Friday, January 20, 2017

मैंने सुना है एक साधु और एक वेश्या की एक साथ मृत्यु हुई,

मैंने सुना है
एक साधु और एक वेश्या की
एक साथ मृत्यु हुई,
एक ही दिन।
आमने-सामने घर था।
मृत्यु के दूत लेने आए,
तो दूत बड़ी मुश्किल में पड़ गए।
उन्हें फिर जाकर
हेड आफिस में पता लगाना पड़ा
कि मामला क्या है!
क्योंकि संदेश में कुछ भूल मालूम पड़ती थी।

साधु को ले जाने की आज्ञा हुई नर्क,
और वेश्या को आज्ञा हुई स्वर्ग!
तो उन्होंने कहा,
इसमें जरूर कहीं भूल हो गई है!
साधु बड़ा साधु था,
वेश्या भी कोई छोटी वेश्या नहीं थी।
मामला सीधा साफ है,
गणित में कोई गड़बड़ है।
वेश्या को नर्क जाना चाहिए,
साधु को स्वर्ग जाना चाहिए।

काश,
जिंदगी इतनी सीधी होती,
तो सभी वेश्याएं नर्क चली जातीं
और सभी साधु स्वर्ग चले जाते।
लेकिन जिंदगी इतनी सीधी नहीं है,
जिंदगी बहुत जटिल है।

ऊपर से पता लगाकर लौटे।
खबर मिली कि वही ठीक आज्ञा है,
वेश्या को स्वर्ग ले आओ,
साधु को नर्क।

उन्होंने पूछा,
थोड़ा हम समझ भी लें,
क्योंकि हम बड़ी दुविधा में पड गए हैं।
तो पता चला
कि जब भी साधु के घर में सुबह कीर्तन होता, तो !
वेश्या रोती अपने घर में।
सामने ही घर था।

रोती,
रोती इस मन से कि
मेरा जीवन व्यर्थ गया।
कब वह क्षण आएगा सौभाग्य का
कि ऐसे कीर्तन में मैं भी सम्मिलित हो जाऊं!
मन भी होता,
तो कभी द्वार के बाहर निकल आती।
साधु के मंदिर के पास कान लगाकर खड़ी हो जाती दीवाल के। लेकिन मन में ऐसा लगता कि मुझ जैसी पापी मंदिर में कैसे प्रवेश करे!
तो कहीं साधु पता न चल जाए,
इसलिए चुपचाप छिप-छिपकर कीर्तन सुनती। मंदिर की सुगंध उठती, धूप जलती, मंदिर के फूलों की खबर आती, मंदिर का घंटा बजता, और चौबीस घंटे, पूरे जीवन वेश्या मंदिर में रही। चित्त मंदिर में घूमता रहा, घूमता रहा, घूमता रहा। और एक ही कामना थी कि अगले जन्म में चाहे बुहारी ही लगानी पड़े, पर मंदिर में ही जन्म हो। मंदिर के द्वार पर ही!

साधु भी कुछ पीछे न थे वेश्या से। जब भी वेश्या के घर रात। राग-रंग छिड़ जाता, आधी रात होती, तो वे करवट बदलते रहते! वे सोचते, सारी दुनिया मजा लूट रही है। हम कहां फंस गए!  इसलिए ध्यान रहे, पुजारी परमात्मा से जितने दूर रह जाते हैं, उतना शायद ही कोई रह पाता हो। क्योंकि पुजारी को प्रयोजन ही नहीं रह जाता। उसका मतलब कुछ और है। यह उसके लिए धंधा है।

उपासना आप उधार नहीं करवा सकते, आपको ही करनी पड़ेगी। और ऐसी उपासना का कोई मूल्य नहीं है कि मंदिर में तो परमात्मा के निकट होते हों और मंदिर के बाहर निकलते ही परमात्मा खो जाता हो। ऐसी उपासना से क्या होगा? अगर वह है, तो सब जगह है। और अगर नहीं है, तो कहीं भी नहीं है, मंदिर में भी नहीं है। अगर नहीं है, तो सब मंदिर व्यर्थ हैं। और अगर है, तो सारी पृथ्वी, सारा जगत उसका मंदिर है।

एक वृक्ष के पास बैठें, तो भी परमात्मा के पास बैठें। और एक पशु के पास खड़े हों, तो भी परमात्मा के पास खड़े हों। एक मित्र पास हो, तो भी परमात्मा पास हो, और एक शत्रु पास हो, तो भी परमात्मा पास हो। आपके लिए वही रह जाए। जितना यह बढ़ता चला जाए विस्तार, जितनी यह प्रतीति उसकी गहन होती चली जाए, उतने ही आप उपासना में रत हो रहे हैं।

उपासना का अर्थ होता है, उसके पास बैठना। कहीं भी बैठे हों, अगर अनुभव करें कि परमात्मा के पास बैठे हैं, तो उपासना हो गई। घर में बैठे हों, कि मंदिर में, कि जंगल में, कहीं भी बैठे हों, अगर उसकी उपस्थिति अनुभव कर सकें, अगर अनुभव कर सकें उसका स्पर्श—कि हवाओं में वही छूता है, और सूरज की किरणों में वही आता है, और पक्षियों के गीत में उसी के गीत हैं, और वृक्षों में जो सरसराहट होती है हवा की, पत्ते जो कंपते हैं, वही कंपता है, सागर की जो लहर हिलती है, यह उसी की तरंगें हैं—अगर ऐसी प्रतीति हो सके, तो उपासना हो गई।

- ओशो

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