मनुष्य आमतौर पर नींद, बेहोशी या आधे अधूरे जागृत रूप मे ही काम करता है। स्वयं वह क्या है, जो कर रहा है, वह किसलिए कर रहा है और किसकी प्रेरणा या शक्ति से कर रहा है, इस जानकारी के बिना ही वह सब कुछ करता रहता है।और इसी में जीवन पूरा हो जाता है। हम अपनी आदतों, मान्यताओं, रुढ़ियों और रीतिरिवाजों से प्रेरित होकर ही काम करते हैं। इसके लिए हमारे पास ऐसी दिव्य दृष्टि होनी चाहिए जो निम्न प्रकृति और दिव्य प्रकृति का अंतर पहचान सकें।इसके अलावा दिव्य कर्मों के कर्ता के लिए आत्मविश्वास, हिम्मत, लगन दृढ़ संकल्प शक्ति आदि गुणों की आवश्यकता होती है। प्रभु के विश्वासपात्र सेवक बनने के लिए इतनी पात्रता तो चाहिए ही। श्रीअरविंद अपनी पुस्तक मां में बताते हैं कि श्रद्धा दिल की सच्चाई और अभीप्सा को तीव्र बनाए तभी सार्थक और शुद्ध है।श्रद्धा को दृढ़ बनाने के लिए साधक जो आज नहीं कर सकते, वह परमतत्व में दृढ़ होते ही वह सभी कर्म और भाव आने लगेंगे जो अभी स्वप्न की तरह हैं। ऐसी श्रद्धा के साथ समर्पित होकर लगन काम करते रहना ही जीवन को धन्य बना देता है।इस प्रकार काम करते करते ही चेतना का विकास होने लगता है। अंतर में प्रभु के साथ संबंध गहन होता जाता है। इस के बाद तो प्रभु के कृपापात्र होने का भाव भी नहीं रहता। लेकिन उसका ही अंश होने की अनुभूति जरूर होगी। और यह सिद्धि की सीमा है। तुम्हारी समस्या, विचार, दृष्टि, क्रिया और श्वास प्रश्वास सभी तो उसका ही बन जाएगा।
पं मंगलेश्वर त्रिपाठी
से.1वाशी नवी मुम्बई
8828347830
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