Monday, December 21, 2015

||महासृष्टि-समुच्चय-भेद का रहस्य ||


     

[11/12/2015/08:32Hr.] SKMishra.shoaqh: 

महासृष्टि-समुच्चय-भेद का रहस्य
                                 (प्रथम भाग)
                           1.सृष्टि का सौर-सिद्धान्त :
बृहदारण्यक उपनिषद(१/२/१-३) के अनुसार, यह सकल-समग्र सृष्टि शुद्ध और अशुद्ध -भेद से दो प्रकार की होती है, जैसे- १.अर्क सृष्टि व २.मैथुनी सृष्टि। अर्क का तेज ही वायु और प्राण-तत्त्वों में विभाजित हुआ, जिसे शाश्वत-सृष्टि कहा जाता है, यही अर्क-सृष्टि शुद्ध होती है। अर्क(आदित्य) से संवत्सर कीउत्पत्ति हुई। संवत्सर एवं वाक् से व्युष्टि(मिथुन) प्रक्रिया द्वारा नश्वरशील मैथुनी सृष्टि हुई, अतः यह अशुद्ध कही जाती है। जैसा कि सर्व-विदित है कि इस सृष्टि के तीन क्रियात्मक आधार हैं - १.पिण्ड, २.अग्नि तथा ३.काल। परंतु इनकी सक्रियता का कारक-तत्त्व है 'चैतन्य'। पिण्ड का ही मूल है 'प्राण-तत्त्व' और प्राण का भी मूल-तत्त्व है 'सत्'। चैतन्यांश ही चिदंश है। इसप्रकार सत् और चित् का कालाऽधीन संयोग ही आनन्द का अप्राकृत-जगत् सृजित करता है और प्रथमतः शब्द का प्रादुर्भाव होता है। अतः सच्चिदानन्द-घन ही स्वरूप-लक्षण कहलाता है और इसीके बहिर्विलास के रूप में आवेश के संयोग से महावैष्णवी यानि प्राकृत-सोपानीय सृष्टि का प्रादुर्भाव आरम्भ होता है तथा परमाणु-सृष्टि का शुभारम्भ होता है।अस्तु,
        वैदिक सृष्टि-विज्ञान के अनुसार, दशकला-विशिष्ट 'वैश्वानर' को ही विराट्-पुरुष कहते हैं, जिनका उल्लेख 'पुरुष सूक्त' में किया गया है। सूर्य्य का इसी वैश्वानर से सम्बन्ध है, क्योंकि जैमिनीय ब्राह्मण के अनुसार, अग्नि-त्रय की समष्टि ही वैश्वानर है तथा सूर्य्य अग्नि का पिण्ड है। इस विषय पर स्वामी रणछोड़ दास 'उद्धव'जी (कल्याण-५३) का आलेख बहुत ही सार-गर्भित है, जिसके अनुसार, "पार्थिव अग्नि में, सूर्य्य के तेजोमय वीर्य्य के भिन्न-भिन्न अनुपात में आहुति के कारण, विश्व में अचेतन, अर्द्ध-चेतन एवं चेतन -- यह तीन प्रकार की सृष्टि होती है।
१.अचेतन सृष्टि :—
        जब पृथ्वी के वैश्वानर-अग्नि में, ज्ञान-प्रधान सूर्य्य का तेजोमय वीर्य्य अल्प-मात्रा में आहुत होता है, तो अर्थ-प्रधान अचेतन-सृष्टि होती है, जिसे धातु-सृष्टि भी कहते हैं। इसमें पृथ्वी-तत्त्व की विशेषता होती है, अतः पार्थिव भाग की प्रबलता के कारण, सूर्य्य का उपरोक्त अल्प-मात्र तेज द्रवित हो जाता है। इसप्रकार जैसे इसमें सूर्य्य का ज्ञानभाग द्रवित रहता है, उसी प्रकार अंतरिक्ष का 'वायु-भाग' अर्थात् 'क्रिया भाग' भी द्रवित रहता है। इसलिए ज्ञान और क्रिया के विलोपत्त्व के कारण इस अचेतन सृष्टि में वृद्धि नहीं हुआ करती। इसके अन्तर्गत धातु, रत्न, काँच, शिला, मृत्तिका(मिट्टी), गंधक, इत्यादि आते हैं।
         चूँकि इस सृष्टि की 'अग्नीषोमात्मकं जगत्' के रूप में परिभाषा है, अतः यहाँ सोम-तत्त्व की भूमिका भी विचारणीय है। सोम-रूप 'रयि' ही  आगे-आगे होने वाले संकोच से मूर्च्छित होती हुई 'मूर्त्ति' यानि पिण्ड का रूप धारण करती है। इसप्रकार मूर्च्छित सोम ही 'मूर्त्ति' है और यह मूर्त्ति अर्थ-प्रधाना अर्थात् द्रव्य-प्रधाना है। यही अचेतन सृष्टि असंज्ञ, एकात्मक कही जाती है। इसमें 'वाक्' वाले वैश्वानरात्मा की प्रधानता होती है तथा अन्य दोनों - तैजस् एवं प्राज्ञ का विलोपत्त्व होता है। जब मूर्त्ति स्वरूप का आधार है और सोम मूर्त्ति का। पुनरपि, सोम का सम्बन्ध विष्णु से है। अतः इस अचेतन धातु-सृष्टि का सम्बन्ध वैश्वानर को अपने गर्भ में धारण करने वाले सोम से है और उसीप्रकार इस अर्थमयी अचेतन धातु-सृष्टि का सम्बन्ध विष्णु से भी है।
२.अर्द्ध-चेतन सृष्टि :—
        यह द्वितीय प्रकार की सृष्टि है, जिसमें ज्ञान-प्रधान सूर्य्य का तेजोमय वीर्य्य पूर्व से अधिक मात्रा में आंतरिक्ष्य-वायु भाग से मिलकर पार्थिव वैश्वानर अग्नि में आहुत होता है। इसमें सूर्य्य का ज्ञानभाग तथा वायु का क्रियाभाग, यह दोनों पृथिवी के अर्थभाग से संयुक्त होते हैं, किंतु ज्ञानभाग आंतरिक्ष्य वायुभाग (क्रिया-भाग) से द्रवित रहता है। अर्थात् इस सृष्टि में ज्ञान अर्द्ध विकसित होता है, क्रिया-भाग और अर्थ-भाग का प्राबल्य रहता है। ऐसे जीवों पर पृथ्वी का पूर्ण आकर्षण रहने के कारण यह स्थावर होते हैं और क्रिया-प्रधानता के कारण स्वरूप-गत दैर्घ्य तथा आयतन में वृद्धि व विस्तार करते हैं। परंतु इनमें स्थानान्तरीय गति नहीं होती। इसे मूल-सृष्टि कहते हैं, जिसके जीवों को पादप कहते हैं। मूलरूपी पाद ही इनके पालक हैं, जो पृथ्वी से रस शोषण करके इनके स्वरूप और सत्ता की रक्षा करते हैं। गमन-शक्ति या गमन-तंत्र के अभाव में इसे 'अपाद-सृष्टि' भी कहते हैं। यह भू-पिण्ड को छोड़ नहीं सकते। इसमें वैश्वानर व तैजस् --इन दो भूतात्माओं की सिद्धि सम्पन्न हो जाती है। यहाँ त्वचा का आद्य विकास होता है, जिससे अनुभूति प्राप्त होती है। इनका ज्ञान मनुष्य की सुप्तावस्थ-ज्ञान के तुल्य होता है। इस सृष्टि में गुल्म, लता, तृण, वीरुत् तथा वृक्ष आते हैं। यह अचेतन से उन्नत होते है। इनके प्रादुर्भाव के लिए काल तथा प्रकृति की अनुकूलता आवश्यक होती है, अतः इनका सृजन सर्व-प्रथम नहीं हो पाता।
३.चेतन सृष्टि :—
        यह सर्वोत्कृष्ट सृष्टि कही जाती है। इसमें ज्ञान, क्रिया,अर्थ -- यह तीनों भाग विकसित होते हैं। अर्थात् इसमें वैश्वानर, तैजस् एवं प्राज्ञ — यह तीनों भाग संश्लिष्ट होते हैं। प्रज्ञा-भाग के संश्लिष्ट होते ही चेतन जाग्रत हो जाता है, सुषुुप्ति दूर हो जाती है और इंद्रियों का विकास होने लगता है। यही सृष्टि ससंज्ञ जैव तथा त्रयात्म-विशिष्ट कही जाती है। कृमि की प्रथम अवस्था से लेकर मनुष्य तक की जीव-सृष्टि भूतल को आच्छादित कर गमनशील हो जाती है। इसी को सपाद-सृष्टि कहते हैं। सूर्य्य का तेजोमय वीर्य्य सर्वाधिक होने के कारण यह भू-पिण्ड से विच्छिन्न हो जाता है, परंतु तदपि भूमि के आकर्षण से न्यूनरूपेण बँधे रहने के कारण भूपटल पर इतस्ततः चलायमान रहता है। यह सृष्टि योनि-भेद से तीन प्रकार — आप्या, वायव्या तथा सौम्या होती है। आप्य जीवों का जल ही आत्मा है। कृमि, कीट, पशु, पक्षी तथा मनुष्य — इन पाँचों को वायव्य कहते हैं तथा इनका आत्मा वायु है। मनुष्य योनि के मध्य में एक अर्द्ध-मनुष्य की भी सृष्टि है, जिसे 'वानर' कहते हैं। परंतु वानर मनुष्य के पूर्वज नहीं हैं, क्योंकि वानर में नालच्छेद नहीं है, जबकि मनुष्य में है। तीसरे प्रकार के चेतन में सौम्य-सृष्टि है, जिसमें आठ प्रकार के देवता हैं और यह भू-तल से पृथक् है, अतः इसे 'अमूल-सृष्टि' कहते हैं। यथा- "अयं पुरुषः — अमूल उभयतः परिच्छिन्नोऽन्तरिक्षमनुचरति"--(शतपथ० २/१/१३)। अर्थात् चेतन सृष्टि के आदि और अन्त, दोनों में अपाद-सृष्टि ही है तथा सपाद-सृष्टि मध्यवर्त्ती है।
        सृष्टि के रहस्य का उद्घाटन करने में कई वैदिक सिद्धान्त हैं, जिनमें सूर्य्य-रश्मि एवं वर्ण-विज्ञान, कुण्डलीनी विज्ञान इत्यादि अन्यतम है। मन्त्र-विज्ञान के अन्तर्गत शब्द-मातृका विज्ञान तो बहुत ही अलौकिक है तथा गूढ भी है। इसपर भी हम द्वितीय भाग में संक्षिप्त चर्चा कर रहे हैं।


पं मंगलेश्वर त्रिपाठी
से.1वाशी नवी मुम्बई
8828347830  

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