Saturday, April 9, 2016

हरि ॐ तत्सत्! सुप्रभातम्।
सर्वेभ्यो भक्तेभ्यो देवभाषारसरसिकेभ्यश्च नमो नमः। 🌺🙏🌺

गिरा अरथ जल बीचि सम कहिअत भिन्न न भिन्न।
बंदउँ सीता राम पद जिन्हहि परम प्रिय खिन्न।।

---जो वाणी और उसके अर्थ की तरह,जल और उसकी लहर की भाँति एक दूसरे से अभिन्न है, उन श्रीसीताराम जी महाराज के चरणों की मैं वन्दना करता हूँ।
     वनपथ पर चलते हुए एक स्थान पर भगवान श्रीराम और सीताजी वट वृछ की छाया में बैठे हुए थे। गाँव की स्त्रियाँ भगवती सीताजी के पास आकर पूछती है:--

"कोटि मनोज लजावनिहारे।
सुमुखि कहहु को आहि तुम्हारे।।
   इस प्रश्न का उत्तर भगवती सीताजी ने दो प्रकार से दिया, लक्ष्मण जी का परिचय तो वाणी से दिया पर भगवान राम का संकेत से।
भौतिक अर्थो में तो ठीक लगता है कि पति का परिचय देने में संकोच है पर देवर के परिचय में संकोच नही है। यहाँ पर आधात्मिक तात्पर्य यही है कि जीव का परिचय तो वाणी से दिया जा सकता है पर ब्रह्म का परिचय तो संकेत से ही दिया जा सकता है, क्योंकि वहाँ तो वाणी का प्रवेश नही है--
मन समेत जेहि जान न बानी।
तरकि न सकहिं सकल अनुमानी।।

---श्रीराम का परिचय देते समय सीताजी ने कैसा संकेत किया था? उन्होंने अपने मुख पर घूघट डाल लिया----
"बहुरि बदन विधु अंचल ढाकी।"
यह तो नई बात हो गयी अभी तक घूँघट नही किये थीं। घूँघट पहले किये होतीं और अब परिचय देना था तो घूँघट हटाती तो ठीक था। किसी मूर्ति का दर्शन करना हो  और उसके सामने यदि परदा पड़ा हो तो परदा हटाकर ही तब दर्शन मिलेगा कोई ग्रन्थ यदि किसी कपड़े में लिपटा हुआ है तो हटाने से ही ग्रन्थ का दर्शन होगा। पर यहाँ तो पूज्यपाद गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज वर्णन करते हैं कि भगवती सीता जी ने घूँघट डाल लिया  स्त्रियों ने तो यही पूछा था न कि आपका इनसे नाता क्या है? अब नाता तो तब बने जब दोनों एक दूसरे से अलग हो भगवती सीताजी का अभिप्राय यह था कि वास्तविकता तो यह है, हमारे और इनके बीच में कोई नाता है ही नही,जब दोनों एक ही है तो नाते का तो सवाल कहाँ? पर तुम लोग तो नाता ही देखना चाहती हो तो लो तुम्हारे सन्तोष के लिए  इनके और अपने बीच में यह आवरण डाल लेती हूँ।
इस प्रकार सीताजी ने घूँघट डाल कर अद्वैत में द्वैत की सृष्टि की, ब्रह्म और शक्ति के बीच में भेद कर दिया और घूँघट का पट डाल दिया: 
पर महात्मा कबीर दास जी तो दूसरी बात कहते हैं।

"घूँघट का पट खोल तोहे राम मिलेगे।"

भगवान को देखना है तो घूँघट हटाओ।

पर सीताजी ने तो घूँघट डाला पर, वह कैसा था ?

बहुरि बदन बिधु अंचल ढाकी।
पिय तन चितइ भौह करि बाक़ी।।

घूँघट तो है पर ईश्वर दिखाई दे रहा था।इसका अर्थ यह है कि आवरण भले बना रहे, भेद भले कायम रहे पर वह आवरण या भेद ऐसा हो कि ईश्वर दिखाई देता रहे ऐसा आवरण हो जिसमें ईश्वर हमसे दूर न हों।
श्रीसीता राम जी तो अभिन्न है उनके बीच में क्या आवरण हो सकता है ब्रह्म और शक्ति के बीच में यह आवरण मानो लीला का आवरण है जो सीता जी स्वंय डाल देती है जो रस और आनन्द की वृद्धि करता है।
🌺जय जय श्रीसीताराम🌺

No comments:

Post a Comment