Saturday, April 9, 2016

स्वरूपं ललनानिष्ठं स्वयमुद्धुद्धतां व्रजेत।
अदृष्टेऽप्यश्रुतेऽप्युच्चै: कृष्णे कुर्याद्द्रुतं रतिम्॥

साधारणी रति में स्वसुख वासनामयी सम्भोगेच्छा की ही प्रधानता होती है: समञ्जसा-रति में कभी-कभी स्वसुख वासनामयी सम्भोगेच्छा होती है, पर समर्था-रति में किसी भी समय स्वसुख वासनामयी-सम्भोगेच्छा नहीं होती। पत्थर में जिस प्रकार सुई की नोंक भी प्रवेश नहीं कर सकती, उसी प्रकार समर्था रतिमती व्रज सुन्दरियों में कृष्ण सुखवासना के सिवा और कोई वासना प्रवेश नहीं कर सकती। समञ्जसारतिमती रुकमणि आदि श्रीकृष्ण की सेवा के लिये लाला सान्वित होते हुए भी कृष्ण के लिये धर्म को तिलाञ्जलि नहीं दे सकतीं। इसलिये उन्होंने यज्ञादि सम्पादन पूर्वक विधिवत विवाह करके ही श्रीकृष्ण की सेवा करने की इच्छा की। पर समर्थारतिमती व्रज-सुन्दरियों की कृष्ण-सेवा की लालसा इतनी प्रबल थी कि उन्होंने उसके लिये लोक धर्म, वेद धर्म, आर्यपथादि को तिलाञ्जलि देने में भी संकोच नहीं किया। समर्थारति को समर्था इसलिये ही कहते हैं कि यह कुल, धर्म, धैर्य, लज्जा आदि का तृणवत त्यागकर कृष्ण-सेवा के अपने लक्ष्य की ओर तीर की तरह छूट पड़ने की और कृष्ण को पूर्णरूप से वशीभूत करने की असाधारण सामर्थ्य रखती है। साधारणी रति प्रेम पर्यन्त वृद्धि को प्राप्त होती है; सामञ्जसारति अनुराग की शेष सीमा तक वृद्धि को प्राप्त होती है। समर्थारति महाभाव की शेष सीमा तक वर्द्धित होती है। इसलिए समर्थारतिमति व्रजगोपियों का प्रेम ही सबसे श्रेष्ठ है। व्रज-गोपियों में भी राधा का प्रेम सर्वश्रेष्ठ है, क्योंकि केवल राधा में ही समर्थारति की चरम-परिणति मादनाख्य महाभाव देखने में आता है।

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