Wednesday, December 30, 2015

मनुष्य योनि में सबसे निकृष्ट

धर्म के विपरीत चलने वाला हर व्यक्ति निकृष्ट है और उसीकी 'चाण्डाल'-संज्ञा है। यथोक्तं च — "ब्रह्महा हेमहारी च गुरुपत्नीतल्पगः — त्रयः चांडाल योनिषु।" फिर भी निकृष्टता यानि अधमता की पराकाष्ठा चाण्डाल संज्ञा से भी संतृप्त नहीं होती। वस्तुतः, चाण्डाल तो कर्म से पतित मात्र होने से भी अभिहित हो जाता है, जैसे राजा वेन या सत्यव्रत (त्रिशंकु) को होना पड़ा,जबकि ये कुलीन थे। परंतु उस व्यक्ति को क्या कहेंगे, जिसकी सैकड़ों पीढ़ियाँ ज्ञान और संस्कार से परिचित ही न हों। ऐसा व्यक्ति तो अविद्या के परम-मूल में स्थित नितान्त पशु-धर्मा ही होगा, अर्थात् मनुष्य के रूपमें जड़ता, तामसिकता, संकीर्णता, स्वच्छंदता, उग्रतम रौद्रता तथा हिंसा का एक समष्टिभूत प्राणी। अभी ऐसा प्राणी पैदा तो नहीं हुआ है, लेकिन यदि जावा-मनुष्य पैदा हुआ है तो शिक्षा के पूर्ण लोप से वह पुनः जन्म ले सकता है। यह प्रकरण विष्णु-पुराण के प्रथम अंश के किसी प्रारम्भिक अध्याय में धर्म के लोप के दृष्टान्त रूपमें आया है। वहाँ छः-सात श्लोक इसी विषयमें निबद्ध हैं।

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