विचार्य यत्नात् गुरु शिष्य संग्रहमाचरेत।
अन्यथा शिष्य दोषेण नर्कस्थ्यो भवेत् गुरु।।
गुरुओं को वहुत सोचविचार कर ही शिश्यों का संग्रह करना चाहिए अन्यथा शिष्य के दोष के कारण गुरु को भी नर्क का रास्ता देखना पड़ता है
गुरुरोप्त लिप्तस्य कार्य अकार्य न जानयेत्।
उत्प्ततो प्रतिपन्नस्य परित्यागो विधीयते।।
यदि गुरु विषयों में लिप्त होकर करने न करने का ज्ञान छोड़ दे तो शिष्य को चाहिए उस गुरु का त्याग कर दे । चाहे ब्रह्मा विष्णु महेश ही क्यों न हो ऐसा हमारे धर्म ग्रन्थ और महापुरुष वताते हें
अति सन्ना विनाशाय दुरस्याह न फल प्रदेत।
ते सेव्या मध्यभागेन् स्त्री राजा वहीनःगुरुः।।
अत्यंत समीप रहने पर विनाश और अधिक दुरी होने पर फलहीन हो जाते हें इस स्त्री राजा अग्नि और गुरु इनका मध्यभाग से ही सेवन करना चाहिएभूदत्ताचार्य
पं मंगलेश्वर त्रिपाठी
से.1वाशी नवी मुम्बई
8828347830
से.1वाशी नवी मुम्बई
8828347830
No comments:
Post a Comment