न दैन्यम् न पलायनम्
एक दिन देवेन्द्र जी ने एक कहानी सुनायी जो बचपन में उनके पिताजी ने सुनायी थी। कहानी सुनने के बाद ही उसका आशय स्पष्ट हो पायेगा। आप भी सुनिये और उसमें निहित संकेतों को समझने को प्रयास करिये।
एक नवविवाहिता विवाह के पश्चात अपने गाँव पहुँची। दिन भर सब बहू देखने आये। घर के लोगों में आत्मीयता कूट कूट कर भरी थी, सबने बड़ा प्यार दिया। गाँव के लोग भी बहुत सज्जन थे, सबने बड़ा मान दिया, आशीर्वाद दिया और कहीं कोई भी कमी नहीं होने दी। सायं का समय आया तो सास ने बहू से कहा कि बेटी शीघ्र ही स्नान ध्यान कर भोजन बना ले, सब लोग सूर्यास्त के पहले ही भोजन कर के तैयार हो जाते हैं। बहू ने पहले सोचा कि कोई विशेष परम्परा होगी, जैन मतावलम्बियों की तरह, कि कहीं अँधेरे में कोई जीव भोजन के साथ ही ग्रास न बन जाये। जहाँ तक ज्ञात था तो ऐसी कोई कारण नहीं था। परिवार ही नहीं वरन पूरे गाँव में एक विशेष शीघ्रता दिखायी दी, लगा आज कोई उत्सव होगा रात में, इसीलिये भोजन शीघ्र ही निपटाने का उपक्रम हो रहा है। जब बहू से उत्सुकता न सही गयी तो उसने धीरे से अपने पति को बुलाया और पूछा कि मुझे इतने शीघ्र भोजन करने का औचित्य समझ नहीं आ रहा है।
पति ने पत्नी को तनिक आश्चर्य और करुणा के भाव से देखा, मानो आँखें यह पूछ रही हों कि इतनी सीधी बात से अनभिज्ञ है, उसकी प्यारी पत्नी। जब आँखों ने अधिकार जता लिया तब पति ने बताना प्रारम्भ किया। देखो, अभी थोड़ी देर में अँधेरा भर आयेगा और वह सूरज को ढक लेगा और ढकेगा भी इतना गाढ़ा कि सूरज निराश होकर चला जायेगा। हमारा गाँव इस समस्या से जूझने को सदा ही तत्पर रहता है। हम सब अपना सारा कार्य दिन में ही कर लेते हैं, यही नहीं पर्याप्त विश्राम भी कर लेते हैं। रात आते ही सब तैयार होकर अपने घर पहुँच जाते हैं। जिसकी जितनी सामर्थ्य है वह उसी के अनुसार कोई पात्र उठा लेता है, यहाँ तक कि बच्चे भी छोटी कटोरी लेकर तैयार हो जाते हैं। उसके बाद हम लोग रात भर अँधेरा बाहर निकालते रहते हैं। रात भर श्रम करने के बाद जब सारा अँधेरा बाहर निकल जाता है तब कहीं सूरज लौट कर वापस आता है और तब कहीं जाकर सुबह होती है।
इतना श्रमशील परिवार और गाँव देख कर नवविवाहिता अभिभूत हो गयी, उसकी आँखों में आँसू छलक आये। उसने कहा कि आप लोगों ने अब तक बड़ा श्रम कर लिया है, अब सारा उत्तरदायित्व मेरा है, अब मैं रात भर अँधेरा बाहर फेकूँगी। आप सब सबने बड़ा समझाया कि बिटिया कि तुम अभी बड़ी कोमल हो और यह अँधेरा बड़ा ही उद्दण्ड, रात भर तुम थक भी जाओगी, अँधेरा निकलेगा भी नहीं, सुबह नहीं हो पायेगी। सबने सोचा कि नवविवाहिता ने भावनात्मक होकर यह कार्य ले लिया है, पता नहीं क्या होगा, एक दिन का उत्साह है, अगले दिन से उत्साह ठण्डा पड़ जायेगा, जीवन का क्रम वैसे ही चलने लगेगा। जब बहू ने इतनी आत्मीयता दिखायी है तो उसे अवसर देना तो बनता है।
पहले दिन बहू के सहारे घर को छोड़कर सब सो गये, थोड़ी देर बाद बहू भी सो गयी, सबके पहले उठ भी गयी, सूरज निकल आया, सबको बहू की क्षमता पर विश्वास हो आया। धीरे धीरे रात में अँधेरा फेंकने का उपक्रम बन्द हो गया, रात का समय सोने के लिये उपयोग में आने लगा, दिन में कार्य होने लगा। एक रात बहू ने दिये की बाती बनायी, एक छोटे से दिये में तेल डाला और रात में उसे जला कर घर में सजा दिया, अँधेरा रात में ही भाग गया, घर के बाहर रहा पर घर के अन्दर पुनः नहीं आया।
कहानी बड़ी सरल है, सुनने के बाद हँसी में भी उड़ाया जा सकता है इसे। अपने आप सुबह आने वाली और दिये से अंधकार दूर होने वाली बात इतनी सहज है कि उसे कोई न समझे तो हँसी आने वाली बात लगती है। पर यह केवल एक उदाहरण है, अँधेरे को बाहर फेकने वाली मानसिकता दिखाने का और साथ में यह भी दिखाने का कि किस तरह सूरज की अनुपस्थिति में अंधकार भगाया जा सकता है।
संभवतः देवेन्द्रजी के पिताजी ने यह कहानी श्रम में स्वयं को झोंक देने के पहले पर्याप्त समझ विकसित करने की शिक्षा देने के लिये सुनायी है। सच भी है कि बिना पर्याप्त ज्ञान के और विषयगत समझ के किसी कार्य में स्वयं को झोंक देना तो मूर्खता ही है। यह भी एक स्वीकृत तथ्य है कि कभी कभी अपनी कार्यप्रणाली पर विचार करते करते कई ऐसे माध्यम निकल आते हैं जिससे सब कुछ सरल और सहज हो जाता है। मानवजगत का इतिहास देखें तो पहले मैराथन धावकों से अपने संदेश भेजने वाली मानव सभ्यता आज वीडियो चैटिंग कर लेती है।
मुझे इस कहानी का सर्वाधिक प्रभावित करने वाला पक्ष लगता है, स्वयं के अन्दर उन प्रवृत्तियों को ढूढ़ना जिन्हें हम अँधेरे फेकने की तरह पाते हैं। अपने द्वारा करने वाले हर प्रयास और श्रम को देखें, दो विश्लेषण करें। पहला तो यह देखें कि वह श्रम जिसके लक्ष्य के लिये किया जा रहा है, वह स्वयं तो होने वाला नहीं है, इस कहानी में आने वाली हर सुबह की तरह। बहुधा हम सब स्वतः हो जाने वाले कार्यों में कार्य करते हुये दिखते हैं और जब कार्य हो जाता है तब उसका श्रेय लेने बैठ जाते हैं। यही नहीं कभी कभी आवश्यकता से अधिक लोग कार्य में लगे होते हैं, जहाँ कम से ही कार्य हो जाता है, अधिक लोग या तो कार्य में व्यवधान उत्पन्न करते हैं या अकर्मण्यता का वातावरण बनाते हैं। दूसरा विश्लेषण इस बात का हो, क्या वही कार्य करने की कोई और विधि है जिससे वह कार्य कम श्रम सें हो जाये। न जाने कितने ऐसे कार्य हैं जो हम पुराने घिसे पिटे ढंग से करते रहते हैं, कभी सोचते ही नहीं हैं कि कोई दूसरी विधि अपनायी जा सकती है।
कुछ लोगों को कोई भी कार्य तामझाम से करने में अपार सुख मिलता है, मुझे एक भी अतिरिक्त अंश दंश सा लगता है, हर प्रक्रिया को सपाट और न्यूनतम स्तरों पर ले आने पर ही चैन आता है। प्रक्रिया का आकार न्यूनतम रखने से न केवल उसमें गति आती है वरन पारदर्शिता भी बढ़ती है। आईटी ने एक दिशा दिखायी है पूरे विश्व को सपाट बनाने में, मुझे भी वही दिशा भाती है। उदाहरण उपस्थित हैं यह सिद्ध करने में कि जहाँ पर भी हमने आईटी को अपनाया है, जीवन को और अधिक सुखमय बनाया है।
जीवन के कुछ क्षेत्र ऐसे होते हैं, जहाँ प्रक्रियायें स्वतः होती हैं, उन्हें होने देना चाहिये, वहाँ हमारे होने या न होने से कोई अन्तर नहीं पड़ने वाला। कर्ता होने का भाव पाने से अच्छा है कि रात भर सोयें और सुबह होने दें। सुबह उठें और तब सार्थक कार्यों में ध्यान लगायें। मुझे तो बहू के स्वभाव से भी सीख मिली, अपनी विद्वता का ढोल पीट कर और अपने परिवार के अज्ञान की बधिया उधेड़ कर अपनी बात कहने की अपेक्षा सहज भाव से अपना मन्तव्य साध लिया। विद्वानों और तर्कशास्त्रियों को यह समाजशास्त्र भी सीखना होगा। विद्वता यदि आनन्दमय न रही तो अँधेरा फेंकना का कार्य तो विद्वान भी कर बैठते हैं। आप भी सोचिये और अपने जीवन से अँधेरे फेंकने जैसे कार्यों को निकाल फेंकिये।
एक नवविवाहिता विवाह के पश्चात अपने गाँव पहुँची। दिन भर सब बहू देखने आये। घर के लोगों में आत्मीयता कूट कूट कर भरी थी, सबने बड़ा प्यार दिया। गाँव के लोग भी बहुत सज्जन थे, सबने बड़ा मान दिया, आशीर्वाद दिया और कहीं कोई भी कमी नहीं होने दी। सायं का समय आया तो सास ने बहू से कहा कि बेटी शीघ्र ही स्नान ध्यान कर भोजन बना ले, सब लोग सूर्यास्त के पहले ही भोजन कर के तैयार हो जाते हैं। बहू ने पहले सोचा कि कोई विशेष परम्परा होगी, जैन मतावलम्बियों की तरह, कि कहीं अँधेरे में कोई जीव भोजन के साथ ही ग्रास न बन जाये। जहाँ तक ज्ञात था तो ऐसी कोई कारण नहीं था। परिवार ही नहीं वरन पूरे गाँव में एक विशेष शीघ्रता दिखायी दी, लगा आज कोई उत्सव होगा रात में, इसीलिये भोजन शीघ्र ही निपटाने का उपक्रम हो रहा है। जब बहू से उत्सुकता न सही गयी तो उसने धीरे से अपने पति को बुलाया और पूछा कि मुझे इतने शीघ्र भोजन करने का औचित्य समझ नहीं आ रहा है।
पति ने पत्नी को तनिक आश्चर्य और करुणा के भाव से देखा, मानो आँखें यह पूछ रही हों कि इतनी सीधी बात से अनभिज्ञ है, उसकी प्यारी पत्नी। जब आँखों ने अधिकार जता लिया तब पति ने बताना प्रारम्भ किया। देखो, अभी थोड़ी देर में अँधेरा भर आयेगा और वह सूरज को ढक लेगा और ढकेगा भी इतना गाढ़ा कि सूरज निराश होकर चला जायेगा। हमारा गाँव इस समस्या से जूझने को सदा ही तत्पर रहता है। हम सब अपना सारा कार्य दिन में ही कर लेते हैं, यही नहीं पर्याप्त विश्राम भी कर लेते हैं। रात आते ही सब तैयार होकर अपने घर पहुँच जाते हैं। जिसकी जितनी सामर्थ्य है वह उसी के अनुसार कोई पात्र उठा लेता है, यहाँ तक कि बच्चे भी छोटी कटोरी लेकर तैयार हो जाते हैं। उसके बाद हम लोग रात भर अँधेरा बाहर निकालते रहते हैं। रात भर श्रम करने के बाद जब सारा अँधेरा बाहर निकल जाता है तब कहीं सूरज लौट कर वापस आता है और तब कहीं जाकर सुबह होती है।
इतना श्रमशील परिवार और गाँव देख कर नवविवाहिता अभिभूत हो गयी, उसकी आँखों में आँसू छलक आये। उसने कहा कि आप लोगों ने अब तक बड़ा श्रम कर लिया है, अब सारा उत्तरदायित्व मेरा है, अब मैं रात भर अँधेरा बाहर फेकूँगी। आप सब सबने बड़ा समझाया कि बिटिया कि तुम अभी बड़ी कोमल हो और यह अँधेरा बड़ा ही उद्दण्ड, रात भर तुम थक भी जाओगी, अँधेरा निकलेगा भी नहीं, सुबह नहीं हो पायेगी। सबने सोचा कि नवविवाहिता ने भावनात्मक होकर यह कार्य ले लिया है, पता नहीं क्या होगा, एक दिन का उत्साह है, अगले दिन से उत्साह ठण्डा पड़ जायेगा, जीवन का क्रम वैसे ही चलने लगेगा। जब बहू ने इतनी आत्मीयता दिखायी है तो उसे अवसर देना तो बनता है।
पहले दिन बहू के सहारे घर को छोड़कर सब सो गये, थोड़ी देर बाद बहू भी सो गयी, सबके पहले उठ भी गयी, सूरज निकल आया, सबको बहू की क्षमता पर विश्वास हो आया। धीरे धीरे रात में अँधेरा फेंकने का उपक्रम बन्द हो गया, रात का समय सोने के लिये उपयोग में आने लगा, दिन में कार्य होने लगा। एक रात बहू ने दिये की बाती बनायी, एक छोटे से दिये में तेल डाला और रात में उसे जला कर घर में सजा दिया, अँधेरा रात में ही भाग गया, घर के बाहर रहा पर घर के अन्दर पुनः नहीं आया।
कहानी बड़ी सरल है, सुनने के बाद हँसी में भी उड़ाया जा सकता है इसे। अपने आप सुबह आने वाली और दिये से अंधकार दूर होने वाली बात इतनी सहज है कि उसे कोई न समझे तो हँसी आने वाली बात लगती है। पर यह केवल एक उदाहरण है, अँधेरे को बाहर फेकने वाली मानसिकता दिखाने का और साथ में यह भी दिखाने का कि किस तरह सूरज की अनुपस्थिति में अंधकार भगाया जा सकता है।
संभवतः देवेन्द्रजी के पिताजी ने यह कहानी श्रम में स्वयं को झोंक देने के पहले पर्याप्त समझ विकसित करने की शिक्षा देने के लिये सुनायी है। सच भी है कि बिना पर्याप्त ज्ञान के और विषयगत समझ के किसी कार्य में स्वयं को झोंक देना तो मूर्खता ही है। यह भी एक स्वीकृत तथ्य है कि कभी कभी अपनी कार्यप्रणाली पर विचार करते करते कई ऐसे माध्यम निकल आते हैं जिससे सब कुछ सरल और सहज हो जाता है। मानवजगत का इतिहास देखें तो पहले मैराथन धावकों से अपने संदेश भेजने वाली मानव सभ्यता आज वीडियो चैटिंग कर लेती है।
मुझे इस कहानी का सर्वाधिक प्रभावित करने वाला पक्ष लगता है, स्वयं के अन्दर उन प्रवृत्तियों को ढूढ़ना जिन्हें हम अँधेरे फेकने की तरह पाते हैं। अपने द्वारा करने वाले हर प्रयास और श्रम को देखें, दो विश्लेषण करें। पहला तो यह देखें कि वह श्रम जिसके लक्ष्य के लिये किया जा रहा है, वह स्वयं तो होने वाला नहीं है, इस कहानी में आने वाली हर सुबह की तरह। बहुधा हम सब स्वतः हो जाने वाले कार्यों में कार्य करते हुये दिखते हैं और जब कार्य हो जाता है तब उसका श्रेय लेने बैठ जाते हैं। यही नहीं कभी कभी आवश्यकता से अधिक लोग कार्य में लगे होते हैं, जहाँ कम से ही कार्य हो जाता है, अधिक लोग या तो कार्य में व्यवधान उत्पन्न करते हैं या अकर्मण्यता का वातावरण बनाते हैं। दूसरा विश्लेषण इस बात का हो, क्या वही कार्य करने की कोई और विधि है जिससे वह कार्य कम श्रम सें हो जाये। न जाने कितने ऐसे कार्य हैं जो हम पुराने घिसे पिटे ढंग से करते रहते हैं, कभी सोचते ही नहीं हैं कि कोई दूसरी विधि अपनायी जा सकती है।
कुछ लोगों को कोई भी कार्य तामझाम से करने में अपार सुख मिलता है, मुझे एक भी अतिरिक्त अंश दंश सा लगता है, हर प्रक्रिया को सपाट और न्यूनतम स्तरों पर ले आने पर ही चैन आता है। प्रक्रिया का आकार न्यूनतम रखने से न केवल उसमें गति आती है वरन पारदर्शिता भी बढ़ती है। आईटी ने एक दिशा दिखायी है पूरे विश्व को सपाट बनाने में, मुझे भी वही दिशा भाती है। उदाहरण उपस्थित हैं यह सिद्ध करने में कि जहाँ पर भी हमने आईटी को अपनाया है, जीवन को और अधिक सुखमय बनाया है।
जीवन के कुछ क्षेत्र ऐसे होते हैं, जहाँ प्रक्रियायें स्वतः होती हैं, उन्हें होने देना चाहिये, वहाँ हमारे होने या न होने से कोई अन्तर नहीं पड़ने वाला। कर्ता होने का भाव पाने से अच्छा है कि रात भर सोयें और सुबह होने दें। सुबह उठें और तब सार्थक कार्यों में ध्यान लगायें। मुझे तो बहू के स्वभाव से भी सीख मिली, अपनी विद्वता का ढोल पीट कर और अपने परिवार के अज्ञान की बधिया उधेड़ कर अपनी बात कहने की अपेक्षा सहज भाव से अपना मन्तव्य साध लिया। विद्वानों और तर्कशास्त्रियों को यह समाजशास्त्र भी सीखना होगा। विद्वता यदि आनन्दमय न रही तो अँधेरा फेंकना का कार्य तो विद्वान भी कर बैठते हैं। आप भी सोचिये और अपने जीवन से अँधेरे फेंकने जैसे कार्यों को निकाल फेंकिये।
पं मंगलेश्वर त्रिपाठी
से.1वाशी नवी मुम्बई
8828347830
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