Wednesday, October 28, 2015

'जानै ऊख मिठास को जब मुख नोन चलाय'
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मान लीजिए सब सुख ही सुख होता दु:ख का कोई नाम तक न जानता होता तो इस संसार की क्‍या दशा होती। मैं समझता हूँ तब यह दृश्‍य जगत् संसार इस नाम से कभी न कहा जाता क्‍यों संसार तो वही कहा जा सकता है जो सदा एकरूप न रहे। 'संसार संपूर्वक सृ धातु से बना है जिसके माने चलने के हैं' जब सुख के कारण सब एक आकार जड़वत् हो गये तो फिर इसमें रही क्‍या गया बल्कि तब तो यह संसार उससे अधिक फीका होगा जितना दुखी को दु:ख की दशा में बोध होता है। दूसरे दु:ख ही, मनुष्‍य को उभाड़ने वाला है और अपने में उभड़ने की इच्‍छा ही से मनुष्‍य दु:ख उठाकर भी उससे परे होने अभिलाषा रखता है। दु:ख को बरकाना या उसे कम करने ही का नाम भाँत-भाँत की तरक्‍की और उन्‍नति है। बड़े बड़े सभ्‍य देश और जाति जो आज दिन उन्‍नति के शिखर पर हो रही हैं पहले अत्‍यन्‍त क्‍लेश और दु:ख झेल कर उन्‍नति की इस चरम सीमा को पहुँची हैं। बिना क्‍लेश उठाये सुख और ख्‍याति तो कभी मिलती ही नहीं इसलिये सुख का हेतु भी हम दुख ही मानेंगे। यदि सिंह आदि शिकारी जानवरों को अधिक भूख न होती और साधारण पशुओं के समान केवल घास-पात से पेट भर वे भी संतुष्‍ट रहते तो क्‍या वे इतने मजबूत होते और यदि हिरन खरगोश आदि जीवों को सिंह आदि शिकारी जानवरों से भय न रहता तो वे क्‍या इतना तेज और बेगगामी होते। यदि भूख का दु:ख न होता तो अमृत समान भाँत-भाँत के सुस्‍वादु भोजन का सुख हम क्‍या जानते। दु:ख न होता तो पाथर से भी अधिक कड़े कलेजे वाले को कौन पिघला कर पानी कर सकता। दु:ख न होता तो सुख में फूल सब लोग मारे अभिमान के किसी को कुछ मोल ही न गिनते। दु:ख न होता तो हिम्‍मत और धीरज का कहीं नाम भी न रहता। दया का प्रस्‍ताव कहीं न देखा जाता। सुधार और उन्‍नति किस आसमान का पखेरू है कोई भी न जानता। सोने की स्‍वच्‍छता तभी मालूम होती है जब आँच में धर कर तपाया जाता है इसलिये दु:ख सब प्रकार सुख का कारण है जैसे भूख की निवृत्ति पेट भरने पर होती है और पेट खाली हो जाने पर फिर भूख सताती है इसी तरह दु:ख के उपरांत सुख, सुख के उपरांत दुख इस क्रम से इन दोनों का एक चक्र चल रहा है जिससे निश्‍चय होता है सुख दु:ख में एक प्रकार का अन्‍योन्‍याश्रय संबंध है।

अब सबसे बड़ा दु:ख मरना है यदि मौत न होती तो क्‍या जीव समूह इतनी बढ़ती पर भी ऐसे ही सुखी रहते जैसे अब हैं फिर यदि मौत न होती और नई सृष्टि न पैदा होती तो क्‍या दुनिया की ऐसी ही तरक्‍की बराबर होती रहती जैसी अब हो रही है। निस्‍संदेह जो लोग कुछ चतुर और सयाने होते वे ही कुछ करते बाकी सब लोग घोंघा बने रहते और तरक्‍की करने वालों की तायदाद इतनी अधिक न होती। फिर यदि पैमाइश होती और मौत न होती क्‍या दशा मनुष्‍यों की होती आप ही सोच लें पानी भी पीने को न मिलता साफ हवा का तो कहीं पता भी न रहता न रहने को स्‍थान रह जाता। इसी से समझ लेना चाहिए कि दु:ख भी कहाँ तक सुख का साधन है और संसार की कितनी तरक्‍की इससे है। इन्‍हीं सब बातों को पूर्वापर सोच विचार गीता में स्थिरधी होने का मुख्‍य लक्षण -

'दु:खेष्‍वनुद्विग्‍नमना सुखेषु विगतस्‍पृह:'

रखा गया है।

और भी दु:ख से वैराग्‍य, वैराग्‍य से ज्ञान, ज्ञान से मोक्ष इस तरह परम्‍परा संबंध के द्वारा अंत को मोक्ष तक का कारण दु:ख होता है बल्कि इसे मोक्ष की पहली सीढ़ी कहना उचित है। जैसे अपराधी अपने किये हुए अपराध का दंड भोग इस अपराध से छुटकारा पाता है वैसे पापी अपने आप कर्म का फल दु:ख और यातनायें भोग सुख स्‍वरूप मुक्ति का अधिकारी हो सकता है। तो सिद्ध हुआ कि दु:ख एक प्रकार का ऐसा विमल जल है जिसमें स्‍नान कर मनुष्‍य सुगमता से शांति के मंदिर में प्रवेश पा सकता है जहाँ जाकर इसे उत्‍कृष्‍ट सुख का दर्शन अति सुलभ है।

'अशान्‍तस्‍य कुत: सुखम्'

तो ईश्‍वर का स्‍मरण और चित्त में शान्ति पैदा करने का दु:ख से बढ़ कर कौन दूसरा द्वार हो सकता है।

'विपद: सन्‍तु न: शश्‍वत् यासु संकीर्त्‍यते हरि:।'

दूसरे दु:ख न होता तो मित्र और बेगानो की परीक्षा की फिर क्‍या कसौटी (Standard) रही जाती उपकार प्रत्‍युपकार आदि शब्‍दों के अर्थ की चरितार्थता ही संसार से लोप हो जाती न धीरज ही को कहीं प्रगत होने का अवकाश मिलता जो महात्‍मा महापुरुषों के अनेक उत्तम गुणों में पहला है।

'विपदि धैर्यमथाभ्‍युदये क्षमा।'

इत्‍यादि। दु:ख की अब और अधिक तान आलापेंगे तो डर लगती है कि कहीं पढ़ने वाले रूठ न जायें कि आज किस मनहूस से काम पड़ा इससे बहुत बस।

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