Thursday, February 11, 2016

द्वापर में चक्रिक नामक एक भील वन में रहता था।
भील होने पर भी वह सच्चा, मधुरभाषी, दयालु, प्राणियों की हिंसा से विमुख, क्रोधरहित और माता पिता की सेवा करने वाला था। उसने न तो विद्या पढ़ी थी, न शास्त्र सुने थे; किंतु था वह भगवान का भक्त। केशव, माधव, गोविन्द आदि भगवान के पावन नामों का वह बराबर स्मरण किया करता था। वन में एक पुराना मन्दिर था, उसमें भगवान की मूर्ति थी।

सरलहदय चक्रिक को जब कोई अच्छा फल वन में मिलता, तब वह उसे चखकर देखता। यदि फल स्वादिष्ट लगा तो लाकर भगवान को चढ़ा देता और मीठा न होता तो स्वयं खा लेता। 'जूठे फल भगवान को नहीं चढ़ाने चाहिये' उस भोले भक्त को यह पता ही नहीं था।

एक दिन वन में चक्रिक को पियाल वृक्ष पर एक पका फल मिला। फल तोड़कर उसने स्वाद जानने के लिये उसे मुख में डाला, फल बहुत ही स्वादिष्ट था, पर मुख में रखते ही वह गले में सरक गया। सबसे अच्छी वस्तु भगवान को देनी चाहिये यह चक्रिक की मान्यता थी।

एक स्वादिष्ट फळ उसे आज मिला तो वह भगवान का था, भगवान के हिस्से का फल वह स्वयं खा ले, यह तो बड़े दुःख की बात थी। दाहिने हाथ से अपना गला उसने दबाया, जिसमें फल पेट में न चला जाय। मुख में अँगुली डालकर वमन किया पर फल निकला नहीं। चक्रिक का सरल हदय भगवान को देने योग्य फल स्वयं खा लेने पर किसी प्रकार प्रस्तुत नहीं था।

वह भगवान की मूर्ति के पास गया और कुल्हाड़ी से गला काटकर उसने फल निकालकर भगवान को अर्पण कर दिया। इतना करके पीड़ा के कारण वह गिर पड़ा। सरल भक्त की निष्ठा से सर्वेश्वर जगन्नाथ रिझ गये।

वे श्रीहरि चतुर्भुज रुप से वहीं प्रकट हो गये और मन-ही-मन कहने लगेः-
'इस भक्तिमान् मील ने जैसा सात्त्विक कर्म किया है, मेरे पास ऐसी कौन सी वस्तु है, जिसे देकर मैं इसके ऋणसे छूट सकूँ ? ब्रह्मा का पद, शिव का पद या विष्णु पद भी दे दूँ, तो भी इस भक्त के ऋण से मैं मुक्त नहीं हो सकता।'

फिर भक्तवत्सल प्रेमाधीन प्रभु ने चक्रिक के मस्तक पर अपना अभय करकमल रख दिया। भगवान के कर-स्पर्श पाते ही चक्रिक का घाव मिट गया, उसकी पीड़ा चली गयी, वह तत्त्काल स्वस्थ होकर उठ बैठा। देवाधिदेव नारायण ने अपने पीताम्बर से उसके शरीर की धूलि इस प्रकार झाड़ी, जैसे पिता-पुत्र के शरीर की धूलि झाड़ता है।

भगवान को सामने देख देख चक्रिक ने गदगद होकर, दोनों हाथ जोड़कर सरल भाव से स्तुति कीः-
'केशव ! गोविन्द ! जगदीश ! मैं मूर्ख भील हूँ। मुझे आपकी प्रार्थना करनी नहीं आती, इसलिये मुझे क्षमा करो, मेरे स्वामी मुझ पर प्रसन्न हो जाओ। आपकी पूजा छोड़कर जो लोग दूसरे की पूजा करते हैं, वे महामूर्ख हैं।'

भगवान ने वरदान माँगने को कहा।
चक्रिक ने कहाः- 'कृपामय जब मैंने आपके दर्शन कर लिये,
तब अब और क्या पाना रह गया?
मुझे तो कोई वरदान चाहिये नहीं बस, मेरा चित्त निरन्तर आप में ही लगा रहे, ऐसा कर दो।' भगवान् उस भील को भक्ति का वरदान देकर अन्तर्धान हो गये। चक्रिक वहाँ से द्वारका चला गया और जीवनभर वहीं भगवद्भजन में लगा रहा।

जय हो प्रभु आपकी....

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