Saturday, April 9, 2016

संगीत के बिना यह संसार अधूरा है। इसी अधूरेपन को दूर करने के लिए संगीत की रचना हुई। संगीत वाद्य यंत्रों से निकलता है लेकिन जीवों के स्वर इस संगीत को और भी आकर्षक बना देते हैं। हिंदू देवी-देवता भी संगीत के वाद्य यंत्र भी बजाते थे।
श्रीकृष्ण बांसुरी बजाते थे वह अपने साथ बांसुरी के रखते थे। मां सरस्वती वीणा हमेशा अपने साथ रखती थी। शिवजी का डमरू उनके त्रिशूल की शोभा बढ़ाता है। देवर्षि नारद के हाथों में एकतारा हमेशा रहता है। पौराणिक मान्यताओं को मानें तो त्रिदेव भगवान -ब्रह्मा, विष्णु और महेश ने ढोल का निर्माण किया था।
इस बात का उल्लेख ढोल सागर ग्रंथ में मिलता है। इस ग्रंथ के अनुसार विष्णु जी ने तांबा धातु को गलाया और ब्रह्मा जी ने उस ढोल में ब्रह्म कनौटी(ढोल की रस्सी जो गले में लटकाई जाती है।) और ढोल के दोनों ओर सूर्य और चंद्रमा के रूप में खालें लगाई गईं जो कि नर नारी का प्रतीक हैं।
उस समय भगवान शंकर ने खुश होकर, डमरू बजाते हुए नृत्य किया तब उनके पसीने से एक कन्या 'औजी' पैदा हुई जिन्हें इस ढोल को बजाने की जिम्मेदारी दी गई। औजी ने ही इस ढोल को उलट- पलट कर चार शब्द- वेद, बेताल, बाहु और बाईल का निर्माण किया था।
संगीत का ग्रंथ
चार वेदों में से सामदेव को संगीत का सबसे पहला ग्रंथ माना जाता है। इसी पवित्र वेद को आधार मान भरत मुनि ने नाट्य शास्त्र की रचना की थी, बाद में संगीत रत्नाकर, अभिनव राग मंजरी लिखा गया था। सभी ग्रंथ सामदेव से ही प्रेरित हैं।

प्राचीन समय में संगीत दो रूपों में प्रचलित था। पहला मार्गी और दूसरा देशी। मार्गी संगीत विलुप्त हो चुका है। लेकिन देशी संगीत वर्तमान में मौजूद है। इसके दो भाग हैं। पहला भाग है शास्त्रीय संगीत और दूसरा भाग है लोक संगीत।
वीणा के बदले रूप हैं सरोद-सितार
वीणा, मां सरस्वती का वाद्य यंत्र है। भारत में जब मुस्लिम शासकों का प्रवेश हुआ तब यही वीणा सरोद और सितार के रूप में बदल दी गई। यानी वीणा से दो और वाद्ययंत्रों का निर्माण हुआ।

तबला भी इसी दौरान आया जिसकी उत्पत्ति का श्रेय अमीर खुसरो को जाता है। इस तरह वीणा, बीन, मृदंग, ढोल, डमरू, घंटी, ताल, चांड, घटम्, पुंगी, डंका, तबला, शहनाई, सितार, सरोद, पखावज, संतूर वाद्य यंत्र का आविष्कार भारत में ही हुआ है।
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