Friday, April 29, 2016

!! सेवा और सेवन में भेद !!
        सेवा और सेवन, इन दोनों वाक्यों की निष्पत्ति सेव्-धातु से क्रमशः टाप् और ल्युट् प्रत्यय करके होती है। दोनों में कर्ता और कर्म पृथक्-पृथक् होते हैं। परत्त्व-भाव से स्थूल-मूर्त्ति के प्रति की गयी अर्चना 'सेवा' कहलाती है। परंतु आत्म-भाव से देह में स्थित इन्द्रियों की पोषण या तोषण रूपी 'सेवा' को 'सेवन' कहते हैं। हमारे अभ्यन्तर में इन्द्रियाँ और अंग-प्रत्यंग एक-दूसरे की सेवा करते है, परंतु वह मन-मनुष्य को सेवन ही प्रतीत होता है। इस प्रकृति के सभी जीव प्रकृति के इन्द्रिय और अंग-प्रत्यंग है और इनके द्वारा की गयी एक-दूसरे की सेवा, या आत्मा को मूर्त्ति में प्रतिष्ठित करके परत्व भाव से की गयी अर्चना, प्रकृति को सेवन प्रतीत होता है, किंतु वही सेवन मन-मनुष्य को सेवा प्रतीत होता है। इसप्रकार अन्तःकरण और बाह्यकरण के भेद से सेवा ही सेवन तथा सेवन ही सेवा के रूप में प्रतीत होते हैं। अन्तर तो केवल कर्त्तृत्व और कर्म-कारक का होता है।
        सत्यम् लीक पर आये तो सही, परंतु सम्बन्ध स्थापित नहीं कर पाये।

[26:04:2016/20:06Hr.]SKMishra.shoaqh

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