Saturday, April 9, 2016

वेद का विभाजन

भारतीय वाड्मय में बतलाया गया है कि सृष्टि के प्रारम्भ में ऋग्यजु:साम-अथर्वात्मक वेद एकत्र संकलित था। सत युग, त्रेता युग तथाद्वापर युग की लगभग समाप्ति तक एकरूप वेद का ही अध्ययन-अध्यापन यथाक्रम चलता रहा।

द्वापर युग की समाप्ति के कुछ वर्षों-पूर्व महर्षि व्यास ने भावी कलि युग के व्यक्तियों की बुद्धि, शक्ति और आयुष्य के ह्रास की स्थिति को दिव्य-दृष्टि से जानकर ब्रह्मपरम्परा से प्राप्त एकात्मक वेद का यज्ञ-क्रियानुरूप चार विभाजन किया। इन चार विभाजनों में उन्होंने होत्र कर्म के उपयोगी मन्त्र एवं क्रियाओं का संकलन ऋग्वेद के नाम से, यज्ञ के आध्वर्यव कर्म (आन्तरिक मूलस्वरूप-निर्माण) के उपयोगी मन्त्र एवं क्रियाओं का संकलन यजुर्वेद के नाम से, औद्गात्र कर्म के उपयोगी मन्त्र एवं क्रियाओं का संकलन सामवेद के नाम से और शान्तिक-पौष्टिक अभिलाषाओं (जातविद्या)- के उपयोगी मन्त्र एवं क्रियाओं का संकलन अथर्ववेद के नाम से किया। इस विभाजन में भगवती श्रुति के वचन को ही आधार रखा गया। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि सम्प्रति प्रवर्तमान वेद-शब्दराशि का वैवस्वत मन्वन्तर में कृष्ण द्वैपायन महर्षि व्यास द्वारा यह 28वाँ विभाजन है। अर्थात्

पौराणिक मान्यता के अनुसार इकहत्तर चतुर्युगी का एक मन्वन्तर होता है। प्रत्येक चतुर्युगी के अन्तर्गत द्वापरयुग की समाप्ति में विशिष्ट तप:सम्पन्न महर्षि के द्वारा एकात्मक वेद का चार विभाजन अनवरत होता रहता है। यह विभाजन कलि युग के लिये होता है और कलि युग के अन्त तक ही रहता है। सम्प्रति मन्वन्तरों में सप्तम वैवस्वत नामक मन्वन्तर का यह 28वाँ कलि युग है। इसके पूर्व 27 कलियुग एवं 27 ही वेद विभाग कर्ता वेदव्यास (विभिन्न नामों के) हो चुके हैं। वेदों का यह 28वाँ उपलब्ध विभाजन महर्षिपराशर के पुत्र कृष्णद्वैपायन के द्वारा किया गया है। वेदों का विभाजन करने के कारण ही उन महर्षि को 'वेदव्यास' शब्द से जाना जाता है।

चार वेद और उनकी यज्ञपरकता

वेदविभागकर्ता व्यासोपाधि-विभूषित महर्षि कृष्णद्वैपायन ने यज्ञ-प्रयोजन की दृष्टि से वेद का ऋग्वेद-यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद-यह विभाजन प्रसारित किया; क्योंकि भारतीय चिन्तन में वेदों का अभिप्रवर्तन ही यज्ञ एवं उसके माध्यम से समस्त ऐहिकामुष्मिक फलसिद्धि के लिये हुआ है। वैदिक यज्ञों का रहस्यात्मक स्वरूप क्या है एवं साक्षात्कृतधर्मा ऋषियों ने किन बीजों द्वारा प्रकृति से अभिलषित पदार्थों का दोहन इस भौतिक यज्ञ के माध्यम से आविष्कृत किया, यह पृथक् विवेचनीय विषय है। यहाँ स्थूलदृष्टया यह जानना है कि प्रत्येक छोटे (इष्टि) और बड़े (सोम, अग्निचयन) यज्ञों में मुख्य चार ऋत्विक्- होता, अध्वर्यु, उद्गाता और ब्रह्मा होते हैं। बड़े यज्ञों में एक-एक के तीन सहायक और होकर सोलह ऋत्विक् हो जाते हैं, किंतु वे तीन सहायक उसी मुख्य के अन्तर्गत मान लिये जाते हैं। इनमें 'अध्वर्यु' नामक ऋत्विक् द्रव्य-देवतात्यागात्मक यज्ञस्वरूप का निर्माण यजुर्वेद से करता है। 'होता' नामक ऋत्विक् यज्ञ के अपेक्षित शस्त्र (अप्रगीत मन्त्रसाध्य स्तुति) एवं अन्य अंगकलापों का अनुष्ठान ऋग्वेद द्वारा तथा 'उद्गाता' नामक ऋत्विक् स्तोत्र (गेय मन्त्रसाध्य स्तुति) और उसके अंगकलापों का अनुष्ठान सामवेद द्वारा करता है।'ब्रह्मा' नामक चतुर्थ ऋत्विक् यज्ञिय कर्मों के न्यूनादि दोषों का परिहार एवं शान्तिक-पौष्टिक-आभिचारिकादि सर्वविध अभिलाषा-सम्पूरक कर्म अथर्ववेद द्वारा सम्पादित करता है। वेद-त्रयी- कतिपय अर्वाचीन वेदार्थ-विचारक 'सैषा त्रय्येव विद्या तपति' [39], 'त्रयी वै विद्या' [40], 'इति वेदास्त्रयस्त्रयी' इत्यादि वचनों के द्वारा वेद वस्तुत: तीन हैं तथा कालान्तर में अथर्ववेद को चतुर्थ वेद के रूप में मान्यता दी गयी-ऐसी कल्पना करते हैं, किंतु यह कल्पना भारतीय परम्परा से सर्वथा विपरीत है। भारतीय आचार्यों ने रचना-भेद की दृष्टि से वेदचतुष्टयी का त्रित्वमें अन्तर्भाव कर उसे लक्षित किया है।

रचना-शैली

रचना-शैली तीन ही प्रकार की होती है-

गद्य,पद्य औरगान। इस दृष्टि से-छन्द में आबद्ध, पादव्यवस्था से युक्त मन्त्र 'ऋक्' कहलाते हैं; वे ही गीति-रूप होकर 'साम' कहलाते हैं तथा वृत्त एवं गीति से रहित प्रश्लिष्टपठित (-गद्यात्मक) मन्त्र 'चजुष्' कहलाते हैं।[41] यहाँ यह ध्यातव्य है कि छन्दोबद्ध ऋग्विशेष मन्त्र ही अथर्वागिंरस हैं, अत: उनका ऋग्रूपा (पद्यात्मिका) रचना-शैली में ही अन्तर्भाव हो जाता है और इस प्रकार वेदत्रयी की अन्वर्थता होती है।सं

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