Tuesday, April 19, 2016

उपनिषदों में ऋषिगण कहते हैं कि “भगवान ने हमारे मस्तिष्क में बाहर जाने वाली, बाहर देखने वाली बाहर की दुनिया का ध्यान रखने वाली, इन्द्रियाँ, कर दी हैं इसीलिए मनुष्य बाहर ही देखता है, अंतर्मुख नहीं होता, इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं। कोई बिरला मनुष्य ही अंतर्मुख होकर अपनी अंतरात्मा की ओर झाँकता है और बाहर की दुनिया की ओर से क्रमशः आँखें फेर लेता है, क्योंकि उसमें अमृत स्थिति की अभिलाषा रहती है।
यह अमृत स्थिति क्या है ? मृत्यु से बचना, दीर्घायु प्राप्त करना, बुढ़ापे की कमजोरी टालना, क्या यही है अमृतत्व ? यह तो देवों के राजा इन्द्र के यहाँ अमृत प्राशन करने से प्राप्त होता होगा। जीवन के उच्चतम तत्वज्ञान के साथ उसका कोई संबंध नहीं हो सकता। अनुभव यह कहता है कि इस संसार में जितने मनुष्य पैदा हुए हैं सब मरणाधीन हैं। पुराणों के अश्वत्थामा, बलि, व्यास, हनुमान, विभीषण, कृपाचार्य एवं परशुराम चिरंजीवी माने जाते हैं, पर वस्तुतः वे भी इस मृत्युलोक से चले गए। इसलिए मृत्यु को टालना या दीर्घायु प्राप्त करना यह कोई अमृतत्व की साधना नहीं है।
उपनिषदों के ऋषि कहते हैं कि “बाहरी दुनिया के पीछे पड़ना छोड़ दो अथवा कम करो और अंतर्मुख होकर जीवन के अनुभव का सार निकालो ऐसा करते हुए जो आत्म तत्व मिलेगा, उसको पूरी शक्ति लगाकर पकड़ लो। तब आज का निस्सार जीवन सारयुक्त होगा। जीवन का रहस्य पाने पर ही जीवन कृतार्थ होगा। वही है मुक्ति वही है अमृतत्व।” जीवन को कृतार्थ करने वाली ऐसी मोक्ष साधना का स्वरूप क्या होगा ?
अनुभव कहता है कि बाहरी दुनिया और आँतरिक दुनिया में से एक की भी उपेक्षा हम नहीं कर सकते। हम इस संसार में आये यह कोई भूल नहीं हुई है। इसे पहचानना ही है। लेकिन केवल बाहरी दुनिया का परिचय पर्याप्त नहीं है। शुरू में इंद्रियों की मदद से बाहरी दुनिया का यथार्थ परिचय पालेंगे। यह साधना अगर आधी-या एकाँगी न रही, तो वही साधना हमें आँतरिक जगत की खोज में ले जाएगी। फिर तो दोनों साधनाएँ एक साथ चलेंगी, एक दूसरे की मदद करेंगी । “पश्चिम जड़वादी है, हम अध्यात्मवादी हैं। ऐसी डींग हाँकना छोड़कर हम कबूल करें कि दोनों एकाँगी हैं और जीवन रहस्य तभी प्राप्त होगा, जब हम एकाँगिता छोड़कर सर्वांगी बनेंगे।
प्रकृति की रचना भी ऐसी है कि प्रथम मनुष्य की इंद्रियों का विकास होता है। साथ-साथ बुद्धि का, हृदय का, और संकल्प शक्ति का विकास भी होता जाता है। जब मनुष्य इस तरह अनुभव समृद्ध होता है तब उसका पुरुषार्थ दोनों दिशाओं में बढ़ता जाता है। केवल ज्ञान की खोज से, शास्त्र पठन से नहीं, अपितु-ज्ञान युक्त अनासक्त कर्म की सहायता से जब पुरुषार्थ बढ़ता है तभी मनुष्य जीवन रहस्य को समझ पाता है। उसी को सर्वांग संपूर्ण साक्षात्कार कहते हैं। ऐसे पुरुषार्थी जीवन को सफल करने के बाद जब जीवन संध्या उपस्थित होती है तब जीवन भर प्राप्त जीवन रहस्य को हजम करने के लिए जीवन की साधना बदलनी पड़ती है। “बाह्य प्रवृत्ति कम करना, अंतर्मुखी होकर चिंतन को बढ़ाना, जीवन साधना के द्वारा आत्मतत्व का जो परिचय अथवा साक्षात्कार हुआ हो, उसी को परिपक्व और दृढ़ करते जाना।” यह है जीवन के संध्याकाल की साधना।
इस साधना में बाहरी दुनिया का परिचय बढ़ाने की आवश्यकता कम होती है, जो अनुभव हो चुका है, उसकी जुगाली करना महत्वपूर्ण होता है। इसलिए प्रकृति माता की रचना है कि इस अवस्था में इंद्रियों की धारणा-शक्ति क्रमशः क्षीण होती जाती है और बुद्धि शक्ति और अनुभव का सार निकालने की दोहन शक्ति बढ़ती जाती है, जो कि स्वाभाविक है।
जिन लोगों ने इंद्रियों के वश होकर उन्हीं का अधिकार मान लिया, आयु का दुरुपयोग किया और जीवन को विकृत होने दिया-उनकी बुद्धि शक्ति शीघ्र क्षीण होगी यह बात स्पष्ट है। परन्तु यह प्रकृति द्वारा दिया जाने वाला दंड कह सकते हैं।
जिनका जीवन क्रम प्रकृति के अनुकूल है और जिनका समग्र जीवन, जीवन की सब ऋतुओं के प्रति निष्ठावान रहा है, उनके लिए इंद्रियों की शक्ति का यथा समय क्षीण होना उचित मालूम होता है। देखने का देख लिया, सुनने का सुन लिया, चखने का चख लिया, प्रवृत्तियों का विस्तार किया, सेवा ली और सेवा की तथा जीवन को क्रमशः समृद्ध होने दिया। अब सारे जीवन की जुगाली करने के लिए जीवन को काफी हद तक निवृत्त करना आवश्यक है। ऐसे समय इंद्रियों को यथोचित आराम देना ही अच्छा हैं इसलिए जब कान कम सुनते हैं, आँखों की शक्ति क्षीण हो जाती है, हाथ, पाँव काम करते-करते जल्दी थक जाते हैं, तब ऐसी अवस्था को शाप न समझकर निवृत्ति की अनुकूलता समझना चाहिए और शाँति-संतोष तथा प्रसन्नता को बढ़ाकर आत्म चिंतन करते-करते जीवन समस्या का रहस्य पाना चाहिए।
ध्यान, चिंतन, मनन, और दोहन के फल स्वरूप जो कुछ भी सार हम पा लेते हैं, उसी को भविष्य की दुनिया के लिए एकत्र करके दे देना यह सबसे बड़ा कर्तव्य, पुरुषार्थ हो जाता है। शांति, समाधान, संतोष, प्रसन्नता और सर्वतोभद्रता यही होना चाहिए उस अवस्था का वायु मंडल। ऐसी अवस्था प्राप्त होने पर जीवन स्वामी जगदीश्वर के प्रति कृतज्ञता का भाव हृदय में उदय होता है और ऐसी कृतज्ञता के कारण प्रसन्नता बढ़ती है तथा पाया हुआ जीवन का सार सर्वस्व घनिष्ठ होता है। इस संसार से बिदा होने की यह कितनी सुँदर तैयारी है।
पं.मंगलेश्वर त्रिपाठी

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