Monday, August 22, 2016

संसार प्रकृति के आठ जड़ तत्वों

संसार प्रकृति के आठ जड़ तत्वों (पाँच स्थूल तत्व और तीन दिव्य तत्व) से मिलकर बना है।
स्थूल तत्व = जल, अग्नि, वायु, पृथ्वी और आकाश।
दिव्य तत्व = बुद्धि, मन और अहंकार।
हमारे स्वयं के दो रूप होते हैं एक बाहरी दिखावटी रूप जिसे स्थूल शरीर कहते हैं और दूसरा आन्तरिक वास्तविक दिव्य रूप जिसे जीव कहते हैं। बाहरी शरीर रूप स्थूल तत्वों के द्वारा निर्मित होता है और हमारा आन्तरिक जीव रूप दिव्य तत्वों के द्वारा निर्मित होता है।
जीव को अपना आध्यात्मिक उत्थान करने के लिये सबसे पहले बुद्धि तत्व के द्वारा अहंकार तत्व को जानना होता है, अहंकार तत्व है जो स्थूल शरीर में रहते हुए कभी समाप्त नहीं हो सकता है।
(अहंकार = अहं + आकार = स्वयं का रूप)
स्वयं के रूप को ही अहंकार कहते हैं, अहंकार दो प्रकार का होता है। शरीर को अपना वास्तविक रूप समझना "मिथ्या अहंकार" कहलाता है और जीव को अपना वास्तविक रूप समझना "शाश्वत अहंकार" कहलाता है।
जब तक मनुष्य बुद्धि के द्वारा अपनी पहिचान स्थूल शरीर रूप से करता है और शरीर को ही कर्ता समझता है तब वह मिथ्या अहंकार से ग्रसित रहता है तब तक सभी मनुष्यों के ज्ञान पर अज्ञान का आवरण चढ़ा रहता है।
अज्ञान से आवृत सभी जीव मोहनिशा (मोह रूपी रात्रि) में अचेत अवस्था (निद्रा अवस्था) में ही रहते हैं उन्हे मालूम ही नही होता है कि वह क्या कर रहें हैं और उन्हे क्या करना चाहिये।
भगवान की दो प्रमुख शक्तियाँ एक ज़ड़ शक्ति जिसमें जीव भी शामिल है "अपरा शक्ति" कहते हैं, दूसरी चेतन शक्ति यानि आत्मा "परा शक्ति" कहते हैं। यही अपरा और परा शक्ति के संयोग से ही सम्पूर्ण सृष्टि का संचालन सुचारु रूप से चलता रहता है।
जब कोई मनुष्य भगवान की कृपा से श्रद्धा भाव से निरन्तर किसी तत्वदर्शी संत के सम्पर्क में आता है तब वह मनुष्य सचेत अवस्था (जाग्रत अवस्था) में आने लगता है, तब वह अपनी पहिचान जीव रूप से करने लगता है तब उसका मिथ्या अहंकार मिटने लगता है और शाश्वत अहंकार में परिवर्तित होने लगता है यहीं से उसके अज्ञान का आवरण धीरे-धीरे हटने लगता है और ज्ञान प्रकट होने लगता है।
हमारे दोनों स्वरूप ज़ड़ ही हैं, जब पूर्ण चेतन स्वरूप "परमात्मा" का आंशिक चेतन अंश "आत्मा" जब जीव स्वरूप से संयुक्त होता है तब हमारे आन्तरिक स्वरूप जीव में चेतनता आ जाती है जिससे हमारा बाहरी स्वरूप स्थूल शरीर में भी चेतन शक्ति का संचार हो जाता है, इस प्रकार ज़ड़ और चेतन का संयोग से सृष्टि का संचालन निरन्तर होता रहता है
जीव मिथ्या अहंकार के कारण ही स्थूल शरीर धारण करके बार-बार जन्म और मृत्यु को प्राप्त होता रहता है, जब जीव का मिथ्या अंहकार मिटकर शाश्वत अहंकार में परिवर्तित हो जाता है तभी जीव मोक्ष के मार्ग पर चलने लगता
मिथ्या अहंकार के मिट जाने पर ही जीव की मुक्ति संभव होती है।

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