प्रायः लोग व्रत करते है एकादशी त्रयोदशी आदि तिथि विचार कर पर मौन व्रत कभी भी किसी भी समय रख सकते है आज के आधुनिक समय में मनुष्य वाचाल बहुत होते है ऐसे परिवेश में मौन व्रत कर पाना असम्भव है पर भगवत गीता लिखा है और
मान्यता है कि मौन से सब कामनाएं पूर्ण होती है। ऐसा साधक शिवलोक को प्राप्त होता है। मौन के साथ श्रेष्ठ तत्रेव चिंतन व ईश्वर स्मरण आवश्यक है। शास्त्रकार ने मौन की गणना पांच तपों में की है-
मन: प्रसाद: सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रह:।
भावसंशुद्धिरित्येतत्तपो मानसमुच्यते।।
-श्रीमद्भगवद्गीता 17/16
अर्थात मन की प्रसन्नता, सौम्य स्वभाव, मौन, मनोनिग्रह और शुद्ध विचार ये मन के तप हैं। इनमें मौन का स्थान मध्य में है। मन के परिष्कार तथा संयम के लिए मन की प्रसन्नता धारण की जाए, सौम्यता धारण की जाए तत्पश्चात् मौन का प्रयोग किया जाए। इसके प्रयोग से शुद्ध विचार उत्पन्न होते हैं। मन का परिष्कार होकर चंचलता और व्यर्थ चिंतन से मुक्ति होती है।
चाणक्यनीति-दर्पण में कहा गया है-
ये तु संवत्सरं पूर्ण नित्यं मौनेन भुंजते।
युगकोटिसहस्त्रैस्तु स्वर्गलोके महीयते।।
-चाणक्यनीति 11/9
अर्थात जो मनुष्य प्रतिदिन पूरे संवत अथवा वर्षभर मौन रहकर भोजन करता है, वह दस हजार कोटि वर्ष तक स्वर्ग में पूजा जाता हैं।
मौन की महिमा अपार है। मौन से क्रोध का दमन, वाणी का नियंत्रण, शरीरबल, संकल्पबल एवं आत्मबल में वृद्धि, मन को शांति तथा मस्तिष्क को विश्राम मिलता हैं, जिससे आंतरिक शक्तियों का विकास होता है और ऊर्जा का क्षरण रूकता है। इसीलिए मौन को व्रत की संज्ञा दी गई है। मौन के संबंध में महाभारत में एक कथा है। जब महाभारत का अंतिम श्लोक महर्षि वेदव्यास द्वारा बोला गया और गणेशजी द्वारा भोज पत्र पर लिखा जा चुका, तब महर्षि व्यास ने कहा-वित्रेनेश्वर धन्य है आपकी लेखन! महाभारत का सृजन तो वस्तुत: परमात्मा ने किया है, पर एक वस्तु आपकी लेखनी से भी अधिक विस्मयकारी है-वह है आपका मौन। इस अवधि में मैंने तो 15-20 लाख शब्द बोल डाले, परंतु आपके मुख से मैंने एक भी शब्द नहीं सुना। इस पर गणेशजी ने मौन की व्याख्या करते हुए कहा-वादनारायण। किसी दीपक में अधिक तेल होता हैं और किसी में कम। तेल का अक्षय भंडार किसी दीपक में नहीं होता। उसी प्रकार देव, मानव और दानव आदि जितने भी तनधारी जीव हैं, सबकी प्राण शक्ति सीमित है। उसका पूर्णतम लाभ वही पा सकता है, जो संयम से इसका उपयोग करता है। संयम का प्रथम सोपान है-वाक्संयम। जो वाणी का संयम नहीं रखता, उसके अनावश्यक शब्द प्राण शक्ति को सोख डालते है। वाक्संयम से यह समस्त अनर्थपरंपरा दग्धबीज हो जाती है। इसलिए मैं मौन का उपासक हूं।
मान्यता है कि मौन से सब कामनाएं पूर्ण होती है। ऐसा साधक शिवलोक को प्राप्त होता है। मौन के साथ श्रेष्ठ तत्रेव चिंतन व ईश्वर स्मरण आवश्यक है। शास्त्रकार ने मौन की गणना पांच तपों में की है-
मन: प्रसाद: सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रह:।
भावसंशुद्धिरित्येतत्तपो मानसमुच्यते।।
-श्रीमद्भगवद्गीता 17/16
अर्थात मन की प्रसन्नता, सौम्य स्वभाव, मौन, मनोनिग्रह और शुद्ध विचार ये मन के तप हैं। इनमें मौन का स्थान मध्य में है। मन के परिष्कार तथा संयम के लिए मन की प्रसन्नता धारण की जाए, सौम्यता धारण की जाए तत्पश्चात् मौन का प्रयोग किया जाए। इसके प्रयोग से शुद्ध विचार उत्पन्न होते हैं। मन का परिष्कार होकर चंचलता और व्यर्थ चिंतन से मुक्ति होती है।
चाणक्यनीति-दर्पण में कहा गया है-
ये तु संवत्सरं पूर्ण नित्यं मौनेन भुंजते।
युगकोटिसहस्त्रैस्तु स्वर्गलोके महीयते।।
-चाणक्यनीति 11/9
अर्थात जो मनुष्य प्रतिदिन पूरे संवत अथवा वर्षभर मौन रहकर भोजन करता है, वह दस हजार कोटि वर्ष तक स्वर्ग में पूजा जाता हैं।
मौन की महिमा अपार है। मौन से क्रोध का दमन, वाणी का नियंत्रण, शरीरबल, संकल्पबल एवं आत्मबल में वृद्धि, मन को शांति तथा मस्तिष्क को विश्राम मिलता हैं, जिससे आंतरिक शक्तियों का विकास होता है और ऊर्जा का क्षरण रूकता है। इसीलिए मौन को व्रत की संज्ञा दी गई है। मौन के संबंध में महाभारत में एक कथा है। जब महाभारत का अंतिम श्लोक महर्षि वेदव्यास द्वारा बोला गया और गणेशजी द्वारा भोज पत्र पर लिखा जा चुका, तब महर्षि व्यास ने कहा-वित्रेनेश्वर धन्य है आपकी लेखन! महाभारत का सृजन तो वस्तुत: परमात्मा ने किया है, पर एक वस्तु आपकी लेखनी से भी अधिक विस्मयकारी है-वह है आपका मौन। इस अवधि में मैंने तो 15-20 लाख शब्द बोल डाले, परंतु आपके मुख से मैंने एक भी शब्द नहीं सुना। इस पर गणेशजी ने मौन की व्याख्या करते हुए कहा-वादनारायण। किसी दीपक में अधिक तेल होता हैं और किसी में कम। तेल का अक्षय भंडार किसी दीपक में नहीं होता। उसी प्रकार देव, मानव और दानव आदि जितने भी तनधारी जीव हैं, सबकी प्राण शक्ति सीमित है। उसका पूर्णतम लाभ वही पा सकता है, जो संयम से इसका उपयोग करता है। संयम का प्रथम सोपान है-वाक्संयम। जो वाणी का संयम नहीं रखता, उसके अनावश्यक शब्द प्राण शक्ति को सोख डालते है। वाक्संयम से यह समस्त अनर्थपरंपरा दग्धबीज हो जाती है। इसलिए मैं मौन का उपासक हूं।
पं मंगलेश्वर त्रिपाठी
से.1वाशी नवी मुम्बई
8828347830
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