Sunday, November 8, 2015

|| वियोगी होगा पहला कवि आह से उपजा होगा गान ||


     
वियोगी होगा पहला कवि आह से उपजा होगा गान।
उमड़ कर नयनो से चुपचाप वही होगी कविता अंजान  ।।
भारतीय काव्य शास्त्र में परिभाषा को लक्षण शब्द से अभिहित किया गया है। अतएव यहाँ परिभाषा के स्थान पर लक्षण शब्द का ही प्रयोग किया जा रहा है। किसी लक्षण की गुणवत्ता इस बात पर निर्भर करती है कि उसमें कोई दोष न हो। परिभाषा (लक्षण) के तीन दोष कहे जाते हैं- अव्याप्ति, अतिव्याप्ति और असम्भव। इसे स्पष्ट करने के लिए यदि हम एक उदाहरण लें- ‘मनुष्य एक साँस लेने वाला प्राणी है।’ इस परिभाषा में अव्याप्ति और अतिव्याप्ति-दोनों दोष मौजूद हैं। अव्याप्ति इसलिए कि मनुष्य में साँस लेने के अतिरिक्त चिन्तन करने की क्षमता, विवेक आदि भी है, जो उसे अन्य प्राणीयों से अलग करता है और उक्त परिभाषा पूर्णरूपेण मनुष्य को परिभाषित नहीं करती। अतएव यह परिभाषा अव्याप्ति दोष से दूषित है। अतिव्याप्ति इसलिए कि मनुष्य के अलावा अन्य प्राणी भी साँस लेते हैं और इस प्रकार यह परिभाषा मनुष्य के अतिरिक्त अन्य प्राणियों पर भी लागू होती है। इसलिए इसमें अतिव्याप्ति दोष भी वर्तमान है। इसी प्रकार असम्भव दोष से ग्रस्त वह लक्षण माना जायगा जो परिभाषित की जाने वाली वस्तु या विषय को स्पर्श ही न करे, यथा ‘मनुष्य अमर हैं।’
काव्य एवं काव्यांगों की परिभाषा करते समय सभी आचार्यों ने बड़े सजग होकर यह प्रयास किया है कि उनके द्वारा प्रतिपादित लक्षण अथवा सिद्धान्त निर्दोष हों।
विभिन्न आचार्यों द्वारा दिए गए काव्य के लक्षण इस प्रकार हैं:
‘शब्दार्थौ सहितौ काव्यम्’
-आचार्य भामह
(शब्द और अर्थ का समन्वय काव्य है या शब्द और अर्थ का समन्वित भाव काव्य है।)
‘शरीरं तावदिष्टार्थ-व्यवच्छिन्ना पदावली।’
-आचार्य दण्डी
(इष्ट अर्थ से युक्त पदावली (शब्द समूह) ) काव्य का शरीर है अर्थात् मनोरम हृदय को आह्लादित करने वाले अर्थ से युक्त शब्द समूह काव्य का शरीर है।)
‘रीतिरात्मा काव्यस्य’
-आचार्य वामन
(रीति (शैली) काव्य की आत्मा है।)
‘काव्यस्यात्मा ध्वनिः’
-आचार्य आनन्दवर्धन
(काव्य की आत्मा ध्वनि है।)
“शब्दार्थौ ते शरीरं संस्कृतं मुखं प्राकृतं बाहुः जघनम्पभंशः पैशाचं पादौ उरो मिभ्रम्। समः प्रसन्नो मधुर उदार ओजस्वि चासि। उक्तिगणं च ते वचः रस आत्मा रोमाणि छन्दांसि प्रश्नोत्तर-प्रवाहलकादिकं च वाक्केलिः अनुप्रासोपमादयश्च त्वामलङ्कुर्वन्ति।”
-आचार्य राजशेखर
यहाँ आचार्य राजशेखर ने शब्द और अर्थ को काव्यपुरुष का शरीर, संस्कृत (भाषा) को मुख, प्राकृत भाषा को बाहु, अपभ्रंश को जंघा, पैशाचिकी भाषा से पैर और गद्य-पद्य को वक्षस्थल कहा है। उक्तिवैशिष्ट्य काव्यपुरुष की वाणी, रस आत्मा, छन्द रोम, प्रश्नोत्तर और पहेली आदि आमोद-प्रमोद और अनुप्रास-उपमा आदि आभूषण हैं।
‘शब्दार्थौ सहितौ वक्रकविव्यापारशालिर्नि
बन्धे व्यवस्थितौ काव्यं तद्विदाहलादकारिणी।।’
-आचार्य कुन्तकz
आचार्य कुन्तक ने अपने पूर्ववर्ती आचार्यों द्वारा प्रतिपादित काव्य के सभी लक्षणों का समावेश कर काव्य का लक्षण नियत किया है। इसमें भामह का ‘शब्दार्थौ सहितौ काव्यम्’, दण्डी की ‘इष्टार्थव्यवच्छिन्ना पदावली’ और वामन की ‘रीति’ दोनों को ‘तद्विवदाह्लाद कारिणि’ के अन्तर्गत, आचार्य आनन्दवर्धन के ‘व्यंञ्जनव्यापार-प्रधान ध्वनि’ और आचार्य राजशेखर के ‘रस’ को ‘वक्रकविध्यापारशालिनि’ के अन्तर्गत समावेश किया है।
‘औचित्यं रससिद्धस्य स्थिरं काव्यस्य जीवितम्।’
-आचार्य क्षेमेन्द्र
आचार्य क्षेमेन्द्र रसयुक्त काव्य में औचित्य को काव्य का जीवन अर्थात् आत्मा मानते हैं।
‘तद्दोषौ शब्दार्थौ सगुणावनलङ्कृती क्वापि” (इति काव्यम्)
-आचार्य मम्मट
अर्थात् दोषरहित, गुणसहित, कहीं अलंकार का अभाव होने पर, शब्द और अर्थ (दोनो का समष्टि रूप) काव्य है।
‘वाक्यं रसात्मकं काव्यम्’
-आचार्य विश्वनाथ
अर्थात् रसात्मक वाक्य काव्य है।
‘रमणीयार्थप्रतिपादकः शब्दः काव्यम्’
-आचार्य (पण्डितराज) जगन्नाथ
अर्थात् रमणीय अर्थ प्रतिपादित करने वाला शब्द काव्य है।


पं मंगलेश्वर त्रिपाठी
से.1वाशी नवी मुम्बई
8828347830 

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