Thursday, October 15, 2015

|| व्रत परिचय तथा नियम ||



     
व्रत परिचय तथा नियम
व्रत-परिचय
व्रतोंसे अनेक अंशोंमें प्राणिमात्रका और  विशेषकर मनुष्योंका बड़ा भारी उपकार होता है । तत्त्वदर्श महर्षियोंने इनमें विज्ञानके सैकड़ों अंश संयुक्त कर दिये है । यद्यपि रोग भी पाप है और ऐसे पाप व्रतोंसे दूर होते ही हैं, तथापि कायिक, वाचिक, मानसिक और संसर्गजनित पाप, उपपाप और महापापादि भी व्रतोंसे दूर होते है । उनके समूल नाशका प्रत्यक्ष प्रमाण यही है कि व्रतारम्भके पहले पापयुक्त प्राणियोंका मुख हतप्रभ रहता है और व्रतकी समाप्ति होते ही वह सूर्योदयके कमलकी तरह खिल जाता है । भारतमें व्रतोका सर्वव्यापी प्रचार है । सभी श्रेणीके नर-नारी सूर्य-सोम-भौमादिके एकभुक्तसाध्य व्रतसे लेकर एकाधिक कई दिनोंतकके अन्नपानादिवर्जित कष्टसाध्य व्रतोंको बड़ी श्रद्धासे करते हैं । इनके फल और महत्त्व भी प्रायः सर्वज्ञात हैं । फिर भी यह सूचित कर देना अत्युक्ति न होगा कि 'मनुष्योंके कल्याणके लिये व्रत स्वर्गके सोपान अथवा संसार-सागरसे तार देनेवाली प्रत्यक्ष नौका है । व्रतोंके प्रभावसे मनुष्योंकि आत्मा शुद्ध होती है । संकल्पशक्ति बढ़ती है । बुद्धि, विचार, चतुराई या ज्ञानतन्तु विकसित होते है । शरीरके अन्तस्तलमें परमात्माके प्रति भक्ति, श्रद्धा और तल्लीनताका संचार होता है । व्यापार-व्यवसाय, कला-कौशल, शास्त्रानुसंधान और व्यवहार-कुशलताका सफल सम्पादन उत्साहपूर्वक किया जाता है और सुखमय दीर्घ जीवनके आरोग्य साधनोंका स्वतः संचय हो जाता है
व्रतों के लिये उपयुक्त विधि-विधान
१.
मनुष्योंके हितके लिये तपोधन महर्षियोने अनेक साधन नियत किये है, उनमें एक साधन व्रत भी है ।
२.
'निरुक्त' में व्रतको कर्म सूचित किया है और 'श्रीदत्त'ने अभीष्ट कर्ममें प्रवृत्त होनेके संकल्पको व्रत बतलाया है । इनके सिवा अन्य आचार्योंने पुण्यप्राप्तिके लिये किसी पुण्य तिथिमें उपवास करने या किसी उपवासके कर्मानुष्ठानद्वारा पुण्य संचय करनेके संकल्पको व्रत सूचित किया है ।
३.
वेदोक्तेन प्रकारेण कृच्छ्रचान्द्रायणादिभिः ।
शरीरशोषणं यत् तत् तप इत्युच्यते बुधैः ॥
सरल भावार्थ - मनुष्य-जीवनको सफल करनेके कामोंमें व्रतकी बड़ी महिमा मानी गयी है । और उपवासके नियम-पालनसे शरिरको तपाना ही तप है।
४.
लोकप्रसिद्धिमें व्रत और उपवास दो हैं और ये कायिक, वाचिक, मानसिक, नित्य, नैमित्तिक, काम्य, एकभुक्त, अयाचित, मितभुक् चान्द्रायण और प्राजापत्यके रूपमें किये जाते हैं ।
५.
वास्तवमें व्रत और उपवास दोनो एक है, अन्तर यह है कि व्रतमें भोजन किया जा सकता है और उपवासमें निराहार रहना पड़ता है ।
इनके कायिकादि तीन भेद है - १. शस्त्राघात, मर्माघात और कार्यहानि आदिजनित हिंसाके त्यागसे 'कायिक, २. सत्य बोलने और प्राणिमात्रमें निर्वैर रहनेसे 'वाचिक' और ३. मनको शान्त रखनेकी दृढ़तासे 'मानसिक' व्रत होता है ।
६.
पुण्यसंचयके एकादशी आदि 'नित्य' व्रत, पापक्षयके चान्द्रायणादि 'नैमित्तिक' व्रत और सुख-सौभाग्यादिके वटसावित्री आदि 'काम्य' व्रत माने गये हैं । इनमे द्रव्यविशेषके भोजन और पूजनादिकी साधनाके द्वारा साध्य व्रत 'प्रवृत्तिरूप' होते है और केवल उपवासदि करनेके द्वारा साध्य व्रत 'निवृत्तरूप' है । इनका यथोचित उपयोग फल देता है ।
७.
एकभुक्त व्रतके - स्वतन्त्र, अन्याङ्ग और प्रतिनिधि तीन भेद हैं ।
१. दिनार्ध व्यतीत होनेपर 'स्वतन्त्र' एकभुक्त होता है,
२. मध्याह्नमे 'अन्याङ्ग' किया जाता है और
३. 'प्रतिनिधि' आगे-पीछे भी हो सकता है ।
८.
'नक्तव्रत' रातमें किया जाता है । उसमें यह विशेषता है कि गृहस्थ रात्रि होनेपर उस व्रतकों करें और संन्यासी तथा विधवा सूर्य रहते हुए ।
९.
'अयाचित व्रत' में बिना मांगे जो कुछ मिले उसीको निषेध काल बचाकर दिन या रातमें जब अवसर हो तभी (केवल एक बार) भोजन करे और 'मितभुक्‌ में प्रतिदिन दस ग्रास ( या एक नियत प्रमाणका) भोजन करे । अयाचित और मितभुक् दोनों व्रत परम सिद्धि देनेवाले है ।
१०.
चन्द्रकी प्रसन्नता, चन्द्रलोककी प्राप्ति अथवा पापादिकी निवृत्तिके लिये 'चान्द्रायण' व्रत किया जाता है । यह चन्द्रकलाके समान बढ़ता है और घटता है । जैसे शुक्लपक्षकी प्रतिपदाको एक, द्वितीयाको दो और तृतीयाको तीन, इस क्रमसे बढ़ाकर पूर्णिमाको पन्द्रह ग्रास भोजन करे । फिर कृष्णपक्षकी प्रतिपदाओ चौदह, द्वितीयाको तेरह और तृतीयाको बारहके उत्क्रमसे घटाकर चतुर्दशीको एक और अमावास्याको निराहार रहनेसे एक चान्द्रायण होता है । यह 'यवमध्य' चान्द्रायण है । ( क्योंकि जैसे जौ आदि-अन्तमें पतला और मध्यमें मोटा होता है, उसी प्रकार एक ग्राससे आरम्भ कर पंद्रह ग्रास बीचमें कर पुनः घटाते हुए एक ग्रासपर समाप्त होता है । यवमध्य चान्द्रायण बराबर किसी मासकी शुक्ल प्रतिपदासे ही शुरू किया जाता है ।)
इसका दूसरा प्रकार है-
११.
शुक्लपक्षकी प्रतिपदाको चौदह, द्वितीया को तेरह और तृतीयाको बारहके उत्क्रमसे घटाकर पूर्णिमाको एकौर कृष्णपक्षकी प्रतिपदाको एक द्वितीयाको दो और तृतीयाको तीनके क्रमसे बढ़ाकर चतुर्दशीको चौदह ग्रास भोजन करे और अमावास्याको निराहार रहे । यह दूसरा चान्द्रायण है । इसके 'पिपिलिकातनु' चान्द्रायण कहते है ।
१२.
प्राजापत्य बारह दिनोंमें होता है । उसमें व्रतारम्भके पहले तीन दिनोंमे प्रतिदिन बाईस ग्रास भोजन करे । फिर तीन दिनतक प्रतिदिन छब्बीस ग्रास भोजन करे । उसके बाद तीन दिन आपाचित (पूर्ण पकाया हुआ) अन्न चौबीस ग्रास भोजन करे और फिर तीन दिन सर्वथा निराहार रहे । इस प्रकार बारह दिनमें एक 'प्राजापत्य' होता है । ग्रासका प्रमाण जितना मुहमें आ सके, उतना है ।
१३.
उपर्युक्त व्रत मास, पक्ष, तिथि, वार, नक्षत्र, योग, करण समय और देवपूजासे सहयोग रखते है । यहा-वैशाख, भाद्रपद, कार्तिक और माघके 'मास' व्रत । शुक्ल और कृष्णके 'पक्ष' व्रत । चतुर्थी, एकादशी और अमावास्या आदिकें 'तिथि' व्रत । सूर्य, सोम और भौमादिके 'वार' व्रत । श्रवण, अनुराधा और रोहिणी आदिके 'नक्षत्र' व्रत । व्यतीपातादिके 'योग' व्रत । भद्रा आदिके 'करण' व्रत और गणेश, विष्णु आदिके 'देव' व्रत स्वतन्त्र व्रत है ।
१४.
बुधाष्टमी- सोम, भौम, शनि, त्रयोदशी और भानुसप्तमी आदि 'तिथि-वार' के, चैत्र शुक्ल नवमि भौम, पुष्य मेषार्क और मध्याह्नकी 'रामनवमी' तथा भाद्रपद कृष्णपक्ष अष्टमी बुधवार रोहिणी सिंहार्क और अर्धरात्रिकी 'कृष्णजन्माष्टमी' आदिके सामूहिक व्रत है । कुछ व्रत ऐसे है, जिनमें उपर्युक्त तिथि-वारादिके विभिन्न सहयोग यदा-कदा प्राप्त होते है ।
तिथ्यादिका निर्णय
१५.
उदयस्तथा तिथिर्या हि न भवेद् दिनमध्यगा ।
सा खण्डा न व्रतानां स्यादारम्भश्च समापनम् ॥ (हेमाद्रि व्रतखण्ड सत्यव्रत)
खखण्डव्यापिमार्तण्डा यद्यखण्डा भवेत् तिथिः ।
व्रतप्रारम्भनं तस्यामनस्तगुरुशुक्रयुक ॥ (हेमाद्रि वृद्ध वसिष्ठ)
कर्मणो यस्य यः कालस्तत्कालव्यापिनी तिथिः ।
तया कर्माणि कुर्वीत ह्रासवृद्धी न कारणम् ॥ (वृद्ध याज्ञवल्क्य)
सरल भावार्थ - सूर्योदयकी तिथि यदि दोपहरतक न रहे तो वह 'खण्डा' होती है, उसमें व्रतका आरम्भ और समाप्ति दोनों वर्जित
है और सूर्योदयसे सूर्यास्तपर्यंत रहनेवाली तिथि 'अखण्डा' होती है । यदि गुरु और शुक्र अस्त न हुए हों तो उसमें व्रतका
आरम्भ अच्छा है । जिस व्रतसम्बन्धी कर्मके लिये शास्त्रोंमें जो समय नियत है, उस समय यदि व्रतकी तिथि मौजूद हो तो
उसी दिन उस तिथिके द्वारा व्रतसम्बन्धी कार्य ठीक समयपर करना चाहिये । तिथिका क्षय और वृद्धि व्रतका निश्चय करनेमें
कारण नहीं है ।
१६.
या तिथिऋक्षसंयुक्ता या च योगेन नारद ।
मुहूर्त्तत्रयमात्रापि सापि सर्वा प्रशस्यते ॥ (गोभिल)
पारणे मरणे नृणां तिथिस्तात्कालिकी स्मृता ॥ (नारदीय)
यां तिथिम समनुप्राप्य उदयं याति भास्करः ।
सा तिथिः सकला ज्ञेया स्नानदानजपादिषु ॥ (देवल)
पूर्वाह्णो वै देवानां मध्याह्नो मनुष्याणामपराह्णः पितृणाम् ॥ (श्रुति)
सरल भावार्थ - जो तिथि व्रतके लिये आवश्यक नक्षत्र और योगसे युक्त हो, वह यदि तीन मुहूर्त हो तो वह भी श्रेष्ठ होती है ।
जन्म और मरणमें तथा व्रतादिकी पारणामें तात्कालिक तिथि ग्राह्य है; किंतु बहुत-से व्रतोंकी पारणामें विशेष निर्णय किया जाता
है, वह यथास्थान दिया है । जिस तितिमें सूर्य उदय या अस्त हो, वह तिथि स्नान-दान जपादिमें सम्पूर्ण उपयोगी होती है ।
पूर्वाह्ण देवोंका, मध्याह्न मनुष्योंका और अपराह्ण पितरोंका समय है । जिसका जो समय हो, उसका पूजनादि कर्म उसी समयमें
करना चाहिये ।
१८.
पूर्वाह्णः प्रथमं सार्धं मध्याह्नः प्रहरं तथा ।
आतृतीयादपराह्णः सायाह्नश्च ततः परम् ॥ (गोभिल)
सरल भावार्थ - आजके सूर्योदयसे कलके सूर्योदयतक एक दिन होता है । उसके दिन और रात्रि दो भाग है । पहले भाग (दिन)
में प्रातःसंध्या और मध्याह्नसंध्या तथा दूसरे बाग (रात्रि) में सायाह्न और निशीथ है । इनके अतिरिक्त पूर्वाह्ण, मध्याह्न, अपराह्ण
और सायाह्नरूपमें चार भाग माने है । व्यासजीने दिनभरकें पाँच भाग निश्चित किये है
१९. सूर्योदयसे तीन-तीन मुहूर्त्तके प्रातःकाल, संगव, मध्याह्न, अपराह्ण और सायाह्न- ये पाँच भाग है । त्रिशद्‌घटी प्रमाणके दिनमानका पंद्रहवा हिस्सा एक मुहूर्त होता है । यदि दिनमान ३४ घड़िके हों, तो सवा दो और २६ के हों, तो पौने दोका मुहूर्त्त होता है । निर्णयमें मुहूर्त्त और उपर्युक्त दिनविभाग आवश्यक होते है ।
२०. प्रदोषोऽस्तमयादूर्ध्वं घटिकाद्वयमिष्यते । (तिथ्यादि तत्त्वम्)
पूर्वाह्णो दैविकः कालो मध्याह्नश्चापि मानुषः ।
अपराह्णः पितृणां तु सायाहो राक्षसः स्मृतः ॥ (व्यास)
सरल भावार्थ - प्रदोषकाल सूर्यास्तके बाद दो घड़ीतक माना गया है और उषःकाल सूर्योदयसे पहले रहता है ।
व्रत परिचय तथा नियम - http://m.transliteral.org/pages/z71212015438/view

पं मंगलेश्वर त्रिपाठी
से.1वाशी नवी मुम्बई
8828347830 

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