Friday, January 20, 2017

।।श्रीमते रामानुजाय नमः।। श्रीमद्भगवद्गीता : श्रीरामानुजभाष्य


-----------------------------------------

अठारहवाँ अध्याय
----------------------

दु:खमित्येव यत्कर्म कायक्लेशभयात्त्यजेत्।
स कृत्वा राजसं त्यागं नैव त्यागफलं लभेत्॥8॥

(यज्ञादि कर्म) दुःखरूप है, ऐसा जानकर जो कोई शरीर के क्लेश के भय से कर्म का त्याग कर दे तो वह राजस त्याग करके त्याग के (यथार्थ) फलको कभी नहीं पाता।

भाष्य –

यद्यपि परमपरया मोक्षसाधनभूतं कर्म तथापि दुःखात्मकद्रव्यार्जन साध्यत्वाद् बहृायासरूपतया कायक्लेश करत्वात् च मनसः अवसादकरम् इति तद्धीत्या योगनिष्पत्तये ज्ञानाभ्यास एव यतनीय इति यो महायज्ञाद्याश्रमकर्म परित्यजेत्; स राजसं रजोमूलं त्यागं कृत्वा तद् अयथावस्थित शास्त्रार्थरूपम् इति ज्ञानोत्पत्तिरूपं त्यागफलं न लभेत्। ‘अयथावस्थित शास्त्रार्थरूपम् इति ज्ञानोत्पत्तिरूपं त्यागफलं न लभेत्। ‘अयथावत्प्रजानाति बुद्धिः सा पार्थ राजसी।।’  इति हि वक्ष्यते। न हि कर्म दृष्टद्वारेण मनःप्रसादहेतुः। अपि तु भगवत्प्रसादद्वारेण।

यद्यपि कर्म परम्परा से मोक्ष के साधन रूप हैं, तथापि दुःखरूप द्रव्योपार्जन से सिद्ध होते हैं और बहुत परिश्रमरूप होने के कारण शारीरिक क्लेश उत्पन्न करने वाले हैं; इस भय से जो पुरुष योग की सिद्धि के लिये ज्ञान के अभ्यास को ही कर्तव्य मानकर महायज्ञादि आश्रमोचित कर्मों को छोड़ देता है, वह राजस रजोमूल त्याग करके त्याग के फल को यानी त्याग का वास्तविक फल जो ज्ञान की प्राप्ति है उसको नहीं पाता। क्योंकि वह त्याग शास्त्र के यथार्थ अभिप्राय के अनुसार नहीं है–  ‘अयथावत् प्रजानाति बुद्धिः सा पार्थ राजसी।’

कर्म अपने फल के द्वारा मन की प्रसन्नता (विशुद्धि)-के हेतु नहीं हैं; बल्कि भगवत्कृपा के द्वारा ही मन को प्रसन्न (विशुद्ध) करने वाले हैं।

।।श्रीकृष्ण: शरणं मम।।

            –रमेशप्रसाद शुक्ल

            –जय श्रीमन्नारायण।

No comments:

Post a Comment