आशा का चक्रव्युह
यह सही है कि आशा जीवनी-शक्ति प्रदान करती है और मनुष्य को प्रेरित करती है, लेकिन इसका दूसरा पक्ष यह भी है कि आशा और कामना की एक कड़ी पार करते ही मनुष्य अनंत आशाओं के चक्रव्यूह में फंसता चला जाता है। प्रत्येक मनुष्य धन कमाना चाहता है। मनुष्य की चाह का कोई अंत नहीं है। कामना और वासना दो ऐसे मनोवेग हैं, जो कभी पूरे नहीं होते। आज तक धन की कामना और वासना की पूर्ति से कभी कोई संतुष्ट नहीं हुआ। सुख की खोज में भटकते-भटकते मनुष्य अंत में दुख प्राप्त करके घर लौटता है। आज हमारे समाज में इतने दुखी, अशांत, चिंताग्रस्त और बीमार लोग इसलिए दिखाई पड़ रहे हैं क्योंकि वे अपनी कामनाओं को पूरा नहीं कर सके। आम तौर पर पहली सफलता मिलते ही मनुष्य अहंकारी बन जाता है और वह चाहता है कि उसे सब कुछ प्राप्त हो जाए जो वह चाहता है। जब इसमें उसे सफलता नहीं मिलती तो वह आक्रामक हो जाता है, आहत हो जाता है और हीन भावना से ग्रस्त हो जाता है। हीन भावना से ग्रस्त लोग ही विध्वंसक होते हैं। आशावादी होना अच्छा है, लेकिन आशा जब परवान चढ़ने लगे, आशा जब समुद्र की लहरों की तरह अनंत बन जाए, तो जीवन के लिए खतरनाक बन सकती है। आज प्रत्येक परिवार में इतना कलह, इतना विषाद इसलिए है क्योंकि परिवार के प्रत्येक सदस्य अपने-अपने अहंकार की पूर्ति की आशा में बैठे हैं। जहां इस आशा की पूर्ति में थोड़ा अवरोध पैदा हुआ कि झगड़े शुरू हो जाते हैं। आज परिवार इसलिए विघटित हो रहे हैं, क्योंकि लोग अपनी आशाओं की पूर्ति के लिए अहंकार के घोड़े पर सवार हैं।
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