Wednesday, January 25, 2017

धर्मार्थ वार्ता

[1/17, 22:22] ‪+91 98854 71810‬: यह मनुष्य का शरीर बार बार नहीं मिलता ।
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मिलत नहिं नर तनु बारम्बार ।
कबहुँक करि करुणा करुणाकर, दे नृदेह संसार ।
उलटो टांगी बाँधि मुख गर्भहिं, समुझायेहु जग सार ।
दीन ज्ञान जब कीन प्रतिज्ञा, भजिहौं नंदकुमार ।
भूलि गयो सो दशा भई पुनि, ज्यों रहि गर्भ मझार ।
यह 'कृपालु' नर तनु सुरदुर्लभ, सुमिरु श्याम सरकार ।

भावार्थ - यह मनुष्य का शरीर बार बार नहीं मिलता । दयामय भगवान चौरासी लाख योनियों में भटकने के पश्चात् दया करके कभी मानव देह प्रदान करते हैं । मानव देह देने के पूर्व ही संसार के वास्तविक स्वरुप का परिचय कराने के लिए गर्भ में उल्टा टांग कर मुख तक बाँध देते हैं । जब गर्भ में बालक के लिए कष्ट असह्य हो जाता है तब उसे ज्ञान देते हैं और वह (जीव) प्रतिज्ञा करता है कि मुझे गर्भ से बाहर निकाल दीजिये, मैं केवल आपका ही भजन करूँगा । जन्म के पश्चात जो श्यामसुंदर को भूल जाता है, उसकी वर्तमान जीवन में भी गर्भस्थ अवस्था के समान ही दयनीय दशा हो जाती है । 'श्री कृपालु जी' कहते हैं कि यह मानव देह देवताओं के लिए भी दुर्लभ है, इसलिए सावधान हो कर श्यामसुंदर का स्मरण करो , दयाभाव रखो, सबसे प्रेम करो, कर्तव्य के प्रति ईमानदार रहो , जिवित ही धर्मदान करो, ब्राम्हणों पर श्रध्दा तथा सन्तो से प्रेम करो एवं समस्त कर्मो को  (क्रष्ण,) के अर्पण करते चलो तो मुक्ति व मोक्ष की प्रप्ति होगी। :-
🌹🌹शुभरात्रि🌹🌹
[1/17, 23:39] P Alok Ji: कुंडली मे एक से अधिक विवाह योग,,,, १००० कुंडलियो को देखने से अनुभव प्राप्त हुआ है कि कुंडली मे मंगल के साथ सुक्र चन्द्र की युति चारीत्रिक दोष पैदा करता है दृष्टि हो युति हो जो तलाक का कारण बनता है सप्तमेस पंचमेस का योग भी यही सम स्या करता है जो एक से अधिक विवाह का योग बनाता है । आलोकजी शास्त्री इन्दौर what's app 09425069983
[1/18, 07:46] ‪+91 98854 71810‬: 🌷जीवन मे कैसा भी दुख और कष्ट  आये पर भक्ति मत छोडिए।  क्या कष्ट  आता है तो आप भोजन करना छोड देते है? क्या बीमारी आती है तो आप सांस लेना छोड देते हैं? नही ना ? फिर जरा सी तकलीफ़ आने पर आप भक्ति करना क्यों छोड़ देते हो ? कभी भी दो चीज मत छोड़िये- - भजन और भोजन ! भोजन छोड. दोगे तो ज़िंदा नही रहोगे, भजन छोड. दोगे तो कहीं के नही रहोगे। सही मायने में भजन ही भोजन है l
राम राम हरि बोल हरि बोल
💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐
सुप्रभात 🙏🙏
[1/18, 08:50] ‪+91 96916 06692‬: 🌷*श्रीहरि:*प्रभात दर्शन -*🌷
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भावमिच्छति सर्वस्य,
         नाभावे कुरुते मनः,
सत्यवादी मृदुर्दान्तो,
          सः यः उत्तमः पुरुष।

अर्थ:- जो मनुष्य सभी का कल्याण चाहता है, किसी की बुराई नहीं चाहता, जो सत्यवादी, कोमल और सब प्रकार के क्लेशों को सह सकता है, वही उत्तम पुरुष है। 
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🍁आपका दिन मंगलमय हो 🙏💐
       🌷हरहरमहादेव🌹
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[1/18, 09:13] ‪+91 96916 06692‬: पञ्चाङ्ग को कब सही और कब गलत मानना चाहिये , हम पञ्चाङ्ग को देखते है वह सूर्योदय या स्टैंडर या मिश्र मान बना है - माष कौन सा लिया गया है 1 चान्द्र मास 2 सौर मास 3 सावन मास 4 नक्षत्र मास
[1/18, 09:16] ‪+91 96916 06692‬: फिर एक तिथी का मान एक नक्षत्र का मान एक योग का मान सही लिया गया है तब वह सही है
[1/18, 09:17] ‪+91 96916 06692‬: अन्यथा गलत है चाहे वह कोई पञ्चाङ्ग हो
[1/18, 09:41] आचार्य मंगलेश्वर त्रिपाठी: *सर्वेभ्यो श्रीगुरूचरणकमलेभ्यो नमो नम: सुप्रभातम्*🌸🙏🌸
*I वन्दे संस्कृतमातरम् I*
वह्निस्तस्य जलायते जलनिधिः कुल्यायते तत्क्षणात्
मेरुः स्वल्पशिलायते मृगपतिः सद्यः कुरङ्गायते ।
व्यालो माल्यगुणायते विषरसः पीयूषवर्षायते
यस्याङ्गेऽखिललोकवल्लभतरं शीलं समुन्मीलति ॥ नी-७८ ॥

अ: यस्य अङ्गे अखिल-लोक-वल्लभतरं शीलं समुन्मीलति, तस्य वह्निः जलायते, जलनिधिः कुल्यायते, तत्क्षणात् मेरुः स्वल्पशिलायते, मृगपतिः सद्यः कुरङ्गायते,  व्यालः माल्य-गुणायते, विष-रसः पीयूष-वर्षायते ।🌸🙏🌸🙏
[1/18, 09:52] ओमीश: व्यायामात् लभते स्वास्थ्यं दीर्घायुष्यं बलं सुखं |
आरोग्यं परमं भाग्यं स्वास्थ्यं सर्वार्थसाधनम् ||

श्लोकार्थ :- व्यायाम से स्वास्थ्य, लम्बी आयु, बल और सुख की प्राप्ति होती है | निरोगी होना परम भाग्य है और स्वास्थ्य से अन्य सभी कार्य सिद्ध होते हैं |

जय गणपति बप्पा
[1/18, 09:53] ओमीश: राधे राधे....!!

साँवरे....
महफिल सजेगी पागलो की,,हर कोई तुम्हे बुलाएगा.!

मजबूर कर देंगे इतना प्यारे..!
कि तू बिन आये रह ना पायेगा,,,!

🌹🙏जय श्री श्याम🙏🌹
[1/18, 10:09] ‪+91 98896 25094‬: आप सभी को सादर प्रणाम 🙏🙏

बालक आपसे कुछ अभिलाषा वश कुछ जानना चाहता है कृपया अनुगृहीत करने की कृपा करें -------

स्त्रियों को रजस्वला होना अभिशापित है या कुछ और कारण
🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏
[1/18, 10:34] ‪+91 98896 25094‬: मेरे जिज्ञासा का अर्थ अन्यथा ना ले 🙏🙏मुझे अच्छी तरह से ज्ञात है की इस परिवार में मातृ समान मेरी बहने भी हैं ।
प्रश्न के साथ समुचित विचार करने की कृपा करें ।
यदि इस से कोई तकलीफ पहुंची हो तो मैं हृदय से क्षमा प्रार्थी हूँ 🙏🙏
[1/18, 10:40] ‪+91 98896 25094‬: _मेहनत से उठा हूँ, मेहनत का दर्द जानता हूँ,_
_आसमाँ से ज्यादा जमीं की कद्र जानता हूँ।_

_लचीला पेड़ था जो झेल गया आँधिया,_
_मैं मगरूर दरख्तों का हश्र जानता हूँ।_

_छोटे से बडा बनना आसाँ नहीं होता,_
_जिन्दगी में कितना जरुरी है सब्र जानता हूँ।_

_मेहनत बढ़ी तो किस्मत भी बढ़ चली,_
_छालों में छिपी लकीरों का असर जानता हूँ।_

_कुछ पाया पर अपना कुछ नहीं माना,_
_क्योंकि आखिरी ठिकाना मेरा मिटटी का घर जानता हूँ।_

_बेवक़्त, बेवजह, बेहिसाब मुस्कुरा देता हूँ,_
_आधे दुश्मनो को तो यूँ ही हरा देता हूँ
[1/18, 11:23] आचार्य मंगलेश्वर त्रिपाठी: 👇👇👇👇👇
दरसल भाई अजीत जी इस विषय में यह बालक अधिक तो जानता नहीं,फिर भी अल्पज्ञ बालक के मतानुसार स्त्रीयों का  रजस्वला चक्र समुचित अंतराल पर होना एक नैसर्गिक क्रिया है, जो पूरी तरह से शरीर के गर्भावस्था के लिए तैयार होने की प्रक्रिया का एक हिस्सा है। यह कहना कि इससे दूषित रक्त बाहर निकलता है सर्वथा गलत है। चिकित्सीय दृष्टिकोन से नारी का ठीक समय पर रजस्वला होना एक स्वस्थ काया होने का संकेत है। 
रजस्वला (मासिक चक्र) होना एक वरदान है।
यदि रजस्वला धर्म होना स्त्री का गुनाह है या पाप है, तो रजस्वला हुए बिना वो माँ कैसे बनेगी? जिस रज से इंसान (चाहे वह नर हो या नारी) का शरीर बनता है उसे ही हम अपवित्र कैसे मान सकते है? वास्तव में रजस्वला होना प्रकृति का नारी को दिया हुआ एक महावरदान है!! इसी वरदान की वजह से नारी माँ बन सकती है!!
यदि स्त्रीयाँ रजस्वला न हों,शृष्टि सचालित नहीं हो सकती।
🌸🙏🌸😊
[1/18, 11:46] पं सत्यशु: *☀  कर्म भोग  ☀*
➖➖-➖-➖➖

🔷  पूर्व जन्मों के कर्मों से ही हमें इस जन्म में माता-पिता, भाई-बहन, पति-पत्नि, प्रेमी-प्रेमिका, मित्र-शत्रु, सगे-सम्बन्धी इत्यादि संसार के जितने भी रिश्ते नाते हैं, सब मिलते हैं । क्योंकि इन सबको हमें या तो कुछ देना होता है या इनसे कुछ लेना होता है ।

♦ *सन्तान के रुप में कौन आता है ?*

🔷  वेसे ही सन्तान के रुप में हमारा कोई पूर्वजन्म का 'सम्बन्धी' ही आकर जन्म लेता है । जिसे शास्त्रों में चार प्रकार से बताया गया है --

🔷  *ऋणानुबन्ध  :* पूर्व जन्म का कोई ऐसा जीव जिससे आपने ऋण लिया हो या उसका किसी भी प्रकार से धन नष्ट किया हो, वह आपके घर में सन्तान बनकर जन्म लेगा और आपका धन बीमारी में या व्यर्थ के कार्यों में तब तक नष्ट करेगा, जब तक उसका हिसाब पूरा ना हो जाये ।

🔷  *शत्रु पुत्र  :* पूर्व जन्म का कोई दुश्मन आपसे बदला लेने के लिये आपके घर में सन्तान बनकर आयेगा और बड़ा होने पर माता-पिता से मारपीट, झगड़ा या उन्हें सारी जिन्दगी किसी भी प्रकार से सताता ही रहेगा । हमेशा कड़वा बोलकर उनकी बेइज्जती करेगा व उन्हें दुःखी रखकर खुश होगा ।

🔷  *उदासीन पुत्र  :* इस प्रकार की सन्तान ना तो माता-पिता की सेवा करती है और ना ही कोई सुख देती है । बस, उनको उनके हाल पर मरने के लिए छोड़ देती है । विवाह होने पर यह माता-पिता से अलग हो जाते हैं ।

🔷  *सेवक पुत्र  :* पूर्व जन्म में यदि आपने किसी की खूब सेवा की है तो वह अपनी की हुई सेवा का ऋण उतारने के लिए आपका पुत्र या पुत्री बनकर आता है और आपकी सेवा करता है । जो  बोया है, वही तो काटोगे । अपने माँ-बाप की सेवा की है तो ही आपकी औलाद बुढ़ापे में आपकी सेवा करेगी, वर्ना कोई पानी पिलाने वाला भी पास नहीं होगा ।

🔷  आप यह ना समझें कि यह सब बातें केवल मनुष्य पर ही लागू होती हैं । इन चार प्रकार में कोई सा भी जीव आ सकता है । जैसे आपने किसी गाय कि निःस्वार्थ भाव से सेवा की है तो वह भी पुत्र या पुत्री बनकर आ सकती है । यदि आपने गाय को स्वार्थ वश पालकर उसको दूध देना बन्द करने के पश्चात घर से निकाल दिया तो वह ऋणानुबन्ध पुत्र या पुत्री बनकर जन्म लेगी । यदि आपने किसी निरपराध जीव को सताया है तो वह आपके जीवन में शत्रु बनकर आयेगा और आपसे बदला लेगा ।

🔷  इसलिये जीवन में कभी किसी का बुरा ना करें । क्योंकि प्रकृति का नियम है कि आप जो भी करोगे, उसे वह आपको इस जन्म में या अगले जन्म में सौ गुना वापिस करके देगी । यदि आपने किसी को एक रुपया दिया है तो समझो आपके खाते में सौ रुपये जमा हो गये हैं । यदि आपने किसी का एक रुपया छीना है तो समझो आपकी जमा राशि से सौ रुपये निकल गये ।

🔷  ज़रा सोचिये, "आप कौन सा धन साथ लेकर आये थे और कितना साथ लेकर जाओगे ? जो चले गये, वो कितना सोना-चाँदी साथ ले गये ? मरने पर जो सोना-चाँदी, धन-दौलत बैंक में पड़ा रह गया, समझो वो व्यर्थ ही कमाया । औलाद अगर अच्छी और लायक है तो उसके लिए कुछ भी छोड़कर जाने की जरुरत नहीं है, खुद ही खा-कमा लेगी और औलाद अगर बिगड़ी या नालायक है तो उसके लिए जितना मर्ज़ी धन छोड़कर जाओ, वह चंद दिनों में सब बरबाद करके ही चैन लेगी ।"

🔶  मैं, मेरा, तेरा और सारा धन यहीं का यहीं धरा रह जायेगा, कुछ भी साथ नहीं जायेगा । साथ यदि कुछ जायेगा भी तो सिर्फ *नेकियाँ* ही साथ जायेंगी । इसलिए जितना हो सके *नेकी* कर, *सतकर्म* कर ।

श्रीमद्भभगवतगीता
[1/18, 11:49] ‪+91 98896 25094‬: बहुत सुन्दर सम्यक बात कही आपने ।🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏
प्रणम्य हैं आप
आदरणीय भैया आपने कहा की जिस रज से नर या नारी का निर्माण होता है उसे अपवित्र नहीं मान सकते । इससे सिद्ध होता है की नारी को अपवित्र कहकर तिरस्कार करना कहीं न कहीं गलत है ।
🙏🙏क्षमा करियेगा आप सभी

मैंने संतो के मुख से सुना है की जब इंद्र को ब्रम्ह हत्या का दोष लगा तो उसे 4 भागों में बांटा गया जिसमे एक भाग माताओं की दिया गया ।
जब देवताओं पर संकट आता है तो हमारी सृष्टि की गौरव मातृ शक्ति अपने ऊपर यह कष्ट उठाने को तौयार हो जाती है ऐसे परम सहनशील मातृ रूपी नारी को हम अपवित्र कैसे कह सकते हैं । जिस नारी गर्भ धारण करके न जाने कितने वीर धर्मवेत्ता प्रवक्ता राष्ट्र निर्णायक निर्माणक बालकों को जन्म दिया । जिसका स्तनपान करके कितने लेखक कवी ब्रम्ह विचारक साधू संत  वैराग्य धरती पे विचरण किये और कर रहे हैं ऐसे मातृ शक्ति को हम कैसे अपवित्र कह सकते हैं । जिसके गोंद में राम कृष्ण जैसे परम ब्रम्ह भी बालक बनके खेलते हो ऐसे मातृ शक्ति को अपवित्र कैसे कह सकते हैं ।

अपराध क्षमा करियेगा 🙏🙏
हम सभी जानते हैं की भगवान ने कभी भेद नही किया । हम सभी उन्ही की संतान हैं । वैसे भी 🙏🙏आत्मा स्त्रीलिंग है पुलिंग नही है तभी तो यह आत्मा परमात्मा को वरण करती है ।

फिर ऐसे में आप ही कृपा करें की माताएं कथा क्यों नही कह सकती । ।

यदि मेरी भावना रूपी विचार से कष्ट हो तो सभी विद्वत जन क्षमा करेंगे ।
🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏

माँ जब अपने रूप और जवानी को त्याग करती है तब जाकर बेटा या बेटी स्वरूपवान और जवान होते हैं ।
🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏
[1/18, 11:50] कविता कथा वाचिका: अभी एक महानुभाव ने प्रश्न किया कि क्या स्त्री को भागवत प्रवक्ता बनाना उचित है , और भी कई सवाल इसके अन्तर्गत उन्होंने रखा ! इस बारे मे आप श्री का क्या राय है कृपया मार्गदर्शन करें !    ग्ुप के सभी सम्मानित बन्धुओं को हार्दिक नमन् ; राधे राधे !!!!             कविता किशोरी , भागवत प्रवक्ता ,  7800373073
[1/18, 12:40] ‪+91 98854 71810‬: छमा चाहता हु माता बहिनो से लेकिन वक्ता कैसा हो

विरक्तो वैष्णवो विप्र वेद शास्त्र विशुद्ध कृत।
दृष्टांत कुशलो धीरः वक्ता कार्योतिनिस्पृहः।।
[1/18, 13:11] ‪+91 98854 71810‬: प्रत्येक द्वापर युग में विष्णु व्यास के रूप में अवतरित होकर वेदों के विभाग प्रस्तुत करते हैं| इस प्रकार अट्ठाईस बार वेदों का विभाजन किया गया| पहले द्वापर में स्वयं ब्रह्मा वेदव्यास हुए, दूसरे में प्रजापति, तीसरे द्वापर में शुक्राचार्य , चौथे में
बृहस्पति वेदव्यास हुए| इसी प्रकार सूर्य, मृत्यु, इन्द्र, धनजंय, कृष्ण द्वैपायन अश्वत्थामा आदि अट्ठाईस वेदव्यास हुए| समय-समय पर वेदों का विभाजन किस प्रकार से हुआ, इसके लिए यह एक उदाहरण प्रस्तुत है| कृष्ण द्वैपायन वेदव्यास ने ब्रह्मा की प्रेरणा से चार शिष्यों को चार वेद
पढ़ाये—
(१) मुनि पैल को ॠग्वेद
(२) वैशंपायन को यजुर्वेद
(३) जैमिनि को सामवेद
(४) सुमन्तु को अथर्ववेद
महर्षि वेदव्यास के ये उत्तराधिकारी पुरुष
ही थे , स्त्री नहीं और इनकी जो परम्परा चली वह भी पुरुषों में ही चली , जो अद्यावधि पर्यन्त स्व-स्व शाखाध्यायी ब्राह्मण पुरुषों में विस्तार को प्राप्त होकर व्याप्त है | केवल महर्षि वेदव्यास के साक्षात् शिष्यों अथवा उनकी शिष्य परम्परा में आने वाले पुरुषों को ही व्यास आसन पर बैठने का अधिकार है |
[1/18, 13:46] ‪+91 98854 71810‬: चिन्ता एक प्रकार की कायरता है और वह जीवन को विषमय बना देती है ।
— चैनिंग
रहिमन कठिन चितान तै , चिन्ता को चित चैत ।
चिता दहति निर्जीव को , चिन्ता जीव समेत ॥
( हे मन तू चिन्ता के बारे में सोच , जो चिता से भी भयंकर है । क्योंकि चिता तो निर्जीव ( मरे हुए को ) जलाती है , किन्तु चिन्ता तो सजीव को ही जलाती है । )
चिन्ता ऐसी डाकिनी , काट कलेजा खाय ।
वैद बेचारा क्या करे , कहाँ तक दवा लगाय ॥
— कबीर
[1/18, 19:51] ‪+91 81260 86511‬: गणतन्त्रदिवस:
आदरणीय- अध्यक्षमहोदय! मुख्यातिथिमहोदय! प्रधानाध्यापकमहोदय!आचार्या: समुपस्थिता: सज्जना: भगिन्यश्च भ्रातर: ।अद्य अहं भवतां समक्षे गणतन्त्रदिवसस्योपरि   किञ्चित् वक्तुम् इच्छामि ध्यानेन शृणवन्तु ।त्रुटि: भवति चेत् क्षम्यताम्  पञ्चाशदधिकनवशतशततमेवर्षे जनवरीमासस्य  षड्विंशतितमे दिनाङ्के अस्माकं देशस्य भारतस्य स्वकीयस्य संविधानम् अभवत् । अत: अस्मिन् दिवसे प्रतिवर्षं वयं भारतीया: हर्षोल्लासेन पर्वरुपेण मन्यामहे। अद्य सम्पूर्णभारते स्थाने स्थाने गणतन्त्रदिवसं पर्वरुपेण आयोजयन्ति । देहल्यां  रक्तदुर्गस्योपरि अस्माकं देशस्य राष्ट्रपतिमहोदय: ध्वजारोहणं करोति। इण्डियागेट इति स्थाने सैन्यदलस्य पथसञ्चलनं भवति। भारतस्य प्रत्येकराज्यस्य झांकी अपि तत्र भवति । वस्तुत: अस्माकं स्वतन्त्रताया: प्राप्ते: पश्चात स्वकीयस्य संविधानं तु अभवत् किन्तु अस्य पृष्ठे सहस्रश: देशभक्तवीरा: सन्ति । येषां बलिदानेन अद्य प्रजातन्त्र: अस्ति अत: समारोहपूर्वकं वयं तेषां स्मरणं कुर्म: । अद्य पुन: देशे बहव: समस्या: सन्ति । ताषां निवारणाय वयं सर्वे प्राणपणेन सिद्धा: स्म: ।
वदतु संस्कृतम्     जयतु भारतम्
[1/18, 20:09] पं अनिल ब: देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा।
तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति॥
जैसे जीवात्मा की इस देह में बालकपन, जवानी और वृद्धावस्था होती है, वैसे ही अन्य शरीर की प्राप्ति होती है, उस विषय में धीर पुरुष मोहित नहीं होता।13॥
~ अध्याय 2 - श्लोक : 13                    💐💐💐जय महाँकाल💐💐💐
[1/18, 20:12] ‪+91 98854 71810‬: श्रीमद्भागवत की रचना महर्षि कृष्णद्वैपायन व्यास (वेद व्यास) ने ब्रह्मर्षि नारद की प्रेरणा से की।क्यों लिखी - कथा प्रचलित है कि महाभारत जैसे महाग्रंथ की रचना के बाद भी वेद व्यास संतुष्ट और प्रसन्न नहीं थे, उनके मन में एक खिन्नता का भाव था। तब श्री नारद ने वेद व्यास को प्रेरणा दी कि वे एक ऐसे ग्रंथ ही रचना करें जिसके केंद्र में भगवान विष्णु हों। इसके बाद वेद व्यास ने इस ग्रंथ की रचना की। श्रीमद् भागवत के 12 स्कंध हैं तथा 18 हजार श्लोक हैं। भारतीय पुराण साहित्य में श्रीमद् भागवत को समस्त श्रुतियों का सार, महाभारत का तात्पर्य निर्णायक तथा ब्रह्म सूत्रों का भाष्य कहा जाता है।इसमें सृष्टि की रचना से लेकर कलियुग यानी सृष्टि के विनाश तक की कहानी है। इसमें भगवान के अवतारों की कथाओं के जरिए जीवन में कर्म और अन्य शिक्षाओं को पिरोया गया है। भागवत व्यवहारिक और गृहस्थ्य जीवन का ग्रंथ है। इसमें आम जीवन में उपयोगी कई बातों को गूढ़ कथाओं में समझाया गया है। श्री वेद व्यास के पुत्र शुकदेव को इस कथा श्रेष्ठ कथाकार माना गया है। वे इस कथा का संपूर्ण मर्म जानते थे। उन्होंने ही इसे आमजनों में प्रचारित किया।
[1/18, 20:29] आचार्य मंगलेश्वर त्रिपाठी: पूज्या कविता किशोरी जी श्रीमद्भागवत में  स्त्रियों को व्यास पीठ से कथा कहने के लिये निषेधता का लिखित प्रमाण है।
इस बात को आपश्री भी भलिभाति जानती हैं। अगर प्रात: स्मरणीय पूज्य वेदव्यास जी ने स्त्रियों को वर्जित बताया है तो कोई जरूरी नहीं है कि इसका मुख्य कारण स्त्रियों का रजस्वला धर्म ही हो।अनेक कारण और भी हो सकते हैं।जैसे कि स्त्रियों का यज्ञोपवीत नहीं होता,और बिना यज्ञोपवीत संस्कार के ही किसी वर्ग को वेदाध्ययन करने का अधिकार नहीं होता चाहे पुरूष हो या स्त्री। वेद शास्त्रों का समुचित अध्ययन करने वाला व्यक्ति ही व्यास पीठ से कथा वाचन करने का अधिकारी होता है।
यही कारण हो सकता है स्त्रियों के लिये व्यास पीठ से कथा निषेध का जैसा कि श्रीमद्भागवत में लिखित प्रमाण भी है।
[1/18, 20:39] आचार्य मंगलेश्वर त्रिपाठी: गुरू जी इस बात को सब जानते हैं कि आदि शक्ति तो मां ही हैं।इस लिये स्त्रियों को देवी की संज्ञा दी जाती है।
आप स्वयं भागवत के प्रखर वक्ता हैं।
आप तो और सुन्दर निर्णय दे सकते हैं।
अब प्रश्न यह उत्पन्न हो रहा है।
क्या वेदव्यास जी गलत थे उन्होने गलत लिख दिया यह श्लोक
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स्त्रीशूद्रद्विजबन्धूनां त्रयी न श्रुतिगोचरा| (- श्रीमद्भागवत १/४/२५)
आदरणीय आलोक गुरू जी आप से आशा है हम बालकों को संतुष्ट अवश्य करेगें।🌸🙏🌸😊
[1/18, 21:10] ‪+91 88271 23270‬: 🙏🌺राधे राधे गुरुजनों को प्रणाम निवेदन करता है आपका अनुज की यह तो सत्य है की माताओं को कथा नहीं करना चाहिए कारण यह है कि वह सारे नियमों का पालन नहीं कर पाते नहीं तो आगे भी माताओं ने वेदों को पढ़ा और वेदों की मर्यादा का अनुसरण किया जैसे की माता मैत्री गार्गी जी ने किया 🌺🙏
[1/18, 21:29] ‪+91 98854 71810‬: स्त्रियो के आठ प्रकार के अबगुण रामायण में लिखित है
धर्मार्थ वार्ता में उपस्थित माता बहने अनुचित न ले 🙏🙏
नारि सुभाऊ सत्य सब कहहीं। अवगुन आठ सदा उर रहहीं। साहस अनृत चपलता माया। भय अबिबेक असौच अदाया।“

रावण ने कहा

अपनी पत्नी की बात सुनने के बाद रावण ने उसे पत्नियों के आठ अवगुणों के बारे में बताया। रामचरित मानस के इस दोहे में पत्नियों के वो आठ अवगुण छिपे हैं जो रावण-मंदोदरी संवाद से हासिल हुए हैं।

पहला अवगुण

रामचरित मानस में वर्णित दोहे के अनुसार पत्नियों में जो पहला अवगुण पाया जाता है वह है ‘बहुत ज्यादा साहस होना’। साहस होना अच्छी बात है लेकिन रावण के अनुसार स्त्रियां अपने साहस का अमूमन गलत जगह इस्तेमाल कर लेती हैं।

. साहस का सही उपयोग नहीं

जैसे ही उन्हें अपने से या जैसी वे परिस्थिति की अपेक्षा करती हैं, उससे प्रतिकूल कुछ दिखाई दे तो वे उसे बदलने के लिए साहस के साथ आगे बढ़ती हैं। वे ये नहीं समझ पातीं कि उनके द्वारा दिखाया गया साहस सही है या नहीं।

दूसरा अवगुण

रावण के अनुसार पत्नियों में जो दूसरा अवगुण देखने को मिलता है वह है ‘उनकी निरंतर झूठ बोलने की आदत’। ऐसा नहीं है कि वे पल-पल झूठ बोलती हैं, लेकिन वे बातों को छिपाने के लिए अकसर झूठ का सहारा ले लेती हैं यह सत्य है।

मंदोदरी ने भी बोला था झूठ

पूर्ण रामायण काल में मंदोदरी ने भी रावण से कई झूठ बोले। कई बार उसने रावण से बातें छिपाई, इतना ही नहीं युद्ध के दौरान मंदोदरी ने दुश्मन का साथ भी दिया।

खुद फंसती हैं

रावण के अनुसार पत्नियां अकसर झूठ बोलकर खुद भी फंसती हैं और अपने पति को भी दुविधा में डालती हैं। लेकिन सच एक ना एक दिन सामने आ ही जाता है, फिर उन्हें इस बात का पछतावा होता है।

तीसरा अवगुण

रावण के अनुसार पत्नियों में पुरुषों की तुलना में अधिक चंचलता होती है। उनका मन कभी भी लंबे समय के लिए एक बात पर रुकता नहीं है। कुछ ही समय में वे अपनी ही कही बात पर मन बदल लेती हैं। जिस कारण से परिस्थितियां अस्थिर हो जाती हैं और काबू में नहीं आती।

चौथा अवगुण

रावण ने पत्नियों के जिस चौथे अवगुण की बात की थी वह है ‘उनके माया रचने का अवगुण’। उसके अनुसार यह स्त्रियों की एक कला है, वे जानती हैं कि किस समय क्या करना है ताकि परिस्थिति उनके अनुकूल हो।

स्वार्थी

रावण के अनुसार स्त्रियां अपने खुद के स्वार्थों को पूरा करने के लिए कई प्रकार की माया रचती हैं। दुनिया उनकी इस माया से बेखबर होती है। अपना काम सिद्ध कराने के लिए महिलाएं क्या-क्या करती हैं, इसकी भी चर्चा की है लंकापति रावण ने।

ये है उनका तरीका

रावण की राय में अपनी बात मनवाने के लिए स्त्रियां रूठती है, रुष्ट होने का नाटक करती हैं, कई बार प्रलोभन देती हैं और साथ ही जब जरूरत पड़े तो कार्य सिद्ध कराने के लिए सामने वाले व्यक्ति को हर तरीके से मनाती भी हैं। लेकिन अंत में अपना काम करवा लेती हैं।

पांचवां अवगुण

रावण ने पत्नियों के जिस पांचवे अवगुण की बात की है वह है ‘उनका डरपोक होना’। स्त्रियां बहुत जल्दी घबरा जाती हैं, परिस्थिति में यदि वे अचानक बदलाव देख लें तो डर जाती हैं कि आगे क्या होगा।

मंदोदरी ने जो किया

मंदोदरी ने भी कुछ ऐसा ही बर्ताव किया। जब उसे मालूम हुआ कि श्रीराम, जो स्वयं शिव जी के परम भक्त हैं, वे रावण से युद्ध करने के लिए लंका पहुंच गए हैं तो उसे अपने पति की मृत्यु का भय सताने लगा। और इसी डर के कारण उसने अपने पति को युद्ध ना लड़ने की सलाह दी और अपना बल दिखाने से पहले ही हार मान लेने और क्षमा मांगने के लिए कहा।

बुद्धि की कमी

इसलिए रावण ने यह कहा कि भले ही स्त्रियां कितनी ही साहसी क्यों ना हो, लेकिन उनके मन में एक भय जरूर होता है। यह भय उनसे अजीबोगरीब कार्य करवाता है, इस भय के कारण उनकी बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है।

छठा अवगुण

‘मूर्खता’... जी हां, रावण के अनुसार स्त्रियों का छठा अवगुण है उनकी मूर्खता। स्त्रियां भले हे तेज दिमाग वाली हो सकती है, बुद्धिमान भी हो सकती हैं, लेकिन उनमें कई बार अविवेक जैसा अवगुण देखा गया है। जिसके कारण वे बिना सोचे समझे निर्णय ले लेती हैं और बड़ी समस्या में पड़ जाती हैं।

. सातवां अवगुण

रावण के अनुसार स्त्रियों का सातवां अवगुण है ‘निर्दयता’। स्त्रियां दया जरूर करती हैं लेकिन जिस बात पर उन्हें दया ना आए, वे कभी उस पर भविष्य में भी दया नहीं दिखाती। यह उनका हठ ही समझ लीजिए।
आठवां अवगुण

‘अपवित्रता’... माफ कीजिएगा आपको इस बात पर सच में बुरा लग रहा होगा लेकिन रावण के अनुसार महिलाएं अपवित्र होती हैं। उनमें साफ-सफाई का अभाव होता है।
[1/18, 21:44] ‪+91 98854 71810‬: कलयुग में बहुत से यैसे कार्य है जो वेद विरुद्ध हो रहे है इसलिए मनुष्य परेशानी दुःख भोग रहा है
क्या गायत्री का जप दुसरो के लिए करना उचित है फिर भी कुछ आचार्य लोग यजमान के कहने पर करवा रहे है
यहाँ पर वार्तालाप करने से कुछ भी प्राप्त नहीं हो सकता न कोई माता बहिन कथा करना छोड़ सकती है न आचार्य लोग यज्ञ करवाना छोड़ सकते है इसलिए जो जिसको उचित लगे बो कार्य कीजिये नदी के बहाव के साथ चलने में भलाई है उसके विपरीत जायगे तो कलयुग में पेट भरना भी मुश्किल हो जायेगा
छमा चाहूंगा अगर हमारी बात से किसी को बुरा लगा हो 🙏🙏🙏🙏
[1/18, 22:10] आचार्य मंगलेश्वर त्रिपाठी: सबसे पहले संघ मे उपस्थित सभी माता एवं बहनों से निवेदन करता हूं कि मेरे इस पोस्ट को अन्यथा न लेवें।यह बालक अपनी अल्पबुद्धि से इस विषय पर किंचित प्रकाश डालने की चेष्टा कर रहा है।तो मैं ये कहना चाहूंगा कि धर्म का निर्णय धर्म शास्त्र के आधार पर ही होना चाहिये। धर्म शास्त्र के विषय में लोकतंत्र या अन्य संवैधानिक नियम लागू नहीं होते हैं।धार्मिक विषयों में धर्म शास्त्र ही एक मात्र प्रमाण है। भागवत कथा व्यास पीठ पर बैठकर सुनाना एक धार्मिक कृत्य है। और इस धार्मिक कृत्य को कैसे किया जाय, धर्म शास्त्र इसके लिये निर्देश करता है। श्रीमद्भागवत महापुराण के महात्म्य में ही, श्री वेदव्यास जी ने, श्रीमद्भागवत के साप्ताहिक अनुष्ठान का जो विधान बताया है, उस विधान में कब कथा करनी चाहिये? कैसे करनी चाहिये और सुनने वाले को किन-किन नियमों का पालन करना चाहिेये? ये सब बताते हुये उसी प्रसंग में यह भी कहा गया है कि किस व्यक्ति से कथा श्रवण करनी चाहिये, वक्ता कैसा होना चाहिये? तो वक्ता का लक्षण बताते हुये, श्री वेद व्यास जी ने कहा है कि विरक्तो वैष्णवो, विप्रो वेदशास्त्र विशुद्ध कृत, दृष्टांत कुशलो धीर: वक्ता कार्यो निस्पृह:। वेदव्यास जी कहते हैं कि वक्ता संसार से विरक्त हो, उसकी संसार में कोई आसक्ति न हो, वैष्णव हो यानि भगवान का भक्त हो, विप्रो यानि ब्राह्मण हो, चौथी विशेषता बताई गई कि वेदशास्त्र विशुद्ध कृत यानि वेद शास्त्र को उसने शुद्ध रुप से परंपरा से अध्ययन किया हो। आज जो स्त्री वक्ता, व्यासपीठ पर बैठकर भागवत कथा सुना रही हैं, अगर शास्त्र दृष्टि से देखा जाये तो उनको यह अधिकार नहीं है। भागवत कथा कहने का अधिकार ब्राह्मण को, वैष्णव को,और जिसने वेद शास्त्र का अध्ययन किया, उसको है। उस श्लोक में कहीं भी स्त्री की चर्चा नहीं आई है। जितने शब्द प्रयोग किये गये हैं पुल्लिंग शब्द प्रयोग किये गये हैं, पुरुषों के लिये प्रयोग किये गये हैं। और चौथा जो विशेषण कहा गया वेद शास्त्र विशुद्ध कृत, भागवत की कथा वही सुनावे जो वेद शास्त्र को पढ़ा हो, कारण की भागवत वेद रुपी वृक्ष का फल है। निगम कल्पतरु है, तो बिना वेद पढ़े कोई अगर भागवत की कथा सुनाता है, तो वेद के किन मंत्रों का कहां पर क्या तात्पर्य है, इसकी संगति वह नहीं बता सकता है। इसलिये वेद पढ़ना अनिवार्य है। और स्त्री के लिये शास्त्रों में वेद पढ़ने का सर्वत्र निषेध है। उसका कारण कि स्त्री का कहीं यज्ञोपवीत संस्कार नहीं होता और बिना यज्ञोपवीत संस्कार के स्त्री को वेद पढ़ने का कोई अधिकार नहीं है। और जब स्त्री वेद पढ़ नहीं सकती तो वह श्रीमद्भागवत में वेद की व्याख्या कैसे करेगीं? ये शास्त्र सम्मत नहीं है। और सबसे बड़ी बात कि भागवत कथा वक्ता में शुकदेव जी का नाम आता है नारद जी नाम आता है लेकिन किसी महिला कथा वक्ता के व्यासपीठ पर बैठकर भागवत कथा सुनाने जैसा कोई उदाहरण भी नहीं मिलता है।
किन्हीं माता बहनों को मेरे इस लेख से कुछ कष्ट हुआ हो तो बालक पुन:क्षमाप्रार्थी है।🌸🙏🌸
[1/18, 22:36] ‪+91 98854 71810‬: 🏠🏠🏠🏠🏠🏠🏠🏠🏠🏠
*वास्तु दोष - घर में चित्र कैसे लगाए*
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घरों में तस्वीर या चित्र लगाने से घर सुंदर दिखता है, परंतु बहुत कम ही लोग यह जानते हैं कि घर में लगाए गए चित्र का प्रभाव वहां रहने वाले लोगों के जीवन पर भी पड़ता है।

वास्तु शास्त्र के अनुसार घर में श्रृंगार, हास्य व शांत रस उत्पन्न करने वाली तस्वीरें ही लगाई जानी चाहिए।

घर के अन्दर और बाहर सुन्दर चित्र , पेंटिंग , बेल- बूटे , नक्काशी लगाने से ना सिर्फ सुन्दरता बढती है , वास्तु दोष भी दूर होते है।

1- फल-फूल व हंसते हुए बच्चों की तस्वीरें जीवन शक्ति का प्रतीक है। उन्हें पूर्वी व उत्तरी दीवारों पर लगाना शुभ होता है। इनसे जीवन में खुशहाली आती है।

2- लक्ष्मी व कुबेर की तस्वीरें भी उत्तर दिशा में लगानी चाहिए। ऐसा करने से धन लाभ होने की संभावना अधिक होती है।

3- यदि आप पर्वत आदि प्राकृतिक दृश्यों की तस्वीरें लगाना चाहते हैं तो दक्षिण या पश्चिम दिशा में लगाएं।

4- नदियों-झरनों आदि की तस्वीरें उत्तरी व पूर्वी दिशा में लगाना शुभ होता है।

5- वसुदेव द्वारा बाढग़्रस्त यमुना से श्रीकृष्ण को टोकरी में ले जाने वाली तस्वीर समस्याओं से उबरने की प्रेरणा देती है। इसे हॉल में लगाना चाहिए।

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युद्ध प्रसंग, रामायण या महाभारत के युद्ध के चित्र, क्रोध, वैराग्य, डरावना, वीभत्स, दुख की भावना वाला, करुण रस से ओतप्रोत स्त्री, रोता बच्चा, अकाल, सूखे पेड़ कोई भी चित्र घर में न लगायें।

घर में दक्षिण दीवार पर हनुमान जी का लाल रंग का चित्र लगाएं। ऐसा करने से अगर मंगल आपका अशुभ है तो वो शुभ परिणाम देने लगेगा। हनुमान जी का आशीर्वाद आपको मिलने लगेगा। साथ ही पूरे परिवार का स्वास्थय अच्छा रहेगा।

घर का उत्तर पूर्व कोना (इशान कोण) स्वच्छ रखें व वंहा बहते पानी का चित्र लगायें | (ध्यान रहे इस चित्र में पहाड़/पर्वत न हो )
अपनी तस्वीर उत्तर या पूर्व दिशा मैं लगायें

उत्तर क्षेत्र की दीवार पर हरियाली या हरे चहकते हुए पक्षियों (तोते की तस्वीर) का शुभ चित्र लगाएं। ऐसा करने से परिवार के लोगों की एकाग्रता बनेगी साथ ही बुध ग्रह के शुभ परिणाम मिलेंगे। उत्तर दिशा बुध की होती है।

लक्ष्मी व कुबेर की तस्वीरें भी उत्तर दिशा में लगानी चाहिए। ऐसा करने से धन लाभ होने की संभावना है।
घर में जुडवां बत्तख व हंस के चित्र लगाना लगाना श्रेष्ठ रहता है। ऐसा करने से समृद्धि आती है।

घर की तिजोरी के पल्ले पर बैठी हुई लक्ष्मीजी की तस्वीर जिसमें दो हाथी सूंड उठाए नजर आते हैं, लगाना बड़ा शुभ होता है। तिजोरी वाले कमरे का रंग क्रीम या ऑफ व्हाइट रखना चाहिए।

घर में नाचते हुए गणेश की तस्वीर लगाना अति शुभ होता है।
बच्चाा जिस तरफ मुंह करके पढता हो, उस दीवार पर मां सरस्वती का चित्र लगाएं। पढाई में रूचि जागृत होगी।

बच्चों के उत्तर-पूर्व दीवार में लाल पट्टी के चायनीज बच्चों की युगल फोटों लगाएं। ऎसा करने से घर में खुशियां आएंगी और आपके बच्चो का करियर अच्छा बनेगा।

इन उपायों को अपनाकर आप अपने बच्चे को एक अच्छा करियर दे सकते हैं और जीवन में सफल बना सकते हैं।

अध्ययन कक्ष में मोर, वीणा, पुस्तक, कलम, हंस, मछली आदि के चित्र लगाने चाहिए।

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बच्चों के शयन कक्ष में हरे फलदार वृक्षों के चित्र, आकाश, बादल, चंद्रमा अदि तथा समुद्र तल की शुभ आकृति वाले चित्र लगाने चाहिए।
फल-फूल व हंसते हुए बच्चों की तस्वीरें जीवन शक्ति का प्रतीक है। उन्हें पूर्वी व उत्तरी दीवारों पर लगाएं।
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ऐसे नवदम्पत्ति जो संतान सुख पाना चाहते हैं वे श्रीकृष्ण का बाल रूप दर्शाने वाली तस्वीर अपने बेडरूम में लगाएं।

यदि आप अपने वैवाहिक रिश्ते को अधिक मजबुत और प्रसन्नता से भरपूर बनाना चाहते हैं तो अपने बेडरुम में नाचते हुए मोर का चित्र लगाएं।

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यूं तो पति-पत्नी के कमरे में पूजा स्थल बनवाना या देवी-देवताओं की तस्वीर लगाना वास्तुशास्त्र में निषिद्ध है फिर भी राधा-कृष्ण अथवा रासलीला की तस्वीर बेडरूम में लगा सकते हैं। इसके साथ ही बांसुरी, शंख, हिमालय आदि के चित्र दाम्पत्य सुख में वृद्धि के कारक होते हैं।
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कैरियर में सफलता प्राप्ति के लिए उत्तर दिशा में जंपिंग फिश, डॉल्फिन या मछालियों के जोड़े का प्रतीक चिन्ह लगाए जाने चाहिए। इससे न केवल बेहतर कैरियर की ही प्राप्ति होती है बल्कि व्यक्ति की बौद्धिक क्षमता भी बढ़ती है।

अपने शयन कक्ष की पूर्वी दीवार पर उदय होते हुए सूर्य की ओर पंक्तिबद्ध उड़ते हुए शुभ उर्जा वाले पक्षियों के चित्र लगाएं। निराश, आलस से परिपूर्ण, अकर्मण्य, आत्मविश्वास में कमी अनुभव करने वाले व्यक्तियों के लिए यह विशेष प्रभावशाली है।
अगर किसी का मन बहुत ज्यादा अशांत रहता है तो अपने घर के उत्तर-पूर्व में ऐसे बगुले का चित्र लगाना चाहिए जो ध्यान मुद्रा मैं हो।

स्वर्गीय परिजनों के चित्र दक्षिण अथवा पश्चिम की दीवार पर लगाने से सुख समृधि बढेगी

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यदि ईशान कोण में शौचालय हो, तो उसके बाहर शिकार करते हुए शेर का चित्र लगाएं।

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अग्नि कोण में रसोई घर नहीं हो, तो उस कोण में यज्ञ करते हुए ऋषि-विप्रजन की चित्राकृति लगानी चाहिए।

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रसोई घर में माँ अन्नपूर्णा का चित्र शुभ माना जाता है।

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रसोई घर आग्नेय कोण में नहीं है तो ऋषि मुनियों की तस्वीर लगाए।

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मुख्य द्वार यदि वास्तु अनुरूप ना हो तो उस पर नक्काशी , बेल बूटे बनवाएं।

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दाम्पत्य जीवन को सुखमय बनाने के लिए घर में राधा कृष्ण की तस्वीर लगाएं।

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पढने के कमरे में माँ सरस्वती , हंस , वीणा या महापुरुषों की तस्वीर लगाएं।

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व्यापार में सफलता पाने के लिए कारोबार स्थल पर सफल और नामी व्यापारियों के चित्र लगाएं।

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ईशान कोण में शौचालय होने पर उसके बाहर शेर का चित्र लगाएं।
पूर्वजों की तस्वीर देवी देवताओं के साथ ना लगाएं।उनकी तस्वीर का मुंह दक्षिण की ओर होना चाहिए।

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दक्षिण मुखी भवन के द्वार पर नौ सोने या पीतल के नवग्रह यंत्र लगाए और हल्दी से स्वस्तिक बनाए।

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सोने का कमरा आग्नेय कोण में हो तो पूर्वी दीवार के मध्य में समुद्र का चित्र लगाए।

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[1/19, 05:39] व्यास u p: 🌴🍂🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍂🌴
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अपने से बड़ों का अभिवादन करने के लिए चरण छूने की परंपरा सदियों से रही है सनातन धर्म में अपने से बड़े के आदर के लिए चरण स्पर्श उत्तम माना गया है प्रत्यक्ष और परोक्ष तौर पर चरण स्पर्श के कई फायदे हैं

चरण छूने का मतलब है पूरी श्रद्धा के साथ किसी के आगे नतमस्तक होना-इससे विनम्रता आती है और मन को शांति मिलती है साथ ही चरण छूने वाला दूसरों को भी अपने आचरण से प्रभावित करने में कामयाब होता है-हर रोज बड़ों के अभि‍वादन से आयु, विद्या, यश और बल में बढ़ोतरी होती है-

माना जाता है कि पैर के अंगूठे से भी शक्ति का संचार होता है मनुष्य के पांव के अंगूठे में भी ऊर्जा प्रसारित करने की शक्ति होती है-

मान्यता है कि बड़े-बुजुर्गों के चरण स्पर्श नियमित तौर पर करने से कई प्रतिकूल ग्रह भी अनुकूल हो जाते हैं-

प्रणाम करने का एक फायदा यह है कि इससे हमारा अहंकार कम होता है. इन्हीं कारणों से बड़ों को प्रणाम करने की परंपरा को नियम और संस्कार का रूप दे दिया गया है-

जब हम किसी आदरणीय व्यक्ति के चरण छूते हैं, तो आशीर्वाद के तौर पर उनका हाथ हमारे सिर के उपरी भाग को और हमारा हाथ उनके चरण को स्पर्श करता है ऐसी मान्यता है कि इससे उस पूजनीय व्यक्ति की पॉजिटिव एनर्जी आशीर्वाद के रूप में हमारे शरीर में प्रवेश करती है इससे हमारा आध्यात्मिक तथा मानसिक विकास होता है-

आप सभी के चरणों में सादर दण्डवत प्रणाम
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   💐💐💐शुभप्रभात💐💐💐
[1/19, 06:27] ‪+91 81260 86511‬: 🤔🤔🤔🤔
समाजे प्रायेण जनाः वदन्ति, पृच्छन्ति च कथं न संस्कृतज्ञाः निजपुत्रान् संस्कृतं पाठयन्ति? अद्य तु श्रुतं संस्कृतज्ञाः स्व पुत्रान् संस्कृतन्तु नैव पाठयन्ति स्वविद्यार्थिनोपि न पाठयन्ति। पाठयन्ति चेत् पाठितस्य मूल्याङ्नं न वाञ्छन्ति।
आम्-प्रदत्तं सेवाकार्यं नूनमेव प्रक्ष्यन्ति, यथावसरम्  आलोचनामपि कुर्वन्ति।
परञ्च पाठितानां विषयाणां शैक्षणिक-क्रियाकलापानां ... कदापि न।

एवं केचन् समाः यक्षप्रश्नाः?
-सर्वकारीय- सेवकाः निजसुतान् कथन्न सर्वकारीय- संस्थासु पाठयन्ति?
- संस्कृत-शिक्षकाः गुरवः स्वपुत्रान् संस्कृतं न पाठयन्ति? आदि आदि.

- मम दृष्ट्या लोकोपकारी रुच्यनुसारी अर्थकरी च विद्या प्रदातव्या। पाठनीया च। जीविकापि यस्मिन् कस्मिन् अपि क्षेत्रे भवेत्।
परञ्च- संस्कृतम् स्वस्यबोधाय संस्कार-परम्परादि हस्तान्तरणाय, कर्तव्यपाराणाय, समत्वभावाय नूनमेव संस्कृतं पाठनीयम्। संस्कृतसंस्कारास्तु भवेयुरेव। सफलतमाः महात्मानः पुरुषाः प्रमाणीभूताः विद्यन्ते।
डा. चन्द्रकान्त दत्त शुक्लः, काशी
[1/19, 06:27] अरविन्द गुरू जी: हरि ॐ तत्सत्!  सुप्रभातम्।
भगवदनुग्रहात्सर्वे जनाः परमार्थं पुरुषार्थं च कुर्वन्तः सानन्दं स्व-जीवनं यापयन्तु।
सर्वेभ्यो भक्तेभ्यो नमः।🌺🙏�🌺

आदिपुराणे भक्तानां महत्त्वं प्रति भगवद्वाक्यं वर्तते-

*"सदा मुक्तोSपि बद्धोSस्मि भक्तेषु स्नेहरज्जुभिः।*
*अजितोSपि जितोSहं तैरवशोSपि वशीकृतः॥*

भगवान् कहते हैं, सदा मुक्त होता हुआ भी मैं अपने प्रिय भक्तों की प्रेमरूपी डोरी से बँधा हुआ हूँ, अजित होते हुए भी उनके द्वारा जीता जा चुका हूँ तथा परम स्वतंत्र हुआ भी, अपने भक्तों के वशीभूत हूँ।

॥ सत्यसनातधर्मो  विजयतेतराम् ॥
[1/19, 08:16] ‪+91 98854 71810‬: वाणी के संयम हेतु मौन अनिवार्य साधन मनुष्य अन्य इन्द्रियों के उपयोग से जैसे अपनी शक्ति खर्च करता है ऐसे ही बोलकर भी वह अपनी शक्ति का बहुत व्यय करता है।

मनुष्य वाणी के संयम द्वारा अपनी शक्तियों को विकसित कर सकता है। मौन से आंतरिक शक्तियों का बहुत विकास होता है। अपनी शक्ति को अपने भीतर संचित करने के लिए मौन धारण करने की आवश्यकता है। कहावत है कि-

"न बोलने में नौ गुण"
      **********
     ये नौ गुण इस प्रकार हैं।
1. किसी की निंदा नहीं होगी।
2. असत्य बोलने से बचेंगे।
3. किसी से वैर नहीं होगा।
4. किसी से क्षमा नहीं माँगनी पड़ेगी।
5. बाद में आपको पछताना नहीं पड़ेगा।
6. समय का दुरूपयोग नहीं होगा।
7. किसी कार्य का बंधन नहीं रहेगा।
8. अपने वास्तविक ज्ञान की रक्षा होगी।अपना अज्ञान मिटेगा।
9. अंतःकरण की शाँति भंग नहीं होगी।

10)ज्ञानियों की सभा में अज्ञानियों का
     भूषण मौन है।
सुप्रभात🙏🙏🌺🌺
[1/19, 08:53] पं विजय जी: 🙏🌹ॐ नमः शिवाय सुप्रभातम🌹🙏
             आदरणीय विद्दुत जन एवं बहिनों को सादर प्रणाम  व्यासासन पर कल ज्ञानवर्धक चर्चा हुई लेकिन समयाभाव के कारण भाग नहीं ले सका यह मेरा दुर्भाग्य था।
           अतः आज सुबह से ही कड़ी मेहनत कर वेदोक्त और शास्त्रोक्त प्रमाणानुसार लेख प्रस्तुत कर रहा हूँ आशा है आप सभी पढ़ेगें और अपना मत भी प्रस्तुत करेंगे।
🌹👏☝🌻🌱🌲☘🍁🌺💐☘🌲🌳🌿🍃🌸🎄🍀🌷🍂🌾🌼💐🌺🍁
[1/19, 09:02] पं विजय जी: स्त्रियों हेतु वेदाध्ययन एवं व्यासासन मत

                 पराशर-संहिता के भाष्यकार तथा वैष्णव परंपरा के परम आचार्य मध्वाचार्य जी ने अपनी टीका में लिखा है -“द्विविधा स्त्रियो ब्रह्मवादिन्यः सद्योवधवश्च| तत्र ब्रह्वादिनीनाम् उपनयनम् अग्निबन्धनम् वेदाध्ययनम् स्वगृहे भिक्षा इति, वधूनाम् तु उपस्थिते विवाहे कथंचित् उपनयनं कृत्वा विवाहः कार्यः|” अर्थात् दो प्रकार की स्त्रियाँ होती हैं- एक ब्रह्मवादिनी जिनका उपनयन होता है और जो अग्निहोत्र , वेदाध्ययन तथा अपने घर में भिक्षावृत्ति (घर के लोगों की निष्काम सेवा तथा स्वेच्छा से मिले अन्न-धन से जीवन यापन) करती हैं | दूसरी श्रेणी (सद्योवधु) की स्त्रियाँ वे हैं जिनका शीघ्र ही विवाह होना होता है और इनका भी उपनयन-संस्कार करने के उपरांत ही विवाह करना चाहिए| गोभिलीय गृह्यसूत्र चर्चा आती है :”प्रावृतां यज्ञोपवीतिनीम् अभ्युदानयन् जपेत्, सोमोsददत् गन्धर्वाय इति” अर्थात् कन्या को कपडा पहने हुए, यज्ञोपवीत पहना कर पति के निकट लाकर कहे :”सोमोsददत्”|साथ ही, एक श्लोक है (सन्दर्भ ग्रन्थ मुझे याद नहीं आ रहा) : “पुराकल्पे हि नारीणां मौञ्जीबन्धनमिष्यते| अध्यापनं च वेदानां सावित्रीवाचनं तथा||” अर्थात् प्राचीन-काल में स्त्रियों का यज्ञोपवीत होता था, वे वेद शास्त्रों का अध्ययन करती थीं| ७ वीं शताब्दी में सम्राट हर्षवर्धन की रानी महाश्वेता का वर्णन करते हुए अपने महाकाव्य कादम्बरी में बाणभट्ट ने लिखा है : “ब्रह्मसूत्रेण पवित्रीकृतकायाम्” अर्थात् ब्रह्मसूत्र को धारण करने के कारण पवित्र शरीर वाली | मालवीय जी भी स्त्रियों की वेदादि शिक्षा के प्रबल पक्षधर रहे | लक्ष्मी ने विष्णु भगवान को भागवत सुनाई |ऋग्वेद १०| ८५ में सम्पूर्ण मन्त्रों की ऋषिका ‘सूर्या- सावित्री’ है| ऋषि का अर्थ निरुक्त में इस प्रकार किया है—‘‘ऋषिर्दर्शनात्| स्तोमान् ददर्शेति (२.११)| ऋषयो मन्त्रद्रष्टर: (२.११ दु. वृ.)|’’ अर्थात् मन्त्रों का द्रष्टा उनके रहस्यों को समझकर प्रचार करने वाला ऋषि होता है| ऋग्वेद की ऋषिकाओं की सूची बृहद् देवता के दूसरे अध्याय में इस प्रकार है— घोषा, गोधा, विश्ववारा, अपाला, उपनिषद्, निषद्, ब्रह्मजाया (जुहू), अगस्त्य की भगिनी, अदिति, इन्द्राणी और इन्द्र की माता, सरमा, रोमशा, उर्वशी, लोपामुद्रा और नदियाँ, यमी, शश्वती, श्री, लाक्षा, सार्पराज्ञी, वाक्, श्रद्धा, मेधा, दक्षिणा, रात्री और सूर्या- सावित्री आदि सभी ब्रह्मवादिनी हैं| ऋग्वेद के १०- १३४, १०- ३९, ४०, १०- ९१, १०- ९५, १०- १०७, १०- १०९, १०- १५४, १०- १५९, १०- १८९, ५- २८, ८- ९१ आदि सूक्त की मन्त्रदृष्टा ये ऋषिकाएँ हैं| ऐसे अनेक प्रमाण मिलते हैं, जिनसे स्पष्ट होता है कि स्त्रियाँ भी पुरुषों की तरह वेदाध्ययन व यज्ञ करती और कराती थीं| वे यज्ञ- विद्या और ब्रह्म- विद्या में पारंगत थीं| तैत्तिरीय ब्राह्मण’’ में सोम द्वारा ‘सीता- सावित्री’ ऋषिका को तीन वेद देने का वर्णन विस्तारपूर्वक आता है— तं त्रयो वेदा अन्वसृज्यन्त| अथ ह सीता सावित्री| सोमँ राजानं चकमे| तस्या उ ह त्रीन् वेदान् प्रददौ| -तैत्तिरीय ब्रा०२/३/१०/१,३ इस मन्त्र में बताया गया है कि किस प्रकार सोम ने सीता- सावित्री को तीन वेद दिये|

ब्रह्मवादिनी शब्द का अर्थ वेद वादिनी नहीं क्योंकि मन्वादि प्रबल शास्त्रप्रमाणों से उसका सर्वथा निषेध प्राप्त है | ब्रह्म शब्द अनेकार्थावाची होता है इसका अर्थ तप वेद , ब्रह्मा , विप्र प्रजापति (ब्रह्मशब्दं तपो वेदो ब्रह्मा विप्रः) आदि होता है | वैसे भी सामान्य दृष्टि से ब्रह्म + वादिनी = ब्रह्म को कहने वाली यह अर्थ हुआ , ब्रह्म तो वस्तुतः आत्मतत्त्व को कहते हैं आत्मेति तु उपगच्छन्ति ग्राहयन्ति च ब्रह्मसूत्र ४/१/३ ) , यह ॐकारमय वेद भी उसी का वाचक है ( तस्य वाचकः प्रणवः – योगसूत्र १/२७) तूने ये वेदान्तप्रसिद्ध अर्थ क्यों न लिया; वेद ही क्यों लिया बांकी क्यों नहीं ? क्योंकि तुझे मर्कट -उत्पात मचाना है न इसलिए | इतना ही नहीं अपितु अन्न , प्राण , मन , विज्ञान , आनंद , सब को भी प्रसंग प्रकरण से ब्रह्म ही कहते हैं (तैत्तिरीयोप ० भृगुवल्ली ) संस्कृत के किसी भी शब्द का अर्थ करने से पूर्व उसके पूर्वापर प्रकरण , उसके मर्म को , उसके बह्वार्थों को जानना अत्यंत आवश्यक है , अन्यथा वही स्थिति होगी कि भोजनार्थ प्रवृत्त हो रहे व्यक्ति द्वारा नमक मंगाने के लिए सैन्धवमानय ! कहा गया और श्रोता लाया घोड़ा ! (क्योंकि सैन्धव शब्द के नमक और घोडा दो दो अर्थ होते हैं ) अस्तु , उक्त मर्म को समझाने से पूर्व पहले तुम्हारा ध्यान ‘ब्रह्म’ शब्द पर लाते हैं कि ब्रह्म कहते किसको हैं ? इस प्रश्न के उत्तर में स्वयं वेद कहता है कि – ये समस्त प्राणी जिस निरतिशयं निर्विशेषं महत् तत्त्वम् तत्त्व से पैदा होते हैं , जिसमें स्थित रहते हैं और जिस में प्रविष्ट होते हैं , वही जिज्ञास्य तत्त्व ब्रह्म है , उपनिषत्सु प्रतिपादितस्य तत्त्वस्य ‘ब्रह्म’ इति नाम |
यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते | येन जातानि जीवन्ति |
यत् प्रयन्त्यभिसंविशन्ति | तद्विजिज्ञासस्व | तद् ब्रह्मेति || – तैत्तिरीयोपनिषत् ३-१-३
इमानि भूतानि यतो जायन्ते, जातानि येन जीवन्ति, यदेव अभिसंविशन्ति प्रयन्ति, तदेव ब्रह्म,
तदेव विजिज्ञासस्व | अर्थात् – समस्तम् इदम् विश्वं यस्माद् उत्पद्यते, येनैव जीवति, यस्मिन्नेव च लीयते तदेव ब्रह्म | एवं समस्तस्यापि जगतः सृष्टिस्थितिलयकारणभूतं तत्त्वं वेदान्तेषु ब्रह्मशब्देन गीयते | सकलस्यास्य विश्वस्य ब्रह्म उपादानं निमित्तं च कारणं भवति | अतः ब्रह्म नैव कार्यं भवेत् | जगत्कारणत्वेन ब्रह्मण एव प्रतिपादितत्वात् कापिलसांख्यदर्शने प्रतिपादितं प्रधानं वा वैशेषिकदर्शने प्रतिपादितः परमाणुर्वा जगतः कारणं नैव भवति इत्यभिप्रायः ||
अस्तु , अब प्रश्न ये है कि ब्रह्म का ज्ञान कैसे होता है ? अब इसके उत्तर में आगे देखो –
वेद कहता है तपस्या से ब्रह्म को जानो क्योंकि तप ही ब्रह्म है – तपसा ब्रह्म विजिज्ञासस्व| तपो ब्रह्मेति| – तैत्तिरीयोपनिषत् / भृगुवल्ली / ० १
अपनी तपस्या से पूर्वकाल में स्त्रियाँ वेद मन्त्रों का साक्षात्कार कर लेतीं थी, उनकी तपस्या क्या है ? स्वधर्म पर चलने से उनको वेद्य तत्त्व का ज्ञान हो जाता था वो तपस्या है स्वधर्मपालन, देव, द्विज, गुरु, प्राज्ञों का पूजन , आर्जव , इन्द्रियों पर निग्रह , अहिंसा , इसी से वे पापदेहा स्त्रियाँ शुद्धता को प्राप्त होती हैं | (देवस्य द्विजस्य आचार्यस्य पण्डितस्य च अर्चनम्, शुद्धता, आर्जवम्, ब्रह्मचर्यम्, अहिंसा च शारीरं तपः इत्युच्यते) –
देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनं शौचमार्जवम् | ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते || (-भगवद्गीता १४/१४ ) ऋषन्ति ज्ञानसंसारयोः पारं गच्छन्ति ऋषयः| ऋषी श गतौ नाम्नीति किः| रिषिर्हसादिश्च| विद्याविदग्धमतयो रिषयः प्रसिद्धाः| इति प्रयोगात्| स्त्रियां ऋषी च| इत्यमरटीकायां भरतः इति हि श्रूयते |
अथवा ऋषन्ति अवगच्छन्ति इति ऋषयो मन्त्राः| · ऋषि दर्शनात् (नि०२|१९|१). · स्तोमान् ददर्शेत्यौपमन्यवः| · तद् यद् एतांस्तपस्यमानान् ब्रह्म (वेदं) स्वयम्भवभ्यानर्षत्, त ऋषयोऽभवन्, तद् ऋषिणामृषित्वम्| -निरुक्त २/१९/१ ऋषि गोत्र प्रवर्तक , दीर्घायु , मन्त्रसाक्षात्कर्ता, दिव्यद्रष्टा आदि हुए | दीर्घायुषो मन्त्रकृत ईश्वरा दिव्यचक्षुषः| बुद्धाः प्रत्यक्षधर्माणो गोत्रप्रवर्तकाश्च ये || (वायुपु० पूर्वार्ध ६१/९४ ) ऋषि शब्द का ही स्त्रीत्व विवक्षा में प्रयोग हुआ है ऋषिका , क्यों कहा है ऋषिका ? क्योंकि किसी एक समानधर्म से उसे वह कहा गया , यथा लोक में शौर्य या क्रौर्य आदि किसी सामान धर्म के आधार पर बालक को भी सिंह कह दिया जाता है (सिंहोsयं माणवकः) | क्या समानता है ? समानता है दीर्घायुत्व की , दिव्य-द्रष्टृत्व की , प्रत्यक्षा धर्मा होने की | स्त्रियाँ भी तो दिव्यदर्शिणी हो सकती हैं | किन्तु क्या कभी तुमने किसी ऋषिका के नाम से गोत्र सुना ? नहीं न ! क्यों ? क्या किसी शास्त्र में कभी स्त्रियों की शिष्या परम्परा सुनी ? कोई स्थान विशेष में पाठ शाला पढी , जहां उनको वेदाध्ययन कराया जाता था ? नहीं न ! वो इसलिए क्योंकि उनका ऋषिका होना ऋषियों के मार्ग की भांति न रहा | उनका सिद्धि प्राप्ति का मार्ग दूसरा है | इसी प्रकार वेदोक्त सीता , सावित्री आदि सभी शब्द लौकिक अर्थ तुल्य ग्राह्य नहीं , लौकिक शब्दों तथा वैदिक शब्दों के अर्थ में बहुत भेद होता है | जैसे लोक में कवि शब्द का अर्थ कविता करने वाला होता है किन्तु वेद में त्रिकालज्ञ , लोक में क्रतु का अर्थ यज्ञ होता है किन्तु वेद में इसी शब्द का अर्थ बुद्धि हो जाता है – अग्निर्होता कविक्रतु: (ऋग्वेद , अग्निसूक्त ५ ) वेद के एक ही शब्द का ब्राह्मण ग्रन्थ अनेक अर्थ प्रकाशित करते हैं, विचक्षणता के बिना इसे नहीं समझा जा सकता | बहुभक्तिवादीनि हि ब्राह्मणानि भवन्ति | पृथिवी वैश्वानर:, संवत्सरो वैश्वानरो, ब्राह्मणो वैश्वानर इति” (- निरुक्त ७/७/२४ ) अस्तु ,
शास्त्रकारों का कथन है कि मनुस्मृति के विरुद्ध जो स्मृति वचन है वह प्रशस्त नहीं माना गया है क्योंकि वेदार्थ के अनुसार निबद्ध होने से सर्वप्रथम मनु की मान्यता है (सर्वधर्ममयो मनु : ) , जैसा कि –
मनुस्मृति विरुद्धा या सा स्मृतिर्न प्रशस्यते |
वेदार्थोपनिबद्धत्त्वात् प्राधान्यं हि मनोः स्मृतेः | | तथाहि ——–>
यद् वै किञ्च मनुरवदत् तद् भेषजम् | ( तैत्तिरीय सं०२/२/१०/२)
मनु र्वै यत् किञ्चावदत् तत् भेषज्यायै | (- ताण्ड्य-महाब्रा०२३/१६/१७)
अथापि निष्प्रचमेव मानव्यो हि प्रजाः | ऋग्वे० १/८०/१६ अपि द्रष्टव्यम् |
……..ये तो हो गया पाराशर संहिता पर द्विविधा स्त्रियो ० और “पुराकल्पे हि नारीणां मौञ्जीबन्ध ० आदि का उत्तर |
अब सुनिए ब्रह्मसूत्रेण पवित्रीकृतकायाम् का उत्तर —>
ब्रह्मसूत्र शब्द विविध अर्थों वाला है , ब्रह्म शब्द के अर्थ तप , वेद , ब्रह्मा , विप्र , प्रजापति आदि माने गए हैं | अतः महाश्वेता स्वधर्म पालन रूप तपस्या से ही पवित्र काया हुई थी ऐसा सिद्ध होता है —->
ब्रह्मशब्दं तपो वेदो ब्रह्मा विप्रः प्रजापतिः इति वचनेन अत्र ब्रह्मसूत्रशब्दस्य तपः सूत्रेण पवित्रीकृतकायामिति तात्पर्यं समीचीनम् | बह्वर्थको हि ब्रह्मसूत्रशब्दः, तथाहि यज्ञोपवीतभिन्नार्थे – ब्रह्मसूत्रपदैश्चैव हेतुमद्भिर्विनिश्चितैरिति गीतायाम् |
अब आगे देखिये –
स्त्री का पति ही उसका गुरु है | शास्त्र कहता है –
गुरुरग्निर्द्विजातीनां वर्णानां ब्राह्मणो गुरुः |
पतिरेव गुरुः स्त्रीणां सर्वस्याऽभ्यागतो गुरुः ||
(-पद्मपुराण स्वर्ग॰५१/५१, ब्रह्मपुराण ८०/४७ )
‘अग्नि द्विजातियोँ का गुरु है, ब्राह्मण चारोँ वर्णोँ का गुरु है, एकमात्र पति ही स्त्रियोँ का गुरु है और अतिथि सबका गुरु है |’ स्त्रियों का जनेऊ संस्कार घोर पाखंड है , किं च –
वैवाहिको विधिः स्त्रीणां संस्कारो वैदिकः स्मृतः |
पतिसेवा गुरौ वासो गृहार्थोँऽग्निपरिक्रिया || (मनुस्मृति २/६७ )
‘स्त्रियोँ के लिये वैवाहिक विधि का पालन ही वैदिक-संस्कार (यज्ञोपवीत), पति की सेवा ही गुरुकुलवास और गृह-कार्य ही अग्निहोत्र कहा गया है |’
आत्मा को लौकिक स्त्रियों के तुल्य किसी एक जाति विशेष से जोड़ लेना ही मूर्खता है, ( त्वं स्त्री त्वं पुमानसि त्वं कुमार उत वा कुमारीति श्वेताश्वतरोप० ४/३ ) दूसरी बात ये है कि लक्ष्मी भी व्यासासन पर बैठकर विष्णु को भागवत नहीं सुनातीं अपितु भागवती वार्त्ता वे करती हैं , जिसका अभिप्राय है , भगवान की लीला कथाओं का परस्पर संवाद करना | संवाद अलग चीज है और व्यासासन पूर्वक भागवत अनुष्ठान संपन्न करना अलग | स्वयं श्री भगवान् गीता में कहते हैं कि – येषां चित्तं मयि संलग्नं भवति, येषाम् इन्द्रियाणि मयि सन्ति तादृशाः बुधाः भावसमन्विताः अन्योन्यं मां बोधयन्तः कीर्तयन्तः च सदा सन्तोषं प्राप्नुवन्ति, मय्येव च विहरन्ति यथा – –
मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम् |
कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च || (-श्रीमद्भागवद्गीता १०/९ )
वे दृढ निश्चयवाले मेरे भक्तजन निरन्तर मेरे नाम और गुणोंका कीर्तन करते हुए तथा मेरी प्राप्तिके लिये यत्न करते हुए सदा मेरे ध्यानमें युक्त होकर अनन्य प्रेमसे मेरी उपासना करते हैं |
सततं कीर्तयन्तो मां यतन्तश्च दृढव्रताः |
नमस्यन्तश्च मां भक्त्या नित्ययुक्ता उपासते || (-श्रीमद्भागवद्गीता ९/१४)
स्वयं को वेद की अधिकारिणी बना कर जिस भागवत को ये स्त्रियां व्यासासन से सुनाना चाहती है, वह किस मुख से उसका पारायण करती हैं ? क्योंकि स्वयं श्रीमद्भागवत ही उनको अनधिकारिणी बता रही है यथा – स्त्रीशूद्रद्विजबन्धूनां त्रयी न श्रुतिगोचरा| (- श्रीमद्भागवत १/४/२५) महर्षि वेदव्यास से अधिक जानकार तो होंगे नहीं आप !
प्रत्येक द्वापर युग में विष्णु व्यास के रूप में अवतरित होकर वेदों के विभाग प्रस्तुत करते हैं| इस प्रकार अट्ठाईस बार वेदों का विभाजन किया गया| पहले द्वापर में स्वयं ब्रह्मा वेदव्यास हुए, दूसरे में प्रजापति, तीसरे द्वापर में शुक्राचार्य , चौथे में बृहस्पति वेदव्यास हुए| इसी प्रकार सूर्य, मृत्यु, इन्द्र, धनजंय, कृष्ण द्वैपायन अश्वत्थामा आदि अट्ठाईस वेदव्यास हुए| समय-समय पर वेदों का विभाजन किस प्रकार से हुआ, इसके लिए यह एक उदाहरण प्रस्तुत है| कृष्ण द्वैपायन वेदव्यास ने ब्रह्मा की प्रेरणा से चार शिष्यों को चार वेद पढ़ाये—
(१) मुनि पैल को ॠग्वेद
(२) वैशंपायन को यजुर्वेद
(३) जैमिनि को सामवेद
(४) सुमन्तु को अथर्ववेद
महर्षि वेदव्यास के ये उत्तराधिकारी पुरुष ही थे , स्त्री नहीं और इनकी जो परम्परा चली वह भी पुरुषों में ही चली , जो अद्यावधि पर्यन्त स्व-स्व शाखाध्यायी ब्राह्मण पुरुषों में विस्तार को प्राप्त होकर व्याप्त है | केवल महर्षि वेदव्यास के साक्षात् शिष्यों अथवा उनकी शिष्य परम्परा में आने वाले पुरुषों को ही व्यास आसन पर बैठने का अधिकार है |
मनुस्मृति ने स्पष्ट किया है कि स्त्रियाँ निरिन्द्रिय, मन्त्ररहिता, असत्यस्वरूपिणी हैं- निरिन्द्रिया ह्यमन्त्राश्च स्त्रियोऽनृतमिति स्थिति:| —मनु० ९/१८
स्त्री पापयोनि है , उसके जन्म का कारण पाप है , इस विषय में गीता का यह श्लोक स्पष्ट प्रमाण है –
हे अर्जुन ! स्त्री, वैश्य, शूद्र या पापयोनि- चाण्डालादि चाहे जो कोई भी हों, वे यदि मेरे आश्रित हो, तो परमगतिको ही प्राप्त होते हैं –
मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्युः पापयोनयः |
स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम् || (- श्रीमद्भगवद्गीता९/ ३२)
आक्षेप – यहाँ ‘पापयोनि’ –यह शब्द स्त्रियों वैश्यों आदि का विशेषण मानना आयुक्त है क्योंकि छान्दोग्योपनिषद् में वैश्य को उत्तमयोनि कहा अतः श्रुति विरुद्ध अर्थ अग्राह्य है |
समाधान – “रमणीयां योनिम्” विशेषण ही कहा है , “पुण्ययोनिम्” नहीं कह दिया है जो शुरू हो गए हो खंडन करने ; गीतोक्त “पापयोनि” का निषेध नहीं हुआ है यहाँ ! पापयोनि शब्द का अर्थ ही तुमको ज्ञात नहीं अन्यथा ये भारी भूल न करते ! स्त्री वैश्य तथा शूद्र के प्रति “पापयोनि” विशेषण की संगति करने वाले आचार्य शंकर स्वयं यहाँ स्पष्ट करते हैं कि द्विजत्व की प्राप्ति में पुण्यत्व नहीं है -ऐसी बात नहीं पुण्यत्व तो है , तभी तो द्विजत्व मिला | इसलिये वे इस मन्त्र पर लिखते हैं – /// रमणीयचरणेनोपलक्षितः शोभनोऽनुशयः पुण्यं कर्म येषां ते रमणीयचरणा: ////, //// ये तु रमणीयचरणा द्विजातयस्ते // आदि (तत्रैव शांकरभाष्य )
……………… अतः ज्ञातव्य ये है कि मानव योनि में जन्म लेने वाला जीव , स्त्री वैश्य और शूद्र – इन तीन के रूप में पाप के प्रभाव से जन्म लेता है और ब्राह्मण – इस योनि में पुण्य के प्रभाव से | याने पूर्वपुण्य का प्रभाव इनको मानव तो बना देता है किन्तु पाप का प्रभाव ही इनको ब्राह्मण पुरुष नहीं बनने देता , ये सिद्धान्त है अन्यथा तो ब्राह्मण ही होते वैश्य या शूद्र क्यों होते ? इसलिए पापयोनि हैं |जन्तूनां नरजन्म दुर्लभमतः पुंस्त्वं ततो विप्रता-इत्यादिपूर्वक यही मर्म भगवान् शंकर ने विवेकचूडामणि में समझाया है अर्थात् संसार में जन्म लेने वालों में पहले तो नर जन्म ही दुर्लभ होता है, फिर पुरुषत्व मिलना दुर्लभ है , मानव जन्म हो गया , पुरुष भी हो गया तो फिर ब्राह्मण होना तो और भी दुर्लभ होता है |
अभी अभिधारणा और दृढ होगी , आगे देखो –
प्रश्न – उत्तम योनि कह दिया तो स्पष्ट है अधम योनि तो है नहीं ! दिन है कह दिया तो स्पष्ट है कि रात नहीं है |
उत्तर – ये तर्क तो तब काम करता जब श्रुति ने पुण्ययोनि विशेषण श्रुति ने दिया होता , सो तो दिया नहीं | तो फिर कैसे कहते हो कि पापयोनि का न होना सिद्ध हुआ ? यहाँ रमणीय विशेषण पर “शास्त्रीयचरणम् आचरणम् कर्मं येषां तथाभूताः ब्राह्मणक्षत्रियवैश्यसम्बन्धिनीं रमणीयां निजोद्धारक्षमां योनिम् आपद्यन्ते ” ऐसा राघवकृपाभाष्यकार का कथन है , (तत्रैव, राघवकृपाभाष्य पृष्ठ ५६०) याने के जिनको शास्त्रीय आचरणपूर्वक स्वयं का उद्धार करने की सक्षमता है वे हैं रमणीयचरण – ऐसा कह रहे हैं अर्थात् स्पष्ट है कि द्विजत्वप्राप्तिपूर्वक शास्त्रीय विधि-निषेध कासम्पादन करने वाली योनियाँ – ये अभिप्राय राघवकृपाभाष्यकार कहना चाहते हैं| (अर्थात् पुण्ययोनि के स्थान पर शास्त्रीय आचरण में सक्षम योनि -ऐसा अभिप्राय स्वीकृत किया है ) अब बताइये क्या कहोगे ?
पुनश्च यहाँ तो द्विजत्वप्राप्ति में सक्षम या कहिये शास्त्रीयविधिनिषेधों के पालन के अधिकारी योनियों का ही पृथकीकरण हुआ ! तो कहाँ पर गीतोक्त “पापयोनि ” विशेषण का खंडन हुआ है यहाँ भला ? ये पापयोनि द्विजत्व प्राप्ति की अधिकारिणी योनियाँ नहीं हैं ऐसा तो आचार्य शंकर ने कहा नहीं ! (अर्थात् न हैं कहा न नहीं हैं कहा ), वे तो उतना ही बोल रहे हैं जितना कि अखण्डनीय सिद्धान्त है , फिर आक्षेप किस आधार पर ?
पापयोनि, पुण्ययोनि , पापकर्मा , पुण्यकर्मा – प्रत्येक शब्द स्वयं में अलग -अलग अभिप्राय लिए है | पुण्यकर्मा होकर पाप – प्राधान्यत्वेन पापयोनि हो सकता है, पापकर्मा होकर पुण्य-प्राधान्यत्वेन पुण्ययोनि हो सकता है | -ये शास्त्रीय सिद्धान्त है |
अस्तु , आगे चलिए –
क्या ये सिद्धांत है कहीं वर्णित कि द्विजत्व की अधिकारिणी योनि पापयोनि हो ही नहीं सकती ? “पुण्ययोनि” विशेषण यदि द्विजमात्र को प्राप्त हो जावे तब तो आपका मत संगतहो सकता है किन्तु ऐसा भी नहीं ; ये तो केवल ब्राह्मण को ही श्री भगवान द्वारा स्वीकृत है |
किं पुनर्ब्राह्मणाः पुण्या ——तत्रैव गीतायाम् ९/३३
यहाँ पुण्या से पुण्ययोनयः – ऐसा ही अर्थ उचित है क्योंकि पीछे से पापयोनि विषयकपूर्वार्ध स्पष्ट हुआ है |
बांकी इस स्त्रियो वैश्यास्तथा० पर वेंकटनाथ वेदान्तदेशिक ने इस श्लोक की व्याख्या पर देखो कैसे समझाते हैं आप हठधर्मियों को –
///त्रैवर्णिकस्य विद्यादिमतोsपि वैश्यस्य शूद्रादिभिः सह पापयोनित्वेन परिगणनं सत्रानधिकारित्वात् /// ……इस प्रकार सविस्तार आप आक्षेपकर्त्ताओं की हठधर्मिता की धज्जियां वेदान्तदेशिकाचार्य ने सविस्तार उडाई ही की है , स्वयं पढ़ना उठाकर ,तुम्हारे लिए इतना संकेत ही बहुत है |
[1/19, 09:22] पं अर्चना जी: 💐💐💐✌.                                        सारा जहा उसी का है
             जो मुस्कुराना जानता है
         रोशनी भी उसी की है जो शमा
                 जलाना जानता है
      हर जगह मंदिर मस्जिद गुरूद्वारे है।
      लेकीन इश्वर तो उसीका है जो
            "सर" झुकाना जानता है!   😊💐💐💐💐💐. 
  🌹good morning🌹
🌹🌹सुप्रभात🌹🌹
  🔥🍿💥🎉🎉🍫🍫
[1/19, 09:23] पं अर्चना जी: 🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏  * प्रातःकालीन अभिनन्दन*
🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏
*जिस तरह बहती नदी लौटकर वापस नहीं आती,उसी प्रकार दिन और रात मनुष्य की आयु लेकर चले जाते है जो कभी वापस नहीं आते*
*अतः भूत की अच्छी यादों को यादों में संजोए रखकर वर्तमान में जो भी पल ख़ुशी के मिलें खुश होकर जिएं*
       🙏🙏 *सुप्रभात*🙏🙏
            आपका दिन शुभ हो
   🌹🙏Good Morning 🙏🌹
[1/19, 09:24] ‪+91 98896 25094‬: 🙏🙏अतुलनीय प्रस्तुति🙏🙏
बड़ी ही कुशलता के साथ आपने हर विषय का दिव्य ज्ञान कराया 🙏🙏
आपके द्वारा दी गयी जानकारी के अनुसार और पाराशर एवं बाणभट्ट जी के अनुसार यज्ञोपवित के बाद ही स्त्रियों का विवाह हो ।

तो फिर कबसे ये नियम हट गया और क्यों हट गया ?
क्योंकि आज ऐसा नही होता है ।
कृपा करें🙏🙏
[1/19, 09:58] ‪+91 99977 51644‬: जय जय श्री राधे🙏 सर्वेषु विप्र चरणेषु
मुहुर्मुहुर्प्रणमाम्यहम् 🙏🙏

अयं तु युगधर्मो हि से मेरा तात्पर्य है नारद जी ने सर्वत्र सभी जगह विचरण किया और क्या-क्या देखा साधु-संतों के यहां गए गृहस्थों के यहां गए सभी के यहां दृष्टिपात किया और क्या देखते हैं
पाखंड निरताःसन्तः ......
गृहस्थियों के यहां पहुंचने पर
दम्पतिनां च कलकनम्.........
वेदज्ञ पण्डितो के यहां पहुंचने पर
पडितास्तु कलत्रेण...,......
और कुछ ही देर बाद
सत्यं नास्ति तपः शौचं.......
और फिर अंतिम निष्कर्ष पर पहुंचे और विचार किया
अयं तु युग धर्मो हि
      वर्तते कस्य दूषणं !
अतस्तु पुण्डरीकाक्षो ,
       सहते निकटे स्थितः !!
ये इस युग का धर्म है इस मे किसी का दोष नहि है !
अगर सब कुछ शास्त्रों के अनुसार होता रहा तो कलियुग अपने पैर कैसे जमायगा !
बाकि तीन हठ तो सभी जानते हैं ! उनको शास्त्रों की मर्यादा से  क्या 🙏🙏🙏🙏🙏🙏
[1/19, 11:34] ओमीश: वेद्यम् 📚📖 वेदाम - ३७
वेदाभ्यासः पञ्चधा
वेदस्वीकरणं पूर्वं विचारोऽभ्यसनं जपः ।
तद्दानं चैव शिष्येभ्यो वेदाभ्यासो हि पञ्चधा ॥
[1/19, 11:34] ओमीश: वेद्यम् 📚📖 वेदाम - ३८
सार्थवेदपाठस्य महत्त्वम्
पाठमात्ररतान्वेदे द्विजातीनर्थवर्जितान् ।
पशूनिव स तान्प्राज्ञो वाङ्मात्रेणापि नार्चयेत् ॥वेदव्यासः॥
[1/19, 11:47] ‪+91 98854 71810‬: ईश्वर के चित्रण की क्या आवश्यकता?

गौर करने योग तथ्य यह है, कि जब सनातन धर्म की ऋषियों द्वारा प्रद्यत वैदिक विचारधारा, मूलतः परमेश्वर को परम निराकार चेतना के स्वरूप में  प्रतिपादित करती है, तो ऋषियों ने ईश्वर के चित्रण को स्वीकार्य भाव से क्यों अपनाया।

अगर हम एक अति साधारण सत्य एक अबोध बालक को भी समझा सकते हैं, कि ईश्वर निराकार और अजन्मा है, तो इतने सारे चित्र क्यों? उदाहरण स्वरूप सत का विष्णु चित्र, चित् का शिव चित्र, आनंद का ब्रह्मा चित्र, प्रकृति के प्रमुखरूप पार्वती-दुर्गा-काली के चित्र, प्रज्ञा का चित्र सरस्वती, प्रकृति और शिव को पूर्णरूपेण निहित किए हुए का चित्र गणेश, सत्य की महत्ता का चित्र सत्यनारायण, यहाँ तक की गायत्री मंत्र से उद्भूत शक्ति का भी चित्र और अब हमने उसी चित्रज्ञान द्वारा अपने देश का चित्रण भी भारत माता के रूप में किया। अपितु दूसरी ओर कुछ सम्प्रदाय और समुदाय ईश्वर के चित्रण या मूर्तरूप को परिहार्य मानते हुए उसकी निन्दा करते हैं। यही माया का द्वंद है।

कई संतों ने अपने अनुभवानुसार और समयानुरूप, साकार और निराकार ईश्वर पर अपने मत रखे हैं। सत्य तो यही है कि परम निराकार चेतना ही प्रकृतिरूप में समस्त साकार रूप को व्यक्त करती है; कुछ उसी प्रकार जैसे हमारी मानवीय चेतना स्वप्न में साकार जगत का निर्माण कर देती है। साकार मूलतः निराकार है, उससे पृथक कदापि नही। साकार से विमुखता, आध्यात्मिक भटकाव और इंद्रियजन्य दिशाहीनता का कारण है।

चित्रण आम मनुष्य के हेतु आवश्यक है, क्योंकि:

(1) निराकार मन को साकार रूप की सहायता से सहज एकाग्र किया जा सकता है
(2) साकार रूप वह पायदान है जो निराकार के शिखर पर पहुँचाता है
(3) साकार ईश्वर का अनादर कर निराकार प्राप्त नही किया जा सकता
(4) मनुष्य को साकार चितंन (धारणा) द्वारा ही अचिन्तनीय साम्राज्य (ध्यान-समाधि) में प्रवेश मिलता है
(5) स्थूलजगत में रहकर स्थूल की सहायता से सूक्ष्म की ज्ञानप्राप्ति होती है
(6) सरल मार्ग दरकिनार कर, कठिन मार्ग से लक्ष्यभेदन में देरी, बुद्धिमता नही है
(7) भावरूपी शक्ति का त्वरित विकास, साकार रूप से संभव होता है

विडंम्बना तब है, जब मनुष्य अपने मन की गति न समझकर चित्रण का उद्देश्य भूलकर मनोदशा का विकास नही करता है और स्थूल में खोकर जीवन व्यय कर देता है। इसी कारण कई गुरुजन, शिष्यों को अपना चित्र तक नही रखने देते।

आइये यह ठान लें कि मूर्तरूप की प्रासंगिकतानुरूप, मनोवृत्ति निरोध के मार्ग का अनुकरण करेंगे।
[1/19, 14:12] ‪+91 98896 25094‬: 🙏🙏क्षमा प्रार्थी हूँ 🙏🙏
हमारे धर्म के सारे मत एक नही है सबमे अलग अलग प्रधानता दी गयी है ।
कल भी अग्रज भैया के द्वारा पता चला की मैत्री और गार्गी मैया ने वेद पढ़े । आज अग्रज विजय भैया ने भी बहुत अच्छा अवलोकन कराया ।
लेकिन उस समय भी बिबिधता रही है । जितने पुरुष वर्ग शिक्षित हुए उतनी स्त्रियां नही ! कारण कई हो सकते हैं या तो वह स्वयं पढ़ना नहीं चाहतीं थी या उनके अधिकार या मर्यादा से बहार था या ओ बाधित थीं ।
राम चरित मानस में भी राम जी पढ़ना दर्शाया गया है पर सीता जी का पढ़ना नही 🙏ओ त्रेता की बात थी आज इस कलयुग में भी कुछ समय पहले बेटियों को स्कुल नही भेजा जाता था कहीं कहीं आज भी ऐसा है । लड़को को बहुत कुछ लड़कियों को शायद कुछ ।
जबकि कुल की मर्यादा स्वभावतः बेटियों से ही है क्योंकि बेटियां 2 कुल की मर्यादा को निभाती हैं ।
लेकिन इसी समाज में सबसे अधिक त्रासदी बेटियां ही सहतीं हैं ।
जब बेटी अकेले घूमती हैं तो उनके लिए नियम है ""पिता रक्षति कौमारे"" पर जब बेटा किसी पे कुदृष्टि डालता है तो क्या~~नियम पढ़ाया जाता है की मन कुपंथ नही जाना चाहिये।
बेटी को बार बार बताया जाता है की पति परमेश्वर होता है पर क्या बेटे के लिए भी कुछ ऐसा ।
पत्नी के जीवन में बहुत नियम है पति के लिये पर कितना नियम पति के लिये है जो पालन करते हैं ।

शाष्त्र तो बहुत कुछ कहते हैं सभी के प्रति लेकिन  शाश्त्र के विरुद्ध यदि माताये हैं तो क्या शाश्त्र अनुकूल पुरुष हैं ।
 
दुर्गा चालीसा का एक पंक्ति---
धरा रूप नरसिंह को अम्बा ।
प्रकट भई फाड़ कर खम्भा ।।
हम सब यह भी जानते हैं ठाकुर जी प्रह्लाद जैसे भक्त के लिए नरसिंह का अवतार लिये ।🙏🙏
सारे ग्रन्थ के अपने नियम है अपने विचार है हर ग्रंथ में उसके इष्ट की प्राथमिकता दी गयी है ।
🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏

भगवान ने कभी भेद नही किया चाहे अहिल्या हो या शबरी ।
बड़ी विचित्र बात है अगस्त्य मुनि को मात्र परेशान करने पर सुन्द की अप्सरा पत्नी को श्राप दिया जाता है की जाओ धरती पे  राक्षसी हो जाओ पर चन्द्रमा को ? इंद्र को ?( शायद इस बात पे हम गलत भी हो सकते हैं लेकिन बालक ने ये नही पढ़ पाया है अभी की चन्द्रमा और इंद्र भी राक्षस बनकर धरतीपर विचरण किये और भगवान ने आकर धरती पे इनका उद्धार किया ।।इस धृष्टता को क्षमा कर समझाने की कृपा करें ।🙏🙏)

आप सभी जानते हैं बेद्व्यास जी और सूत जी का जीवन ।🙏🙏🙏🙏
बाल्मीकि जी जिनके बारे में स्पष्ट कहा गया है ----
उल्टा नाम जपत जग जाना🙏🙏
ये भी कहा गया है ------
तपबल रचइ प्रपंच बिधाता 🙏🙏

तप योग साधना के आधार पर शायद कुछ भी संभव है 🙏🙏

आज से कुछ दिन पहले मैंने मनु स्मृति के कुछ पोस्ट जिज्ञस्ता बस इस परिवार में रखा था उसका समुचित निराकरण नही हुआ पर उसको पढ़ने के बाद हृदय विदीर्ण हो गया की कितना भेद है हमारे समाज में जबकि धरती भगवान् ने शायद इतना भेद नही किया पर उनकी गाथा को गाने वाले जरूर करते हैं ।
आज शायद यही कारण है की हिन्दू बँट रहा है कभी ईसाई तो कभी मूलनिवासी । मैंने तो निरंकारी वालों को भी विरोध करते स्पष्ट  देखा है ।

इतनी बुद्धि नही मेरे पास की इस तरह की बात करें पर कष्ट जरूर होता है ।
मैंने अच्छे वक्ताओं को बदलते देखा है --व्यासपीठ से कहेंगे सब आपस में भेद भाव जाती पाती झगड़े भूलाकर आपस में प्रेम करो और वही वक्त व्यासपीठ से हटने के बाद गालियां भी देते हैं । क्योंकि वेद तो वही पढ़ सकते हैं कथा तो वही कह सकते हैं जो विरक्त हो वैष्णव हो विप्र हो 🙏🙏

बस यह बालक इतना जानता है की हम सभी उसी परमात्मा के अंश हैं और उसी में विलय हो जाना है इसलिए सारे भेद को भुलाकर आपस में प्रेम करें यही जीवन का अध्यात्म है ।🙏🙏
यदि कोई बात गलत लिख गया हो या किसी बात से किसी को ठेस पहुंचे उसके लिए हम विनम्र भाव से क्षमा प्रार्थी हैं ।
[1/19, 16:04] P Alok Ji: शाश्वत ,स्थाई रूप से मोह जय का अर्थ है कि मनुष्य ने सारी परतंत्रता से मुक्ति पा ली।अब मनुष्य का जीवन स्वयं उसी पर निर्भर है,वह स्वकेंद्रित हुआ;उसने अपने अस्तित्व को ही अपना केंद्र बना लिया।
अब
धन,
पद,
प्रतिष्ठा आदि रहें न रहें-मनुष्य पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता।
सफलता रहे कि विफलता,
सुख आये कि दुःख,कोई अंतर नहीं पड़ता।अंतर पड़ता ही इसीलिये था कि मनुष्य इन पर निर्भर था।
जिसके खो जाने पर मनुष्य दुःख अनुभव करता है,वही उस मनुष्य का मोह है।इसके पहले कि वह खोये मनुष्य को उस पर से अपनी पकड़ हटा देनी चाहिए,क्योंकि वह खोयेगी ही।
इस संसार में कुछ भी थिर नही है-
न मित्रता,
न प्रेम,
संसार का स्वभाव प्रतिक्षण परिवर्तन है।मनुष्य लाख उपाय कर ले ,कुछ भी स्थिर नही रह सकता।
उपाय करने के प्रयास में ही मनुष्य परेशान है।
जो प्रतिक्षण परिवर्तनशील है,मनुष्य उसे ठहराना चाहता है;और ठहराव उसका स्वभाव नहीं है,इसीलिये मनुष्य असफल होता है।
और इसीलिये मनुष्य दुखी है।वह चाहता है-स्थाई सहारे-जो कभी मिलते नहीं।
[1/19, 16:56] ओमीश: आपने सत्य कहा। लेकिन उस स्थिति में साधारण तौर से पहुंचना इतना सरल नहीं है।  वहां तक जीने के लिए क्या करना चाहिए।  मेरा अभिप्राय यही है और कुछ नहीं
हम सबको भी ज्ञात है कि-
सीय राम मय - - - - - - - ।
हरि व्यापक--------------।
प्रेम ते प्रभु प्रगटई--------।
सर्वं खलु इदं ब्रह्म।
ईशावास्यमिदं सर्वं
एको ब्रह्म द्वितीयो नास्ति
ब्रह्म सत्यं जगन्मित्थ्या
सर्वं देवी मयं जगत
लेकिन लोग इसमें जिएंगे कैसे जब आभास होगा तब लेकिन आभास होने के लिए हमें क्या करना चाहिए कि सभी जीव चराचर जङ्गम में उस परब्रह्म का अनुभव या साक्षात्कार हो।
आप हम सब कोई ये सब बातें जानते हुए भी हर मे जीव को भगवान का दर्शन नहीं कर पाते उसके लिए क्या करे सीयराम मय सब दिखे🙏🙏🙏
[1/19, 18:17] पं विजय जी: द्वारका नाम कैसे पड़ा -
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मनु के पुत्र शर्याति नामक एक राजा हुए जोचक्रवर्ती सम्राट थे ।उनके तीन पुत्र -उत्तानबर्हि; आनर्त ,और भूरिषेण ।

राजा शर्याति ने उत्तानबर्हि को पूर्व दिशा , भूरिषेण को दक्षिण दिशा एवं आनर्त को सारी पश्चिम दिशा का राज्य देकर कहा यह सारी पृथ्वी मेरी है, मैने धर्मपूर्वक इसका पालन किया है तथा बलिष्ठ होकर बलपूर्वक इसका अर्जन किया है, अतः तुम लोग इसका पालन करो ....

पिता की बात सुनकर ज्ञानी पुत्र आनर्त ने कहा राजन !
यह सारी पृथ्वी आपकी नहीँ है ,न आपने कभी इसका पालन किया और न ही आपके बल से इसका अर्जन हुआ है ।
राजन ! बलिष्ठ तो भगवान श्रीकृष्ण है -
अतः यह पृथ्वी उन्हीँ की है,उन्होने ही इसका अर्जन एवं  पालन किया है ।इसलिए राजन ! आप अंहकार शून्य होकर हृदय से भगवान श्रीकृष्ण का भजन कीजिए ..

पुत्र के बाणो से आहत ज्ञानी शर्याति ने
आनर्त से क्रोधपूर्वक कहा -अरे खोटी बुद्धि वाले बालक !
गुरु की भाँति उपदेश कैसे कर रहे हो ? जहाँ तक मेरा राज्य है , वहाँ तक की भूमि पर निवास मत करो ।
तुमने जिस श्रीकृष्ण की आराधना की है ,
क्या वे तुम्हारे लिए कोई नयी पृथ्वी दे देगेँ ?
आनर्त ने समुद्र तट पर दस हजारो वर्षो तक तपस्या की उनकी प्रेमलक्षणा भक्ति से प्रसन्न होकर श्रीकृष्ण ने वैकुण्ठ से सौ योजन विशाल भूखण्ड मँगाकर समुद्र मे अपने सुदर्शन चक्र की नीँव बनाकर उसी के ऊपर उस भूखण्ड को स्थापित किया।

जिस पर राजा आनर्त ने एक लाख वर्षो तक शासन किया वहाँ बैकुण्ठ के समान वैभव भरा हुआ था ।यहाँ के महल इतने विशाल थे कि लोँगो को द्वार ठुंढने पडते थे द्वार कहाँ है ऐसा बार - बार पूछे जाने के कारण ही इस नगरी का नाम द्वारिका पडा ।
ऋषियो ने इसे मोक्ष का द्वार कहा है ।

  (गर्गसंहिता से)✍🍀💕
[1/19, 22:32] ‪+91 98854 71810‬: *🚩🌻ॐ🌻🚩*

सनातन का अर्थ क्या है?
सनातन धर्म क्या है?

#सनातन का अर्थ है जो शाश्वत हो, सदा के लिए सत्य हो!
जिन बातों का शाश्वत महत्व हो वही सनातन कही गई है!
जैसे सत्य सनातन है, ईश्वर ही सत्य है, आत्मा ही सत्य है, मोक्ष ही सत्य है!
और इस सत्य के मार्ग को बताने वाला धर्म ही #सनातन_धर्म भी सत्य है।

वह सत्य जो अनादि काल से चला आ रहा है और जिसका कभी भी अंत नहीं होगा वह ही सनातन या शाश्वत है!
जिनका न प्रारंभ है और जिनका न अंत है,
उस सत्य को ही सनातन कहते हैं, यही सनातन सत्य है।

वैदिक या हिंदू धर्म को इसलिए सनातन धर्म कहा जाता है, क्योंकि यही एकमात्र धर्म है जो ईश्वर, आत्मा और मोक्ष को तत्व और ध्यान से जानने का मार्ग बताता है!
मोक्ष का कांसेप्ट इसी धर्म की देन है, एकनिष्ठता, ध्यान, मौन और तप सहित यम-नियम के अभ्यास और जागरण का मोक्ष मार्ग है।

अन्य कोई मोक्ष का मार्ग नहीं है, मोक्ष से ही आत्मज्ञान और ईश्वर का ज्ञान होता है,
यही #सनातन_धर्म का सत्य है, सनातन धर्म के मूल तत्व सत्य, अहिंसा, दया, क्षमा, दान, जप, तप, यम-नियम आदि हैं! जिनका शाश्वत महत्व है, अन्य प्रमुख धर्मों के उदय के पूर्व वेदों में इन सिद्धान्तों को प्रतिपादित कर दिया गया था।

असतो मा सदगमय, तमसो मा ज्योर्तिगमय,
मृत्योर्मा अमृतं गमय।। (वृहदारण्य उपनिषद)

अर्थात
हे ईश्वर मुझे असत्य से सत्य की ओर ले चलो, अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलो, मृत्यु से अमृत की ओर ले चलो, जो लोग उस परम तत्व परब्रह्म परमेश्वर को नहीं मानते हैं
वे असत्य में गिरते हैं, असत्य से मृत्युकाल में अनंत अंधकार में पड़ते हैं।

उनके जीवन की गाथा भ्रम और भटकाव की ही गाथा सिद्ध होती है,
वे कभी अमृत्व को प्राप्त नहीं होते, मृत्यु आए इससे पहले ही सनातन धर्म के सत्य मार्ग पर आ जाने में ही भलाई है,
अन्यथा अनंत योनियों में भटकने के बाद प्रलयकाल के अंधकार में पड़े रहना पड़ता है।

पूर्णमद: पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।।
(ईश उपनिषद)

सत्य दो धातुओं से मिलकर बना है सत् और तत्,
सत का अर्थ यह और तत का अर्थ वह,
दोनों ही सत्य है, अहं ब्रह्माष्मी और तत्वमसि!
अर्थात मैं ही ब्रह्म हूँ और तुम ही ब्रह्म हो!
यह संपूर्ण जगत ब्रह्ममय है।

ब्रह्म पूर्ण है!
यह जगत् भी पूर्ण है, पूर्ण जगत् की उत्पत्ति पूर्ण ब्रह्म से हुई है! पूर्ण ब्रह्म से पूर्ण जगत् की उत्पत्ति होने पर भी ब्रह्म की पूर्णता में कोई न्यूनता नहीं आती!
वह शेष रूप में भी पूर्ण ही रहता है, यही सनातन सत्य है!
जो तत्व सदा, सर्वदा, निर्लेप, निरंजन, निर्विकार और सदैव स्वरूप में स्थित रहता है उसे सनातन या शाश्वत सत्य कहते हैं।

वेदों का ब्रह्म और गीता का स्थितप्रज्ञ ही शाश्वत सत्य है!

जड़, प्राण, मन, आत्मा और ब्रह्म शाश्वत सत्य की श्रेणी में आते हैं, सृष्टि व ईश्वर (ब्रह्म) अनादि, अनंत, सनातन और सर्वविभु हैं।

*🚩🌻🌹🌷🌻🚩🚩*
[1/20, 08:17] ‪+91 98854 71810‬: मनुष्य जन्म से नहीं अपितु कर्म से महान बनता है और मनुष्य चित्र से नहीं, चरित्र से सुन्दर बनता है। अच्छे परिवार में जन्म लेना मात्र एक संयोग है और अच्छे कार्यों द्वारा जीवन को उत्कृष्ट बनाना एक उपलब्धि। इसलिए इस बात पर ज्यादा विचार मत करना कि मेरा परिवार कैसा है ? लेकिन यह जरूर विचारणीय है कि मेरा व्यवहार कैसा है?
       आपके जीवन जीने का ढंग ही पैमाना (मापक) है आपकी महानता का। आपके जीने के ढंग से ही निर्धारण होगा कि आपने कितना सुन्दर जीवन जिया। मनुष्य की वास्तविक सुन्दरता उसका सुन्दर तन नहीं अपितु सुन्दर मन है। गुण न हो तो रूप व्यर्थ है क्योंकि जीवन रूपवान होकर नहीं, गुणवान होकर जिया जाता है।
       समाज अच्छे (चित्र) रूप वालों को नहीं अपितु अच्छे चरित्र वालों को पूज्यनीय मानता है। अत: कुल और रूप कितना भी सुन्दर क्यों न हो मगर सदगुणों के अभाव में दोनों का कोई महत्व नहीं।

🌷 जय श्री कृष्णा 🌷
सुप्रभात🌺🌺🌺🌺🌺🌺
[1/20, 08:59] पं अर्चना जी: ✍�आज का विचार....

🍂🍃अगर जिंदगी को *कामयाब* बनाना हो तो याद रखें पाँव भले ही फिसल जाये पर *जुबान* को कभी मत फिसलने देना...
सम्बन्धों को जोड़ना एक *कला* है लेकिन उनको निभाना किसी *साधना* से कम नहीं है...
कागज के रंग बदलने से इतना *तहलका* मच गया सोचिये जब कोई अपना रंग बदलता है तब मन में कितने *तूफान* आते होंगे...🍃🍂

     🌱🌿 *आपका दिन शुभ हो...*🌿🌱
    *ऐसी मंगलभावनाओं सहित सादर......*🙏�
                 🌺🌞 *सुप्रभात* 🌞🌺
[1/20, 09:35] ओमीश: *🙏🏻🌹जयति तेऽधिकं जन्मना व्रजः श्रयत इन्दिरा शश्वदत्र हि* ।
*दयित दृश्यतां दिक्षु तावका स्त्वयि धृतासवस्त्वां विचिन्वते ॥*
(हे प्यारे ! तुम्हारे जन्म के कारण वैकुण्ठ आदि लोकों से भी व्रज की महिमा बढ गयी है। तभी तो सौन्दर्य और मृदुलता की देवी लक्ष्मीजी अपना निवास स्थान वैकुण्ठ छोड़कर यहाँ नित्य निरंतर निवास करने लगी है , इसकी सेवा करने लगी है। *परन्तु हे प्रियतम* ! देखो तुम्हारी गोपियाँ जिन्होंने तुम्हारे चरणों में ही अपने प्राण समर्पित कर रखे हैं , वन वन भटककर तुम्हें ढूंढ़ रही हैं।।
🙏🏻🚩जय श्री कृष्ण 🚩🙏🏻
[1/20, 09:38] ‪+91 96916 06692‬: !!श्री हरि:!!🌹!सुप्रभातम्!🌷
धनानि भूमौ पशवः हि गोष्ठे,
   नारि गृहद्वारि जनाः श्मशाने ।
देहश्चितायाम् परलोक मार्गे,
     धर्मानुगो गच्छति जीवः एकः ।।

भावार्थ - मनुष्य का शरीर शांत होने पर, धन सम्पदा भूमि पर ही पड़ी रह जाती है, मोटर गाड़ियाँ घर में, पशु अस्तबल में रह जाते हैं , पत्नि घर के द्वार तक साथ देती है, बन्धुजन श्मशान तक साथ चलते हैं और अपनी स्वयं की देह चित्ता तक ही साथ देती है । तत्पश्चात् परलोक मार्ग पर जीव को अकेला ही जाना होता है । केवल धर्म ही उसका अनुगमन करता हुआ साथ चलता है  l
   🌹आज का दिन सभी का मंगलमय हो 🌹🙏
[1/20, 09:47] ओमीश: शिक्षक:-कति देशा:सन्ति ?
छात्र-एक:एव देश:अस्ति ,अन्ये तु विदेशा:सन्ति ।

1 comment:

  1. जय श्री राम राजा शर्याति की पत्नि सुकन्या की माता या च्यवन ऋषि की सास का नाम बताने की कृपा करें

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