Wednesday, November 11, 2015

|| मौन : एक समीक्षा ||



     
♨मौन : एक समीक्षा♨
08:11:2015/22:07Hr.
SKMishra.shoaqh:
हम तो भइया, बहुत पहले से चुप हो गये है।
कि सारे उजाले अंधेरा-घुप हो गये हैं।।
पं भूदत्ताचार्य शर्मा:
सत्य है कि चुप में ही ज्ञान है।
SKMishra.shoaqh:
तभी तो, कोई भी समस्या ले कर जाइए, संत यही कहेंगे बेटा चुप रहो, शांत हो जाओ।
पं भूदत्ताचार्य शर्मा: मौनकाल विलम्बस्य प्रयाणं भूमि दर्शनं।
भृक्तयांमुखी वार्त्ता नकार षड् विधिः स्मृतः।।
SKMishra.shoaqh: चलिए, क्यों न मौन पर ही कुछ चर्चा हो। वैसे भी मौन ज्यादा है।
पं आलोक त्रिपाठी:
आवश्यक होनेपर, आवश्यक परिमाण में संक्षिप्त तथा विषय निष्ठ वाचन या वाद करना ही शास्त्राऽर्थ या तर्क की मर्यादा है। अतः जरूरत के हिसाब से ही बोलना चाहिए। किसी अन्य विषय को अभिसूत्रित करना भी शिष्टता का वाचक नहीं है, जैसा कि बहुधा, लोग भिन्न-सूक्ति प्रयोग द्वारा करते हैं।
वास्तव में सभी अच्छे विचार मौन से ही उत्पन्न होते हैं। मानसिक शांति के लिए मौन अमृत समान है। प्राय: वाद-विवाद होने पर मन का संतुलन बिगड़ जाता है। इसका सबसे अच्छा समाधान है, 'मौन'। जिस प्रकार शरीर को स्वस्थ रखने के लिए शुद्ध भोजन व गहन निद्रा आवश्यक है, उसी प्रकार मानसिक स्वास्थ्य के लिए मौन। सोने से एक घंटा पूर्व व प्रात: ब्रह्म मुहूर्त में एक घंटा मौन रहकर प्रभु की शरण में चले जाएँ तो शांति व प्रसन्नता की अनुभूति होगी। शांत रहें, मौन रहें, प्रसन्न रहें। जो लोग मौन का महत्व समझते हैं और नित्य प्रयोगोपयोग भी करते हैं, वे अपने जीवन में कभी असफल नहीं होते, क्योंकि मौन हजार शब्दों के वाचन से भी अधिक मूल्यवान होता है। किसी के मौन में स्वीकृति, प्रतिवाद, उपेक्षा आदि के लक्षण हो सकते हैं। मौन को समझना एक अप्रतिम कला है। सोचिये जब भाषा का जन्म नहीं हुआ था और आज जब उत्कष्ट भाषा के रहते हुए भी हम अधम भाषा में निमग्न हैं। मौन का अप्रयोग ही आज की मानसिक विकृति का ७५% कारण है, यह तथ्य निश्चय ही वैज्ञानिक है।
SKMishra.shoaqh:
यदि मौनत्त्व की साधना सफल हो जाय को मनुष्य को निद्रा की जरूरत नहीं होगी। सम्भवतः, यही कारण है कि पशु-पक्षी में जागरण की सीमा अधिकतम होती है। उदाहरणार्थ, मैंने कई बार मौन चिन्तन लगातार १४-१५ घण्टों तक किया है और विलक्षण निबन्ध प्राप्त किया है। प्रणिधान का प्रथम सूत्र 'मौन' ही है। क्योंकि इसके विना एकाग्रता व अनन्यता की सिद्धि नहीं होती। सन्तजन किसी समस्या से उबरने के लिए मौन को ही प्राथमिकता प्रदान करते हैं।
पं भूदत्ताचार्य शर्मा:
मौनकाल  विलम्बस्य  प्रयाणं  भूमि  दर्शनं।
भृक्तयांमुखी वार्ता नकार षड् विधिः स्मृतः।।
हम किसी के पास जब कोई वस्तु लेने के लिए जाते हें तो मना करने की उपरोक्त छः विधि है १.मौन हो जाना, २.विलम्ब से बोलना,३.प्रयाण कर जाना, ४.भूमि की तरफ देखकर उत्तर देना, ५.मुँह फेर कर बातें करना, ६.स्पष्ट मना कर देना —ये छः विधियाँ मना करने की हैं। मौन में जो आनंद है, वही आत्मानंद है और वह अवर्णनीय है।
SKMishra.shoaqh:
      मौन हमारे जीवन में तरह-तरह की भूमिकाएँ प्रस्तुत करता है। मौन अस्त्र भी है और उपचार-साधन भी है। जैसे, कभी स्वीकृति की,तो कभी समर्थन, विरोध, उपेक्षा या किसी की प्रार्थना को अमान्य करने की भी। सबसे बड़ी बात यह कि किसी भी वैज्ञानिक चिन्तन में 'मौन' मानसिक पर्यावरण के सृजन में एक प्राथमिक कारक-तत्त्व की भूमिका निभाता है। क्योंकि बिना मौन के एकान्त निःशब्द अवस्था की प्राप्ति नहीं होती। मौन और शयन में चेतना और चैतन्यता की द्विविध भूमिका है। जाग्रत अवस्था की मुद्रा होने के कारण, चिन्तन में विषयों के परिवर्त्तन की सम्भावना बनी रहती है। अतः मौन को जाग्रत-सुषुप्ति कहने में बुराई नहीं है। मौन में विचारों का शोधन, मार्जन (filtration) भी चलता रहता है और विषयों का चयन तथा बहिष्कार भी होता रहता है, जो शयन में नहीं होते।
      आज मनुष्य में इसी मौनत्त्व का अभाव है।ध्वनि प्रदूषण से वैसे भी पर्यावरण जर्जर है तो मनुष्य की बात ही क्या करें। नयी पीढ़ी को इस कोलाहल के परिणाम का अनुमान भी नहीं है। पहले शिष्ट सम्भाषण की शिक्षा भी दी जाती थी, जिसमें मध्यम भाषण का अनुशासन दिया जाता था। आज बच्चे ही नहीं, जन-जन में उच्च-स्वर से वार्त्तालाप करने की आदत-सी पड़ गयी है। यह किसी को अखरता भी नहीं। यही विडम्बना है। हम सीतारामाभ्यां नमः, उमामहेश्वराभ्यां नमः आदि शक्ति-प्रधान युग्म-देवता मन्त्रों का उच्चारण करने में सिद्ध होते हुए भी इनमें छिपे शान्ति के प्रबोधक मर्म को समझ नहीं पाते।हम समझ नहीं पाते कि जिसकी हम अनजाने में उपासना कर रहे हैं, वह निर्मल मन जन के साध्य रूप में हमारे भीतर बैठा अपने ही युगल-मूर्त्ति शान्ति और आनन्द की ही तो बाह्य-अर्चना करा रहा है, ताकि हम जीवन में शान्ति लाभ कर सकें। यह कुछ समय मौन को प्रदान करना, उसी दिशा मों एक साधना ही तो है। लोकिन हम व्यर्थ के स्वार्थपूर्ण सांसारिक प्रलाप में उलझ कर स्वयं ही उस शान्ति को स्वयं से दूर करने में २३घंटे पचास मिनट खर्च कर देते हैं, साधना को तो केवल पूजा के बहाने दस मिनट ही शायद दे पाते हैं।
      प्रताप नारायण मिश्र ने अपने शीर्षक 'बात' में उद्धृत किया था कि "बातहिं हाथी पाइए बातहिं हाथी पाँव" । इस उक्ति में कहीं मौन को ही प्रशस्ति दी गयी है। क्योंकि अनावश्यक बोलने को हेय बताना मौनत्त्व को ही स्वीकृति देता है।
मनुष्य की यह सिर्फ अज्ञानात्मक प्रवृत्ति है कि किसी भी वार्त्ता में वह भाग लेने को आतुर रहता है। कुछ लोगों को बीच में बोलने की भयानक बीमारी होती है। कुछ विना अपनी बात पूरी किये चुप ही नही होते। निश्चय ही ऐसे व्यर्थ बोलने वाले मौन के शत्रु ही होते हैं।
साधना में मौन की भूमिका :-
      मनुष्य के जीवन में ज्ञान ही एकमात्र लक्ष्य है और इसी की स्फूर्त्ति निमित्त साधना के त्रिविध सोपानों -- मानसिक, वाचिक और कायिक -- का प्रतिपादन किया गया है। मानसिक साधना ध्यान की एकाग्रता से, वाचिक साधना मौनत्त्व से तथा कायिक साधना अनन्यता से होती है। कायिक साधना में अनन्यता के उपलक्ष्य ही पंचायतन तथा सम्प्रदाय एवं आम्नाय आदि के साथ-साथ चातुर्वर्ण्य और जाति-भेद के परम वैज्ञानिक वर्गीकरण किये गये हैं। इन सबके मूल में उद्देश्य यही रहा है कि मनुष्य के स्वभाव-लक्षण के अनुकूल उसमें ज्ञान का उत्कर्ष हो। पूज्य गोस्वामी जी ने इसी आशय से कहा- 'एक कर्म एकहि व्रत नेमा'। परंतु विडम्बना यह बन गयी कि सनातन धर्म का 'हिंदू' संज्ञा द्वारा नामकरण किया गया और सदियों से उसमें बहुदेव-उपासना का समावेश करके सांस्कृतिक अद्वितीय शुद्धता को छिन्न-भिन्न कर दिया गया। उसीका परिणाम था मध्यकालीन साम्प्रदायिक संघर्ष। अस्तु,
      वाचिक साधना का वैसे भी मनुष्य के जीवन में प्रायोगिक महत्त्व है। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और एक ही समय में वह प्रकृति (विश्व) और समाज (संसार) पर समान रूप से निर्भरशील भी है। अतः उसे शिष्टाचार, सदाचार का भी मर्यादाऽनुकूल व्यवहार करना अभीष्ट होता है। इसलिए भी कर्म की त्रिविध-आयामिक परिभाषा की जाती है, यथा- मानसिक, वाचिक और क्रियात्मक। वाचिक साधना में कण्ठ ही एकमात्र वागिन्द्रिय है। कण्ठ की दो ही अवस्थाएँ हैं -- वाचन और मौन। तो हम समझ सकते हैं कि वाचन और मौन दोनों ही परस्पर अन्योन्याश्रित संक्रियाएँ हैं। इनमें से एक का भी अतिरेक दूसरे की वाञ्छनीयता को प्रत्यक्ष होने के लिए मजबूर कर देता है।
       वैश्वीय संदर्भ में भी सूक्ष्म दृष्टिपात किया जाय तो हम देखेंगे कि इस पृथ्वी पर मनुष्य की वही संस्कृति श्रेष्ठतम है, जिसने मौन को सम्पूर्ण श्रेय प्रदान किया है।वाचन के परिवेश में पाश्चात्य सभ्यता ने एक-एक क्रिया के लिए शाब्दिक संरचनाओं (phrases) का निर्माण कर रखा है, जिनका पीढ़-दर-पीढ़ी अभ्यास चला आ रहा है। किसी भी भाव पर वे बिना समय गँवाये प्रतिक्रिया की शाब्दिक अभिव्यक्ति कर ले जाते हैं। यही घटना बच्चों में भी देखी जाती है। बच्चे भी छूटते ही बात पलटने के आदी होते है। बच्चों में वाचन की निरंकुश स्थित-प्रज्ञता को देखते हुए ही, सम्भवतः, इस अवस्था को बच-पन नाम दिया गया है। अस्तु, ऐसा नहीं है कि पाश्चात्य में मौन को महत्त्व नहीं दिया जाता है। वरं च, वहाँ मौन की साधना-परक अलौकिक वैज्ञानिकता को महत्त्व नहीं दिया जाता है। परंतु अब मौन के मनोवैज्ञानिक महत्त्व को वहाँ समझने लगे हैं। मौन का यह आध्यात्मिक रहस्य ही है कि भारतीय आर्ष मनीषियों ने मौन चिन्तन के बल पर ही वेदों का साक्षात्कार कर लिया। आज भी वेद के सिद्धान्त अकाट्य हैं। अष्टांग योग में वर्णित 'समाधि', मौन का ही यौगिक रूपान्तरण है। आज ध्वनि-प्रदूषण की रोकथाम का एकमात्र उपचार है मौन।
    यह भी नहीं कहा जा सकता कि नितान्त मौन का ही अवलम्बन किया जाय। क्योंकि 'अति सर्वत्र वर्जयेत्' का नारा भी शास्त्रोक्त ही है।

पं. जगदीश प्रसाद द्विवेदी(धर्मार्थ. ): मनुष्य के शरीर में कुदरत की अजब कारीगरी समाई हुई है। योगशास्त्र कहता है कि जो मनुष्य शरीर रूपी पिंड को  जानता है, उस मनुष्य को समष्टि रूप ब्रह्माण्ड जानना कुछ मुश्किल नहीं।
शरीर में चार वाणी हैं। जैसे कि:- परावाणी नाभि (टुन्डी) में, पश्यन्तिवाणी हृदय में, मध्यमावाणी कण्ठ (गले में), और वैखरी वाणी मुँह में है। शब्द की उत्पत्ति परावाणी में होती हैं परन्तु जब शब्द स्थूल रूप धारण करता है, तब मुँह में रही हुई वैखरी वाणी द्वारा बाहर निकलता है।
मौन दो प्रकार के हैं।
(1) वाणी से और (2) मन से। वाणी को वश में रखना, कम बोलना, नहीं बोलना, जरूरत के अनुसार शब्दोच्चार करना आदि वाणी के मौन कहे जाते हैं। मन को स्थिर करना, मन में बुरे विचार नहीं लाना, अनात्म विचारों को हटा कर आत्म (अध्यात्म) विचार करना, बाह्य सुख की इच्छा से मुक्त होकर अंतर सुख में मस्त होना, और मन को आत्मा के वश रखना वगैरह मन का मौनव्रत कहलाता है।
मौन व्रतधारी व्यक्तियों को मुनि के नाम से सम्बोधन करते हैं। मौन व्रतधारियों में महान् शक्ति होती है, यह बात सत्य है। उदाहरण देखिये कि जब ज्यादा प्रमाण में बोलने में आता है, तब गले की आवाज बैठ जाती है, प्यास अधिक लगती है, कण्ठ सूखता है, छाती में दर्द होता है, और बेचैनी सी मालूम पड़ती है, अर्थात् सख्त मेहनत करने वाले मजदूर वर्ग से भी अधिक परिश्रम बोलने में पड़ता है। इसलिये जितने प्रमाण में बोला जाय उतने ही प्रमाण में शरीर की शक्ति व्यय होती है।
मेरे कहने का यह मतलब नहीं कि मुँह बन्द कर लेना चाहिये, परन्तु हमेशा के व्यवहार में आवश्यकतानुसार ही वाणी का उपयोग किया जावे, तो भी बहुत सी शक्ति का अपव्यय बचेगा।
दुनिया में महान् व्यक्ति होने के लिये कुदरत के कुछ नियम पालने पड़ते हैं। उन नियमों में ‘वाणी स्वातंत्र्य’ भी एक नियम है किन्तु वर्तमान समय की संसार व्यापी अव्यवस्था के कारण साधारण जीवन बिताने के लिये भी बहुत बोलना पड़ता है। लोगों को इसमें कमी करने के लिये निम्न नियमों का पालन करना चाहिये।
मौन-धारण के नियम-
(1) किन्ही किन्ही स्त्री-पुरुषों को ऐसी आदत होती है कि बिना कारण ही बोला करते हैं उन्हें बोलने का परिमाण कम करना चाहिये।
(2) बिना कारण (हँसी, दिल्लगी या दूसरे किसी के साथ) बोलने की इच्छा हो तब दोनों नासिका द्वारा श्वास खींच कर छाती के फेफड़ों में भर रखना और धीरे धीरे निकाल देना, भरते समय ईश्वर का ध्यान या अपने धर्म गुरु के बताये हुए मन्त्र का जाप करना।
(3) पखवाड़े भर में एक दिन सुबह या शाम को पौन घण्टे मौन धारण करना। उस समय “मेरा मन पवित्र होता जाता है” “मेरी जिन्दगी सुधरती जाती है” “व्यवहार या परमार्थ के लिये जो भी शुभकार्य करता हूँ वे सब कर्म लाभकारक होते हैं” इस प्रकार के विचार करना।
(4) ज्यादा समय मिल सकता हो तो अठवारे में एक वक्त या 4 दिन में एक वक्त 3 से 6 घण्टे मौन रहना।
(5) मौन धारण करते समय दूध या फलों पर रहना। हो सके तो बगीचे आदि रम्य स्थान में घूमने जाना।
(6) वायु प्रधान शरीर वाले को अधिक बोलने की आदत होती है, वास्ते उनके पेट में से और सिर में से वायु दोष निवारण करने के लिये रोज सबेरे ताँबे के लोटे में रक्खा हुआ पानी 12 या 14 ओंस पी जाना, पानी पीकर आधे घण्टे बाद सण्डास (मल विसर्जन करने) जाना चाहिये।
मौन धारण करने से लाभ।
अन्तरशक्ति बढ़ती है, महान कार्यों को कैसे करना चाहिये, वह काम शुरू करने के बाद उसका क्या परिणाम होगा, यदि विघ्न आवे तो कैसे टालना चाहिये, अटल श्रद्धा से कार्य सिद्धि आदि सन्देश हृदय में रहे हुए परमात्मा द्वारा मिलेंगे।
मौनधारियों के वचन सत्य होते हैं, सुनने वाले को सम्पूर्ण विश्वास तथा सचोट असर होता है। बीड़ी, सिगरेट, तम्बाकू, चाय और अफीम वगैरह शरीर को अत्यन्त नुकसान करने वाले व्यसन के ऊपर काबू रखने की शक्ति आती है और धीरे धीरे खराब व्यसन छूट जाते हैं। अन्तःकरण, मन, बुद्धि, चित्त अहंकार में रहे हुए छह रिपु (काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर) का नाश होता है, सुख और दुःख के समय सौम्य दृष्टि व संतोषवृत्ति उत्पन्न होती है, ज्ञानेन्द्रियों की स्थिरता जाती रहती है, नाभि में रही हुई परावाणी में से शब्द गुप्त रूप से प्रकट होते हैं। वे शब्द मनुष्य (अपने) कल्याण के पन्थ में ले जाने वाली आज्ञा है अपने शरीर में से उत्पन्न होने वाले शब्दों के आधार से भविष्य में जाने वाले सुख या दुःख के समाचार मिल सकते हैं। पूर्व जन्म में कौन थे वह ज्ञात होता है। अपने सगे सम्बन्धी इष्ट मित्र मरने के बाद कहाँ (किस योनी, स्वर्ग, मृत्यु, पाताल, नरक अथवा मोक्ष) गये हैं उसकी समझ पड़ती है। --(अखण्ड ज्योति)
        प्रायः लोग व्रत करते है एकादशी त्रयोदशी आदि तिथि विचार कर पर मौन व्रत कभी भी किसी भी समय रख सकते है आज के आधुनिक समय में मनुष्य वाचाल बहुत होते है ऐसे परिवेश में मौन व्रत कर पाना असम्भव है पर भगवत गीता लिखा है और
मान्यता है कि मौन से सब कामनाएं पूर्ण होती है। ऐसा साधक शिवलोक को प्राप्त होता है। मौन के साथ श्रेष्ठ तत्रेव चिंतन व ईश्वर स्मरण आवश्यक है। शास्त्रकार ने मौन की गणना पांच तपों में की है-
मन: प्रसाद: सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रह:।
भावसंशुद्धिरित्येतत्तपो मानसमुच्यते।।
-श्रीमद्भगवद्गीता 17/16
अर्थात मन की प्रसन्नता, सौम्य स्वभाव, मौन, मनोनिग्रह और शुद्ध विचार ये मन के तप हैं। इनमें मौन का स्थान मध्य में है। मन के परिष्कार तथा संयम के लिए मन की प्रसन्नता धारण की जाए, सौम्यता धारण की जाए तत्पश्चात् मौन का प्रयोग किया जाए। इसके प्रयोग से शुद्ध विचार उत्पन्न होते हैं। मन का परिष्कार होकर चंचलता और व्यर्थ चिंतन से मुक्ति होती है।
चाणक्यनीति-दर्पण में कहा गया है-
ये तु संवत्सरं पूर्ण नित्यं मौनेन भुंजते।
युगकोटिसहस्त्रैस्तु स्वर्गलोके महीयते।।
-चाणक्यनीति 11/9
अर्थात जो मनुष्य प्रतिदिन पूरे संवत अथवा वर्षभर मौन रहकर भोजन करता है, वह दस हजार कोटि वर्ष तक स्वर्ग में पूजा जाता हैं।
मौन की महिमा अपार है। मौन से क्रोध का दमन, वाणी का नियंत्रण, शरीरबल, संकल्पबल एवं आत्मबल में वृद्धि, मन को शांति तथा मस्तिष्क को विश्राम मिलता हैं, जिससे आंतरिक शक्तियों का विकास होता है और ऊर्जा का क्षरण रूकता है। इसीलिए मौन को व्रत की संज्ञा दी गई है। मौन के संबंध में महाभारत में एक कथा है। जब महाभारत का अंतिम श्लोक महर्षि वेदव्यास द्वारा बोला गया और गणेशजी द्वारा भोज पत्र पर लिखा जा चुका, तब महर्षि व्यास ने कहा-वित्रेनेश्वर धन्य है आपकी लेखन! महाभारत का सृजन तो वस्तुत: परमात्मा ने किया है, पर एक वस्तु आपकी लेखनी से भी अधिक विस्मयकारी है-वह है आपका मौन। इस अवधि में मैंने तो 15-20 लाख शब्द बोल डाले, परंतु आपके मुख से मैंने एक भी शब्द नहीं सुना। इस पर गणेशजी ने मौन की व्याख्या करते हुए कहा-वादनारायण। किसी दीपक में अधिक तेल होता हैं और किसी में कम। तेल का अक्षय भंडार किसी दीपक में नहीं होता। उसी प्रकार देव, मानव और दानव आदि जितने भी तनधारी जीव हैं, सबकी प्राण शक्ति सीमित है। उसका पूर्णतम लाभ वही पा सकता है, जो संयम से इसका उपयोग करता है। संयम का प्रथम सोपान है-वाक्संयम। जो वाणी का संयम नहीं रखता, उसके अनावश्यक शब्द प्राण शक्ति को सोख डालते है। वाक्संयम से यह समस्त अनर्थपरंपरा दग्धबीज हो जाती है। इसलिए मैं मौन का उपासक हूं।
पं सत्य प्रकाश तिवारी:
एक सम्पूर्ण जीवन व्यतीत करने के लिए अगर कोई चाबी है तो वह है 'मौन'! चाहे वह जीवन के पूर्णत्त्व के अनुभव की बात हो या परमा मुक्ति और खुशी की बात हो ! अपनी दृष्टि, भावनाओं, इच्छाओं और विचारों को एक सही दृष्टिकोण से देखने के लिए मौन एक उत्तम साधन है। स्वयं को जानने और अनुभव करने के लिए मौन एक सरल साधना का माध्यम है। आज के तेज़ गति से भागते युग में शायद ही कहीं पूर्ण मौन हो। लोग मौन से भागते नज़र आते हैं और मौन से डरते भी प्रतीत होते हैं|
                          --©धर्मार्थ वार्त्ता समाधान


पं मंगलेश्वर त्रिपाठी
से.1वाशी नवी मुम्बई
8828347830  

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