Monday, July 18, 2016

गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः, गुरुः साक्षात्‌ परब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः॥

🌜श्री सच्चा परमात्मने नम:🌛
गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः, गुरुः साक्षात्‌ परब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः॥
सन्तों ने जगत में गुरु को ही सर्वश्रेष्ट माना है । गुरु भक्तों के एक मात्र हितैषी हैं, वे सब कुछ करने वाले हैं, बिना उनकी कृपा के कुछ भी नहीं होने वाला है। गुरु के अतिरिक्त किसी और पर भरोसा करने वाला भक्ति प्राप्त नहीं कर सकता।
          गुरु हैं सब कुछ जगत में गुरु से सब कुछ होय ।
          गुरु बिन और जो जानहीं भक्ति न पावै सोय ॥
गुरु की कृपा प्राप्त करने का एकमात्र उपाय निश्छल, निर्मल और निष्काम भाव से तन, मन, धन तथा उनकें चरणों में सर्वस्व अर्पित कर उनकी प्रेम पूर्वक सेवा ही है। इसीलिये यह सन्तवाणी- ज्ञान ध्यान अरु जोग जप गुरु सेवा सम नाहिं,
भक्ति मुक्ति औ परमपद सब गुरु सेवा माहिं ॥
गुरु की सेवा तभी संभव है जब मनुष्य उनका सान्निध्य प्राप्त करे। गुरु को सद्‌ग्रन्थों में पारस की उपमा दी गई है। उनके पावन स्पर्श से जड़ जीव चेतन हो जाता है जैसे पारस के संपर्क से लोहा सोना हो जाता है। कहा गया है--
  ज्यों पारस के परस से लोहा कंचन होय, त्यों सन्तन के संग से जड़ से चेतन होय ॥
   पारस लोहा को सोना बना देता है परन्तु शर्त यह है कि दोनो में अभिन्न संबध हो। यदि पारस और लोहे के मध्य कोई भी विजातीय पदार्थ रहेगा तो लोहे पर पारस का प्रभाव नही पड़ेगा। अतः उनके बीच किसी प्रकार का पर्दा नहीं होना चाहिये। ठीक इसी प्रकार मानवरूपी लोहा गुरुरूपी पारस के साथ जब तक अभिन्नता को नहीं प्राप्त होता तब तक उसका जीवन स्वर्ण समान नहीं बन सकता। अतः शिष्य का गुरु के साथ अभिन्न संबंध होना अनिवार्य है। यह अभिन्न संबंध श्रद्धा, विश्वास एवं प्रेम का संबंध है, जो हर प्रकार से निश्छ्ल, निर्मल और निष्काम हो। जब तक शिष्य का अभिन्न प्रेम गुरु के चरण कमलों के साथ नहीं होता, तब तक बात बनने वाली नहीं है। यदि कोई गोबर भरा पात्र लेकर किसी के यहाँ दूध लेने जाय तो दूध देने वाला पात्र अशुद्ध होने के नाते उसमें दूध नहीं दे सकता। उसी प्रकार गुरु भी शिष्य की पात्रता से तुष्ट होकर ही बहुमूल्य कृपा रूपी अनुभूति शिष्य के ह्रदय में उतारते हैं। वे दयालु स्वयं साधना करा करा कर शिष्य के भीतर की गंदगी को हटाकर उसे अपनी कृपा के द्वारा सुयोग्य पात्र बना लेते हैं। गुरु के प्रति अचल विश्वास और एकनिष्ठ प्रेम ही गुरुकृपा प्राप्त करने के लिये शिष्य की पात्रता है। गुरु शिष्य के अन्तर्दोषों को क्रमशःदूर करते रहते हैं। इस प्रक्रिया कभी-कभी कृपालु गुरु में शिष्य को कठोरता का भी दर्शन होता है। परन्तु यह उसी प्रकार है जैसे पुत्र के फोड़े को चीर फाड़ कर स्वच्छ रखने में माता की कठोरता दिखाई देती है। जैसे माता कठोर नहीं होती पुत्र के प्रति प्रेम ही उसे उसके भले के लिये ऊपर से कठोर बनाता है, उसी प्रकार गुरु की कृपा ही शिष्य को सुधारने में कठोरता के रूप में दिखाई पड़ती है। कबीर साहब ने कहा है--
  गुरु कुम्हार शिष्य कुम्भ है गढ़ि गढ़ि काढ़े खोट,
अन्तर  हाथ  सहाय  दे बाहर  बाहै  चोट ॥
  कुम्हार मिट्टी से घड़ा बनाता है तो बाहर से उसे ठोकता-पीटता है, परन्तु भीतर हाथ से सहारा देता है कि कहीं घड़ा टूट न जाय क्योंकि उसका उद्देश्य घड़े को सुन्दर से सुन्दर बनाना होता है। इसी प्रकार कभी कभी गुरु की ताड़ना शिष्य को सुधारने के लिये होती है परन्तु वे उस दशा में भी अपनी कृपा रूपी  हाथ शिष्य के ऊपर रखे रहते हैं। इसलिये गुरु भक्त के लिये गुरु कृपा ही सार वस्तु है। गुरु के चरण कमलों में प्रेम हो जाना ही जीवन की सबसे महान्‌ उपलब्धि है। गुरु की कृपा से यदि उनके प्रति निश्छल, निर्मल,निश्चल प्रेम ह्रदय में उत्पन्न हो गया तो समझना चाहिये सब कुछ हस्तगत हो गया।
"धर्मार्थ वार्ता समाधान संघ"
पं. मंगलेश्वर त्रिपाठी✍

6 comments:

  1. इस मंत्र में अपने गुरु का नाम कहां पर जोड़ें

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  2. Beautiful melodious lines which increases respect towards guru❤

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  3. हम बहुत परेशान है कर्जे के जाल में फस गए है क्या करे

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  4. वीरेंद्र गुप्ताOctober 25, 2022 at 9:02 PM

    कृपया पाठकों को सही उच्चारण भी बताएं। अधिकतर इसे गुरुर बोला जाता है जैसा लिखा है। परंतु यह गुरु: ब्रह्मा; गुरु: विष्णु: गुरु: साक्षात महेश्वर: बोला जाना चाहिए।

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  5. अच्छा है

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