Monday, August 22, 2016

एक नव युवा साधक एक ब्रह्मनिष्ठ संत

एक नव युवा साधक एक ब्रह्मनिष्ठ संत जी के सत्संग के लिए पहुँचे, वह बातचीत के दौरान बार-बार कहते थे, मैं बहुत धनी परिवार से हूँ, मैंने संस्कृत में उच्च शिक्षा प्राप्त की है और वेद, गीता, महाभारत, पुराणों आदि का गहन अध्ययन किया है।

संत जी ने कहा, यदि वास्तव में जिज्ञासा लेकर आए हो और धर्म-अध्यात्म का मर्म समझने की तृष्णा है, तो सबसे पहले इस अहंकार का त्याग करो कि तुम बहुत बड़े विद्वान हो।

अहंकार के रहते तुम किसी से भी कुछ नहीं सिख सकते हो, उन्होंने कुछ क्षण रुककर कहा, उपनिषदों में व्यास देव जी घोषित करते हैं जो यह कहता है कि मुझे ज्ञान है और बहुत कुछ जानता हूँ। 

उसे यह समझ लेना चाहिए कि वह घोर अज्ञान के अंधकार में भटक रहा है, न जानने का बोध ज्ञान की गुरुता का सर्वोपरि सम्मान है, वही परमात्मा के प्रति समर्पण भी है।

उन्होंने आगे कहा, ज्ञान का अहंकार किसी से कुछ सीखने ही नहीं देता है, जो मानव विनम्रता पूर्वक खुद को अज्ञानी मानकर तत्वदर्शी की शरण लेता है, वही आत्मा-परमात्मा व ज्ञान-अज्ञान के भेद को जान सकता है। 

जिनकी बुद्धि स्थित है और जिसका मन कहीं अटका नहीं है, ऐसा विनयी जिज्ञासु ही ज्ञान के सागर में गोते लगाकर मोती ढूंढ सकता है, सबसे पहले किसी भी प्रकार के अहंकार से शून्य हो जाना जरूरी है।

अज्ञानता में तुलसीदास जी को अपनी स्त्री में ही सुख व प्रेम दिखाई देता था, पर जब ज्ञान चक्षु खुल गए, तो उनके मुख से निकला, 

सियाराम मय सब जग जानी।

करहुं प्रणाम जोरि जुग पानी॥

इस दृष्टान्त के माध्यम से प्रत्येक व्यक्ति को स्वयं ही पहचानना है, कहीं वह नया साधक "मैं" तो नहीं हैं?  

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