का भरी सभा में अपमान हुआ था|” 
श्री कृष्ण पांडवों की ओर से दूत बनकर कौरवों की राजधानी हस्तिनापुर पहुँचे| दुर्योधन ने वहाँ उनका शाही स्वागत करने का प्रयत्न किया| उन्हें उसने भोजन के लिए आमंत्रित किया, परंतु श्री कृष्ण ने वह निमंत्रण स्वीकार नहीं किया| दुर्योधन बोला- “जनार्दन, आपके लिए अन्न, फल, वस्त्र तथा शैय्या आदि जो वस्तुएँ प्राप्त की गई, आपने उन्हें ग्रहण क्यों नहीं किया? आपने हमारी प्रेमपूर्वक समर्पित पूजा ग्रहण क्यों नहीं की?
श्री कृष्ण ने उस समय जवाब दिया- “भोजन खिलाने में दो भाव काम करते हैं| एक दया और दूसरी प्रीति- समप्रीति भोज्यानयन्नामि आपद्रभोज्यानि वा पुनः? दया दीन को दिखाई जाती है, सो हम दीन तो नहीं| जिस काम के लिए हम आए हैं पहले वह सिद्ध हो जाए तो हम भोजन भी कर लेंगे| आप अपने ही भाइयों से द्वेश क्यों करते हैं? आप हमें क्या खिलाइएगा? उनका धार्मिक पक्ष है, आपका आधार्मिक, सो जो उनसे द्वेष करता है वह हमसे भी द्वेष करता है| एक बात हमेशा याद रखो- जो द्वेष करता है, उसका अन्न कभी ना खाओ और द्वेष रखने वाले को खिलाना भी नहीं चाहिए- द्विषन्नं नैव भौक्तव्यं द्विषन्तं नैव भोजयेत्|” 
श्रीकृष्ण ने इसी कारण दुर्योधन का राजसी आतिथ्य भी स्वीकार नहीं किया, जबकि सरल विदुर का सादा रुखा-सुखा अन्न स्वीकार किया| इस कहानी से हमें यही शिक्षा मिलती है कि दयाहीन लोगों का भोजन खाने से अच्छा है कि हम किसी निर्धन के यहाँ भोजन कर ले| 
"धर्मार्थ वार्ता समाधान संघ"
पं.मंगलेश्वर त्रिपाठी✍

Friday, July 15, 2016

भीम के अन्दर हजारों हाथियो का बल कैसे आया ?

भीम के अन्दर हजारों हाथियो का बल कैसे आया ?
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पाँचों पाण्डव - युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव - पितामह भीष्म तथा विदुर की छत्रछाया में बड़े होने लगे। उन पाँचों में भीम सर्वाधिक शक्तिशाली थे। वे दस-बीस बालकों को सहज में ही गिरा देते थे। दुर्योधन वैसे तो पाँचों पाण्डवों से ईर्ष्या करता था किन्तु भीम के इस बल को देख कर उससे बहुत अधिक जलता था। वह भीमसेन को किसी प्रकार मार डालने का उपाय सोचने लगा। इसके लिये उसने एक दिन युधिष्ठिर के समक्ष गंगा तट पर स्नान, भोजन तथा क्रीड़ा करने का प्रस्ताव रखा जिसे युधिष्ठिर ने सहर्ष स्वीकार कर लिया।
गंगा के तट पर दुर्योधन ने विविध प्रकार के व्यंजन तैयार करवाये। स्नानादि के पश्चात् जब सभी ने भोजन किया तो अवसर पाकर दुर्योधन ने भीम को विषयुक्त भोजन खिला दिया। भोजन के पश्चात् सब बालक वहीं सो गये। भीम को विष के प्रभाव से मूर्छा आ गई। मूर्छित हुये भीम को दुर्योधन ने गंगा में डुबा दिया। मूर्छित अवस्था में ही भीम डूबते-उतराते नागलोक में पहुँच गये। वहाँ पर उन्हें भयंकर विषधर नाग डसने लगे तथा विषधरों के विष के प्रभाव से भीम के शरीर के भीतर का विष नष्ट हो गया और वे सचेतावस्था में आ गये। चेतना लौट आने पर उन्हों ने नागों को मारना आरम्भ कर दिया और एक के पश्चात् एक नाग मरने लगे। 
भीम के इस विनाश लीला को देख कर कुछ नाग भागकर अपने राजा वासुकि के पास पहुँचे और उन्हें समस्त घटना से अवगत कराया। नागराज वासुकि अपने मन्त्री आर्यक के साथ भीम के पास आये। आर्यक नाग ने भीम को पहचान लिया और उनका परिचय राजा वासुकि को दिया। वासुकि नाग ने भीम को अपना अतिथि बना लिया। नागलोक में आठ ऐसे कुण्ड थे जिनके जल को पीने से मनुष्य के शरीर में हजारों हाथियों का बल प्राप्त हो जाता था। नागराज वासुकि ने भीम को उपहार में उन आठों कुण्डों का जल पिला दिया। कुण्डो के जल पी लेने के बाद भीम गहन निद्रा में चले गये। आठवें दिन जब उनकी निद्रा टूटी तो उनके शरीर में हजारों हाथियों का बल आ चुका था। भीम के विदा माँगने पर नागराज वासुकी ने उन्हें उनकी वाटिका में पहुँचा दिया।
उधर सो कर उठने के बाद जब पाण्डवों ने भीम को नहीं देखा तो उनकी खोज करने लगे और उनके न मिलने पर राजमहल में लौट गये। भीम के इस प्रकार गायब होने से माता कुन्ती अत्यन्त व्याकुल हुईं। वे विदुर से बोलीं, "हे आर्य! दुर्योधन मेरे पुत्रों से और विशेषतः भीम से अत्यन्त ईर्ष्या करता है। कहीं ऐसा तो नहीं है कि उसने भीम को मृत्युलोक में पहुँचा दिया?" उत्तर में विदुर ने कहा, "हे देवि! आप चिन्तित मत होइये। भीम की जन्मकुण्डली के अनुसार वह दीर्घायु है तथा उसे अल्पायु में कोई भी नहीं मार सकता। वह अवश्य लौट कर आयेगा।" इस प्रकार हजारों हाथियों का बल प्राप्त कर के भीम लौट आये।
पं.मंगलेश्वर त्रिपाठी✍