सन्तो दिशन्ति चक्षूंसि बहिरर्कः समुत्थितः ।
देवता वान्धवा सन्तः सन्त आत्माहमेव च।।
जैसे सूर्य आकास में उदय होकर लोगो को जगत तथा अपने को देखने के लिए नेत्र दान करता है वैसे ही संत पुरुष अपने तथा भगवान को देखने के लिए अंतर्दृष्टि देते हैं संत उपग्रहशील देवता हैं संत अपने हितैषी सुहृद है संत अपने प्रिय आत्मा है स्वयं मै हि संत के रूप में विद्यमान हू।
पिबत् भागवतम् रसमालयम् श्रद्धेय आलोकजी शास्त्री इन्दौर 9425069983
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