Friday, October 9, 2015

|| भगवान् श्रीकृष्ण का प्राकट्य ||


दशक ३८
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भगवान् श्रीकृष्ण का प्राकट्य
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आनन्दरूप भगवन्नयि तेऽवतारे
प्राप्ते प्रदीप्तभवदङ्गनिरीयमाणै: ।
कान्तिव्रजैरिव घनाघनमण्डलैर्द्या-
मावृण्वती विरुरुचे किल वर्षवेला ॥१॥
हे भगवन! आनन्दस्वरूप आपके अवतार का समय प्रस्तुत होने पर, आपके उज्ज्वल अङ्गों की प्रकाश किरणों से प्रदीप्त घनघोर घटाओं से आकाश को आच्छादित करती हुई वर्षा ऋतु अत्यन्त शोभायमान हो रही थी।
आशासु शीतलतरासु पयोदतोयै-
राशासिताप्तिविवशेषु च सज्जनेषु ।
नैशाकरोदयविधौ निशि मध्यमायां
क्लेशापहस्त्रिजगतां त्वमिहाविरासी: ॥२॥
सभी दिशाएं के वर्षा जल से सुशीतल हो गईं। सज्जनों को अपनी मनोकामना पूर्ण होने का अहसास होने लगा और वे हर्षित हो उठे। मध्य रात्रि में, चन्द्रमा के उदित होने के समान, त्रिजगत के क्लेशों का नाश करने वाले आप इस धरा पर अवतरित हुए।
बाल्यस्पृशाऽपि वपुषा दधुषा विभूती-
रुद्यत्किरीटकटकाङ्गदहारभासा ।
शङ्खारिवारिजगदापरिभासितेन
मेघासितेन परिलेसिथ सूतिगेहे ॥३॥
देह से बाल भाव में भी आप अपनी विभूतियों को धारण किये हुए थे। उद्दीप्त किरीट ,करघनी बाजूबन्द और सुन्दर हार से सुसज्जित, शङ्ख, चक्र गदा और पद्म लिये हुए, प्रभा युक्त मेघों के समान श्यामल कान्ति वाले आप, सूतिका गृह में सुशोभित हुए।
वक्ष:स्थलीसुखनिलीनविलासिलक्ष्मी-
मन्दाक्षलक्षितकटाक्षविमोक्षभेदै: ।
तन्मन्दिरस्य खलकंसकृतामलक्ष्मी-
मुन्मार्जयन्निव विरेजिथ वासुदेव ॥४॥
विलासिनी लक्ष्मी आपके वक्षस्थल पर सुखपूर्वक विराजमान थीं और अपने मनोहारी नेत्रों से इङ्गित कटाक्ष करते हुए दुष्ट कंश के द्वारा अमंगलकारी बनाये हुए सूतिका भवन का मानो परिमार्जन कर रही थीं। हे वासुदेव! ऐसी उन लक्ष्मी के संग आप विराजमान हुए।
शौरिस्तु धीरमुनिमण्डलचेतसोऽपि
दूरस्थितं वपुरुदीक्ष्य निजेक्षणाभ्याम् ॥
आनन्दवाष्पपुलकोद्गमगद्गदार्द्र-
स्तुष्टाव दृष्टिमकरन्दरसं भवन्तम् ॥५॥
धीर मुनिमण्डल के चित्त से भी दूर रहने वाले, नयनों के लिये मकरन्दरस स्वरूप आपको, वसुदेव ने अपने नेत्रों से देखा और पुलकित होते हुए आनन्द अश्रुओं से भीगी गद गद वाणी से आपका स्तवन किया।
देव प्रसीद परपूरुष तापवल्ली-
निर्लूनदात्रसमनेत्रकलाविलासिन् ।
खेदानपाकुरु कृपागुरुभि: कटाक्षै-
रित्यादि तेन मुदितेन चिरं नुतोऽभू: ॥६॥
हे देव! प्रसन्न हों। हे परम पुरुष! सन्तापों की लता को काट डालने वाली तीक्ष्ण तलवार के समान नेत्रों की क्रीडाओं के विलासी! अपने कृपापूर्ण गम्भीर कटाक्षों से कष्टों को दूर हटावें। वसुदेव इस प्रकार हर्षोल्लास सहित दीर्घ समय तक स्तुति करते रहे।
मात्रा च नेत्रसलिलास्तृतगात्रवल्या
स्तोत्रैरभिष्टुतगुण: करुणालयस्त्वम् ।
प्राचीनजन्मयुगलं प्रतिबोध्य ताभ्यां
मातुर्गिरा दधिथ मानुषबालवेषम् ॥७॥
और माता ने भी, जिनकी कृष देह लता उनके नेत्रों से बहने वाले अश्रुओं से आप्लावित थी, आपके गुणों की स्तुति की। हे दयानिधान! आपने उन दोनों को उनके दो पूर्व जन्मों की याद दिलाई। तदुपरान्त माता के कहने पर आपने मानवीय बाल रूप धारण कर लिया।
त्वत्प्रेरितस्तदनु नन्दतनूजया ते
व्यत्यासमारचयितुं स हि शूरसूनु: ।
त्वां हस्तयोरधृत चित्तविधार्यमार्यै-
रम्भोरुहस्थकलहंसकिशोररम्यम् ॥८॥
आपकी ही प्रेरणा से, तत्पश्चात, नन्द की पुत्री से आपकी अदला- बदली को कार्यान्वित करने के लिये ही उन शूर पुत्र वसुदेव ने आपको अपने हाथों में ले लिया। उस समय आप, जो केवल योग्य साधुओं के द्वारा ही चित्त में धारण किए जाते हैं, कमल पर स्थित सुन्दर नव किशोर कलहंस के समान मनोहर लग रहे थे।
जाता तदा पशुपसद्मनि योगनिद्रा ।
निद्राविमुद्रितमथाकृत पौरलोकम् ।
त्वत्प्रेरणात् किमिव चित्रमचेतनैर्यद्-
द्वारै: स्वयं व्यघटि सङ्घटितै: सुगाढम् ॥९॥
उस समय नन्द गोप के घर में योग निद्रा ने जन्म लिया। आपकी ही प्रेरणा से पुरवासी गण घोर निद्रा से अभिभूत हो गये। और इसमें क्या आश्चर्य है कि सुदृढ रूप से बन्द निर्जीव द्वार भी स्वत: खुल गये।
शेषेण भूरिफणवारितवारिणाऽथ
स्वैरं प्रदर्शितपथो मणिदीपितेन ।
त्वां धारयन् स खलु धन्यतम: प्रतस्थे
सोऽयं त्वमीश मम नाशय रोगवेगान् ॥१०॥
शेष नाग के सहस्र फणों के द्वारा रोके गये जल से सुरक्षित और शेष नाग के फणों की मणि से आलोकित एवं प्रदर्शित मार्ग पर धन्य शिरोमणि वसुदेव ने आपको ले कर प्रस्थान किया। हे ईश्वर! वही आप मेरे रोगों के वेग का नाश कीजिये।
              –रमेशप्रसाद शुक्ल
              –जय श्रीमन्नारायण।

पं मंगलेश्वर त्रिपाठी
से.1वाशी नवी मुम्बई
  8828347830  

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