Monday, December 21, 2015

|| महासृष्टि-समुच्चय-भेद का रहस्य ||

     
SKMishra.shoaqh
   महासृष्टि-समुच्चय-भेद का रहस्य   
                                  (द्वितीय भाग)
                      2.सृष्टि का कला-तात्त्विक सिद्धान्त :
        परम-ब्रह्म, पदार्थ का वह अन्तिम अतिपरमाणविक अचिन्त्य गुणातीत अद्वय अप्रमेय तत्त्व है, जिसकी एकमात्र सत्- संज्ञा है चूँकि, यह स्फुल्लिंगों के आकार से भी हजारों गुना ह्रस्व-कण है, अतः इसे निराकार निर्विकल्प अव्यय, अद्वैत कहना ही उचित है। यही वह परम पुरुष ब्रह्म है, जिसे परम नाद-ब्रह्म कहा जाता है। नाद-ब्रह्म इसी परमनाद की पार्थिव-पूर्व सूक्ष्म अवस्था है। इसी की शक्ति को परमाद्या-शक्ति कह कर संतुष्ट हो लिया दाता है। यह नादब्रह्म के भी समस्त गुण-धर्म का मूल आदिम जनक-तत्त्व है। इसप्रकार इसी के वर्ण, कला एवं गुण के विभागशः समग्र भुवनों तथा भाषा की उत्पत्ति होती है।
        'महासाम्य', 'सृष्टि का संकोच', प्रलय, तथा 'उदासीनता' इत्यादि वाक्य स्थान-भेद से विविध-रूप होते हुए भी समानार्थक हैं। सांसारिक परिदृश्य में, एक अज्ञानी प्राणी जब केवल अपने दैहिक कामनाओं की पूर्त्ति हेतु संकुचित हो जाता है, तो उसे स्वार्थी कहा जाता है। जब कोई साधक संसार से विरक्त होकर  तपस्वी हो जाता है तो उसे 'तापस बेष बिसेष उदासी' के भाव से "उदासीन" या सन्यासी कहते हैं। जब कोई पदार्थ किसी दूसरे पदार्थ से अभिक्रिया हेतु असमर्थ होता है, तो उसे अक्रिय (inert) कहते हैं। परंतु जब महाशक्तिमान् तत्त्व विश्व-कल्याण से उदासीन होकर अपने मूल निराकारत्त्व में प्रस्थित होता है तो उसे अद्वैत-ब्रह्म कहने लगते है। जब कि इन सभी दृष्टांतों में सभी कारकों में एक न एक अकर्त्तृत्त्व भाव की ही सत्ता वर्त्तमान है। वस्तुतः जहाँ भी क्रिया का संकोच है, वहाँ किसी न किसी अलौकिक अथवा अज्ञात क्रिया का संचार रहता है, किंतु वह इतर-प्राणी की समझ से बाहर की बात होती है। सांसारिक जीव अपने शयन को जिसप्रकार विश्रान्ति समझते हैं, उसी प्रकार प्रलय को भगवान का शयन- काल मान लेते हैं। किंतु वहाँ तो केवल एक उदासीनता का ही साम्राज्य होता है। अब चाहे उसे मृत्यु या विनाश कहें, चाहे उसे हम 'शयन' कह कर स्वयं को संतुष्ट कर लेवें।
        परम-उदासीनता ही महासाम्य तथा अप्राकृत अव्यक्त अद्वैतत्त्व है। यही वह परम नपुंसकत्त्व है, जहाँ पुरुष-भाव ही अव्यक्त और विलुप्त है। यही सृष्टि की 'सदाख्य' अवस्था है, जो 'सत्यं-शिवं-सुंदरं' से परे तो नहीं, किंतु परममूलमें नित्याऽति-नित्य, निर्विकल्प, निष्कल तथा अनादि शाश्वत-रूप से सतत वर्त्तमान है। यही अविघटित परम-ब्रह्म की वास्तविक अवस्था है। इसे भौतिकवादी अर्थों में क्लीबत्त्व कहते है। वास्तविक दृष्टि-कोण से, 'उदासीनता' वह एकान्त ऐकिक सत्ता है, जहाँ द्वैतत्त्व का ही लोप रहता है। कर्त्तृत्त्व का सामर्थ्य ही भूत-पूर्व अवस्था में रहता है। अर्थात् मशीन का निर्माण ही नहीं हुआ रहता, तो उससे सम्बन्धित कार्य की संकल्पना कैसे की जा सकती है ? सक्रियता के लिए चेतना और चेतना के लिए जागृति आवश्यक है। कार्य के लिए बल, बल के लिए शक्ति, शक्ति के लिए कारक-माध्यम (स्थूल पिण्ड-साधन) यानि उपकरण आवश्यक हैं। यहाँ तो परमाणु ही नहीं इलेक्ट्रॉन, प्रोटॉन की भी सत्ता नहीं रहती। यहाँ पुरुष और प्रकृति की भी सत्ता नहीं रहती। केवल सदंश के अनंत-संख्य कण अनंत अंतरिक्ष के महादेश में विविध प्रजाति के रूप में निश्चल तथा मुक्त बिखरे होते हैं। इन्ही की 'सत्'- संज्ञा है। काल की प्रेरणा से यह सिर्फ संचरणशील होते हैं और काल की ही प्रेरणा से अपने अनुकूल युग्मक से संयुक्त होकर सृष्टि का उन्मेष करते हैं। इन्हे ही सदाख्य 'परमशिव' कहने की वैदिक परम्परा है।
        इसी परम शिव की सक्रियता से 'शब्द' का सर्व-प्रथम आविर्भाव होता है। स्पष्ट है कि किसी भी पदार्थ का सबसे पहला गुण 'शब्द' ही है और पिण्ड का एक-मात्र कारक-तत्त्व है, अद्वैत शिव। अद्वैत शिव भी शब्द-सम्पन्न है तो प्राणि-रूप-शिव भी शब्द-सम्पन्न है। इसीलिए विश्व के हर-पिण्ड की अलग ही आवाज़ होती है। पत्थर में 'खट्', लकड़ी में 'ठक्', लोहा में टनकार, पायल में झनकार...और इसीप्रकार प्राणी और फिर मनुष्य में। तात्पर्य यह कि सभी की अपनी एक विशिष्ट ध्वनि होती है। यही है सृष्टि का आद्य-गुणतत्त्व, 'शब्द'। शब्द का संचार- माध्यम है अन्तरिक्ष यानि शून्य। क्योंकि यह शून्य ही देश-तत्त्व है, जिसमें  निर्वात भी है, वायु भी है और अग्नि, जल, पृथ्वी (ठोस) भी। इन्ही पंच-तन्मात्राओं और पंच-महाभूतों की लीला-वैचित्र्य में ही सिमटी है यह अखिल महासृष्टि। इन्हीं तत्त्वों तथा उनके तत्त्व- विज्ञान की व्याख्या आर्ष आचार्य वृन्द अपनी-अपनी भाषा में कर गये। अनुयायियों ने उस ज्ञान को विविध धर्म और सम्प्रदाय का नाम दे डाला। यह नाम-करण तो सिर्फ स्वार्थ-सिद्धि और प्रसिद्धि के उपलक्ष्य है। कल्याण तो ज्ञान, उपासना (बोध) तथा कर्म के क्रमिक अनुपालन एवं संयमन से होता है।
     18:12:2015/07:05Hr.     — जिस प्रकार 'तत्त्व' से 'अवस्था' का ही निरूपण होता है, उसी प्रकार 'कला' का तात्पर्य भी अवस्था में प्रयुक्त संघटक-तत्त्व के संयोग के अनुपात, अंश या भाग से किया जाता है।
        यदि हम सृष्टि की आदिम पृष्ठ-भूमि पर सृजन की सर्व-प्रारम्भिक क्रिया को संज्ञान करने का प्रयत्न करें तो देखेंगे कि 'सत्यम्' के परम- देशिक तत्त्व-रूप 'महाऽन्तरिक्ष' में परम-द्रव्य-रूप अनन्त-संख्य 'सत्'-स्फुल्लिंगों में, किसी अव्यक्त-शक्ति के स्पन्द से केवल स्थानान्तरीय गति की ही प्रेरणा हुई। अर्थात् सत् में संचरण उत्पन्न होना ही सृष्टि के उन्मेष की घोषणा है। इसी संचरण के फलःस्वरूप सदाख्य तत्त्वों में सामीप्य तथा साहचर्य के परिदृश्य बनते हैं। तब एक सर्वथा नवीन प्रक्रिया 'संयोजन' का आरम्भ होता है। संयोजन के ही विविध पर्याय हैं, जैसे संघटन, संयुग्मन, समिश्रण, सम्मेलन, इत्यादि। इनमें क्रम-बद्धता है और इनसे एक अद्वितीय विलक्षण वैविध्य तथा वैचित्र्य का प्रादुर्भाव होता है। अस्तु,
        सदाख्य तो स्वयं ही अनन्त है, परंतु उससे वैविध्य या वैचित्र्य की उत्पत्ति बिना व्यत्पत्ति के नहीं होती। इसीलिए वह 'एक' 'बहुस्याम' के संकल्प में प्रवृत्त होता है। 'बहु' का तात्पर्य संख्या-वृद्धि ही नहीं, अपितु वैविध्य तथा वैचित्र्य की दृष्टि से, भेद-वृद्धि से भी है। अतः संचरण से साहचर्य बनता है और साहचर्य अनुकूलता प्राप्त होने पर संघटन या संयोजन में प्रवृत्त होता है। अनुकूलता के प्राप्त होने में ही सत्यं के तृतीय स्वरूप 'काल' की भूमिका होती है क्योंकि गति-क्रिया काल के अधीन होती है और यह गति यानि संचरण तबतक निष्फल रहती है, जबतक अनुकूल साहचर्य की प्राप्ति नहीं हो जाती। अनकूलता प्राप्त होते ही संघटन तथा संयोजन के रूप में सृजन क्रिया का शुभारम्भ हो जाता है और 'बहुस्याम' की अभिलाषा संख्यात्मक तथा वैविध्य — दोनों प्रकार से चरिताऽर्थ होने लगती है।
        सृजन के प्रारम्भिक पृष्ठ-भूमि पर एक विलक्षण प्रकृति यह देखने को मिलती है कि एक न तो अपने मूल रूप में रह पाता है और न ही उसमें मूलरूप की ओर प्रत्यावर्त्तन करने की प्रवृत्ति ही बनती है। अर्थात् पिण्ड अतीत को पीछे छोड़ता हुआ, केवल भविष्य की ओर ही अग्रसर रहता है। इसीलिए माना जाता है कि इस सृष्टि में पुनरावृत्ति तो हो सकती है, किंतु प्रत्यावर्त्तन करना केवल एक दिवास्वप्न है। यह सृष्टि शैथिल्य से ही सक्रिय होती है, अतः न्युटन के गतिज-सिद्धान्त के जडत्व-नियम के अनुसार, शैथिल्य की प्रवृत्ति ही प्रत्येक पदार्थ का प्राकृतिक धर्म है। अर्थात् कोई भी पदार्थ स्वयं अपनी अवस्था में परिवर्त्तन नहीं करना चाहता या नहीं कर पाता(Every material body tends to remain at its constant state.)। यही जडत्व का नियम है।
        इसप्रकार हम देखते हैं कि विविधता और शैथिल्य, यह दोनों ही प्रकृति के मूल-लक्षण हैं। चूँकि शब्द ही प्रकृति का आदिम तन्मात्र गुण है, अतः उपरोक्त दोनों लक्षण जगत् के प्रत्येक पिण्ड में 'मनसा-वाचा-कर्मणा निश्चय ही दृष्टि-गोचर होते हैं। इसीलिए कोई भी प्राणी कभी भी संख्यात्मक अनेकता से संतृप्त नहीं होता। उसे वैविध्य तथा वैचित्र्य से परिपूर्ण अनेकता की सतत कामना रहती ही है। यह कामना वाणी और मन पर भी लागू होती है। उदाहरणार्थ, किसी को सतत राम-राम जपना पसंद नहीं होता, लेकिन वह दिन-भर लोगों से बक-बक करने से नहीं थकता। हमारा मन एक विषय में लगातार एकाग्र नहीं रह पाता और सतत विविध विषयों में भ्रमण करने से नहीं ऊबता। नारद भी रत्नाकर के मुख से 'राम'-शब्द नहीं निकलवा सके।
          जब उन्मेष कालिक अनादि अद्वैतत्त्व ही बहुलत्त्व की अभिलाषा में सतत प्रवृत्त रहते हुए एकत्त्व में नहीं रहना चाहता तो जगत् के मध्यवर्त्ती होकर वह एकत्त्व में क्यों रहना चाहेगा। इसीलिए कोई प्राणी अकेला नहीं रहना चाहता। सभी प्राणी समूह-जीवन (colonial habitation) को ही पसंद करते हैं। अनेकत्त्व का स्वभाव प्राणी की मानसिकता को ही नहीं, अपितु उसके वाचन और व्यवहार में भी परिलक्षित होता है। जैसे-जैसे उत्कृष्ट प्राणियों की उत्पत्ति होती चलती है, जटिल व्यवहार में समर्थ प्राणियों का प्रादुर्भाव भी होता चलता है। इसकी प्रेरणा भी उसे प्रकृति से मिलती है। प्रकृति एक शब्द-कारक जीव के साथ द्विशब्द-कारक जीव भी उत्पन्न करती है। अन्ततः वह मनुष्य को उत्पन्न करती है, जो समस्त शब्दों को सँजो कर एक वैखरी भाषा का निर्माण करता है, जिससे समस्त भावों की वाचिक अभिव्यक्ति करने में वह समर्थ होता है। यही कारण है कि अखिल सृष्टि एकता से अनेकता के साथ-साथ सरलता से जटिलता और सहजता से विविधता की ओर क्रमशः अग्रसर होती प्रतीत होती है। अक्सर हम ऐसे लोगों से दो-चार होते हैं, जो कि 'नीला' को 'लीला', 'बक्सा' को 'बस्का', 'रिक्शा' को 'रेस्का' और 'विभीषण' को 'भभीषड़' कहते हैं। इससे स्पष्ट है कि जीवन का प्रारम्भ सरलता से ही होता है। उदाहरणाऽर्थ, बालक पहले तुतला कर बोलता है, लेकिन बाद में अभ्यास से वह शुद्ध बोलने लगता है। यही वह प्राकृतिक सिद्धान्त है, जिसे कहते हैं कि अविद्या की धरातल पर ही विद्या का अभ्युदय होता है। इसीका दृष्टान्त हैं महर्षि वाल्मीकि। रत्नाकर के रूप में वह 'राम'-शब्द तक बोल पाने में असमर्थ थे। नारद इस रहस्य को बखूबी जानते थे। इसीलिए उन्होने 'राम'-नाम का ही मन्त्र दिया। परंतु मूढ़ अज्ञानी व्यक्ति दीर्घान्त पद का ही सरलता से उच्चारण कर पाता है।इसीलिए कविता में किसी भी छंद का अन्त्यानुप्रास दीर्घान्त करने की परम्परा रही है। राम-चरित-मानस में सर्वाधिक दीर्घान्त पदों का ही गोस्वामी जी ने प्रयोग किया है। अस्तु, नारद यह भी जानते थे कि उलटा जपने से भी 'राम'-शब्द की ही सार्थक निष्पत्ति होगी। अतः उन्होंने रत्नाकर को 'मरा-मरा' ही जपने का आदेश दिया और परिणाम सबके सामने है कि "उलटा नाम जपा जग जाना। बालमीक भै सन्त समाना।।" यही रहस्य है कि आज भी गुरुजन दीक्षा में चेला को अधिकतर 'सीता-राम' या 'राम-राम' का मन्त्र प्रदान करते हैं, क्योंकि यह उच्चारण में सबसे सरल पड़ता है।अस्तु,
        उपरोक्त विवेचन में हमने सामान्य जीवन के दृष्टान्तों से सृष्टि-क्रिया की गूढता को सरल करने का प्रयत्न किया है, ताकि प्रस्तुत विषय को सरलता से बोधगम्य बनाया जा सके। तात्पर्य यह कि इस सृष्टि के छोटे से छोटे सोपान में भी अद्वैत ही अनेकता में रूपांतरित होता है। शिव ही रजोधर्मा होकर ब्रह्मा-तत्त्व में सृजकत्त्व गुण से सम्पन्न होता है। अज्ञान ही अभ्युत्थित और संस्कृत होकर ज्ञान रूप में प्रस्फुटित होता है। इस सम्पूर्ण वैश्वीय अभिक्रिया में सर्वत्र संयोजन की क्रिया ही चलती है और अवस्थाओं का रूपान्तरण होता है। परंतु इसके अभ्यंतर में जो विज्ञान क्रियान्वित होता है उसे ही स्थूल रूप में पिण्ड-गुण-संघटन कहा जाता है और गुण को ही कला-तत्त्व कहने की तन्त्रोक्त परम्परा है। जिसे वेदान्त तत्त्व कहता है, उसीको आगम-शास्त्र 'कला' कहते है। परंतु दोनों प्रकार से व्याख्या तो इस अखिल सृष्टि की ही की जाती है। आज का पाश्चात्य-विज्ञान उसी अनादि इकाई को matter कहता है। साधक और योगीजन उसीको ईश्वर, परम ब्रह्म, परम गुरु, सच्चिदानंद-घन, राम, कृष्ण और भी जाने क्या-क्या कहते हैं। अस्तु,
     अब हम शैवागम और शाक्तागम के आधार पर भी सृष्टि की व्याख्या करने का प्रयास करते है। ....(क्रमशः)


पं मंगलेश्वर त्रिपाठी
से.1वाशी नवी मुम्बई
8828347830  

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