Monday, December 21, 2015

|| पराविज्ञान ||


     
पराविज्ञान
एक महानसत्ता जो की अपने आप में अपने आप को समेटी हुई है, जो की अपने आप में पूर्ण है, जो बोध या अबोध को धारण किये हुए है, उसकी की संज्ञा, उसकी का एक निश्चित संबोधन है ‘शब्द’. शब्द अक्षरों का समूह है स्वर और व्यंजन से निर्मित जिसमे बीज निहित है. हर एक बीज का अपना अर्थ है, अपनी शक्ति है. मंत्र विज्ञान का पूर्ण आधार यही तो है. जो की हर एक संगता या विसंगता को स्पष्ट कर सकता है. शब्द द्रश्य रूप में है, हमें द्रश्यता का बोध देता है. एक निश्चित छवि को हमारे सामने साकार करता है. क्यों की वह अपने आप में द्रश्यमान है. शब्द अपने आप में द्रश्यरूप में है. जो जागृत है वह जागृत कर सकता है. लेकिन क्या हो अगर शब्द ही निराकार हो, शून्य हो या अद्रश्य हो. फिर तो बोध तत्व से भी परे है ये. क्यों की कल्पना शक्ति वास्तविकता की पृष्ठभूमि है. और वही वास्तविकता ज्ञान प्रदाता है. और वही ज्ञान ही हमें अज्ञानता से भी साक्षात्कार करता है. ज्ञान की लोलुपता ज्ञान प्राप्ति की तृष्णा की समाप्ति जहाँ पर समाप्त होती है वही से शुरू होती है नूतन ज्ञान की यात्रा. नूतन ज्ञान को प्राप्त करने की तृष्णा. यही तो बोध तत्व है. लेकिन अगर यही बोध तत्व है तो उससे भी ऊपर कुछ होगा. उसके अंत पर भी कोई शुरूआत होगी. ऐसा ही वह ‘कुछ’ क्या है; क्या ज्ञान है जो की ज्ञान से भी परे है.
और यही वह ‘कुछ’ जो की बोध से परे है उसे हमारे पुरातन ऋषिमुनियों ने इसे परा नाम से संबोधित किया है. पाणिणी आदि कई महापुरुषों ने इस शब्द की व्याख्या की है इसी को काल की गति का सूक्ष्मतम एकम कहा है तो कई जगह इसे उच्चतम बोध कई जगह इसे ब्रम्हांड का विस्तृत अर्थ कहा है तो कई जगह उसे अंततः सौंदर्य. तंत्रग्रंथो में परा को उच्चतम क्रिया कहा गया है, जिसका सबंध कई तंत्र महर्षियो ने अलग अलग रूप में निरूपति किया है. कश्मीर शैव सम्प्रदाय के त्रिक शाखा में इस शक्ति के बारे में कहा गया है की परा वह है जो की शब्दों के अंतर का बोध मनुष्य को कराती है और अंत में वह वैखरी नामक शक्ति बन जाती है जो की अपरा का ही एक रूप है. क्यों की शाब्दिक से उच्चतम बोध मानसिक है, यु यह शक्ति परा शब्दों में अभिव्यक्त हो कर अपरा या परा से निचे स्तर पर पहोच जाती है. परमेश्वर की परावाक्शक्ति में ही समस्त शास्त्र है. इसके अर्थ के कई भेद हो सकते है लेकिन यहाँ पर इसे इस प्रकार से समजा जा सकता है की पराशक्ति वह है जिसके वाक् आधार पर शास्त्रों की उपस्थिति है. अर्थात यह वह शक्ति है जो परमेश्वर में निहित है जिसके माध्यम से क्रियाओं का शाब्दिक और अर्थपूर्ण स्पष्टीकरण जो की मानस में एक बोध या चित्रण दे सके, इस प्रकार परम इश्वर जो हमें बोध देते है वह इस शक्ति के माध्यम से होता है. तंत्र क्षेत्र के द्रष्टिकोण से इसे इस प्रकार जोड़ा जा सकता है की संवाद की स्थिति में जब तंत्र ग्रंथो का आलेखन हुआ है, उदहारण के लिए भैरव या भैरवी के संवाद के रूप में जो ज्ञान का प्रस्तुतिकरण शब्दों की अभिव्यक्ति के माध्यम से हुआ और एक नूतन बोध की प्राप्ति संभव हुई वह क्रिया जो की वाक् या शाब्दिक रूप से प्रस्तुत हो कर सम्प्पन हुई उसी गुढ़ क्रिया की आधारभूत देवी है ‘परा’. मालिनीविजयोत्तर तंत्र भी इस शक्ति का इसी रूप में समर्थन करती है. ललितासहस्त्रनाम में भी इस शक्ति के बारे में संकेत मिल जाता है की जो नजदीक है वह अपरा है लेकिन जो दूर है वह परा है. अर्थात जो प्राप्य है या जो बोध है वह अपरा है लेकिन वह जो परे है या कल्पना से दूर है जो सहजता से प्राप्य नहीं है वह परा है. यह शक्ति ज्ञान की अभिव्यक्ति के सबंध में है वस्तुतः इसी लिए आदि तंत्र वाग्मय में तंत्र साहित्य समूहों के निरूपण में आगम के अंतर्गत शिवज्ञान और रूद्रज्ञान आगम में अपराज्ञान और पराज्ञान एक स्वतंत्र रूप से एक शाखा है. कश्मीर शैव सम्प्रदाय में शिव शक्ति और पति ये तिन प्रकार के सिद्धांत को दर्शाया गया है, शिव को चेतना या जागृतअवस्था, शक्ति को तत्व और पति को भौतिकता या अबोधता कहा गया है. इसे ही क्रमशः परापरा, परा और अपरा भी कहा गया है. मतलब की जागृतावस्था से भी आगे उच्चतम तत्व बोध ही परा है. श्रीनित्यतंत्र में भगवान श्रीगौरी को देवी के इस रूप के बारे में बताते है की ज्ञान त्रिस्तरीय है जो की वस्तुतः परा शक्ति की साधना अद्वैत साधना है. यु देवी का यह उच्चतम स्वरुप है जिसमे सब रूप समाहित है. ऐसा ही कथन योगिनी ह्रदय में भी प्राप्त होता है की श्रीयन्त्र की उपासना के आगे जो अद्वैत स्वरुप की साधना है वह परा शक्ति की साधना है. योगशास्त्र में पराशक्ति को ज्ञानशक्ति ही कहा गया है जिसे स्व, स्वनियंत्रण तथा आत्मबोध से प्राप्त किया जाता है. कई तंत्र ग्रंथो में इसे चेतना का स्तर कहा है की स्वप्न से आगे की जो अनुभूति है वह परा है. देवी के इस शक्ति स्वरुप को भगवती त्रिपुर सुंदरी का रूप माना गया है. इस सन्दर्भ में गान्धर्वतंत्र में कथन है की भगवती महात्रिपुरसुंदरी की आराधना त्रिस्तरीय है परा अपरा और परापरा. भगवती की आतंरिक उपासना में वह कुण्डलिनी स्वरुप है तथा बाह्य उपासना में वह श्रीचक्र की शक्ति है. देवी का परा रूप की साधना आतंरिक तथा बाह्य दोनों रूप से सम्मिलित उपासना है. शारदातिलक में भी देवी के इस रूप को बीजाक्षरो की देवी तथा त्रिपुरसुंदरी का रूप माना गया है. यहाँ पर एक बात और विचारणीय है की कई महाशक्तियो के रूप एक से अधिक महाविद्याओ से सबंध रखती है. क्यों की भाव तथा देवी के स्वरुप में त्रिगुण (सत्,रज और तम) के प्रमाण पर उनके विभ्भिन्न स्वरूपों का विश्लेषण किया जाता है. अतः इस प्रकार किसी भी देवी तथा देवता को सम्मिलित करने पर उनके अनेको भेद हो सकते है जो की उनकी आधार शक्ति, गौणशक्ति, मुख्य शक्ति, उनके भाव, तथा उनके त्रिगुण के प्रमाण पर आधारित होता है अतः देवी के इस रूप को महाकाली से सबंधित होने का विवरण भी मिलता है. योगिनीसंचार में ‘अघोरा’ जो की अघोरेश्वर अघोर या स्वछंदभैरव की शक्ति कही गई है यह रूप महाकाली के परा शक्ति का सम्मिलित स्वरुप है. तंत्रलोक में देवी की उपासना के बारे में तंत्राचार्य अभिनवगुप्त ने बाह्यरूप में उपकरणों के साथ क्रिया करने पर तथा आतंरिक रूप से उसे कुण्डलिनी शक्ति मान कर सिद्ध करने के सन्दर्भ में विवरण दिया है. वही चिदगगनचन्द्रिका में देवी के इस स्वरुप के दक्षिण तथा वाम दोनों पक्षों का विश्लेषण किया है. बौद्ध तन्त्रो में भी देवी के इस स्वरुप की उपासना होती है, इस मार्ग में देवी के अपरा, परापरा और परा स्वरुप को क्रमशः आध्यात्मिकसाधन, मनोमयीसाधन तथा गुह्यसाधन की संज्ञा दी गई है. मण्डूकोपनिषद मे महर्षि अंगीरस ने कहा है की ज्ञान दो प्रकार के है अपरा तथा परा. अपरा ज्ञान या अपराविद्या शिक्षा, व्याकरण, ज्योतिष, छंद, चार वेद इत्यादि है मगर अपरा इन सब विद्याओ से आगे का वह ज्ञान है जो की अद्रश्य अक्षर का ज्ञान देता है. अर्थात गुप्त बोध को प्रदान करती है वह विद्या अपरा है. अथ परा यया तद् अक्षरं अधिगम्यते...
पराशक्ति से सबंधित इतने मत होने पर भी सभी में कुछ एक तथ्य बिलकुल साफ़ है, की देवी की यह रूप की उपासना आनातारिक तथा बाध्य दोनों प्रकार से सम्मिलित साधना है तथा यह वह ज्ञान को प्रदान करती है जो की गुप्त, लुप्त या फिर कल्पनातीत है. मनुष्य के ज्ञान की एक निश्चित सीमा होती है जहा से आगे का सारा ज्ञान उसके लिए रहस्य होता है. पुरातन ऋषि मुनियों ने परा विद्या के बारे में एक स्वर में स्विकार किया है की यह विद्या ज्ञान को प्रदान करती है, वह ज्ञान जो गुप्त है. लेकिन यहाँ पर इसका अर्थ समजना चाहिए की क्या है वह गुप्त ज्ञान जिसे शब्द से भी परे की संज्ञा दे दी गई है. वस्तुतः हर एक मनुष्य के ज्ञान का स्तर और इसी के अनुरूप आगे के ज्ञान के लिए कल्पना का स्तर बिलकुल अलग होता है. हो सकता है कोई ऐसा व्यक्ति जो जन्म से जंगल में ही रहा हो और बाहरी दुनिया से उसका कोई संपर्क ना रहा हो उसके लिए एक वाहन का ज्ञान मात्र कल्पना ही है. लेकिन दूसरा व्यक्ति जो बचपन से वाहन आदि के बिच में रहा हो उसके लिए वह एक सामन्य ज्ञान है. ठीक उसी प्रकार जब हम सामन्य ज्ञान की बात करे तो एक निश्चित ज्ञान की सीमा के बाद हमारे पास उसके आगे क्या ज्ञान होता यह भी एक रहस्य है. वही रहस्य ज्ञान ‘परा’ है. और उसी के सिद्धांत है पराविज्ञान. इसी शक्ति का तंत्र पक्ष है परातंत्र. मनुष्य के अंदर के ज्ञान से आगे की जो क्रिया है वह परा है. अपने आतंरिक तथा बाह्य ब्रम्हांड के बारे में जानना उसको समजना तथा उसके लिए जो तांत्रिक विधानों का सहारा लिया जाए वह पराविज्ञानतंत्र है. इसी लिए जो भी गुढ़ है वह परा है, जो भी परे है वह परा है.
आधुनिक विज्ञान की परिभाषा में पराविज्ञान वह शाखा है जो विषय को मुख्य, सहायक या गौण वैज्ञानिक सिद्धांतों के माध्यम से समजा नहीं जा सकता, उस प्रकार के विषय का अभ्यास करना. इस प्रकार जो भी ज्ञान है उससे ऊपर का ज्ञान जो की आधुनिक विज्ञान के माध्यम से समजा नहीं जा सकता वह सब पराविज्ञान के अंतर्गत है.
इस विज्ञान या तंत्र की देवी भगवती त्रिपुरसुंदरी का ही एक रूप परा है.


पं मंगलेश्वर त्रिपाठी
से.1वाशी नवी मुम्बई
8828347830  

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