Friday, October 9, 2015

|| वासुदेव-देवकी विवाह और आकाशवाणी प्रसंग ||


दशक ३७
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( वासुदेव-देवकी विवाह और आकाशवाणी प्रसंग )
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सान्द्रानन्दतनो हरे ननु पुरा दैवासुरे सङ्गरे
त्वत्कृत्ता अपि कर्मशेषवशतो ये ते न याता गतिम् ।
तेषां भूतलजन्मनां दितिभुवां भारेण दूरार्दिता
भूमि: प्राप विरिञ्चमाश्रितपदं देवै: पुरैवागतै: ॥१॥
हे घनीभूत आनन्द स्वरूप भगवन! प्राचीन काल में देवों और असुरों के संग्राम में, आपके द्वारा वध कर दिये जाने पर भी कर्मों के शेष रह जाने के कारण असुरों ने मुक्ति नहीं पाई और फिर से धरती पर जन्म लिया। उनके भार से विक्षिप्त हुई धरती ब्रह्मा के पास पहुंची और उनके चरणों का आश्रय ले कर, वहां पहले से उपस्थित देवों के साथ इस प्रकार प्रार्थना करने लगी –
हा हा दुर्जनभूरिभारमथितां पाथोनिधौ पातुका-
मेतां पालय हन्त मे विवशतां सम्पृच्छ देवानिमान् ।
इत्यादिप्रचुरप्रलापविवशामालोक्य धाता महीं
देवानां वदनानि वीक्ष्य परितो दध्यौ भवन्तं हरे ॥२॥
हाय! हाय! दुष्टों के अतीव भार से मर्दित और समुद्र में मग्न प्राय: मेरी विवशता को इन देवताओं से पूछिये और जानिये।' हे हरि! इस प्रकार विलाप करती हुई और शिथिल हुई धरती और चारों ओर एकत्रित देवताओं के मुखों को देख कर ब्रह्मा आपका ध्यान करने लगे।
ऊचे चाम्बुजभूरमूनयि सुरा: सत्यं धरित्र्या वचो
नन्वस्या भवतां च रक्षणविधौ दक्षो हि लक्ष्मीपति: ।
सर्वे शर्वपुरस्सरा वयमितो गत्वा पयोवारिधिं
नत्वा तं स्तुमहे जवादिति ययु: साकं तवाकेतनम् ॥३॥
कमलजन्मा ब्रह्मा ने कहा कि 'हे देवों निश्चय ही धरती के वचन सत्य हैं। आप लोगों की और इसकी रक्षा के प्रबन्ध में लक्ष्मीपति विष्णु ही समर्थ हैं। हम सब शीघ्र ही शंकर को सामने कर के यहां से क्षीर सागर जा कर उनको नमस्कार कर के उनकी स्तुति करें'। इस प्रकार वे सब एक साथ आपके निकेतन को गये।
ते मुग्धानिलशालिदुग्धजलधेस्तीरं गता: सङ्गता
यावत्त्वत्पदचिन्तनैकमनसस्तावत् स पाथोजभू: ।
त्वद्वाचं हृदये निशम्य सकलानानन्दयन्नूचिवा-
नाख्यात: परमात्मना स्वयमहं वाक्यं तदाकर्ण्यताम् ॥४॥
वे सब मिल कर लुभावनी वायु युक्त क्षीर सागर के तट पर पहुंचे। जब तक वे सब आपके चरणों का एकाग्र मन से ध्यान कर रहे थे, तब तक कमलजन्मा ब्रह्मा ने अपने हृदय में आपकी वाणी को सुना। सभी को आनन्दित करते हुए वे बोले, 'स्वयं परमात्मा ने मुझे जो वचन कहे हैं उन्हें आप सब सुनें।'
जाने दीनदशामहं दिविषदां भूमेश्च भीमैर्नृपै-
स्तत्क्षेपाय भवामि यादवकुले सोऽहं समग्रात्मना ।
देवा वृष्णिकुले भवन्तु कलया देवाङ्गनाश्चावनौ
मत्सेवार्थमिति त्वदीयवचनं पाथोजभूरूचिवान् ॥५॥
'क्रूर राजाओं के कारण उपस्थित स्वर्गवासियों की और पृथ्वी की दीन दशा को मैं जानता हूं। उसका उन्मूलन करने के लिये मैं अपने सम्पूर्ण स्वरूप से प्रकट होऊंगा। देव गण वृष्णि कुल में अपने अपने अंश से पैदा हों और मेरी सेवा के लिये देव पत्नियां भी जन्म लें।' ब्रह्मा ने आपके ये वचन सुनाए।
श्रुत्वा कर्णरसायनं तव वच: सर्वेषु निर्वापित-
स्वान्तेष्वीश गतेषु तावककृपापीयूषतृप्तात्मसु ।
विख्याते मधुरापुरे किल भवत्सान्निध्यपुण्योत्तरे
धन्यां देवकनन्दनामुदवहद्राजा स शूरात्मज: ॥६॥
आपके अमृत तुल्य वचन सुन कर उन सभी के अन्त:करण परिमार्जित हो गये और आपकी अमृत स्वरूप कृपा से तृप्त आत्मा वाले वे सभी चले गये। हे ईश्वर! आपके सान्निध्य से उन्नत हुए पुण्यों वाली प्रसिद्ध मथुरा नगरी में ही देवक की सौभाग्यशालिनी कन्या का राजा शूरसेन के पुत्र वसुदेव ने पाणिग्रहण किया।
उद्वाहावसितौ तदीयसहज: कंसोऽथ सम्मानय-
न्नेतौ सूततया गत: पथि रथे व्योमोत्थया त्वद्गिरा ।
अस्यास्त्वामतिदुष्टमष्टमसुतो हन्तेति हन्तेरित:
सन्त्रासात् स तु हन्तुमन्तिकगतां तन्वीं कृपाणीमधात् ॥७॥
विवाह के सम्पन्न हो जाने पर देवकी के भाई कंस ने दोनों के सम्मान में रथ का सारथीत्व ग्रहण किया। मार्ग में जाते हुए आपकी आकाशवाणी हुई, 'तुझ दुष्ट का, इसका आठवां पुत्र संहार करेगा।' हाय! इस प्रकार कहे जाने पर भयभीत कंस ने पास में स्थित युवती देवकी को मारने के लिये तलवार निकाल ली।
गृह्णानश्चिकुरेषु तां खलमति: शौरेश्चिरं सान्त्वनै-
र्नो मुञ्चन् पुनरात्मजार्पणगिरा प्रीतोऽथ यातो गृहान् ।
आद्यं त्वत्सहजं तथाऽर्पितमपि स्नेहेन नाहन्नसौ
दुष्टानामपि देव पुष्टकरुणा दृष्टा हि धीरेकदा ॥८॥
उस दुष्ट बुद्धि कंस ने वसुदेव के बहुत समय तक सान्त्वना देने पर भी देवकी को नहीं छोडा। तब यह आश्वासन पा कर कि अपने पुत्रों को वसुदेव कंस को अर्पित कर देंगे, वह सन्तुष्ट हो कर घर चला गया। उसी के अनुसार आपके पहले भाई को अर्पित कर देने पर भी कंस ने स्नेहवश उसे नहीं मारा। हे देव! कभी कभी दुष्टों में भी करुणा युक्त बुद्धि देखी जाती है।
तावत्त्वन्मनसैव नारदमुनि: प्रोचे स भोजेश्वरं
यूयं नन्वसुरा: सुराश्च यदवो जानासि किं न प्रभो ।
मायावी स हरिर्भवद्वधकृते भावी सुरप्रार्थना-
दित्याकर्ण्य यदूनदूधुनदसौ शौरेश्च सूनूनहन् ॥९॥
आपकी ही प्रेरणा से नारद मुनि ने उस भोजराज कंस से कहा कि 'हे प्रभो ! आप क्या जानते नहीं हैं कि आप लोग असुर हैं और यादव देव हैं। मायावी हरि देवों की प्रार्थना से आपके संहार के लिये जन्म लेंगे।' ऐसा सुन कर उसने यदुओं को भगा दिया और वसुदेव के पुत्रों को मार दिया।
प्राप्ते सप्तमगर्भतामहिपतौ त्वत्प्रेरणान्मायया
नीते माधव रोहिणीं त्वमपि भो:सच्चित्सुखैकात्मक: ।
देवक्या जठरं विवेशिथ विभो संस्तूयमान: सुरै:
स त्वं कृष्ण विधूय रोगपटलीं भक्तिं परां देहि मे ॥१०॥
देवकी के सातवें गर्भ में आदिशेष के प्राप्त हो जाने पर हे माधव! आपकी प्रेरणा से माया ने उसे रोहिणी के गर्भ में पहुंचा दिया। हे विभो! देवों के द्वारा स्तुति किये जाते हुए आप भी देवकी के गर्भ में प्रवेश कर गये। वे ही हे कृष्ण! आप मेरे रोगों के समूह को नष्ट कर के मुझे परा भक्ति प्रदान करें।
            –रमेशप्रसाद शुक्ल
          –जय श्रीमन्नारायण।

पं मंगलेश्वर त्रिपाठी
से.1वाशी नवी मुम्बई
  8828347830

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