Thursday, October 22, 2015

अनचाही मुस्कान
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मैं अधरों पे अनचाही मुस्कान लिए फिरता हूँ ,
भीगी आँखों में सपने ,सम्मान लिए फिरता हूँ ॥

हो विकल विरह का ज्वार ,हृदय में उठता है ,
वो निगल गिरह का भार ,प्रलय में ढलता है,
मध्धम -मध्धम सांसों का ,अभिमान लीए फिरता हूँ ।

मैं अधरों पे अनचाही मुस्कान लिए फिरता हूँ ,
भीगी आँखों में सपने ,सम्मान लिए फिरता हूँ ॥

एक रिक्त को भरूं,दूसरा रिक्त हुए जाता हैं,
एक वक्त से डरूं ,दूसरा वक्क्त बुरा आता है ,
आहों के आलाप ,लवों पर गान लिए फिरता हूँ ।
मैं अधरों पे अनचाही मुस्कान लिए फिरता हूँ ,
भीगी आँखों में सपने ,सम्मान लिए फिरता हूँ ॥

कुछ विकल्प-संकल्प,और कुछ बुनियादें हैं ,
विरहा की चादर में लिपटे-सिमटे वादे हैं ,
धारण करने को कितने परिधान लिए फिरता हूँ ।

मैं अधरों पे अनचाही मुस्कान लिए फिरता हूँ ,
भीगी आँखों में सपने ,सम्मान लिए फिरता हूँ ॥

मन है वियोग में योग ढूँढने निकला है ,
ह्रदय मोम सा पिघल-पिघल ,बह निकला है ,
भरके आँखों में सपनो का ,विज्ञानं लिए फिरता हूँ ।

मैं अधरों पे अनचाही मुस्कान लिए फिरता हूँ ,
भीगी आँखों में सपने ,सम्मान लिए फिरता हूँ ॥

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