Wednesday, October 28, 2015

शरदोत्सव रास लीला:
रास यानी की रस का समूह.आनंद जब बाहर छलक जाता है तब उसे रस कहते है.भगवान श्रीकृष्ण सदा आनंद स्वरुप है एवं हम सभी जीवात्माओ की आत्मा है इसीलिए उन्हें परमात्मा कहते है.जब श्रीकृष्ण अपने भक्तो के साथ लीला करते है  तब वह आनंद बाहर छलक कर रस बन जाता है, इस भक्तो के संग भगवान की लीला में भक्तो को आनंदात्मक प्रभु का स्वरूपानंद एवं भजनानंद प्राप्त होता है.आनंद/हर्ष के कारण किसी भी प्रयोजन से रहित होकर की जाती चेष्टा को ही लीला कहते है.हमारा वास्तविक स्वरुप या आत्मा तो भगवन श्रीकृष्ण ही है.जीव तो आनंद की खोज में न जाने कहा कहा भटक रहा है,किन्तु जीव को सच्चा आनंद तो भगवन के  भजन से ही मिलेगा.भगवान से प्राप्त प्रेम रूपी निधि को प्रभु से अतिरिक्त अन्य विषयो में लगाकर जीवन नष्ट नहीं करना है किन्तु उस प्रेम को भगवान में लगाना है,इसीको भक्ति कहते है.श्रीकृष्ण परमात्मा होने के कारण हर जीवात्मा के अन्दर बिराज कर रमण कर ही रहे है.इस जगत के रूप में भी  श्री कृष्ण का आत्मरमण ही चल रहा है क्योकि समस्त जगत के सभी नाम-रूप-कर्म के रूप में श्री कृष्ण ही प्रकट होकर लीला कर रहे है ऐसा तत्वदर्शन  रूप ब्रह्मवाद शास्त्र हमें समजाते है,किन्तु इस जागतिक प्रभु की लीला में अपने स्वरुप का ही आनंद लेने के लिए अपने दूसरे इस जगत के रूप में प्रभु ने आनंद छिपा लिया है अर्थात प्रभु ने स्वयं को छिपा रखा है.
परन्तु  भगवान श्री कृष्ण ने जो रास लीला शरद पूर्णिमा के दिन अपने व्रज भक्तो के बीच प्रकट की, वहाँ तो जितनी गोपिकाए थी उतने ही रूप में आप अनेक रूप से (श्री कृष्ण )प्रकट हुए और उन्हें अपने स्वरूपानंद एवं भजनानंद का दान दिया.जागतिक लीला की तरह यहाँ स्वयं प्रभु ने अपने आप को छिपाया नहीं था क्योंकि व्रज भक्तो की  भक्ति से आप उनके आधीन हो चुके थे. इसी का नाम पुष्टिमार्ग है की जहा भगवान भी भक्त के आधीन हो जाते है.
इस रास लीला को कई लोग स्वयं की लौकिक आसक्ति के कारण लौकिक भाव की तरह समजते है वह बिचारे क्या जाने की यह तो परमात्मा और जीवात्मा के बीच चल रही दिव्यआत्म रमण ही है.पति,पुत्र,पत्नी आदि के अन्दर परमात्मा ही तो बिराज रहे है.इसीलिए जब प्रभु का वेणुनाद सुनकर गोपीजन प्रभु के समक्ष पधारे तब उन्होंने प्रभु से यही कहा की वे सभी लौकिक-पारलौकिक विषयो को छोड़कर प्रभु के पास आये है.फिर वहां लौकिकता रही कहा! स्वयं ज्ञानी और भक्त श्रीशुकदेवजी ने राजा परीक्षित् को यह कथा सुनाइ है और इसका फल यह बताया है की मन-बुद्धि-चित्त-अहंकार के सभी काम-क्रोध आदि रूप दोष नष्ट होजाते है.क्या यदि यहाँ लौकिकता होती तो ज्ञानी भक्त श्रीशुकदेवजी यह कथा सुनाते??? नहीं कभी नहीं. इस रास लीला में तो प्रभु ने कामदेवको भी लज्जित कर भगा दिया है क्योकि यहाँ लौकिक काम है ही नहीं.श्री महाप्रभुजी आज्ञा करते है की यहा पर बाहरी रूपमे क्रिया सभी श्रृंगार रसात्मकता वाली दिखती है किन्तु यहाँ लौकिक काम बिलकुल नहीं है.
जन्माष्टमी में तो एक ही श्रीकृष्ण प्रकट हुए किन्तु रासलीला में तोह अनेक श्रीकृष्ण प्रकट हुए है.श्री महाप्रभुजी का नाम है “रासलीलैक तात्पर्य” एक रास लीला में जिनका तात्पर्य है ऐसे श्री महाप्रभुजी है क्योकि आप साकारब्रह्मवाद द्वारा यही समझाना चाह रहे की एक ही ब्रह्म अपने आनन्द स्वभाव के कारण अनेक नाम-रूप-कर्म- में प्रकट हुए है.यही तादात्म्य कहलाता है.ठीक उसी तरह श्री महाप्रभुजी की कृपा के कारण आज हर वैष्णव के घर में श्रीकृष्ण रास लीला का दान देने के लिए प्रकट हुए है.आज जो वैष्णव अपने घर में बिराजमान श्री कृष्ण को छोड़कर अन्य के वहा बिराजते प्रभु के सेवा-दर्शन के लिए भाग रहे है वे तो वास्तव में बड़े दुर्भागी है और इस पुष्टि भक्ति के रस का रसाभास ही कर रहे है. संकलन : योगेश रघुनाथ गोस्वामी (मुंबई-गोकुल-सप्तम गृह) इस शरदोत्सव पर  सभी पुष्टिमार्गीयो  को अपने अपने घर में बिराजते प्रभु के  रासोत्सव का अलौकिक आनंद उठाने की बधाई एवं शुभ कामना.......🌺🌺🌺

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