Thursday, February 11, 2016

दीक्षायें तीन प्रकार की होती हैं ।
१-स्पर्श दीक्षा
२-वैधदीक्षा
३-दृग्दीक्षा
१- स्पर्श दीक्षा –स्पर्शमात्र से जो गुरुजन शिष्य के अन्दर शक्तिपात करते हैं । वह स्पर्शदीक्षा कहलाती है । सीतारामदास
ओंकारनाथ इसी स्तर के महापुरुष थे । जिसकी कुव्डलिनी महाशक्ति का जागरण स्पर्शमात्र से उन्होंने किया था । वे अभी भी जीवित हैं और उनसे मेरा अच्छा सम्बन्ध भी है । पक्षी अपने बच्चों को चारा चुगाने के साथ ही अपने पंखों से
उनको ढकते हुए ऐसा स्पर्श करते हैं कि उन बच्चों का संवर्धन होता है ।
२- वैधदीक्षा – जब कूर्म ( कछवी ) को अण्डा देना होता है तब वह तालाब आदि से निकलकर दूर जाकर मिट्टी खोदकर उसमें अण्डे देकर ढँकने के बाद लौट आती है । तत्पश्चात् निरन्तर चिन्तन करती रहती है कि अब मेरे अण्ड इतने बढ़ गये
होंगे । उसके चिन्तन के प्रभाव से अन्यों में वृद्धि उत्तरोत्तर होती रहती है । एक दिन वह चिन्तन करती है कि अब अण्डों से बच्चे निकलने वाले हैं । वह उस स्थल पर पहुँचकर मिट्टी हटाती है और अपने बच्चों को लेकर चली आती है ।
ऐसे प्रखर मनःशक्तिसम्पन्न गुरुजन स्वप्न आदि अवस्थाओं में शिष्य के समीप पहुँचकर उसे दीक्षित कर देते हैं । ये सब कार्य इनकी संकल्पशक्ति से ही होता है । इनसे किया गया चिन्तन या स्मरणमात्र शिष्य के जीवन में महान् परिवर्तन ला देता है । ये बहुत उच्चकोटि के सिद्ध महापुरुष होते हैं । अभी भी कुछ साधक मेरे सम्बन्ध में हैं जिन पर ऐसे महापुरुषों की कृपा हुई है ।
३- दृग्दीक्षा – कुछ महापुरुष इस कोटि के होते हैं जिनकी दृष्टिमात्र से साधक में महाशक्ति का जागरण हो जाता है । ये अपने संकल्पमात्र से किसी जीव पर कृपा कर सकते हैं । इनका दृष्टिपात साधक को सबल बना देता है । भागवत में मन्दराचल पर्वत से मरे देवताओं को भगवान् ने अपने दृष्टिनिक्षेप से ही जीवित कर दिया-ऐसा वर्णन हैं । ऐसे ही महापुरुषों के विषय में कहा गया है कि वे दर्शन मात्र से पवित्र कर देते हैं–”दर्शनादेव साधवः।।”–भागवतमहापुराण
मछली अपने बच्चों को दुग्धपान तो नहीं कराती । किन्तु क्षुधा से पीड़ित बच्चे जब उसके नेत्रों के सामने आते हैं तब वह अपनी दृष्टि द्वारा ही उनका पोषण करती है ।
ऐसे ही गुरुजनों की कृपादृष्टि में आने पर साधकों का कल्याण होता रहता है ।
आज रोहिणी नक्षत्र युक्त अष्टमी है । इसलिए इसकी जयन्ती संज्ञा हो जाती है । और जन्माष्टमी तो है ही। इसलिए इस दिन व्रत और उपासना का फल द्विगुणित हो जाता है । इसलिए हमें सोल्लास इसे मनाना चाहिए ।
ध्यातव्य है कि जिसकी जन्माष्टमी मना रहे हैं । उन्होंने अपना जीवन गोसेवा से आरम्भ किया । मृत्युलोक ही नहीं अपितु स्वर्गलोक के अधिपति देवराज इन्द्र के कोप से समस्त ब्रज और गौओं की रक्षा की । जिसके कारण उन्हें “गोविन्द” गोपाल कहा जाता है । अतः इस जन्माष्टमी पर हमें उनके आदर्शों पर चलने का दृढ़ संकल्प करना चाहिए कि हम अपनी भारतमाता के साथ ही गोमाता की भी रक्षा करेंगे । और जैसे भगवान् श्रीकृष्ण ने देवराज का दर्प चूर्ण चूर्ण कर दिया था ।
वैसे ही हम देशद्रोहियों गोहत्यारों यवनराज ( आतंकवादी मुल्लों ) का दर्पदलन कर देंगे । तभी हमारे व्रत की सफलता है ।

No comments:

Post a Comment