Sunday, February 12, 2017

हमारे दो जगत हैं

हमारे दो जगत हैं - भीतरी जगत एवं बाह्य जगत। इसीलिये हमलोगों का मन भी दोनों दिशाओं में जा सकता है। पतंजली योगसूत्र के भाष्य में व्यासदेव ने बहुत सुन्दर ढंग से कहा है- " चित्तनदी नामोभयतो वाहिनी वहति कल्याणय वहति पापय च ।"  
महर्षि वेदव्यास ने वेदों की संहिता की थी, उनहोंने उपनिषदों के सार को संकलित करके ब्रह्मसूत्र की रचना की थी, महाभारत के इतिहास की रचना की थी, १८ पुराणों की रचना की थी, किन्तु उन्होंने किसी एकमात्र शास्त्र पर भाष्य लिखा था, तो वह है -पतंजली का योगसूत्र। पतंजली योग सूत्र में योग को इस प्रकार परिभाषित किया गया है- "योगः चित्तवृत्तिनिरोधः।" 
यही है मन को सुसंस्कृत करने का उपाय। सुसंस्कृत बनने के लिये मन को अन्तर्जगत से जोड़ने का तरीका या 'योग' सीखना आवश्यक है। जो चित्त, जो मन हमेशा चंचल, विक्षुब्ध बना रहता है, यह चाहिए, वह चाहिये, यह लूँगा-वह लूँगा के लालच में पड़ा रहता है, उस मन को कभी सुसंस्कृत नहीं बनाया जा सकता है।
चंचल मन को यदि थोड़ा शान्त किया जा सकेगा, तभी उसमें प्रकृति का समस्त सौन्दर्य प्रतिबिंबित हो सकेगा। अपने अन्तर्जगत से जुड़ा हुआ चित्त,या " योगसमाहित चित्त ही संस्कृति का आधार है।" उपरोक्त सूत्र के भाष्य में व्यासदेव कहते हैं, चित्त-नदी के प्रवाह के मानो दो भाग हैं, उसकी एक धारा कल्याण की दिशा में प्रवाहित होती है, दूसरी धारा पाप की दिशा में प्रवाहित होती है। कौन सी धारा कल्याण की दिशा में प्रवाहित होती है ? किस प्रवाह को हम कल्याणकारी कहेंगे ?   
या तु कैवल्यप्राग्भारा विवेकविषयनिम्ना सा कल्याणवहा ।
- व्यासदेव कहते हैं, जो हमें 'कैवल्य-प्राप्ति' (विभिन्नता में एकत्व की अनुभूति करने) की दिशा में ले जाएगी,  और जो धारा ' विवेक-विषय-निम्ना ' होगी। जिस मन की चिन्तन धारा, या चित्त का प्रवाह विवेक की तली के उपर से बहेगी वही कल्याणवहा धारा है। किन्तु अभी हमारा चित्त नाम-रूपात्मक बाह्य-जगत को देखकर अनेकों आकांक्षाओं के तीव्र प्रलोभनों से बहुत चंचल हो उठता है, हम लोगों को रातदिन दौड़ाता रहता है, कभी चैन से बैठने नहीं देता, वैसा चित्त कभी सुसंस्कृत नहीं बन सकता। क्योंकि कामना वासना से निरंतर तरंगायित रहने वाले चित्त या मानस-पटल पर  अन्तर्निहित दिव्यता की छाप पड़ ही नहीं पाती है। किन्तु मन तो गतिशील रहेगा ही, क्योंकि उसका धर्म भी जल की तरह प्रवाहमान रहना है। क्योंकि  चित्त का धर्म ही वैसा है, चित्त चीज ही वैसी है, उसका स्वरुप ही पारे के जैसा है। तब, उस मन के प्रवाह को कल्याणवहा कैसे किया जाये ? यदि उसके प्रवाह की धारा की तली या फर्श विवेक की बनी हुई हो, तो उस चिन्तन प्रवाह को हम कैवल्य के पथ में अपने स्वरुप को जानने के दिशा में ले जा सकते हैं।
संसारप्राग्भाराऽविवेकविषयनिम्ना पापवहा। यदि हम उसका विपरीत करें, अर्थात अविवेक के उपर से यदि चिन्तन धारा को बहने दिया जाये तो वह धारा कैवल्य की और न जाकर संसार की ओर बहने लगेगी, जो हमारे बंधन का कारण होगा, उसी ओर ले जाएगी। चित्त की इसी धारा का नाम है-पापवहा धारा । तो फिर हमें क्या करना होगा ? तत्र वैराग्येण विषयस्रोतः खिलीक्रियते --पतंजली सूत्र के भाष्य में व्यासदेव कहते हैं, हमलोग आसक्ति के त्याग का मनोभाव बनाकर, या वैराज्ञ का फाटक लगाकर पापवहा चिन्तन प्रवाह को रुद्ध कर देना होगा, और विवेकदर्शन का अभ्यास या विवेक-प्रयोग द्वारा कल्याणवहा स्रोत को उद्घाटित करना होगा। जिस प्रकार डैम का फाटक गिरा कर, नदी की धारा को रोक दिया जाता है, उसी प्रकार पाप की चिन्तन धारा को भी वैराज्ञ के मनोभावरूपी फाटक से बन्द कर दो।  
विवेकदर्शनाभ्यासेन विवेकस्रोत्र उद्धाट्यत
और जो स्वतः कल्याण की दिशा में बहने वाली चिन्तन धारा है, उसको विवेक के अभ्यास द्वारा खोल दो, चित्त की चिन्तन धारा को विवेक की तली से ही प्रवाहित होने दो। जिस व्यक्ति का चित्त इस प्रकार कल्याण मुखी हो जाता है, उसी मनुष्य को सुसंस्कृत मनुष्य कहा जा सकता है। 

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