सच में मन की गति तीव्र होती है
यस्मिन्नृच सामयजूंषि यस्मिन्प्रतिष्ठिता रथनाभाविचारा:।
यस्मिंश्चित्तं सर्वमोतं प्रजानां तन्मे मन: शिवसंकल्पमस्तु।।
सुषारथिरश्वानिव यन्मनुष्यान्नेनीयते sभीषुभि र्वाजिन।
इवहूत्प्रतिष्ठं यदजिरं जविष्ठं तन्मे मन:शिसंकल्पमस्तु।।''
रथ की पहिया में जैसे आरा सन्निविष्ट रहते हैं वैसे ही ऋग् यजु साम के शब्द समूह मन में सन्निविष्ट हैं। पट में तंतु समूह जैसे ओत-प्रोत रहते हैं। वैसे ही सब पदार्थों का ज्ञान मन में ओत-प्रोत है। अर्थात मन जब अकलुषित और स्वस्थ है तभी विविध ज्ञान उसमें उत्पन्न होते हैं, व्यग्र हो जाने पर नहीं। जैसे चतुर सारथी घोड़े को अपने अधीन रखता है और लगाम के द्वारा उनको अच्छे रास्ते पर ले चलता है वैसे ही मन हमें चलाता है। तात्पर्य यह है कि मन देह-रथ का सारथी है और इंद्रियाँ घोड़े हैं-चतुर सारथी हुआ तो घोड़े जब कुपंथ पर जाने लगते हैं तब लगाम कड़ी कर उन्हें रोक लेता है। जब देखता है रास्ता साफ है तो बागडोर ढीली कर देता है, वैसा ही मन करता है। जिन मन की स्थिति अंत:करण में है जो कभी बुढ़ापा नहीं जो अत्यंत वेग गामी है वह मेरा मन शांत व्यापार वाला हो तो ही यात्रा तय हो पायेगी |
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