धृष्टं धृष्टं पुनरपि पुनश्चन्दनं चारुगन्धं,
छिन्न: छिन्न: पुनरपि पुन: स्वादुरेवेक्षुदण्ड: ।
दग्धं दग्धं पुनरपि पुन: काञ्चनं कान्तवर्णं,
न प्राणान्ते प्रकृतिविकृतिर्जायते ह्युत्तमानाम् ॥
( भर्तृहरि )
छिन्न: छिन्न: पुनरपि पुन: स्वादुरेवेक्षुदण्ड: ।
दग्धं दग्धं पुनरपि पुन: काञ्चनं कान्तवर्णं,
न प्राणान्ते प्रकृतिविकृतिर्जायते ह्युत्तमानाम् ॥
( भर्तृहरि )
बार बार घिसने पर भी चन्दन चारु सुगंधी ही रहता है, गंन्ने के दंड को बार बार काटने पर भी उसकी मिष्टता कम नहीं होती और सुवर्ण को कितना भी तपाओ, उसकी कमनीय कान्ति ज्यों की त्यों बनी रहती है । अभिप्राय यह है कि उत्तम वस्तुयें नााश होने तक अपने स्वभाव को विकृत नहीं होने देतीं ॥
भूदत्ताचार्य
पं मंगलेश्वर त्रिपाठी
से.1वाशी नवी मुम्बई
8828347830
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