Wednesday, October 28, 2015

एक बार माता पार्वती ने  शिव से कहा की प्रभु मैंने मृत्यु लोक (धरती) पर देखा है कि जो व्यक्ति पहले से ही अपने प्रारब्ध से दुःखी है आप उसे और ज्यादा दुःख प्रदान करते हैं और जो सुख में में है उसे दुःख नहीं देते है।भगवान ने इस बात को समझाने के लिए माता पार्वती को धरती पर चलने के लिए कहा और दोनों ने मनुष्य रूप में पति-पत्नी का रूप रखा और और एक गावं के पास डेरा जमाया.!शाम के समय भगवान ने माता पार्वती से कहा की हम मनुष्य रूप में यहाँ आये है इसलिए यहाँ के नियमों का पालन करते हुए हमें यहाँ भोजन करना होगा । अतः मैं भोजन की सामग्री की व्यवस्था करता हूँ तब तक तुम रसोई बनाओ।🌹भगवान के जाते ही माता पार्वती रसोई में चूल्हे को बनाने के लिए बाहर से ईंटें लेने गईं  और .. गावं में कुछ जर्जर हो चुके मकानों से ईंटें लाकर चूल्हा तैयार कर दिया।चूल्हा तैयार होते ही भगवान वहां पर बिना कुछ लाये ही प्रकट हो गए.!माता पार्वती ने उनसे कहा आप तो कुछ लेकर नहीं आये, भोजन कैसे बनेगा ?भगवान बोले -- पार्वती अब तुम्हें इसकी आवश्यकता नहीं पड़ेगी ।भगवान ने माता पार्वती से पूछा की तुम चूल्हा बनाने के लिए इन ईटों को कहा से लेकर आई ?तो माता पार्वती ने कहा-- प्रभु इस गावं में बहुत से ऐसे घर भी हैं जिनका रख रखाव सही ढंग से नहीं हो रहा है।उनकी जर्जर हो चुकी दीवारों से मैं ईंटें निकाल कर ले आई।भगवान ने फिर कहा -- जो घर पहले से ख़राब थे तुमने उन्हें और खराब कर दिया तुम ईंटें उन सही घरों की दीवाल से भी तो ला सकती थीं।माता पार्वती बोली -- प्रभु उन घरों में रहने वाले लोगों ने उनका रख रखाव बहुत सही तरीके से किया है और वो घर सुन्दर भी लग रहे हैं । ऐसे में उनकी सुन्दरता को बिगाड़ना उचित नहीं होता।भगवान बोले -- पार्वती यही तुम्हारे द्वारा पूछे गए प्रश्न का उत्तर है .. जिन लोगो ने अपने घर का रख रखाव अच्छी तरह से किया है यानि सही कर्मों से अपने जीवन को सुन्दर बना रखा है उन लोगों को दुःख कैसे हो सकता है।😃मनुष्य के जीवन में जो भी सुखी है वो अपने कर्मों के द्वारा सुखी है, और जो दुखी है वो अपने कर्मों के द्वारा दुखी है..इसलिए मनुष्य को ऐसे कर्म करने चाहिए की इतनी मजबूत व खूबसूरत इमारत खड़ी हो कि कभी भी कोई उसकी ईंट  निकालने न पाए। यह मुश्किल नहीं है ।केवल सकरात्मक सोच एवम् निः स्वार्थ भावना की ही आवश्यकता है...
[29/10 12:42 AM] Pandit Mangleshwar Tripadhi: भगवान के स्वधाम गमन का समाचार सुनकर युधिष्ठिर ने स्वर्गारोहण का निश्चय किया । परीक्षित को राजसिँहासन सौँपकर पाण्डवो ने द्रौपदी के साथ लेकर स्वर्गारोहण हेतु हिमालय की दिशा मेँ प्रयाण किया । केदारनाथ मेँ भगवान शिव की पूजा की । जीव और शिव का मिलन हुआ । उसके आगे निर्वाण पंथ है । पाण्डवोँ ने वही मार्ग अपनाया । चलते चलते सबसे पहले द्रौपदी का पतन हुआ क्योँकि पतिव्रता होने पर भी अर्जुन के प्रति अधिक प्रेम होने से पक्षपात का भाव रखती थी । सबके साथ समान व्यवहार रखना चाहिए किसी के प्रति पक्षपात नही रखना चाहिए । दूसरा पतन सहदेव का हुआ क्योकि उन्हेँ अपने ज्ञान का अभिमान था , ज्ञानाभिमान नही रखना चाहिए । तीसरा पतन नकुल का हुआ क्योकि उन्हेँ अपने रुप का अभिमान था , अपनी सुन्दरता का अभिमान नही करना चाहिए । चौथा पतन अर्जुन का हुआ उन्हेँ अपने बल पराक्रम का अभिमान था , बल पराक्रम नश्वर है अतः इसका अभिमान नहीँ करना चाहिए । पाँचवा पतन भीम का हुआ , भीम ने युधिष्ठिर से पूछा कि मैँने तो कोई पाप नहीँ किया फिर मेरा पतन क्यो ? धर्मराज ने बताया अधिक खाने तेरा पतन हुआ । खाते समय आँखे खुली रखनी चाहिए किन्तु सन्तोँ और देवो को भोजन कराते समय आँखे बन्द रखनी चाहिए ।
धर्मराज अकेले आगे बढ़ने लगे परीक्षा के लिए यमराज कुत्ते का रुप बनाकर उनके पास आये और दूसरा रुप लेकर युधिष्ठिर से कहा कि मैँ तुम्हे स्वर्ग ले जाऊँगा किन्तु तुम्हारे पीछे आने वाले इस कुत्ते को स्वर्ग मेँ प्रवेश न मिलेगा , तब युधिष्ठिर ने कहा कि जो मेरे साथ आ रहा है उसे मैँ अकेला कैसे छोड़ दूँ । उसे छोड़कर मैँ स्वर्ग नही जा सकता । क्योकि सात कदम साथ चलने वाला मित्र बन जाता है । यमराज प्रसन्न हुए और युधिष्ठिर सशरीर स्वर्ग गये ।
" आम्हीँ जातो आमुच्या गाँवा, आमचा राम राम ध्यावा ।। कहते हुए तुकाराम भी स्वर्ग गये । मीराबाई सदेह द्वारकाधीश मेँ विलीन हो गयीँ।
आत्मा और परमात्मा का मिलन कोई आश्चर्य की बात नहीँ है । किन्तु कृष्ण प्रेम से जड़ शरीर भी चेतन बनता है और चेतन मेँ विलीन हो जाता है । दिव्य पुरुष सशरीर परमात्मा मे जा मिलते हैँ ।
प्रयाण और मरण मेँ भेद है । अन्तिम श्वास तक सत्कर्म करता रहे उसका प्रयाण कहा जाएगा और मलिन अवस्था मे हाय हाय करता हुआ देह छोड़े उसका मरण कहा जाएगा ।
पाण्डव प्रभू के धाम गये । क्योकि उन्होँने अपने जीवन काल मे कभी धर्म नहीँ छोड़ा ।
धन की अपेक्षा धर्म श्रेष्ठ है । धन इस लोक मे सुख देता है और कभी कभी दुःख भी देता है , किन्तु धर्म जीवन और परलोक दोँनो को उजागर करता है । धर्म मृत्यु के बाद भी साथ जाता है किन्तु धन नही ।

मृत्यु क्या है? यह कोेई विषेेष घटना नहीं है; यह एक निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया है। षरीर में उत्पाद-व्यय निरन्तर चलता रहता है। सत्यतः नये कोषों का बनना जन्म है; तो पुराने कोषों का मिटना मृत्यु है। श्वास का आना जन्म है, तो ष्ष्वास का जाना मृत्यु हैं।
जीना सातत्य है, जो स्मृति के माध्यम से होता हैं। जीवन सेे हमारा अभिप्रेत निरन्तरता से है, जिसमें तादात्म्य होता है। इसके विपरीत मृत्यु है; उसका अर्थ है। इस सारी प्रक्रिया का अन्त अर्थात् जीवन और मृत्यु के बीच कोई विभाजन-रेखा नहीं है। मृत्यु की समस्या जीवन की ही समस्या का विस्तार हैै।
शारीरिक मृत्यु प्राकृतिक है, अनिवार्य है। प्रत्येक जन्म लेने वाला मरता हैं। परेशानी कायिक मृत्यु की कम, मृत्यु के भय की अधिक है। मानव दिन-रात मनोवैज्ञानिक रूप से मृत्यु के भय से प्रभावित एवं परिचालित होता है। जीवन में सबसे बड़ा भय मृत्यु का होता है; अतः समस्या मृत्यु के भय से मुक्त होने की है। मौत का साया जो प्रतिक्षण जीवन में विष घोलता है, वही समस्या है; अतः मुख्य प्रश्न मृत्यु-के-भय के मुक़ाबले का है।
मानसिक भय का निदान करनेे से पूर्व हमें समझना होगा कि डर का जन्म कहाँ से होता हैं। एवं डर को बढाने में कौन-से कारण सहायक है; इसका विश्लेषण करना पड़ेगा। मननशील व्यक्ति ने बाह्म जगत् में होने वाले परिवर्तनों, आपदाओं, बीमारियों एवं अकाल मौतों को देख कर अनुमान लगाया, कि उसे भी एक दिन मरना पड़ेगा। यहीं से व्यक्ति फन्दे में आ गया।
विचार-द्वारा उत्पन्न भय का सामना भी व्यक्ति विचार द्वारा ही करता है। प्रथमतः मैं ही समस्या को प्रकट करता हैं, फिर वही समाधान के उपाय करता है। शरीर की सुरक्षार्थ रोटी, कपड़ा, मकान पर ध्यान देता है। साथ ही अकेला स्वयं को अधिक असुरक्षित अनुभव करता है, तो समूह में रहना पसन्द करता जाता है।
मानव-सभ्यता के चरण ज्यों-ज्यों आगे बढ़ते गये, त्यों-त्यों भौतिक उन्नति होती गयी; लेकिन मनोवैज्ञानिक रूप् से ‘भय’ की समस्या बनी रही। इस विकास-यात्रा के क्रम में परिवार, धर्म, गाँव, समाज, जातिवाद, शहर, क्षेत्रीयतावाद एवं राष्ट्रवाद बने।
विज्ञान ने उपभोक्तावाद को जन्म दिया। अनेक उत्थान-पतन होते रहे; लेकिन ‘मृत्यु-का-भय’ मनुष्य को नचाता रहा। अनेक महापुरुष हुए, अनेक धर्म बने, नाना धारणाएँ बनीं। महावीर और बुद्ध जैसे मनीषियों ने मृत्यु-भय को जीता; लेकिन उनकी व्यक्तिगत जीत से समाज में पन्थ बने, पाखण्ड पनपे एवं भय का प्रश्न सुलगता रहा; अर्थात् ज्यों-ज्यों दवा की मर्ज बढ़ता गया।
विकास के उपक्रम में व्यक्ति समाज का साध्य न रह कर साधन बन जाता है। वह अपनी निजता एवं स्वतन्त्रता खो देता है। व्यक्तिगत मन समाप्त हो जाता है। वह अपनी निजता एवं स्वतन्त्रता खो देता है। व्यक्तिगत मन समाप्त हो जाता है। मनुष्य अर्द्धचेतन एवं अचेतन में सुप्त कुण्ठाओं से संचालित होने लगता है। नकारात्मक चक्र में फँस जाता है। वह अपनी ही निर्मित मान्यताओं केे जाल में उलझ जाता है। ऐसे में हम अपने बन्दीगृह को पहचान नहीं पाते है। मात्र कारागार बदलने को सुधार मानते जाते हैं।
मानव-मन कम्प्यूटर के सदृष्य ही होता है; जैसा इसे ‘फीड’ किया जाता हैं, वैसा ही परिणाम देता है। मानव-मस्तिष्क को समाज नियोजित कर प्रतिबन्धित कर देता है। नियोजित मन निश्चित उत्तर देता है। इस प्रकार मानव एक कुचक्र का दास हो जाता है। जीवन में मान्यताएँ प्रधान हो जाती है एवं सृजनशीलता समाप्त हो जाती है। मनुष्य शनैः-शनैः मूच्र्छित होता जाता है। एक सृजनशीलता मानव के सजग मन को मशीन बना दिया जाता हैं। धर्म,परम्परा, सभ्यता, एवं संस्कृति की मान्यताओं का लेप मस्तिष्क पर चढ़ता जाता है। इस प्रकार व्यक्ति प्रतिबद्ध हो जाता है। मानव अपनी सहजता खो कर जड़ यन्त्र बनता जाता है। परिस्थितियों के अनुसार मन रेडीमेड जवाब देता रहता है। इसका उपयोग असामाजिक तत्व अपने पक्ष में करते जाते हैं। शोषण की वही कहानी है। इस तरह एक संवेदनशील मन को मूढ़ और निष्क्रिय बना दिया जाता है। इस तरह समूचे विकास का अर्थ मानसिक शान्ति के विरूद्व होता जाता है।
इसके अतिरिक्त मृत्यु के भय का सामना करने के उपक्रम में धर्म-गुरूओं ने आत्मा-की-धारणा, पुनर्जन्म-का-सिद्वान्त एवं मोक्ष-की-खोज की है। यह सब मन के प्रक्षेपण (उत्पाद) है। तभी तो जिज्ञासु होकर भी व्यक्ति मू्र्छा में डूबता है। कैसी विडम्बना है कि आत्मा की शाश्वतता की घोषणा करने वाला मृत्यु से डरता है। सिद्वान्त रूप में स्वयं को अजर अमर घोषित करने वाला साॅप देख कर भाग खडा होता है अर्थात सूचनात्मक ज्ञान के होने से व्यक्ति रूपान्तरित नही होता है। व्यक्ति का चूंकि अनुभव मृत्यु को देखने का होता है। हमें प्रतिपल परिवर्तन का अनुभवात्मक ज्ञान होता है। अतः उसे सूचनात्मक ज्ञान पर भरोसा नही होता है। इस प्रकार हमारे मन में दोनों प्रकार के ज्ञानों की रस्साकशी चलती है और व्यक्ति पिसता जाता है। जीवन में उक्त प्रकार के द्वन्द्व ही दुःख है।
हम जीवन और मृत्यु के बीच किसी व्याख्या से, किसी पारलौकिक सातत्य में विश्वास से इन दोनों के बीच की खाई को पाटना चाहते हैं, जो पलायन है। हम ज्ञात की परिणति हैं और अज्ञात (मृत्यु) को जानना चाहते हैं। यही संघर्ष है। रूपी शरीर पर होने वाली संवेदनाओं से अनभिज्ञ अरूपी चेतना को उसकेे बहुविध आयाम में कैसे जानें ?
जो चीज अवश्सम्भावी है उसका भय क्यों है ? हम होनी को क्यों नहीं स्वीकारते ? मृत्यु का जो दरिया हम प्रतिपल पार कर रहे हैं, उसका अवलोकन क्यों नहीं जोते ?समस्या का सामना विचारों द्वारा (पलायन) क्यों करते हैं ? क्या बर्फ पिघलने से डरती है ? क्या पेड़ सूखने से डरता है या उसका विरोध करता है ? क्या बहती नदी अपना मार्ग बनाने में दिमाग लगाती है ? क्या वह अपने तटों का निर्माण करती है? नहीं; तो फिर मनुष्य वैसा क्यों करता है ? वस्तुतः तकों से भय-मुक्ति संभव नहीं है।
मृत्यु का सामना मन्त्रोच्चारण, पूजा-अर्चना, सिद्धान्तों, पद्धतियों, अनुकरणों द्वारा नहीं किया जा सकता। मौत जीवन-रूपी सिक्के का दूसरा पक्ष है। यह जीवन से परे नहीं है। जीवन की पहेली जो बूझ लेते हैं। उनके लिए मृत्यु रहस्य नहीं रहती। जब तक जीवन समस्या हैं, तब तक मृत्यु की समस्या विद्यमान हैं। मौत जीवन की समस्या का ही विस्तार है। जीवन जन्म और मृत्यु के बीच का जोड़ है। मृत्यु कोई समस्या नहीं हैं। यह एक स्वाभाविक परिणति है। बनना व बिगडना पदार्थ की पहचान हैं। बनने वाला पदार्थ विघटित होता है। हम इस प्रक्रिया के प्रति सोये हुए हैं। मृत्यु हमसे बाहर नहीं है। यह कोई कल्पना नहीं हैं, निरन्तर प्रक्रिया है। सह जीवन का यथार्थ है। हम विचारों में, कषायों में, एंव सपनों में डूबे रहने के कारण यथार्थ से अवगत नहीं होते हैं और ठोस शरीर को ही यथार्थ मान लेते हैं। इस पर होने वाले जैव-वैद्युत एवं भीतर होने वाली जैव-रासायनिक क्रियाओं के दर्शन नहीं कर पाते हैं। यही मू्र्छा है।
हम अनेक बन्धनों में जकड़े हुए हैं। इच्छाओं, वासनाओं, कामनाओं के जाल में फैसे हुए हैं अर्थात् हम ‘स्व’ को नहीं जानते; अतः सहज नहीं रहते। सदैव कुछ बनने की प्रक्रिया के शिकार हो जाते हैं। अतीत और भविष्य की बेड़ियों में बन्द रहते हैं। जीवन के लक्ष्य की सिद्धि में खो जाते हैं। सिद्धि के प्रयोजन में विचारों को दबाते, उठाते, एवं रूपान्तरित करते रहते हैं। इस उत्पात में हम स्वयं को भूल जाते हैं एवं प्रमादवश बहते रहते हैं। पदार्थ, समय एवं आकाश जो कि निरपेक्ष हैं, उनका तादात्म्यीकरण कर हम उसमें लोट लगाते रहते हैं। इनका व्यक्तिकरण एवं नामकरण कर हम उसमें फँस जाते हैं। इस प्रकार ज्ञान गुण अपने को छोड़ अन्य क्षेत्रों में विचरण करने लगता है; फलस्वरूप हम स्वयं को जान नहीं पाते हैं। ज्ञान गुण को पर में विचरते देख हमारा अहम् उससे निजता स्थापित कर लेता है। यद्यपि यह काल्पनिक होती है; तथापि यह प्रतिबद्धता छूटे तभी अवलोकन की क्षमता प्रकट हो सकती है, अतः समस्या बनी रहती है।
मृत्यु का भय अपने आप में कोई उलझन नहीं हैं। मृत्यु जीवन का ही दूसरा तट है। जो प्रथम तट को समझता है, उसकेे लिए मृत्यु का भय स्वतःइ समाप्त हो जाता है। प्रतिबद्धता पुर्ण जीवन, इच्छाओं एवं आकुलता भरा जीवन असली समस्या हैं। सजगता द्वारा जो अपने तन-मन-धन में उठती प्रत्येक तरंग, कम्पन एवं विचार को तटस्थता में जान लेता है, वह वर्तमान में जीता हुआ अपनी समस्त उलझनों को मिटा देता है। अतीत और भविष्य, काल और क्षेत्र से ऊपर उठ जाता है; यानी सहज ज्ञाता-दृष्टा बन जाता है।
इस प्रकार के अवलोकन से मन में उठते विकल्प स्वतः षान्त हो जाते हैं। समस्याएँ विसर्जित हो जाती है। तनाव लुप्त हो जाते हैं। भय स्वतः मिट जाते हैं। चूँकि सीमित मन असीम का अनुभव कर लेता है। तब ज्ञात मन स्वतः ही ‘अज्ञात’ को जानने लगता है। व्यक्ति असमय एवं अनन्त हो जाता है। ऐसे में मौत का सामना करने की समस्या लुप्त हो जाती है। पाने की इच्छा के विसर्जन के साथ ही खोने का प्रश्न मिट जाता है, अर्थात् प्रमाद जीवन की समस्या है। और सजगता उसका समाधान।

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